गीता गंगा
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भगवान‍्का मंगल-विधान

प्रिय भाई। सप्रेम राम-राम! तुम्हारा पत्र मिला। भगवान‍्की गति कोई नहीं जान सकता। हम क्या-क्या चाहते हैं, क्या-क्या मनसूबे बाँधते हैं और उनकी इच्छासे क्या हो जाता। उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। इसीसे सूरदासजीने गाया है—

करुनामय हो, तेरी गति लखि न परै।
आगम अगम अगाध अगोचर
केहि बिधि बुधि सचरै॥
अति प्रचंड बल-पौरुषतामें
केहरि भूँख मरै।
अनायास बिन उद्दिम कीयें
अजगर पेट भरै॥
कबहुँक तृन डूबत पानीमें
कबहुँक सिला तरै।
गागरमें सागर करि डारै
चहुँ दिस नीर भरै॥
रीते भरै भरे ढरिकावै
महरि करै तो फेरि भरै।
पाहन बीच कमल परगासै
जलमें अगिन जरै॥
राजा रंक रंकतें राजा
लै सिरछत्र धरै।
सूर पतित तरि जाय छिनकमें
जो प्रभु नैंक ढरै॥

सारे संसारका सर्वविध प्रवर्तन उन्हींके मंगल-विधानसे हो रहा है। वे ही समस्त जीवोंके हृद्देशमें विराजित होकर सबको भ्रमा रहे हैं। अतएव सर्वभावसे उन्हींकी शरण जाना चाहिये। उन्होंने स्वयं कहा है—

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(गीता १८।६२)

‘अर्जुन! सर्वभावसे उस भगवान‍्की ही शरण ग्रहण करो। उनके अनुग्रहसे परम शान्ति और शाश्वत स्थानको प्राप्त होओगे।’

श्रीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं—

जो चेतन कहँ जड़ करइ
जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि
भजहिं जीव ते धन्य॥
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु
अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय
रामहि भजहिं प्रबीन॥

‘जो चेतनको जड और जडको चेतन कर देते हैं, जो जीव ऐसे सर्वशक्तिमान् भगवान् राघवेन्द्रको भजते हैं, वे ही धन्य हैं। प्रभु मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरसे भी हीन बना दे सकते हैं। ऐसा विचारकर सारे सन्देहोंका त्याग करके चतुरलोग भगवान् श्रीरामजीको भजा करते हैं।’

अतएव भैया! भगवान‍्के मंगल-विधानमें सन्तुष्ट रहकर उनका भजन करना चाहिये। संसारमें जो लोग अपने अनुकूल परिस्थितिको प्राप्त करके सुखी होना चाहते हैं, वे कभी सुखी होंगे ही नहीं; क्योंकि संसारमें ऐसी कोई स्थिति है ही नहीं जो पूर्ण हो, जिसमें कोई अभाव न हो; और जहाँ अभाव है वहीं प्रतिकूलता है तथा जहाँ प्रतिकूलता है वहीं दु:ख है। दु:खसे मुक्त तो वे होते हैं, जो सावधानीके साथ अपने कर्तव्यका यथाविधि पालन करते रहते हैं, परंतु प्रत्येक परिस्थितिमें भगवान‍्का मंगलमय विधान देखकर, उनके वरद हस्तके दर्शन कर, उनके मधुर मनोहर करारविन्दका सुख-स्पर्श पाकर आनन्दमग्न होते रहते हैं। शेष भगवत्कृपा।

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