कर्तव्य
मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है। कर्तव्यका यथार्थ स्वरूप है—सेवा अर्थात् संसारसे मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको संसारके हितमें लगाना॥५७॥
••••
अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है। इसके विपरीत अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक खिन्नता रहती है॥ ५८॥
••••
साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है, जब वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’ अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर, केवल संसारकी और संसारके लिये ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण करनेमें लग जाय॥ ५९॥
••••
वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते॥६०॥
••••
कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है॥६१॥
••••
जिससे दूसरोंका हित होता है, वही कर्तव्य होता है। जिससे किसीका भी अहित होता है, वह अकर्तव्य होता है॥६२॥
••••
राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या कठिनाई प्रतीत होती है॥६३॥
••••
जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’ है। कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और तमोगुण नरक है—‘नरकस्तमउन्नाह:’ (श्रीमद्भा० ११।१९।४३)॥६४॥
••••
अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्’ और दूसरेके हितके लिये किये गये कर्म ‘सत्’ होते हैं। असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और सत्-कर्मका परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है॥६५॥
••••
अच्छे-से-अच्छा कार्य करो, पर संसारको स्थायी मानकर मत करो॥६६॥
••••
जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है॥६७॥
••••
दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही अकर्तव्य है॥६८॥
••••
गृहस्थ हो अथवा साधु हो, जो अपने कर्तव्यका ठीक पालन करता है, वही श्रेष्ठ है॥६९॥
••••
अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी उत्पत्ति होती है॥७०॥
••••
अपने कर्तव्य (धर्म)-का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है—‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३। १६। १)। यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया॥७१॥
••••
अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है। परन्तु कामना और ममता होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते॥७२॥
••••
चारों वर्णों और आश्रमोंमें श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जो अपने कर्तव्यका पालन करता है। जो कर्तव्यच्युत होता है, वह छोटा हो जाता है॥७३॥
••••
संसारके सभी सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं, न कि अधिकार जमानेके लिये। सुख देनेके लिये हैं, न कि सुख लेनेके लिये॥७४॥
••••
एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना भी अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा। परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम जानते हैं!॥७५॥