सर्वधर्मान् परित्यज्य
(१)
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रके रणांगणमें अर्जुन मोहग्रस्त होकर जब धनुष-बाण छोड़कर रथके पिछले भागमें बैठ गये, तब भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा—‘भैया अर्जुन! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे हो गया? यह न तो श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा आचरित है, न स्वर्गदायक है और न कीर्ति ही करनेवाला है। पार्थ! तू नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। परंतप! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर तू युद्धके लिये उठ खड़ा हो।’
इससे भगवान् ने स्पष्ट शब्दोंमें ही युद्धके लिये आज्ञा दे दी; परंतु अर्जुन तैयार नहीं हुए और उन्होंने अपनी मानसिक स्थितिके कारणोंका निर्देश करते हुए कहा कि ‘मेरे लिये जो कल्याणकारक निश्चित साधन हो, वह मुझे बतलाइये। मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ। मुझ दीनको आप शिक्षा दीजिये’—‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥’
अर्जुन भगवान् के प्रिय सखा थे, आहार-विहारमें साथ रहते थे, पर न तो कभी अर्जुनने शरणागत होकर कुछ पूछा, न भगवान् ने ही कुछ कहा। आज कहनेका अवसर उपस्थित हो गया। परंतु भगवान् कुछ कहते, इससे पहले ही अर्जुनने अपना मत प्रकट कर दिया, ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’—‘न योत्स्ये’। अर्जुन यदि यह न कहते तो शायद भगवान् ने गीताके अन्तमें जो ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ का सर्वगुह्यतम उपदेश दिया है, अभी दे देते; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णको अर्जुन अत्यन्त प्रिय थे। उनका सारा भार वे उठा लेना चाहते थे। वे स्वयं साध्य-साधन बनकर अर्जुनको निश्चिन्त कर देना चाहते थे। परंतु भगवान् की कृपा तथा मंगल-विधानसे ही अर्जुन बोल उठे—और इससे अर्जुनको शरणागतके लिये पूर्णरूपसे प्रस्तुत न देखकर भगवान् ने कर्म, भक्ति, ज्ञानकी त्रिविध सुधाधारा बहायी। नहीं तो, शायद जगत् इस महान् गीता-ज्ञान-सुधा-रससे वंचित ही रहता! अस्तु!
भगवान् ने गीतामें गुह्य-से-गुह्य ज्ञानका उपदेश किया। जगत् के विविध क्षेत्रोंके सभी अधिकारियोंके लिये यह महान् दिव्य शिक्षा प्रस्तुत हो गयी। ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, कर्मयोगी ही नहीं, संसारके विविध उलझनोंमें फँसे हुए तमोग्रस्त सभी लोगोंके लिये गीता दिव्य प्रकाशस्तम्भ बनकर सभीको उनके अधिकारानुसार पथ-प्रदर्शन करने लगी। इसीसे अरण्यवासी विरक्त साधुके हाथमें भी गीता रहती है और क्रान्तिकारी युवकके हाथमें भी गीता है। दोनों ही उससे प्रकाश पाते हैं। गीताके उपदेशमें बीच-बीचमें भगवान् ने अत्यन्त रहस्यमय गुह्यतम बातें भी कहीं—जैसे ‘राजविद्याराजगुह्य’- रूप नवम अध्यायमें स्वयं सारे योग-क्षेमका भार उठानेकी प्रतिज्ञा करते हुए अन्तमें स्पष्ट कह दिया—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(९। ३४)
तू मुझ (श्रीकृष्ण)-में मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको नमस्कार कर। इस प्रकार अपनेको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।
भगवान् ने अपनेसे प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़नेके लिये यह ‘राजगुह्य-गुह्यतम’ आदेश दे दिया। पर अर्जुन कुछ नहीं बोले। तदनन्तर चौदहवें अध्यायके अन्तमें भगवान् ने अपनेको ‘ब्रह्मकी भी प्रतिष्ठा’ बतलाकर अर्जुनका ध्यान खींचा। इसके पश्चात् पंद्रहवें अध्यायमें बहुत स्पष्ट शब्दोंमें अपनेको ‘क्षर’ (नाशवान् जडवर्ग क्षेत्र)-से सर्वथा अतीत और अविनाशी ‘अक्षर’—जीवात्मासे या ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’ (गीता ८। ३)- के अनुसार ब्रह्मसे उत्तम बतलाकर कहा—
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्धवा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यश्च भारत॥
(१५। १९-२०)
‘भारत! जो मूर्ख नहीं है, वह ज्ञानी पुरुष मुझ (श्रीकृष्ण)-को ही ‘पुरुषोत्तम’ जानता है और वही सर्वज्ञ है। इसलिये वह सब प्रकारसे निरन्तर मुझ (श्रीकृष्ण)-को ही भजता है। निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया। इसको तत्त्वसे जानकर पुरुष बुद्धिमान् और कृतकृत्य हो जाता है।’
यहाँ भगवान् का स्पष्ट संकेत है कि ‘अर्जुन! तू मुझ पुरुषोत्तमके ही सब प्रकारसे शरण हो जा। इससे तू कृतकृत्य हो जायगा।’ पर अर्जुन कुछ नहीं बोले। तदनन्तर १६ वें अध्यायसे १८ वें अध्यायके ५३ वें श्लोकमें विविध ज्ञानका वर्णन करके ५४ वें तथा ५५ वें श्लोकोंमें ‘पराभक्ति’ की बात कहकर भगवान् ने फिर अपनी ओर लक्ष्य कराया। पर जब अर्जुन फिर भी कुछ नहीं बोले तब जरा डाँटकर रूखे स्वरमें और अपनेको अलगसे हटाते हुए भगवान् ने कहा—
‘यदि अहंकारके कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा। तू जो अहंकारका आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है। तेरी प्रकृति ही तुझे युद्धमें लगा देगी। कौन्तेय! जिस कर्मको तू मोहके कारण नहीं करना चाहता, उसको अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्मसे बँधा विवश होकर करेगा।’
इसके बाद भगवान् ने अपना सम्बन्ध बिलकुल हटाकर अन्तर्यामी ईश्वरकी ओर लक्ष्य कराते हुए अर्जुनसे कहा—
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
(गीता १८। ६१—६३)
‘अर्जुन! शरीररूप यन्त्रपर आरूढ़ सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी ईश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित है। तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें जा। उसकी कृपासे तू परमशान्ति और शाश्वत स्थानको प्राप्त होगा। इस प्रकार मैंने तो यह ‘गुह्याद् गुह्यतर’—गुह्योंसे भी गुह्य ज्ञान तुझसे कह दिया। अब इसपर भलीभाँति विचार करके तू जैसा जो चाहता है सो कर।’
भगवान् के इन शब्दोंसे स्पष्ट यह ध्वनि निकलती है—मानो वे अर्जुनसे कह रहे हैं कि ‘अर्जुन! तूने कहा था कि मैं आपके शरण हूँ और मैंने यही समझकर तेरा सारा भार वहन करना भी चाहा, तुझे कई प्रकारसे समझाया—संकेत किया, स्पष्ट शब्दोंमें भी अपनी महत्ता बतलाकर तुझे अपनी ओर आकृष्ट करनेका प्रयत्न किया, पर मैं नहीं कर पाया। मैंने अपनी महत्ताके अतिरिक्त तुझको और जो कुछ कहा है— बताया है, वह भी कम महत्त्वका नहीं है। वह भी गोपनीय-से-गोपनीय है। मालूम होता है तुझे तेरा अन्तर्यामी भ्रमा रहा है, अतएव अब तू मेरी नहीं, उस अन्तर्यामीकी ही शरणमें जा, वही तुझे शान्ति देगा। मैं तो जो कुछ कह सकता था, कह चुका, अब तेरी जैसी इच्छा हो, वही कर, मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है।’
अर्जुनने भी समझा कि भगवान् जो कुछ कह रहे हैं, ठीक है। इतना समझाने-सिखानेपर भी मैं अबतक नहीं समझा। इनकी महत्ता जानकर भी मैंने नहीं जाना। इसीसे तो हताश-से होकर मेरे परम आश्रय प्रियतम प्रभु आज मुझे दूसरेका आश्रय लेनेके लिये कह रहे हैं।’ इसीलिये तो आज्ञा—आदेश न देकर मुझे इच्छानुसार करनेकी (यथेच्छसि तथा कुरु) बात कह रहे हैं। ‘मैं कितना मूर्ख हूँ।’ इस प्रकार समझकर अर्जुन अत्यन्त विषादग्रस्त हो गये और मन-ही-मन पश्चात्ताप करते हुए भगवान् की ओर अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे देखने लगे। वाणी बंद हो गयी। शरीर अवश-सा होकर गिरने लगा। यह सब इसीसे सूचित होता है कि ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ कहनेके बाद अर्जुनके बिना कुछ कहे ही भगवान् का रुख बदल गया और वे अत्यन्त स्नेहभरे शब्दोंमें अपनी ओरसे पुन: अपनी महान् महत्ताकी बात कहने लगे। मालूम होता है अर्जुनकी विषादयुक्त मुखाकृति देखकर भगवान् का स्नेह उमड़ आया। भगवान् तो यही परिस्थिति लाना चाहते थे, जिसमें अर्जुन सर्वतोभावसे शरणागत हो जाय, ‘वह ऐसी स्थितिमें आ जाय, जिसमें वह भगवान् को ही एकमात्र साध्य-साधन सब कुछ मानकर अपनेको पूर्णरूपसे समर्पण कर दे। भगवान् ने अर्जुनके हावभावसे यह निश्चितरूपसे जान लिया कि अब ‘शक्ति’ ग्रहण करनेके लिये शिष्य पूर्णरूपसे प्रस्तुत है और इसीलिये तुरंत शक्तिपात करके उसे शक्तिमान् बना दिया। भगवान् ने कहा—
सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
‘भैया! तू ‘सर्वगुह्यतम’ मेरे परम श्रेष्ठ वचनको फिर भी सुन। तू मेरा दृढ़ इष्ट है—अतिशय प्रिय है, अतएव तेरे ही हितके लिये यह कह रहा हूँ।’ अभिप्राय यह कि भगवान् अर्जुनको उदास देखकर उन्हें गले लगाकर अब वह बात कहना चाहते हैं, जो ‘सर्वगुह्यतम’ है। गुप्त (गुह्य), गुप्तोंमें भी गुप्त (गुह्यतर), उसमें भी गुप्त (गुह्यतम) बात हुआ करती है, पर यह तो गुह्यतममें भी सबसे अधिक गुह्यतम—‘सर्वगुह्यतम’ है, तो अत्यन्त अन्तरंगता हुए बिना कही जा सकती ही नहीं। तू मेरा प्रिय ही नहीं, ऐसा प्रिय है कि उसमें कभी अन्तर पड़ नहीं सकता। इसीसे तेरे ही हितके लिये यह बात कह रहा हूँ—और यह ऐसी बात है कि जो सबसे श्रेष्ठ है, पहले भी इसे कह चुका हूँ, तूने ध्यान नहीं दिया। अब तू फिरसे सुन। इस प्रकार कहकर मानो भगवान् ने वे जो कुछ कहना चाहते हैं, उसकी भूमिका बाँधी है अथवा अब अगले दो श्लोकोंके रूपमें जो महान् दिव्य-रत्न प्रदान करना चाहते हैं, उन्हें सुरक्षित रखनेके लिये मंजूषाके नीचेका हिस्सा दिखाया है। इसमें वे रत्न रखकर, फिर उसके ऊपरका ढक्कन देंगे ६७ वें श्लोकके रूपमें। वे अमूल्य परम गोपनीयोंमें गोपनीय रत्न ये हैं—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६५-६६)
‘तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको ही प्रणाम कर। यों करनेसे तू मुझको ही प्राप्त होगा— यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। तू सब धर्मोंको छोड़कर केवल एक मुझ परमपुरुषोत्तम श्रीकृष्णकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोच मत कर।’
भगवान् ने इन शब्दोंके द्वारा अर्जुनसे कहा है कि ‘अबतक जो बात कही, वह तो गुप्त-से-गुप्त होनेपर भी प्राय: सबको कही जा सकती थी। अब यह ऐसी बात है, जिसका सम्बन्ध तुझसे और मुझसे ही है। तू क्यों किसी बखेड़े-झगड़ेमें पड़ता है? मन लगानेयोग्य, भक्ति-सेवा करनेयोग्य, पूजा करनेयोग्य और नमस्कार करनेयोग्य समस्त चराचर विश्वमें और विश्वसे परे भी यदि कोई है तो वह एकमात्र मैं ही हूँ। लोग मुझे न जान-मानकर इधर-उधर भटकते रहते हैं। मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि जो यों मान लेता है, वह मुझ ब्रह्मके भी प्रतिष्ठास्वरूप मुझ भगवान् को पाता है। तू मेरा प्रिय है—अन्तरंग इष्ट है। इसीसे अपना निजका यह महत्त्वपूर्ण रहस्य तुझे बतलाया है। तू यही कर। अबतक जो कुछ धर्म मैंने बतलाये हैं, उन सबकी तुझे आवश्यकता नहीं, छोड़ उन सबको। सब धर्मोंका परम आश्रय तो मैं हूँ, तू एकमात्र मेरी शरणमें आ जा। धर्मोंके त्यागसे पापका भय हो तो तू डर मत, जरा भी चिन्ता न कर— तुझे सारे पापोंसे मैं छुड़ा दूँगा। असल बात तो यह है—जैसे सूर्यके सामने अन्धकार नहीं आ सकता, वैसे ही मेरी शरणमें आये हुएके समीप पाप-ताप आ ही नहीं सकते। तू निश्चिन्त हो जा।
अर्जुनने इसकी मूक स्वीकृति दी—मुखमण्डलपर विलक्षण आनन्दकी छटा लाकर। तब भगवान् ने कहा—देख भैया! यह अत्यन्त ही गोपनीय रहस्यकी बात है—
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
(१८। ६७)
‘यह सर्वगुह्यतम तत्त्व किसी भी कालमें जो तपरहित हो—जो सर्वत्यागरूपी कष्ट सहनेको न तैयार हो, जो मेरा भक्त न हो, जो सुनना न चाहता हो और जो मुझमें दोष देखता हो—उससे कभी कहना ही मत।’
इस श्लोकके द्वारा मानो भगवान् ने रत्नोंकी पेटीके ढक्कन लगा दिया। अतएव इस श्लोकमें जो ‘सर्वधर्मत्याग’ की आज्ञा है, वह ठीक इसी अर्थमें है। इस प्रकार सर्वधर्मत्याग करके शरणागत हो जानेवाला पुरुष सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, किसी भी ऊहापोहमें न पड़कर वह अपने शरण्यके कथनानुसार सहज आचरण करता है। सहजरूपमें ही शरण्यके अनुकूल आचरण करना उसका एकमात्र धर्म होता है। वह और किसी धर्मको जानता ही नहीं। सब धर्मोंको भुलाकर वह इस एक ही धर्मका अनन्य सेवन करता है। यह ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ श्लोक ही भगवद्गीताका अन्तिम उपदेश है। अब अर्जुन इस तत्त्वको जान-मान गये हैं। उनका मुखमण्डल एक परम स्निग्ध उज्ज्वल दीप्तिसे चमचमा उठा है। तब भगवान् पुन: निश्चय करनेके लिये उनसे पूछते हैं, क्यों अर्जुन! मेरे इस सर्वगुह्यतम उपदेशको तूने पूरा मन लगाकर सुना? और इसे सुनकर तेरा मोह दूर हुआ?’ अर्जुन उत्तरमें कहते हैं—
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव॥
(१८। ७३)
‘अच्युत! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली। अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अत: आप जो कहेंगे, वही करूँगा।’
इस श्लोकमें अर्जुनके द्वारा शरणागतिकी स्वीकृति है। अथवा यही शरणागतिका स्वरूप है। अर्जुन कहते हैं—मेरे मोहका नाश हो गया (नष्टो मोह:) मैं अहंकारवश कह रहा था कि युद्ध नहीं करूँगा। वह मोह था। अब मुझे स्मरण हो आया कि मैं तो आप यन्त्रीके हाथका यन्त्रमात्र हूँ (स्मृतिर्लब्धा)। पर यह मोहनाश और स्मृतिकी प्राप्ति भी मेरे पुरुषार्थसे नहीं हुई, यह आपकी शरणागत-वत्सलतारूप कृपासे हुई है (त्वत्प्रसादात्) और इस कृपाकी भी मैंने साधनसे उपलब्धि नहीं की, अच्युत! आप अपने विरदसे कभी च्युत नहीं होते, अत: स्वभावसे ही आपने कृपा की है। अब मैं यन्त्ररूपमें स्थित हो गया (स्थितोऽस्मि)। मेरे सारे संशय-भ्रम मिट गये (गतसंदेह:)। अब तो बस, आप जो कुछ कहेंगे, वही करूँगा (करिष्ये वचनं तव)।’ यही ‘शरणागति-धर्म’ है।
और सचमुच अर्जुन इस शरणागतिके सिवा और सब धर्मोंके ज्ञानको भूल गये। इसका पता लगता है तब जब अश्वमेधपर्वमें अर्जुन भगवान् से उन धर्मोंको फिरसे सुनना चाहते हैं और कहते हैं कि ‘मैं उनको भूल गया।’ उस समय भगवान् उन्हें उलाहना देते हुए कहते हैं कि ‘मैंने उस समय तुम्हें ‘गुह्य’ ज्ञान सुनाया था जो स्वरूपभूत शाश्वत-धर्म था।’
श्रावितस्त्वं मया ‘गुह्यं’ ज्ञापितश्च सनातनम्।
धर्मस्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान्॥
यहाँ ‘गुह्य’ शब्दसे यह ध्वनित होता है कि भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने श्रेष्ठ वचन (परमं वच:)-के रूपमें जो ‘सर्वधर्मत्याग’ करके अनन्य शरणागतिका ‘सर्वगुह्यतम’ उपदेश किया था, उसे अर्जुन नहीं भूले थे। वे तो उसी ‘गुह्य’ को भूल-से गये थे, जिसका त्याग करनेके लिये भगवान् ने कहा था। इसीसे यहाँ ‘गुह्य’ शब्द आया है।
अतएव यही निष्कर्ष निकलता है कि इस श्लोकमें सब धर्मोंको त्यागकर अनन्य शरणागतिका ही उपदेश है और यही गीताका मुख्य तात्पर्य है।