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वर्तमान विश्व-संकटके निवारणके लिये प्रार्थना और भगवन्नामका आश्रय आवश्यक

सारा जगत् आज अपने ही निर्माण किये साधनोंसे संत्रस्त और भयग्रस्त है तथा यह भय तबतक बढ़ता ही रहेगा एवं जगत् की क्रमश: अध:पातकी ओर अबाध गति बनी ही रहेगी, जबतक मानव अपने जीवनके परम लक्ष्य परमात्माको भूलकर भोगोंसे सुखकी आशा करता रहेगा। ‘भगवान्’ की ओर जीवनकी गति होनेपर जीवनमें परम साधन होता है—‘त्याग’, जो सर्वत्र ‘प्रेम’ तथा परिणामत: ‘आनन्द’ का विस्तार करता है। ‘भोग’ की ओर गति होनेपर उसका परम साधन होता है—‘भोग-अर्जन और संग्रह’, जो सर्वत्र द्वेष तथा परिणामत: दु:खका विस्तार करता है। लक्ष्यके अनुसार ही साधनका प्रयोग होता है। बिजलीके द्वारा हम चाहे सर्वत्र प्रकाश और सुखके साधनोंका विस्तार कर दें अथवा आग लगाकर या झटके देकर सबके विनाशका विस्तार कर दें। पैरोंसे या किसी भी वाहनसे चलकर हम देवमन्दिरमें पहुँच जायँ या पाप-कुण्डमें! आज संसारमें बाह्य प्रकृतिके नये-नये आविष्कारोंका प्रकाश और विज्ञानका विकास हो रहा है और इसपर लोगोंको बड़ा गर्व है। प्रकृतिगत पदार्थोंका आविष्कार और विज्ञान बुरी चीज नहीं है। जीवनका लक्ष्य ‘भगवान्’ होनेपर ये सभी साधन भगवान् के मंगलमय पथके सहायक बन सकते हैं, परंतु ‘भोग’ लक्ष्य हो जानेपर यही सब विनाशके साधन बन जाते हैं। इसीसे बाह्य प्रकृतिपर अपनेको विजयी माननेवाला मानव आज अन्त:प्रकृतिकी सहायतासे वंचित हो वासनाका दास बन गया है और तिलोत्तमाके मोहमें ग्रस्त सुरापान-प्रमत्त सहोदर-भाई सुन्द-उपसुन्दके परस्पर विनाश करनेकी भाँति एक-दूसरेका विनाश करनेमें प्रवृत्त है। आजके विश्वव्यापी अन्तर्द्वेष और सर्व-विनाशकारी युद्धोंकी तैयारीका यही हेतु है। भोगकी वासनाने ‘सर्वभूतात्म-भावना’ को और ‘सबमें भगवान् हैं’—इस सत्यको भुलाकर मनुष्यके स्वार्थको इतनी संकुचित सीमामें लाकर खड़ा कर दिया है कि जिससे एक ही सिद्धान्तके माननेवाले और अपनेको विश्वका परम हितकारी समझनेवाले लोग भी व्यक्तिगत स्वार्थवश एक-दूसरेके पतनमें सचेष्ट हैं और इसीमें अपनेको सफलजीवन मान रहे हैं। साम्यवादी रूस और चीनका विवाद एक ही रूपमें क्रुश्चेवके द्वारा मरे हुए स्टैलिनका तिरस्कार और सम्प्रति उसी मतके एक दलके द्वारा क्रुश्चेवकी पदच्युति तथा एक ही धर्म और मतके अनुयायी लोगोंमें एक ही देशके विभिन्न राजनीतिक दलोंद्वारा एक-दूसरेके अधिकारोंकी छीना-झपटी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भोगवासनाने मनुष्यको इतना असहिष्णु और असंतोषपूर्ण बना दिया है कि वह रात-दिन अशान्तिकी आगमें जलता रहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है—उन्नतिके शिखरपर समारूढ़ माना जानेवाला अमेरिका देश, जहाँ दिनभरके २४ घंटोंमें लगभग ४१ आत्महत्याएँ और लगभग ७०० से अधिक मनुष्योंपर पागलपनका आक्रमण होता है।

भारतवर्षकी संस्कृतिमें ‘आत्म-साक्षात्कार’ या ‘भगवान् की प्राप्ति’ जीवनका परम लक्ष्य माना गया है और ‘गर्भाधान’ से लेकर ‘अन्त्येष्टि’- तकके सारे संस्कार और गुरुकुल-प्रवेशसे लेकर मृत्युतकके जीवनकी सारी चेष्टाएँ इसी लक्ष्यकी पूर्तिके लिये की जाती रही हैं। पर आज भारतवर्ष भी अपने इस महान् लक्ष्यसे च्युत होता जा रहा है और इसीका परिणाम है—अशान्ति, दु:ख और भाँति-भाँतिकी असंख्य नयी-नयी विपत्तियाँ, जो मिटानेकी चेष्टामें उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं। एवं सबसे अधिक परितापका विषय तो यह है कि इस ‘अध:पात’ को ही ‘उत्थान’, ‘अवनति’ को ‘उन्नति’, ‘विपरीत गति’ को ही ‘प्रगति’ और ‘विनाश’ को ही ‘विकास’ माना जा रहा है और यह स्वाभाविक है कि जब भोग-वासनाओंसे अभिभूत होकर मनुष्य तमोगुणसे आक्रान्त हो जाता है, तब उसकी बुद्धिके सारे निर्णय विपरीत ही हुआ करते हैं। तमोऽभिभूत बुद्धिका लक्षण बताते हुए भगवान् कहते हैं—

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १८। ३२)

बुद्धि जब तमोगुणसे आवृत हो जाती है, तब वह धर्मको अधर्म, पुण्यको पाप, कल्याणको अकल्याण मान लेती है और सभी वस्तुओंमें विपरीत निर्णय करती है। और यह निश्चित है कि तमोगुणी वृत्तिमें स्थित मनुष्योंका पतन होता है—

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १४। १८)

इसीसे आज जो अन्त:प्रकृतिपर विजय प्राप्त करनेका, लौकिक परम अभ्युदय और मानव-जीवनके परम लक्ष्य नि:श्रेयसकी प्राप्तिका, विश्वकल्याण और विश्व-शान्तिका एकमात्र साधन भगवदाश्रय है, उस परम साधनसे मुँह मोड़कर विकासके नामपर केवल भौतिक साधनोंकी सेवामें देश संलग्न हो रहा है। परिणाम तो प्रत्यक्ष ही है। अत: यदि भारतवर्षमें और अखिल विश्वमें यथार्थ सुख-शान्ति-वैभव-कल्याण आदिकी प्रतिष्ठा देखनी है, तो इस निरे भौतिक लक्ष्यका परित्याग करके समस्त भौतिक साधनोंको भगवान् की सेवामें लगा देना होगा और भगवान् का आश्रय करके भगवन्नाम और प्रार्थनाका सहारा लेना पड़ेगा।

आज देशमें अशान्ति है, दुर्भिक्ष है, पड़ोसी मित्र शत्रु बन रहे हैं, सर्वत्र आतंक छाया है, एक-दूसरेपर संदेहकी वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, विपत्तिके बादल मँडरा रहे हैं और कहीं-कहीं बरसने भी लगे हैं—इन सब आगत-अनागत उत्पात-उपद्रवसे बचना है तो उसका परम साधन है—‘भगवान् का आश्रय करके भगवन्नाम और प्रार्थनाका अवलम्बन करना।’ साथ ही, भगवान् के ही विभिन्न स्वरूप देवताओंका, जो विभिन्न कार्योंकी सिद्धिके लिये प्रकट हैं, श्रद्धा-विधिपूर्वक आराधना करना। विगत अष्टग्रहीके समय भगवदाराधन और देवाराधनकी ओर बड़ी प्रवृत्ति हुई और उसके फलस्वरूप अष्टग्रहीकी उस समयकी विनाशलीला रुक गयी। अविश्वासियोंने अवश्य यह माना कि ‘ये सब साधन व्यर्थ ही किये गये। अष्टग्रहीसे कोई कुपरिणाम होनेवाला ही नहीं था। सब व्यर्थकी बातें थीं।’ पर ऐसा समझना उन लोगोंकी यथार्थत: बेसमझी ही है। किसी अमोघ साधनसे संकटका टल जाना दूसरी बात है और संकटका न आना दूसरी बात है। चीनके आक्रमणके समय भी प्रार्थना तथा भगवदाराधन-देवाराधनकी ओर कुछ रुचि आरम्भ हुई थी, पर इस समय तो इस ओर प्राय: उदासीनता-सी देखी जाती है, जो बेसमझी तो है ही, महान् विपत्तिकी भूमिका भी है। अतएव विश्वके समस्त कल्याणकामियोंसे, खास करके पवित्र भूमि भारतके निवासियोंसे, उनमें भी कल्याणके पाठक-पाठिकाओंसे विशेष निवेदन है कि वे निम्नलिखित साधनोंका—अनुष्ठानोंका यथासाध्य, यथारुचि, यथाधिकार आयोजन करें-करायें—

(१) हिंदू (वैदिक धर्मावलम्बी सनातनी, आर्यसमाजी तथा जैन, बौद्ध, सिक्ख एवं अन्यान्य समस्त हिंदूधर्म-सम्प्रदायी), मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि सभी अपने-अपने धर्मानुसार निर्दोष भगवत् -प्रार्थना, नाम-जप आदि करें।

(२) वेदाध्ययन, वेद-परायण, धर्मग्रन्थ-पाठ, विष्णुरुद्रयाग, गायत्री- पुरश्चरण, रुद्राभिषेक, रुद्रीपाठ, महामृत्युंजय-जप, पुराणपाठ आदिके अधिक-से-अधिक आयोजन हों।

(३) माता भगवतीकी प्रसन्नताके लिये नवचण्डी, शतचण्डी, सहस्र-चण्डी, लक्षचण्डी आदि अनुष्ठान हों। व्यक्तिगतरूपसे लोग अपने-अपने सुविधानुसार पाठ करें। नवार्णमन्त्रका जप करें, दुर्गानाम-जप करें-करायें। सम्पुटके मन्त्र निम्नलिखित हैं—

(१) देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥
(२) शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
(३) करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:॥
(४) विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्रा:॥
(५) सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

(४) श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायण अधिक-से-अधिक किये-कराये जायँ। वाल्मीकिरामायणके नवाह्न-पारायण या सुन्दरकाण्डके पाठ किये-कराये जायँ। निम्नलिखित सम्पुट दिये जायँ तो अच्छा है—

श्रीमद्भागवतमें सम्पुट—

यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणं
यद् वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम्।
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नम:॥

वाल्मीकीय रामायणमें सम्पुट

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्॥

(५) श्रीरामचरितमानसके मासिक, नवाह, अखण्ड या यथारुचि यथासाध्य जिनसे जितना हो सके, पाठ करें-करायें। सम्पुटकी चौपाइयाँ निम्नलिखित हैं—

१-राजिव नयन धरें धनु सायक।
भगत बिपति भंजन सुखदायक॥
२-जपहिं नामु जन आरत भारी।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
३-दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी॥
४-दैहिक दैविक भौतिक तापा।
रामु राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
५-गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

(६) अपनी रुचि तथा श्रद्धाके अनुसार श्रीशंकरजीके ‘नम: शिवाय’, भगवान् विष्णुके ‘हरि:शरणम्’ और श्रीगणेशजीके ‘गं गणपतये नम:’ मन्त्रका जप करें-करायें। भगवन्नाम-कीर्तन अधिक-से-अधिक किया-कराया जाय।

(७) गौओंको चारा, घास, भूसा, दाना खिलाया जाय। गोवध-कानून सर्वथा बंद हो। गोचरभूमि सुरक्षित तो रहे ही और भी अधिक छोड़ी जाय। गोरक्षाकी ओर विशेष ध्यान दिया जाय।

(८) गरीब, रोगी, दीन, बाढ़पीड़ित, विधवा स्त्री, अनाथ बालक, विद्यार्थी आदिकी सेवा-सहायता की जाय।

(९) जनतामें बढ़ती हुई मांसाहारकी प्रवृत्तिको छुड़ाया जाय। पशु-पक्षी-हिंसा-उद्योगों और नये-नये कसाईखानोंकी योजनाका तुरंत त्याग कर दिया जाय।

(१०) ३५ वें वर्षके १२ वें अंकमें प्रकाशित ‘नारायण-कवच’ का और शिवपुराणांकमें छपे ‘अमोघ शिवकवच’, ‘श्रीसर्वेश्वरका शिवकवच’ और ‘श्रीमहामृत्युंजय कवच’, ‘संकटनाशन विष्णुस्तोत्र’ अथवा ‘उपमन्युकृत शिवस्तोत्र’ का पाठ यथारुचि संस्कृत जाननेवाले लोग स्वयं करें तथा करायें। ये सर्वोपद्रवनाशक एवं बहुत लाभप्रद हैं।

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