सुखासक्तिसे छूटनेका उपाय
(कोलकातामें ३१-१-८६ को दिया हुआ प्रवचन)
मूल बाधा—संयोगजन्य सुखकी आसक्ति। संयोगजन्य सुखकी जो भीतरमें एक लालसा है, इच्छा है, वासना है, लोभ है, यह खास बीमारी है। संयोगजन्य सुख तो ठहरता नहीं है, अगर उसकी लालसा त्याग दें तो बड़ा सीधा काम है।
विषयोंकी इच्छा है, भोगोंकी इच्छा है, संग्रहकी इच्छा है, मानकी इच्छा है, बड़ाईकी इच्छा है, आरामकी इच्छा है—यह हमारे सामने उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। यह इच्छा कभी पूरी हो जाती है, कभी अधूरी रह जाती है; कभी आंशिक पूरी होती है, कभी नष्ट हो जाती है। परन्तु हम ज्यों-के-त्यों रहते हैं, हमारे स्वरूपमें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर अपने स्वरूपमें स्थित हो जायँ तो इच्छाएँ मिट जायँगी और अगर इच्छाओंको मिटा दें तो अपने स्वरूपमें स्थिति हो जायगी। दोनोंमेंसे जो चाहो, सो कर लो। सत् की जिज्ञासासे भी, असत् की निवृत्तिसे भी सत् की प्राप्ति होती है।
जिस सुखकी उत्पत्ति होती है और नाश होता है, ऐसे सुखकी लालसा मिटानी है—इतना काम करना है। संयोगजन्य सुख खुद तो हरदम रहता नहीं और नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वके सुखसे वंचित कर देता है, कितने अनर्थकी बात है! ऐसे संयोगजन्य सुखका भी त्याग नहीं कर सकते तो हम क्या त्याग कर सकते हैं!
सुखकी कामना उत्पन्न और नष्ट होती है, पर आप उत्पन्न और नष्ट नहीं होते हो। कामना आपमें होती है, आप कामनामें नहीं होते हो। आप व्यापक हो, कामना व्याप्य है अर्थात् आप सब देशमें हो, कामना एक देशमें है; आप सब कालमें हो, कामना एक कालमें है; और कामना हो या न हो, आपमें कोई फर्क नहीं पड़ता, आप ज्यों-के-त्यों रहते हैं। कामनाको केवल आपने ही पकड़ रखा है, कामनामें आपको पकड़नेकी कोई ताकत नहीं है। सत्संगके समय कामना नहीं रहती, इसलिये अनुभव होता है कि तत्त्व ज्यों-का-त्यों है। कामना होनेपर यह अनुभूति वैसी नहीं रहती। इसलिये यह प्रश्न होता है कि सत्संग सुनते समय जैसा भाव रहता है, वैसा और समयमें नहीं रहता। वास्तवमें तो वह तत्त्व नित्य-निरन्तर वैसे-का-वैसा ही रहता है। सत्संग सुनो चाहे मत सुनो, चाहे कुसंग करो, सत्-तत्त्व तो ज्यों-का-त्यों ही रहता है, उसका कभी नाश नहीं होता। परन्तु आपकी दृष्टि असत् की तरफ चली जाती है तो वह असत् आपपर हावी हो जाता है और ऐसा दीखने लगता है कि मानो सत् नहीं रहा; जो कभी हो और कभी न हो, वह सत् कैसे हो सकता है? सत् तो हरदम ज्यों-का-त्यों रहता है। असत् की लालसामें सत् को ढकनेकी शक्ति नहीं है; क्योंकि सत् व्यापक है और असत् व्याप्य है। तुच्छ चीज महान्को ढक दे, आवृत कर दे—ऐसा नहीं है। ‘आवृतं ज्ञानमेतेन.....’ (गीता ३।३९) ‘इस कामनासे वह ज्ञान आवृत है’—ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि ज्ञान आवृत नहीं होता, आपकी दृष्टि आवृत होती है। जैसे, बादल आनेपर सूर्य नहीं दीखता तो हम कहते हैं कि सूर्य ढक गया। परन्तु वास्तवमें सूर्य नहीं ढकता, हमारी आँख ढक जाती है। सूर्य तो भूमण्डलसे भी बड़ा है, वह थोड़ेसे बादलके टुकड़ेसे कैसे ढक सकता है? ऐसे ही कामना आती है तो हम मान लेते हैं कि हम कामनाके वशीभूत हो गये, कामनाने हमें हरा दिया। वास्तवमें यह बात नहीं है। आपको कामना कैसे ढक सकती है? कामना तुच्छ है और आप महान् हैं—‘नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:’(गीता२। २४)। आप कामनाकी उत्पत्ति और विनाशको जाननेवाले हो। जो उत्पत्ति और विनाशको जाननेवाला होता है, वह अविनाशी होता है, बड़ा होता है। जो उत्पन्न और नष्ट होता है, वह तो छोटा होता है, पर जो उसकी उत्पत्ति और विनाशको जाननेवाला होता है, वह बड़ा होता है।
श्रोता—सुखकी आसक्ति हमारेपर एकदम अधिकार जमा लेती है। उस समय हमें अपने बलका पता ही नहीं लगता। हम निर्बल हो जाते हैं, पराजित हो जाते हैं!
स्वामीजी—जिस समय कामना पैदा होती है, आसक्ति पैदा होती है, उस समय उसका बड़ा असर पड़ता है—यह बात ठीक है; परन्तु इस बातपर विश्वास रखो कि सत्-वस्तु तो निष्कामता ही है। अत: निष्कामभावको सकामभाव दबा ही नहीं सकता। सकामभाव उत्पन्न और नष्ट होता है, पर निष्कामभाव सकामभावके उत्पन्न होनेसे पहले भी रहता है, सकामभावके नष्ट होनेके बाद भी रहता है और सकामभावके समय भी ज्यों-का-त्यों रहता है। वास्तवमें निष्कामभाव ही नित्य है। इसलिये कामना पैदा होनेपर आप उससे हार स्वीकार मत करो। बड़ी-से-बड़ी कामना हो जाय, कामनामें आप बह जाओ, कामनाके वशीभूत हो जाओ तो भी आप कृपा करके इतना खयाल रखो कि यह कामना टिकनेवाली नहीं है और निष्कामता मिटनेवाली नहीं है। कामना तो उत्पन्न और नष्ट होती है, पर आप हरदम रहते हो। अत: कामना आपमें तो नहीं हुई, फिर वह आपको कैसे ढक सकती है, आपको कैसे पराजित कर सकती है? आप जिस समय अपनेको पराजित मानते हो, उस समय भी यह बात जाग्रत् रखो कि कामना आगन्तुक है, यह रहनेवाली नहीं है। भगवान्ने साफ कहा है कि आप इनके आने-जानेकी तरफ देखो, इनके आने-जानेका खयाल रखो। फिर सुगमतासे इनपर विजय प्राप्त कर लोगे। आप कामनामें कितने ही बह जाओ, पर ‘आगमापायिनोऽनित्या:’ को याद रखो। मैंने तो कई बार कहा है कि अरे भाई! यह मन्त्र है! जैसे बिच्छू डंक मार दे तो उसका मन्त्रद्वारा झाड़ा करनेसे जहर उतर जाता है, ऐसे ही आप ‘आगमापायिनोऽनित्या:’ का जप शुरू कर दें तो कामना आदि आगन्तुक दोषोंका जहर उतर जायगा, उनकी जड़ कट जायगी। इतनी शक्ति है भगवान्के कहे हुए इन शब्दोंमें! यह क्रियात्मक साधन है और बड़ा सुगम है, आप करके देखो।
भागवतके ये पद मेरेको बहुत प्रिय लगते हैं—‘जुषमाणश्च तान् कामान् दु:खोदर्कांश्च गर्हयन्’ (११। २०। २८)। अगर भोगोंका त्याग न कर सकें तो उनको दु:खरूप समझकर, उनकी निन्दा करते हुए भोगें। भोगोंको भोगते हुए भी उनको अच्छा न समझें, उनको नापसन्द करें, तो उनसे छुटकारा मिल जायगा। उनके परवश होनेपर भी आप उनसे दबो मत। केवल इतना याद रखो कि हम रहनेवाले हैं और ये जानेवाले हैं। आप करके देखो। यह साधन कठिन है क्या? अभी इसका विचार कर लो, मनन कर लो तो फिर इसको भूलोगे नहीं। असत् में रहनेकी ताकत नहीं है। असत् की सत्ता नहीं होती और सत् का अभाव नहीं होता—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। आपकी सत्ता है और आप असत् से दब जाते हैं, तो यह दबना इतना दोषी नहीं है, जितना दोषी असत् का महत्त्व मानना है कि यह तो बड़ा प्रबल है। यह मान्यता ही गजब करती है।
एक राजपूत था और एक बनिया था। दोनों आपसमें भिड़ गये तो राजपूतको गिराकर बनिया ऊपर चढ़ बैठा। राजपूतने उससे पूछा—अरे! तू कौन है? उसने कहा—मैं बनिया हूँ। सुनते ही राजपूतने जोशमें आकर कहा कि अरे! बनिया मेरेको दबा दे! यह कैसे हो सकता है! और चट बनियेको नीचे दबा दिया। यह तो एक दृष्टान्त है। तात्पर्य यह है कि आप तो निरन्तर रहनेवाले हो और कामना निरन्तर रहनेवाली है ही नहीं। जैसे राजपूतने सोचा कि मैं तो क्षत्रिय हूँ, मेरेको बनिया नहीं दबा सकता, ऐसे ही आप भी राजपूत हो, भगवान्के पूत हो; आप विचार करो कि असत् की कामना मेरेको कैसे दबा सकती है? कामना भी असत् की और कामना खुद भी असत्, वह सत् को दबा दे—यह हो ही नहीं सकता। बस, इतनी ही बात है। लम्बी-चौड़ी बात है ही नहीं। अब इसमें क्या कठिनता है, आप बताओ? एकदम सीधी बात है। आप थोड़ी हिम्मत रखो कि मैं तो हरदम रहनेवाला हूँ। बालकपनसे लेकर अभीतक मैं वही हूँ। मैं पहले भी था, अब भी हूँ और बादमें भी रहूँगा, नहीं तो किये हुए कर्मोंका फल आगे कौन भोगेगा? मैं तो रहनेवाला हूँ और ये शरीर आदि असत् वस्तुएँ रहनेवाली हैं ही नहीं। इनके परवश मैं कैसे हो सकता हूँ? नहीं हो सकता। आप हिम्मत मत हारो।
हिम्मत मत छाड़ो नरां, मुख सूं कहतां राम।
हरिया हिम्मत सूं कियां, ध्रुव का अटल धाम॥
ये बातें बहुत सुगम हैं। आप पूरा विचार नहीं करते—यह बाधा है। न तो स्वयं सोचते हो और न कहनेपर स्वीकार करते हो। अब क्या करें, बताओ? आप सत् हो और ये बेचारे असत् हैं, आगन्तुक हैं। आप मुफ्तमें ही इनसे दब गये। अपने महत्त्वकी तरफ आप ध्यान नहीं देते। आप कौन हैं—इस तरफ आप ध्यान नहीं देते। आप परमात्माके अंश हो। आपमें असत् कैसे टिक सकता है? यह आपके बलसे ही बलवान् हुआ है। इसमें खुदका बल नहीं है। यह तो है ही असत्! आप सत् हो और आपने ही इसको महत्त्व दिया है।
जैसे किसीका पुत्र मर गया, तो बड़ा शोक होता है कि मेरा लड़का चला गया! लड़का तो एक बार मरा और शोक रोजाना करते हो, तो बताओ कि शोक प्रबल है या लड़केका मरना प्रबल है? लड़का तो एक बार ही मर गया, खत्म हुआ काम, पर शोकको आप जीवित रखते हो। शोकमें ताकत कहाँ है रहनेकी? शोक तो लड़केके मरनेसे पैदा हुआ है बेचारा! उस शोकको आप रख सकोगे नहीं। कुछ वर्षोंके बाद आप भूल जाओगे। शोक आपसे-आप नष्ट हो जायगा। आप बार-बार याद करके उसको जीवित रखते हो, फिर भी उसको जीवित रख सकोगे नहीं। दस-पन्द्रह वर्षके बाद वह यादतक नहीं आयेगा। इसलिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको आप महत्त्व मत दो, उसकी परवाह मत करो। हमारी बात तो इतनी ही है कि आप असत् को महत्त्व क्यों देते हो? अपने विवेकको महत्त्व क्यों नहीं देते?
बहुत वर्षोंतक मेरेमें यह जाननेकी लालसा रही कि गड़बड़ी कहाँ है? बाधा किस जगह लग रही है? न चाहते हुए भी मनमें मान-बड़ाईकी, आदर-सत्कारकी, पदार्थोंकी इच्छा हो जाती है, तो यह कहाँ टिकी हुई है? यह छूटती क्यों नहीं? वर्षोंके बाद इसकी जड़ मिली, वह है—सुखकी लोलुपता। हमें यह बात वर्षोंके बाद मिली, आपको सीधी बता दी। आपको सुगमतासे मिल गयी, इसलिये आप इसका आदर नहीं करते। यदि कठिनतासे मिलती तो आप आदर करते। आप पहाड़ोंमें भटकते, बद्रीनारायण जाते, खूब तलाश करते और इस तरह भटकते-भटकते कोई सन्त मिल जाता तथा वह यह बात कहता तो आप इसका आदर करते। अब रुपये कमाते हो, कुटुम्बके साथ घरोंमें मौजसे बैठे हो और सत्संगकी बातें मिल जाती हैं तो आप उनका महत्त्व नहीं मानते। उलटे ऐसा मानते हो कि स्वामीजी तो यों ही कहते हैं, ये दुकानपर बैठें तो पता लगे! इस तरफ आप अपनी ही बातको प्रबल करते हो। सिद्ध क्या हुआ? कि हमारी बात सच्ची है, इनकी (स्वामीजीकी) बात कच्ची है। आपने विजय तो कर ली, पर फायदा क्या हुआ? आप जीत गये, हम हार गये, पर जीतमें आपका नुकसान ही हुआ।
एक धनी आदमीने कहा कि स्वामीजी रुपयोंके तत्त्वको जानते नहीं तो मैंने कहा कि देखो, मैंने रुपये रखे भी हैं और उनका त्याग भी किया है, इसलिये मैं दोनोंको जानता हूँ। परन्तु आपने रुपये रखे हैं, उनका त्याग नहीं किया है, इसलिये आप एक ही बातको जानते हो, दोनोंको नहीं जानते। कोई तत्त्व नहीं है रुपयोमें। आप लोभसे दबे हुए हो, आपने रुपयोंका महत्त्व स्वीकार कर लिया है, फिर कहते हो कि हम जानते हैं। धूल जानते हो आप! जानते हो ही नहीं।
परमात्माको जाननेके लिये परमात्माके साथ अभिन्न होना पड़ता है और संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना पड़ता है। परमात्मासे अलग रहकर परमात्माको नहीं जान सकते और संसारसे मिले रहकर संसारको नहीं जान सकते—यह सिद्धान्त है। ऐसा सिद्धान्त क्यों है? कि वास्तवमें आप परमात्माके साथ अभिन्न हो और संसारसे अलग हो। परन्तु आपने अपनेको परमात्मासे अलग और संसारसे अभिन्न मान लिया, अब कैसे जानोगे? जो बीड़ी, सिगरेट आदि पीता है, वह बीड़ी आदिको जान नहीं सकता। जो इनको छोड़ देता है, उसको इनका ठीक-ठाक ज्ञान हो जाता है। एक बार मैंने कहा कि चाय छोड़ दो। बहुतोंने चाय छोड़ दी। पासमें ही एक वकील बैठे थे, वे कुछ भी बोले नहीं। तीन-चार दिन बादमें वे मेरे पास आये और बोले कि चाय तो मैंने भी उसी दिन छोड़ दी थी, पर सभामें मेरी बोलनेकी हिम्मत नहीं हुई। चाय छोड़नेके बाद यह बात मेरी समझमें आयी कि जिस प्यालेसे गोमांसभक्षी चाय पीता है, छूतकी महान् बीमारीवाला चाय पीता है, उसी प्यालेसे हम चाय पीते हैं! इससे सिद्ध हुआ कि संसारको छोड़े बिना उसके तत्त्वको नहीं जान सकते।
सत् की प्राप्तिकी लालसा करो तो असत् छूट जायगा और असत् का त्याग करो तो सत् की प्राप्ति हो जायगी। दोनोंमेंसे कोई एक करो तो दोनों हो जायँगे। असत् का संग करते हुए, आसक्ति रखते हुए असत् को नहीं जान सकते और सत् से दूर रहकर बड़ी-बड़ी पण्डिताईकी बातें बघार लो, षट्शास्त्री पण्डित बन जाओ, तो भी सत् को नहीं जान सकते।
संसारकी आसक्ति दूर करनेका सुगम उपाय है—दूसरोंको सुख देना। माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, भौजाई आदि सबको सुख दो, पर उनसे सुख लो मत तो सुगमतासे आसक्ति छूट जायगी।