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रामनाम और गाँधीजी

पुराने संस्मरण

(क)

पुरानी बात है—बंबईमें श्रीबालूरामजी ‘रामनामके आढ़तिया’ आये हुए थे। वे लोगोंको नाम-जप करनेका नियम दिलवाते और अपनी बहीमें उनकी सही करवा लेते थे। लाखों सही करवायी होगी उन्होंने। बहियोंके ढेर थे उनके पास। उनकी बहीमें सभी सम्प्रदायों और मतोंके हस्ताक्षर मिलेंगे। यहाँतक कि मुसलमान, ईसाई, पारसी आदिसे भी वे उनके अपने मत और विश्वासके अनुसार प्रतिदिन प्रभु-नाम लेने या प्रभु-प्रार्थना करनेकी प्रतिज्ञा करवाया करते थे। यही उनकी आढ़त थी। उन दिनों पूज्यपाद महामना मालवीयजी महाराज और पूज्य महात्माजी—दोनों ही बंबई पधारे हुए थे। आढ़तियाजीने सेठ जमनालालजीसे तो सही करवा ही ली थी, उन्होंने कहा—‘महात्माजी और श्रीमालवीयजीके पास भी मुझे ले चलो। श्रीजमनालालजीने मुझको बुलवाया और हम तीनों लेबरनम रोडपर महात्माजीके पास गये। सेठजीने आढ़तियाजीका परिचय कराया। बापू बहुत ही प्रसन्न हुए और हँस-हँसकर आढ़तियाजीकी बही देखने और उनकी तारीफ करने लगे। आढ़तियाजीने बही खोलकर सामने रख दी और सही करनेका अनुरोध कया। इसपर महात्माजीने मुसकराकर कहा—‘जब मैं अफ्रीकामें था, तब तो रामनामकी माला बहुत जपा करता था, परंतु अब तो दिन-रात जो कुछ करता हूँ, सब राम-नामके लिये ही करता हूँ, इसलिये मैं खास समय और संख्याके लिये हस्ताक्षर क्यों करूँ?’ आढ़तियाजीको बापूकी बात सुनकर संतोष हुआ। फिर हमलोग राजाबहादुर श्रीगोविन्दलालजी पित्तीके बँगलेपर, जहाँ पूज्य मालवीयजी ठहरे हुए थे, गये। मालवीयजी सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने आढ़तियाजीकी बहीमें लिख दिया—‘मैंने जबसे होश सँभाला, भगवान् का नित्यप्रति स्मरण करता हूँ और जबतक जीऊँगा, करता रहूँगा।’

(ख)

‘कल्याण’ का ‘भगवन्नामांक’ निकलनेवाला था। सेठ जमनालालजीको साथ लेकर मैं बापूके पास गया रामनामपर कुछ लिखवानेके लिये। बापूने हँसकर कहा—‘जमनालालजीको क्यों साथ लाये। क्या मैं इनकी सिफारिश मानकर लिख दूँगा? तुम अकेले ही क्यों नहीं आये?’ सेठजी मुसकराये। मैंने कहा—‘बापूजी! बात तो सच है, मैं इनको इसीलिये साथ लाया कि आप लिख ही दें।’ बापू हँसकर बोले, ‘अच्छा, इस बार माफ करता हूँ, आइंदा ऐसा अविश्वास मत करना।’ फिर कलम उठायी और तुरंत नीचे लिखा संदेश लिख दिया—

‘नामकी महिमाके बारेमें तुलसीदासने कुछ भी कहनेको बाकी नहीं रखा है। द्वादशाक्षर मन्त्र और अष्टाक्षर मन्त्र—ये सब इस मोहजालमें फँसे हुए मनुष्यके लिये शान्तिप्रद हैं। इसमें कुछ भी शंका नहीं है। जिससे जिसको शान्ति मिले उस मन्त्रपर वह निर्भर रहे। परंतु जिनको शान्तिका अनुभव ही नहीं है और जो शान्तिकी खोजमें है उसको तो अवश्य राम-नाम पारसमणि बन सकता है। ईश्वरके सहस्र नाम कहे हैं, उसका अर्थ यह है कि उसके नाम अनन्त हैं, गुण अनन्त हैं। इसी कारण ईश्वर नामातीत और गुणातीत भी है। परंतु देहधारीके लिये नामका सहारा अत्यावश्यक है और इस युगमें मूढ़ और निरक्षर भी रामनाम-रूपी एकाक्षर मन्त्रका सहारा ले सकता है। वस्तुत: राम उच्चारणमें एकाक्षर ही है और ॐकार तथा राममें कोई फरक नहीं है। परंतु नाम-महिमा बुद्धिवादसे सिद्ध नहीं हो सकता है। श्रद्धासे अनुभव-साध्य है।’

संदेश लिखकर मुसकराते हुए बापू बोले—‘तुम मुझसे ही संदेश लेने आये हो जगत् को उपदेश देनेके लिये या खुद भी कुछ करते हो? रोज नामजपका नियम लो तो तुम्हें संदेश मिलेगा, नहीं तो मैं नहीं दूँगा।’ मैंने कहा—‘बापूजी! मैं कुछ जप तो रोज करता ही हूँ, अब कुछ और बढ़ा दूँगा।’ बापूने यह कहकर कि—‘भाई, बिना कीमत ऐसी कीमती चीज थोड़े ही दी जाती है’—मुझे संदेश दे दिया। सेठजीको कुछ बातें करनी थीं। वे ठहर गये। मैंने चरणस्पर्श किया और आज्ञा प्राप्त करके मैं लौट आया।

(ग)

मैं बंबईसे राजपूताना जा रहा था। अहमदाबादमें बापूके दर्शनार्थ रुक गया। वेटिंग रूममें सामान रखकर साबरमती आश्रम पहुँचा। दोपहरका समय था। बापू बैठे कुछ लिख रहे थे। मैंने जाकर चरणोंमें प्रणाम किया। बापूने सिरपर हाथ रखकर पास बैठा लिया। मेरे हाथमें ‘कल्याण’ का अंक था। वे उसे लेकर देखने लगे। ‘कल्याण’ के द्वारा प्रतिवर्ष कुछ समयके लिये षोडशाक्षर मन्त्रके जापके लिये ग्राहकोंसे अनुरोध किया जाता है और जपका समय पूरा हो जानेपर जप किये जानेवाले स्थानोंके नाम तथा जपकी संख्या ‘कल्याण’ में छापी जाती है। उस अंकमें वह संख्या छपी थी। संख्या मुझे याद तो नहीं है, परंतु दस करोड़से कुछ ज्यादा ही थी। बापूने उसीको पढ़ा और सब बातें सुनीं। सुनकर बहुत ही संतुष्ट हुए, कहा—‘तुम यह बहुत अच्छा करा रहे हो। इतने जप करनेवालोंमें कुछ भी यदि हृदयसे जप करनेवाले निकलेंगे तो उनका तथा देशका बड़ा कल्याण होगा।’ फिर हँसकर बोले—‘मैं भी जप करता हूँ, परंतु मैं तो तुम्हें सूचना नहीं भेजूँगा। देखो, यह मेरी माला।’ इतना कहकर तकियेके नीचेसे माला निकालकर दिखायी और बोले—‘मैं रात-बिरात चुपके-चुपके जपा करता हूँ।’ माला पुरानी हो गयी थी, कुछ मनिये टूट गये थे। वृन्दावनसे आयी हुई तुलसीकी दो मालाएँ मेरी जेबमें थीं। मैंने प्रार्थना की—‘बापूजी! माला टूट गयी है, मेरे पास वृन्दावनसे आयी हुई दो माला हैं। आप इनमेंसे एक ले लें।’ बापूने कहा—‘तो तुम मुझे माला देने आये हो?’ मैंने कहा—‘नहीं, मैं तो दर्शन करने आया था। यह तो प्रसंगवश बात हो गयी।’ बापूने कृपा करके माला ले ली। मैं कुछ देर बैठा। बापूने और भी कई बातें कहीं। मुझे ठीक याद नहीं आ रही हैं। मुझे उसी शामको जाना था, इसलिये मैं कुछ देरके बाद वहाँसे स्टेशन चला आया।

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