गीता गंगा
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अहंता (मैं-पन)

मैं-पन ही मात्र संसारका बीज है॥२१॥

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शरीरको मैं-मेरा माननेसे तरह-तरहके और अनन्त दु:ख आते हैं॥२२॥

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एक अहम‍्के त्यागसे अनन्त सृष्टिका त्याग हो जाता है; क्योंकि अहम‍्ने ही सम्पूर्ण जगत‍्को धारण कर रखा है॥२३॥

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‘मैं बन्धनमें हूँ’—इसमें जो ‘मैं’ है, वही ‘मैं मुक्त हूँ’ अथवा ‘मैं ब्रह्म हूँ’—इसमें भी है! इस ‘मैं’ (अहम्)-का मिटना ही वास्तवमें मुक्ति है॥२४॥

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जगत्, जीव और परमात्मा—ये तीनों एक ही हैं, पर अहंताके कारण ये तीन दीखते हैं॥२५॥

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वास्तवमें असंगता शरीरसे ही होनी चाहिये। समाजसे असंगता होनेपर अहंता (व्यक्तित्व) मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है॥२६॥

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हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम‍् नहीं है—यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवन्मुक्ति है॥२७॥

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संघर्ष जाति या धर्मको लेकर नहीं होता, प्रत्युत अहंकारसे पैदा होनेवाले स्वार्थ और अभिमानको लेकर होता है॥२८॥

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अपनेमें विशेषता देखना अहंताको, परिच्छिन्नताको, देहाभिमानको पुष्ट करता है॥२९॥

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भगवान‍्से उत्पन्न हुई सृष्टि भगवद्‍रूप ही है, पर जीव अहंता, आसक्ति, रागके कारण उसको जगद्‍रूप बना लेता है॥३०॥

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