Hindu text bookगीता गंगा
होम > नवधा भक्ति > उपसंहार

उपसंहार

ऊपर भक्तिके नौ प्रकार बतलाये गये हैं, उनको तीन भागोंमें बाँट लेना चाहिये। पहली तीन—श्रवण, कीर्तन और स्मरण-भक्ति तो परोक्षमें यानी उपास्यदेवकी अनुपस्थितिमें की जाती हैं और दूसरी तीन—पादसेवन, अर्चन और वन्दन-भक्ति पूर्णतया तो भगवान‍्के साक्षात् मिलनेपर ही होती हैं, किंतु भगवान‍्की अनुपस्थितिमें मनके भावसे उनको प्रत्यक्ष मानकर भी इनका अनुष्ठान किया जाता है।

ये छ: भक्ति तो क्रियारूप हैं। शेष तीन—दास, सख्य और आत्मनिवेदन-भक्ति भावरूप हैं; क्योंकि उनमें भावके अनुसार क्रिया होनेपर भी प्राय: भावकी ही प्रधानता रहती है। भक्तिमें प्रेमभाव तो एक व्यापक वस्तु है, उसका सम्बन्ध तो सभी प्रकारकी भक्तियोंके साथ है। इसलिये क्रियारूप भक्तिके साथ भावका संयोग होनेपर वह भी भावरूप हो जाती है।

बहुत-से भक्तगण श्रवणको सत्संग, कीर्तनको भजन और स्मरणको ध्यानका रूप देते हैं; क्योंकि इन तीनोंका उनके साथ परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये इन तीनोंको एक समूहमें बाँधकर बतलाया गया है। इनमें भी वृक्षके मूलमें जल सींचनेकी भाँति सत्संग भजन-ध्यानका पोषक है। इन तीनोंमेंसे एकका अनुष्ठान करनेसे भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, जैसे श्रवणसे परीक्षित् आदि, कीर्तनसे नारद आदि और स्मरणसे ध्रुव आदि परमात्माको प्राप्त हो गये; फिर तीनोंके एक साथ अनुष्ठान करनेसे परमात्माको प्राप्त होनेमें तो कहना ही क्या है।

इसी प्रकार पादसेवन, अर्चन और वन्दन—इन तीनोंको एक-दूसरेके समूहमें बाँधा गया है; क्योंकि भगवच्चरणोंकी सेवा, पूजा और नमस्कार—ये तीनों ही चरणोंसे विशेष सम्बन्ध रखते हैं। इन तीनोंमेंसे भी एकके सेवनसे ही भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है, जैसे पादसेवनसे केवट आदि, अर्चनसे पृथु आदि और वन्दनसे अक्रूर आदि भगवान‍्को प्राप्त हो गये; फिर एक साथ तीनोंके सेवनसे भगवत्प्राप्ति हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है।

इसी तरह दास्यभाव, सख्यभाव और आत्मनिवेदनभाव—ये तीनों भावरूपसे अनुष्ठान करने योग्य हैं; इसी कारण इन तीनोंकी एकता है। ये तीनों भाव एक साथ भी रह सकते हैं और अलग-अलग भी। इन तीनोंमेंसे किसी एक भावसे भी भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है, जैसे दासभावसे हनुमान् आदि, सखाभावसे अर्जुन आदि और आत्मनिवेदनभावसे बलि आदि भगवान‍्को प्राप्त हो गये हैं; फिर सब भावोंसे उपासना की जानेपर भगवान‍्की प्राप्ति हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है।

अतएव हमलोगोंको श्रद्धा-प्रेम और निष्कामभावपूर्वक बड़े ही उत्साहके साथ तत्परतासे भगवान‍्की भक्ति करनी चाहिये।

पुस्तक समाप्त  > होम