सन्तानका कर्तव्य
माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दन:।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
वास्तवमें भगवान् लक्ष्मी-नारायण ही सबके माता-पिता हैं। इस दृष्टिसे संसारमें हमारे जो माता-पिता हैं, वे साक्षात् लक्ष्मी-नारायणके ही स्वरूप हैं। अत: पुत्रका कर्तव्य है कि वह माता-पिताकी ही सेवामें लगा रहे। असली पुत्र वे होते हैं जो शरीर आदिको अपना नहीं मानते, प्रत्युत माता-पिताका ही मानते हैं; क्योंकि शरीर माता-पितासे ही पैदा हुआ है। शरीर चाहे स्थूल, सूक्ष्म अथवा कारण ही क्यों न हो, उन सबपर वे माता-पिताका ही अधिकार मानते हैं, अपना नहीं। मनुजीने भी कहा है कि पुत्र तीर्थ, व्रत, भजन, स्मरण आदि जो कुछ शुभ कार्य करे, वह सब माता-पिताके ही अर्पण करे*।
* तेषामनुपरोधेन पारत्र्यं यद्यदाचरेत्।
तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभि:॥
(मनुस्मृति २।२३६)
माता-पिता जीवित हों तो तत्परतासे उनकी आज्ञाका पालन करे। उनके चित्तकी प्रसन्नता ले और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी दे, श्राद्ध-तर्पण करे, उनके नामसे तीर्थ, व्रत आदि करे। ऐसा करनेसे उनका आशीर्वाद मिलता है, जिससे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं।
श्रीभीष्मजीने पिताकी सुख-सुविधा, प्रसन्नताके लिये अपनी सुख-सुविधाका त्याग कर दिया और आबाल ब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञा ले ली। उन्होंने कनक-कामिनी दोनोंका त्याग कर दिया। इससे प्रसन्न होकर पिताने उनको इच्छामृत्युका वरदान दिया। वे इच्छामृत्यु हो गये कि जब चाहें, तभी मरें। उनको ऐसी सामर्थ्य पिताकी सेवासे प्राप्त हो गयी। श्रीरामने पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये राज्य, वैभव, सुख-आराम आदि सबका परित्याग कर दिया। वाल्मीकि-रामायणमें श्रीरामने स्वयं कहा है कि पिताजीके कहनेपर मैं आगमें भी प्रवेश कर सकता हूँ, विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ, पर मैं पिताकी आज्ञा नहीं टाल सकता*।
* अहं हि वचनाद् राज्ञ: पतेयमपि पावके॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
(वाल्मीकि०, अयोध्या० १८। २८-२९)
श्रीराम विचारक नहीं थे, आज्ञापालक थे अर्थात् पिताजीने क्या कहा है, कहाँ कहा है, कब कहा है, किस अवस्थामें और किस परिस्थितिमें कहा है आदिका विचार न करके उन्होंने पिताकी आज्ञाका पालन किया और वनवासमें चले गये। अत: माता-पिताके आज्ञा-पालनमें श्रीराम सबके आदर्श हुए। गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है—
अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥
तात्पर्य है कि पुत्रको श्रीरामकी तरह अपना आचरण बनाना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि इस परिस्थितिमें, इस अवस्थामें, इस समय मेरी जगह श्रीराम होते तो क्या करते? इस तरह उनका ध्यान करके काम करना चाहिये।
पुत्र माता-पिताकी कितनी ही सेवा करे तो भी वह माता-पिताके ऋणको चुका नहीं सकता। कारण कि जिस मनुष्यशरीरसे अपना कल्याण हो सकता है, जीवन्मुक्ति मिल सकती है, भगवत्प्रेम प्राप्त हो सकता है, भगवान्का मुकुटमणि बन जाय—इतना ऊँचा पद प्राप्त हो सकता है, वह मनुष्यशरीर हमें माता-पिताने दिया है। उसका बदला पुत्र कैसे चुका सकता है? नहीं चुका सकता।
प्रश्न—माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य क्या है?
उत्तर—माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य कृतज्ञतामें है। माता-पिताने बच्चेके लिये जो कष्ट सहे हैं, उसका पुत्रपर ऋण है। उस ऋणको पुत्र कभी उतार नहीं सकता। माँने पुत्रकी जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता। अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ीसे माँके लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँसे लाये? यह भी तो माँने ही दी है! उसी चमड़ीकी जूती बनाकर माँको दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया? केवल देनेका अभिमान ही किया है! ऐसे ही शरीर खास पिताका अंश है। पिताके उद्योगसे ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है। इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है! अत: केवल माता-पिताकी सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेनेसे वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है।
प्रश्न—मेरा ऐसा पुत्र हो जाय, उसका कल्याण हो जाय—इस उद्देश्यसे माँ-बापने थोड़े ही संग किया! उन्होंने तो अपने सुखके लिये संग किया। हम पैदा हो गये तो हमारेपर उनका ऋण कैसे?
उत्तर—केवल सुखासक्तिसे संग करनेवाले स्त्री-पुरुषके प्राय: श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न नहीं होते। जो स्त्री-पुरुष शास्त्रके आज्ञानुसार केवल पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही सन्तान उत्पन्न करते हैं, अपने सुखका उद्देश्य नहीं रखते, वे ही असली माता-पिता हैं। परन्तु पुत्रके लिये तो कैसे हों, किसी भी तरहके माता-पिता हों, वे पूज्य ही हैं; क्योंकि उन्होंने मानव-शरीर देकर पुत्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बना दिया! उपनिषदोंमें आता है कि विद्यार्थी जब विद्या पढ़कर, स्नातक होकर गृहस्थमें प्रवेश करनेके लिये गुरुजीसे आज्ञा लेता, तब गुरुजी उसको आज्ञा देते कि ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अर्थात् तुम माता-पिताको साक्षात् ईश्वररूप मानकर उनकी आज्ञाका पालन करो, उनकी सेवा करो। यह ऋषियोंकी दीक्षान्त शिक्षा है और इसके पालनमें ही हमारा कल्याण है। अत: पुत्रको जिनसे शरीर मिला है, उनका कृतज्ञ होना ही चाहिये।
प्रश्न—माता-पिताने हमें जन्म देकर संसार-बन्धनमें डाल दिया, आफतमें डाल दिया; फिर हमारेपर उनका ऋण कैसे?
उत्तर—यह बात बिलकुल गलत है। माता-पिताने तो मनुष्यशरीर देकर संसार-बन्धनसे, जन्म-मरणसे छूटनेके लिये बड़ा भारी अवसर दिया है। माता-पिताने पुत्रको न तो बन्धनमें डाला है और न उनका पुत्रको बन्धनमें, आफतमें डालनेका उद्देश्य ही है। वे प्रत्येक अवस्थामें, जाने-अनजाने सदा पुत्रका भला ही चाहते हैं और भला ही करते हैं। परन्तु हम पदार्थोंमें, भोगोंमें, परिस्थितियोंमें, व्यक्तियोंमें ममता करके उनसे सुख भोगनेकी इच्छासे ही बन्धनमें, आफतमें पड़ते हैं। तात्पर्य है कि अपने सुखकी इच्छा, सुखका भोग, सुखकी आशाका त्याग करके यदि पुत्र माता-पिताकी सेवाको परमात्मप्राप्तिका साधन मानकर तत्परतासे उनकी सेवा करे तो उसको संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी।
पुत्रको माता-पिताके कर्तव्यकी तरफ दृष्टि डालनी ही नहीं चाहिये। उसे तो केवल अपना ही कर्तव्य देखना चाहिये। जो अपने कर्तव्यको न देखकर माता-पिताके कर्तव्यको देखता है, वह अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है अर्थात् कर्तव्य-पालनसे पतित हो जाता है। किसी भी शास्त्रमें किसीको भी माता-पिताके, गुरुजनोंके कर्तव्यको देखनेका अधिकार नहीं दिया गया है। पहले मनुष्य किसीके कर्तव्यको नहीं देखते थे, प्रत्युत अपना कर्तव्य देखते थे, अपने कर्तव्यका पालन करते थे, इसीसे वे जीवन्मुक्त, भगवद्भक्त होते थे। अगर वे दूसरोंका कर्तव्य देखते, अपना ही स्वार्थ देखते तो आजकी तरह ही मनुष्य-समुदाय होता। जिन्होंने केवल अपना कर्तव्य देखा है, उसका पालन किया है, उन सन्त-महात्माओं, धर्मात्माओंको भारतकी जनता कितनी आदरदृष्टिसे देखती है! अत: मनुष्यको अपने कर्तव्यका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये।
कर्तव्यके विषयमें एक मार्मिक बात है कि केवल कर्तव्य समझकर उसका पालन करनेसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है; जैसे—जो माता-पिताकी सेवा केवल अपना कर्तव्य समझकर करते हैं, उनका माता-पितासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, उनका माता-पिताके चरणोंमें प्रेम नहीं होता। परन्तु जो अपने शरीरको माता-पिताका ही मानकर तत्परतासे आदर और प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करते हैं, उनका माता-पितामें प्रेम हो जाता है। जैसे मनुष्य भोजन करनेको, जल पीनेको अपना कर्तव्य नहीं मानते, प्रत्युत प्राणोंका आधार मानते हैं, ऐसे ही माता-पिताकी सेवाको प्राणोंका आधार मानना चाहिये। उनकी सेवाको ही अपना जीवन मानना चाहिये, अपना खास काम मानना चाहिये—
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि।
जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥
(मानस, अयोध्या० १४२। २)
इस प्रकार माता-पिताकी सेवाको अपने प्राणोंका, जीवनका आधार मानकर करनेसे ‘मैं’ और ‘मेरा’-पन मिट जाता है; क्योंकि शरीरको माता-पिताका ही मानकर उनकी सेवामें अर्पण करनेसे, शरीरपर अपना कोई अधिकार न माननेसे अहंता-ममता नहीं रहती।
प्रश्न—मनुष्य माता-पिताकी सेवाको भगवत्प्राप्तिका साधन मानता है, साध्य नहीं मानता। अगर वह माता-पिताकी सेवाको ही साध्य मानेगा, अपने प्राणोंका आधार मानेगा तो उसका माता-पिताके चरणोंमें ही प्रेम होगा, फिर उसको भगवत्प्रेम, भगवत्प्राप्ति कैसे होगी?
उत्तर—इसमें तीन बातें हैं—(१) जो माता-पिताकी सेवाको ही साधन और साध्य मानकर उनकी सेवा करता है, उनकी सेवाको अपने प्राणोंका आधार मानता है, उसकी माता-पिताके चरणोंमें प्रेम एवं भक्ति हो जाती है और अन्तमें उसको पितृलोककी प्राप्ति होती है। (२) जो परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखते हुए माता-पिताकी सेवाको अपना कर्तव्य समझकर करता है, उसको माता-पितासे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। (३) जो माता-पिताको साक्षात् भगवत्स्वरूप मानकर उनकी सेवा करता है, उसको भगवत्प्राप्ति हो जाती है। इन तीनोंमेंसे जिसमें जिसका भाव बैठे, वही करना चाहिये।
जैसे पतिव्रता स्त्री भगवान् की, शास्त्रोंकी, महापुरुषोंकी आज्ञाके अनुसार तन-मनसे पतिकी सेवा करती है, उसको पतिलोककी प्राप्ति होती है अर्थात् जो लोक पतिका है, वही लोक पतिव्रताका होता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर दुराचारी होनेके कारण पतिका लोक नरक है तो पतिव्रताका लोक भी नरक होगा! जिस स्त्रीने पतिसेवाको अपना धर्म (कर्तव्य) समझकर पातिव्रत धारण किया है, वह नरकोंमें कैसे जा सकती है? नहीं जा सकती। उसने पातिव्रत धारण किया है; अत: उसका जो लोक होगा, वही लोक पतिका भी होगा। तात्पर्य है कि पातिव्रतके तपोबलसे उसका और पतिका दोनोंका कल्याण हो जायगा। ऐसे ही जो माता-पिताकी सेवाको ही साधन और साध्य मानकर उनकी सेवा करता है, उसको और उसके माता-पिताको भगवान्की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि जो लोक पुत्रका होगा, वही लोक माता-पिताका (पितृलोक) होगा।
प्रश्न—कहा गया है कि यह शरीर हमारे कर्मोंसे, भाग्यसे मिला है—‘बड़ें भाग मानुष तनु पावा’; और भगवान्ने विशेष कृपा करके मनुष्यशरीर दिया है—‘कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥’ तो फिर यह शरीर माता-पितासे मिला है—यह कहना कहाँतक उचित है?
उत्तर—इस शरीरके मिलनेमें प्रारब्ध (कर्म) और भगवत्कृपा तो निमित्त कारण हैं और माता-पिता उपादान कारण हैं। जैसे, घड़ा मिट्टीसे बनता है तो मिट्टी घड़ेका उपादान कारण है और कुम्हार घड़ा बनानेमें निमित्त बनता है तो कुम्हार निमित्त कारण है। उपादान कारण (खास कारण) वह कहलाता है, जो कार्यरूपमें परिणत होनेमें कारण बनता है। निमित्त कारण कई होते हैं; जैसे—घड़ेके बननेमें कुम्हार, चक्का, डण्डा आदि कई निमित्त कारण हैं, पर कुम्हार मुख्य निमित्त कारण है। ऐसे ही शरीरके पैदा होनेमें माता-पिता ही खास उपादान कारण हैं; क्योंकि उनके रज-वीर्यसे ही शरीर बनता है।
जन्म और आयुके होनेमें तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके बननेमें कर्म निमित्त कारण हैं और ‘किस कर्मका कब, कहाँ क्या फल होगा; कैसी परिस्थिति बनेगी’—इस तरह कर्मफलकी व्यवस्था करनेमें, कर्मफल देनेमें भगवत्कृपा निमित्त कारण है अर्थात् यह सब भगवदिच्छासे, भगवान्के विधानसे ही होता है; क्योंकि कर्म जड़ होनेसे स्वयं कर्मफल नहीं दे सकते। अगर कर्मफलका विधान जीवोंके हाथमें होता तो वे शुभकर्मका ही फल लेते, अशुभ कर्मका फल लेते ही क्यों? जैसे संसारमें यह देखा जाता है कि मनुष्य शुभ कर्मका फल स्वयं स्वीकार करता है और अशुभ कर्म (चोरी, डकैती आदि)-का फल (दण्ड) स्वयं स्वीकार नहीं करता तो उसको राजकीय व्यवस्थासे दण्ड दिया जाता है।
माँ बच्चेके लिये कितना कष्ट उठाती है, उसको गर्भमें धारण करती है, जन्म देते समय असह्य पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है, बड़े लाड़-प्यारसे पालन-पोषण करती है, खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना आदि सिखाती है, ऐसी माँका ऋण पुत्र नहीं चुका सकता। अत: पुत्रको माँके प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिये। ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्रके भरण-पोषणका पूरा प्रबन्ध करता है, विद्या पढ़ाकर योग्य बनाता है, जीविका चलानेकी विद्या सिखाता है, विवाह कराता है, ऐसे पिताका ऋण थोड़े ही चुकाया जा सकता है। अत: माता-पिताका कृतज्ञ होकर जीते-जी उनकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको प्रसन्न रखना और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना आदि पुत्रका खास कर्तव्य है।
प्रश्न—माता-पिताने बचपनमें ही बच्चोंको अच्छी शिक्षा नहीं दी; अत: पुत्र माता-पिताकी सेवा नहीं करते तो इसमें पुत्रोंका क्या दोष?
उत्तर—माता-पिताके द्वारा अच्छी शिक्षा नहीं दी गयी तो उसके दोषी माता-पिता हुए; क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यका पालन नहीं किया। परन्तु माता-पिताके दोष देखना पुत्रका कर्तव्य नहीं है। उसको तो अपना कर्तव्य देखना चाहिये। दूसरोंका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य अपने कर्तव्यसे पतित हो जाता है। दूसरोंका कर्तव्य देखना ही भयंकर दोष है। गीताने भी अपने-आपसे अपना उद्धार करनेकी, अपना सुधार करनेकी बात कही है*; क्योंकि अच्छी शिक्षा मिलनेपर भी धारण तो खुद ही करेगा।
* उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥
(गीता ६।५)
‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।’
अच्छी शिक्षा मिलनेपर भी बालक उसको धारण न करे, बिगड़ जाय तो यह दोष स्वयं बालकका ही है। अत: अपना उद्धार और पतन मुख्यतासे अपनेपर ही लागू होता है।
प्रश्न—अगर माता-पिता पुत्रके साथ कठोरताका बर्ताव करें; पक्षपात करें तो उस पुत्रको क्या करना चाहिये?
उत्तर—उस पुत्रको माँ-बापका कर्तव्य नहीं देखना चाहिये। उसको तो अपना ही कर्तव्य देखना चाहिये और माँ-बापकी उत्साहपूर्वक विशेषतासे सेवा करनी चाहिये। रामचरितमानसमें तो हर एकके लिये कहा गया है—‘मंद करत जो करइ भलाई॥’ (५।४१।७)
अगर माता-पिता पुत्रका आदर करते हैं तो आदरमें पुत्रकी सेवा खर्च हो जाती है, बिक जाती है। परन्तु वे आदर न करके पुत्रका निरादर करते हैं तो पुत्रकी सेवा पूरी रह जाती है, खर्च नहीं होती। वे कष्ट देते हैं तो उससे पुत्रकी शुद्धि होती है, सहनशीलता बढ़ती है, तप बढ़ता है, महत्त्व बढ़ता है। अत: माता-पिताके दिये हुए कष्टको परम तप समझकर प्रसन्नतासे सहना चाहिये और यह समझना चाहिये कि ‘मेरेपर माँ-बापकी बड़ी कृपा है, जिससे मेरी सेवाका किंचिन्मात्र भी व्यय न होकर मेरेको शुद्ध सेवा, शुद्ध तपश्चर्याका लाभ मिल रहा है! ऐसा अवसर तो किसी भाग्यशालीको ही मिलता है और मेरा यह अहोभाग्य है कि माता-पिता मेरी सेवा स्वीकार कर रहे हैं!’ अगर वे सेवा स्वीकार न भी करें तो भी पुत्रका काम तो उनकी सेवा करना ही है। सेवामें कोई कमी, त्रुटि मालूम दे तो उसको तत्काल सुधार देना चाहिये और सेवामें ही तत्पर रहना चाहिये।
जो पुत्र धन, जमीन, मकान आदि पानेकी आशासे माँ-बापकी सेवा करता है, वह वास्तवमें धन आदिकी ही सेवा करता है, माँ-बापकी नहीं। पुत्रको तो केवल सेवाका ही सम्बन्ध रखना चाहिये। उसको माता-पितासे यही कहना चाहिये कि आपके पास जो धन-सम्पत्ति हो वह चाहे मेरे भाईको दे दो, चाहे बहनको दे दो, जिसको आप चाहो उसको दे दो, पर सेवा मेरेसे लो। माता-पिता हमारेसे सेवा ले लें—इसीमें उनकी कृपा माने।
प्रश्न—माता-पिता अनुचित, निषिद्ध कर्म करनेकी आज्ञा दें तो पुत्रको क्या करना चाहिये?
उत्तर—अनुचित आज्ञा दो तरहकी होती है— (१) ‘अमुकको मार दो’ आदि दूसरोंका अनिष्ट करनेकी आज्ञा देना और (२) ‘तुम घर छोड़कर वनमें जाओ’ आदि आज्ञा देना। इनमेंसे दूसरी आज्ञाका तो पालन करना चाहिये, पर पहली आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये। उसमें पिताकी सामर्थ्य देखनी चाहिये। अगर पिता समर्थ हो तो उस आज्ञाका पालन करनेमें कोई हर्ज नहीं है। जैसे जमदग्निने अपने पुत्र परशुरामजीसे कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है और तुम्हारे भाई मेरी आज्ञाका पालन नहीं करते; अत: इनको मार डालो तो परशुरामजीने उनका गला काट डाला। जमदग्निने प्रसन्न होकर कहा कि तुम वरदान माँगो। परशुरामजीने कहा कि माँ और भाइयोंको जीवित कर दो और उनको मेरे द्वारा मारे जानेकी बात याद न रहे। जमदग्निने ‘तथास्तु’ कहा और सब जीवित हो गये।
अगर पिता समर्थ नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है तो पुत्रको उस आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये। कारण कि अगर पुत्र उस अनुचित आज्ञाका पालन करेगा तो पिताको नरक होगा। जिस आज्ञाके पालनसे पिताको नरक हो, दु:ख पाना पड़े, ऐसी आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये। मैं भले ही नरकमें चला जाऊँ, पर पिता नरकमें न जाय—ऐसा भाव होनेसे न पुत्रको नरक होगा और न पिताको। तात्पर्य है कि पिताको नरकसे बचानेके लिये उनकी आज्ञा भंग कर दे, पर अनुचित काम कभी न करे।
अगर पिता समर्थ नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है, पर पुत्रने उम्रभर माता-पिताकी किसी भी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया है तो पुत्र उस अनुचित आज्ञाके पालनमें जल्दबाजी न करे, उसपर विचार करे और भगवान्को याद करे। जैसे, गौतमने अपने पुत्र चिरकारीसे कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है, उसको मार डालो; और ऐसा कहकर वे वनमें चले गये। चिरकारीने तलवार निकाली और पिताकी आज्ञापर विचार करने लगा। वहाँ गौतमके मनमें विचार आया कि उसको क्यों मारें, उसका त्याग भी तो कर सकते हैं। ऐसा विचार करके वे लौटकर आये तो उन्होंने देखा कि चिरकारी हाथमें तलवार लिये खड़ा है; अत: उन्होंने चिरकारीको मना कर दिया कि माँको मत मारो।
प्रश्न—गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है—
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन
बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि,
भये मुद-मंगलकारी॥
प्रह्लादने पिताका, विभीषणने भाईका, भरतने माँका, बलिने गुरुका और गोपियोंने पतिका त्याग कर दिया, तो क्या उनको दोष नहीं लगा?
उत्तर—यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि उन्होंने पिता आदिका त्याग किस विषयमें, किस अंशमें किया? हिरण्यकशिपु प्रह्लादजीको बहुत कष्ट देता था, पर प्रह्लादजी उसको प्रसन्नतापूर्वक सहते थे। वे इस बातको मानते थे कि यह शरीर पिताका है; अत: वे इस शरीरको चाहे जैसा रखें, इसपर उनका पूरा अधिकार है। इसीलिये उन्होंने पिताजीसे कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको कष्ट क्यों दे रहे हैं? परन्तु मैं (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अत: मैं भगवान्की सेवामें, भजनमें लगा हूँ; पिताजी इसमें बाधा देते हैं, मुझे रोकते हैं—यह उचित नहीं है। इसलिये प्रह्लादजीने पिताजीकी उस आज्ञाका त्याग किया, जिससे उनको नरक न हो जाय। अगर वे पिताजीकी आज्ञा मानकर भगवद्भक्तिका त्याग कर देते तो इसका दण्ड पिताजीको भोगना पड़ता। पुत्रके द्वारा ऐसा कोई भी काम नहीं होना चाहिये, जिससे पिताको दण्ड भोगना पड़े। इसी दृष्टिसे उन्होंने पिताकी आज्ञा न मानकर पिताका हित ही किया, पिताका त्याग नहीं किया।
रावणने विभीषणको लात मारी और कहा कि तुम यहाँसे चले जाओ तो विभीषणजी रामजीके पास चले गये। अत: विभीषणने भाईका त्याग नहीं किया। प्रत्युत उसके अन्यायका त्याग किया; अन्यायका समर्थन, अनुमोदन नहीं किया। विभीषणने रावणको उसके हितकी बात ही कही और उसका हित ही किया।
माँने रामजीको वनमें भेज दिया, दु:ख दिया—इस विषयमें ही भरतने माँका त्याग किया है। भरतका कहना था कि जैसे कौसल्या अम्बा मेरेपर रामजीसे भी अधिक स्नेह करती हैं, ऐसे ही तेरेको भी रामजीपर मेरेसे भी अधिक स्नेह करना चाहिये था; परन्तु रामजीको तूने वनमें भेज दिया! जब तू रामजीकी भी माँ नहीं रही तो फिर मेरी माँ कैसे रहोगी? इस विषयमें तेरेको दण्ड देना मेरे लिये उचित नहीं है। मैं तो यह कर सकता हूँ कि तेरेको ‘माँ’ नहीं कहूँ और मैं क्या करूँ!
बलिने गुरुका इस अंशमें त्याग किया कि साक्षात् भगवान् ब्राह्मणवेशमें आकर मेरेसे याचना कर रहे हैं, पर गुरुजी मेरेको दान देनेसे रोक रहे हैं; अत: मैं गुरुकी बात नहीं मानूँगा। गुरुकी बातका त्याग भी बलिने गुरुके हितके लिये ही किया। बलि दान देनेके लिये तैयार ही थे। अगर उस समय वे गुरुकी बात मानते तो उसका दोष गुरुको ही लगता। अत: उन्होंने गुरुका शाप स्वीकार कर लिया और उस दोषसे, अहितसे गुरुको बचा लिया। स्वयं दण्ड भोग लिया, पर गुरुको दण्डसे बचा लिया तो यह गुरु-सेवा ही हुई!
पति भगवान्के सम्मुख होनेके लिये रोक रहे थे—इसी विषयमें गोपियोंने पतियोंका त्याग किया। अगर वे पतिकी बात मानतीं तो पति पापके भागी होते; अत: पतिकी बात न मानकर उन्होंने पतियोंको पापसे ही बचाया।
तात्पर्य है कि मनुष्यशरीरकी सार्थकता परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है। अत: उसमें सहायक होनेवाला हमारा हित करता है और उसमें बाधा देनेवाला हमारा अहित करता है। प्रह्लाद आदि सभीने परमात्मप्राप्तिमें बाधा देनेवालेका ही त्याग किया है, पिता आदिका नहीं। इसीलिये उनका मंगल-ही-मंगल हुआ।
प्रश्न—माताका दर्जा ऊँचा है या पिताका? और ऊँचा होनेमें क्या कारण है?
उत्तर—ऊँचा दर्जा माँका ही है। माँका दर्जा पितासे सौ गुणा अधिक बताया गया है—‘सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु० २।१४५)। रामजी जब वनवासके लिये जाने लगे, तब वे माँके पास गये और माँके चरणोंमें पड़कर कहा कि ‘माँ! मुझे वनवासकी आज्ञा हुई है।’ माँने कहा कि अगर केवल पिताकी ऐसी आज्ञा है तो फिर माँको बड़ी समझकर तुम वनमें मत जाओ—
जौं केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥
(मानस, अयोध्या० ५६। १)
हाँ, अगर तुम्हारी छोटी माँ और पिताने वनमें जानेके लिये कह दिया है तो* वन तुम्हारे लिये सौ अयोध्याके समान है—
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना॥
(मानस, अयोध्या० ५६। २)
* कौसल्या अम्बाने अपनेसे भी अधिक छोटी माँ (विमाता)-का आदर करनेकी जो बात कही है, यह उनका उदारभाव है। कौसल्याने सबको यह शिक्षा दी है कि माँसे भी विमाताका अधिक आदर करना चाहिये, जिससे परिवारमें परस्पर प्रेम बना रहे।
पिता तो धन-सम्पत्ति आदिसे पुत्रका पालन-पोषण करता है, पर माँ अपना शरीर देकर पुत्रका पालन-पोषण करती है। धन-सम्पत्ति आदि तो ममताकी वस्तुएँ हैं और शरीर अहंताकी। ममतासे अहंता नजदीक होती है। ममताकी वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं और शरीर अपेक्षाकृत रहता है। अत: माँका दर्जा ऊँचा होना ही चाहिये।
माँने अपनी युवावस्थाका नाश किया है। अपना शरीर देकर, अपना दूध पिलाकर पालन-पोषण किया है। माँने दाईका, नाईका, धोबीका, दर्जीका, गुरुका काम भी किया है! और तो क्या, टट्टी-पेशाब उठाकर मेहतरका काम भी किया है! वह काम भी भाररूपसे नहीं, प्रत्युत बड़े स्नेहपूर्वक, ममतापूर्वक, उत्साहपूर्वक किया है और बदलेमें लेनेकी भावना नहीं रखी है। जब बच्चा बीमार हो जाता है, तब माँके शरीरका बल घट जाता है। अत: संसारमें माँके समान बच्चेका पालन-पोषण करनेवाला और कौन है! ‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम्।’ इसीलिये माँका दर्जा ऊँचा है। शास्त्रोंमें आया है कि पुत्र साधु-संन्यासी बन जाय, फिर भी यदि माँ सामने आ जाय तो वह माँको साक्षात् दण्डवत् प्रणाम करे। इतना ऊँचा दर्जा और किसका हो सकता है!
प्रश्न—माता-पिताकी सेवासे क्या लाभ है?
उत्तर—माता-पिताकी सेवासे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं, भगवान् प्रसन्न होते हैं। जो माता-पिताकी सेवा नहीं करते, उनपर भगवान् विश्वास नहीं करते कि यह अपने माँ-बापकी भी सेवा, भक्ति नहीं करता तो फिर मेरी भक्ति कहाँतक करेगा!
पुण्डरीकने तन-मनसे तत्परतापूर्वक माता-पिताकी सेवा की। उसकी सेवासे प्रसन्न होकर भगवान् बिना बुलाये ही पुण्डरीकके घर आ गये और बोले—‘पुण्डरीक! तेरी माता-पिताकी भक्तिसे प्रसन्न होकर मैं स्वयं तेरे पास तेरेको दर्शन देने आया हूँ।’ पुण्डरीक उस समय माता-पिताकी सेवामें लगे हुए थे; अत: वे भगवान्से बोले—‘माता-पिताकी जिस सेवाके कारण आप यहाँ मुझे दर्शन देने आये हैं, उस सेवाको मैं क्यों छोड़ूँ? अभी मैं माता-पिताकी सेवामें लगा हुआ हूँ; सेवा पूरी होनेपर ही मैं आपके दर्शन कर सकता हूँ; तबतक आप रुकना चाहें तो इन ईंटोंपर खड़े हो जायँ।’ ऐसा कहकर पुण्डरीकने दो ईंटें पीठके पीछे फेंक दीं। भगवान् उनपर खड़े हो गये! ईंटोंपर खड़े होनेके कारण भगवान्का नाम ‘विट्ठल’ पड़ गया। भगवान्के इस रूपका कोई दर्शन करना चाहे तो पण्ढरपुर (महाराष्ट्र)-में कर सकता है। इसी प्रकार महाभारतमें मूक चाण्डालकी बात आती है। मूक चाण्डालकी माता-पितामें भक्ति देखकर स्वयं भगवान् उसके घरपर रहते थे! तात्पर्य है कि माता-पिताकी सेवासे लौकिक-पारलौकिक सब तरहके लाभ होते हैं।
प्रश्न—जब माता-पिताकी सेवाका इतना माहात्म्य है तो फिर उनकी सेवाको छोड़कर मनुष्य साधु-संन्यासी क्यों हो जाते हैं?
उत्तर—जैसे कोई मर जाता है तो वह माता-पिताकी सेवाको छोड़कर ही मरता है, पर वह दोषका भागी नहीं होता, ऐसे ही जिसको संसारसे असली वैराग्य हो जाता है, वह दोषका भागी नहीं होता। इसी तरह जो सर्वथा भगवान्के शरण हो जाता है, उसको भी कोई दोष नहीं लगता; क्योंकि उसपर किसीका भी ऋण नहीं रहता—
देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां
न किंकरो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मना य: शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम्॥
(श्रीमद्भा० ११। ५। ४१)
‘राजन्! जो सब कामोंको छोड़कर सम्पूर्णरूपसे शरणागतवत्सल भगवान्की शरणमें आ जाता है, वह देव, ऋषि, प्राणी, कुटुम्बीजन और पितृगण—इनमेंसे किसीका भी ऋणी और सेवक नहीं रहता।’
तात्पर्य है कि जो मनुष्यजन्मके वास्तविक ध्येय भगवान्में लगा है, उसके द्वारा यदि माता-पिताकी सेवाका, परिवारका त्याग हो जाय तो उसको दोष नहीं लगता।
प्रश्न—दो-चार लड़के हों और उनमेंसे कोई साधु-संन्यासी बन जाय तो कोई बात नहीं, पर किसीका एक ही लड़का हो, वह अगर साधु-संन्यासी बन जाय तो उसके माता-पिता किसके सहारे जियें?
उत्तर—उस लड़केको चाहिये कि जबतक माता-पिता हैं, तबतक उनकी सेवा करता रहे, उनको छोड़े नहीं; क्योंकि भगवत्प्राप्तिमें साधु होना कोई कारण नहीं है, प्रत्युत संसारसे वैराग्य और भगवान्में प्रेम होना ही कारण है। अत: वह माता-पिताकी सेवा करते हुए ही भजन-स्मरण करे तो उसके लिये भगवत्प्राप्ति होनेमें कोई बाधा नहीं है, प्रत्युत माता-पिताकी प्रसन्नतासे भगवत्प्राप्तिमें सहायता ही मिलेगी। तात्पर्य है कि माता-पिताके ऋणको अदा किये बिना उनका त्याग नहीं करना चाहिये। परन्तु तीव्र वैराग्य हो जाय, भगवान्के चरणोंमें अनन्य प्रेम हो जाय, ऐसी अवस्थामें माता-पिताकी सेवा छूट जाय तो उसको दोष नहीं लगेगा।
जो घरमें बैठा है, पर माँ-बापकी सेवा नहीं करता केवल अपने स्त्री-पुत्रोंके पालनमें ही लगा है, उसको दोष (पाप) लगेगा ही। ऐसे ही जो माँ-बापको, घर-परिवारको छोड़कर साधु बना है और मकान, आश्रम बनाता है, रुपये इकट्ठा करता है, चेला-चेली बनाता है, ऐश-आराम करता है, उसको माँ-बापकी सेवा न करनेका पाप लगेगा ही।
प्रश्न—अगर कोई साधु-संन्यासी बनकर रुपये इकट्ठा करता है और माता-पिता, स्त्री-पुत्रोंको रुपये भेजता है, उनका पालन-पोषण करता है तो क्या उसको दोष लगेगा?
उत्तर—जो साधु-संन्यासी बनकर माँ-बाप आदिको रुपये भेजते हैं, वे तो पापके भागी हैं ही, पर जो उनके दिये हुए रुपयोंसे अपना निर्वाह करते हैं, वे भी पापके भागी हैं; क्योंकि वे दोनों ही शास्त्र-आज्ञाके विरुद्ध काम करते हैं। माता-पिताकी सेवा तो वे गृहस्थाश्रममें ही रहकर करते, पर वे अवैध काम करके संन्यास-आश्रमको दूषित करते हैं तो उनको पाप लगेगा ही। वे पापसे बच नहीं सकते!
प्रश्न—अगर घरमें माँका पालन करनेवाला, सँभालनेवाला कोई न रहा हो तो उस अवस्थामें साधु-संन्यासी बना हुआ लड़का माँका पालन कर सकता है या नहीं?
उत्तर—माँका कोई आधार न रहे तो साधु बननेपर भी वह माँका पालन कर सकता है और पालन करना ही चाहिये। असमर्थ अवस्थामें तो दूसरे प्राणियोंकी भी सेवा करनी चाहिये, फिर माँ तो शरीरकी जननी है! वह अगर असमर्थ अवस्थामें है तो उसकी सेवा करनेमें कोई दोष नहीं है।
प्रश्न—पुत्री (कन्या) तो पतिके घर चली जाती है तो फिर वह माँ-बापकी सेवा कैसे कर सकती है और सेवा किये बिना माँ-बापका ऋण माफ कैसे हो सकता है?
उत्तर—जैसे, किसीपर इतना अधिक ऋण हो जाय कि उसको चुकानेकी मनमें होनेपर भी वह चुका न सके तो वह ऋणदाताके पास जाकर कह दे कि मैं और मेरे स्त्री-पुत्र, घर, जमीन आदि सब आपके समर्पित हैं; अब आप इनका जैसा उपयोग करना चाहें, वैसा कर सकते हैं। ऐसा करनेसे उसपर ऋण नहीं रहता, ऋण माफ हो जाता है। इसी तरह कन्या बचपनसे ही माता-पिताके समर्पित रहती है। वह अपने मनकी कुछ भी नहीं रखती। माता-पिता जहाँ उसका सम्बन्ध (विवाह) करा देते हैं, वह प्रसन्नतापूर्वक वहीं चली जाती है। वह अपने गोत्रको भी पतिके गोत्रमें मिला देती है। जिसने ऐसा त्याग किया है, उसपर माता-पिताका ऋण कैसे रह सकता है? नहीं रह सकता।
प्रश्न—माँ-बापका कोई सहारा न रहे तो ऐसी अवस्थामें विवाहित पुत्री माँ-बापका पालन कर सकती है या नहीं?
उत्तर—वह असहाय माँ-बापकी सेवा कर सकती है। यदि विवाहित पुत्रीकी सन्तान है तो माँ-बाप उसके घरका अन्न-जल ले सकते हैं, उसके घरपर रह सकते हैं। परन्तु यदि उसकी कोई सन्तान नहीं है तो माँ-बापको उसके घरका अन्न-जल लेनेका अधिकार नहीं है।
माता-पिताने कन्याका दान (विवाह) कर दिया तो अब वे उसके घरका अन्न नहीं ले सकते; क्योंकि दान दी हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता। परन्तु कन्यासे सन्तान (पुत्र या पुत्री) होनेपर माता-पिता कन्याके यहाँका अन्न ले सकते हैं। कारण यह है कि कन्याके पति (दामाद)-ने केवल पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही दूसरेकी कन्या स्वीकार की है और उससे सन्तान होनेपर वह पितृ-ऋणसे मुक्त हो जाता है। अत: सन्तान होनेपर माता-पिताका कन्यापर अधिकार हो जाता है, तभी तो दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण कर सकता है।
माता-पिता साक्षात् परमात्माके स्वरूप हैं। अत: उनको परमात्माका स्वरूप मानकर पुत्रको सदा उनकी सेवामें ही तत्पर रहना चाहिये। उनकी सेवामें कमी, त्रुटि नहीं रहनी चाहिये; क्योंकि यह शरीर माता-पिताका ही है।