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प्रकीर्ण

साधकके भीतर हर समय यह भाव रहना चाहिये कि मैं यहाँका निवासी नहीं हूँ, प्रत्युत (भगवान‍्का ही अंश होनेसे) भगवद्धामका निवासी हूँ॥९०२॥

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अपनी कमाईमें किसीके हकका एक कण भी न आ जाय—इस बातकी पूरी सावधानी रखनी चाहिये॥९०३॥

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जब चेतन जड़से ‘तादात्म्य’ कर लेता है, तब परिच्छिन्नता अर्थात् अहंता उत्पन्न होती है। अहंतासे ‘ममता’ उत्पन्न होती है, जिससे विकार पैदा होते हैं। ममतासे ‘कामना’ उत्पन्न होती है, जिससे अशान्ति पैदा होती है॥९०४॥

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साधक ऐसा माने कि मैं जो कुछ करता हूँ, वह भगवान‍्की पूजा है और जो कुछ हो रहा है, वह भगवान‍्की लीला है॥९०५॥

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वर्तमानमें मनुष्य पशुसे भी नीचे गिरता चला जा रहा है; क्योंकि पशु तो अपने निर्वाहकी वस्तु ही लेता है, दूसरोंका हक नहीं मारता, पर मनुष्य दूसरोंका भी हक मारकर संग्रह करता है॥९०६॥

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शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्तिका प्रबन्ध तो परमात्माकी तरफसे है, पर तृष्णाकी पूर्तिके लिये कोई प्रबन्ध नहीं॥९०७॥

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साधक जब अपने दोषोंको दोषरूपसे देखकर उनके दु:खसे दु:खी हो जाता है, उनका रहना उसे असह्य हो जाता है, तो फिर उसके दोष ठहर नहीं सकते। भगवान‍्की कृपा उन दोषोंका शीघ्र ही नाश कर देती है॥९०८॥

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नेत्रोंसे ज्यादा याद मनको रहती है, मनसे ज्यादा याद बुद्धिको रहती है और बुद्धिसे ज्यादा याद स्वयंको रहती है। स्वयं जिस बातको पकड़ लेता है, वह बात हरदम याद रहती है॥९०९॥

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अपने-अपने स्थान या क्षेत्रमें जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष सावधानी रखनेकी अत्यधिक आवश्यकता है, जिससे दूसरे लोगोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े॥९१०॥

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करना चाहते हो तो सेवा करो, जानना चाहते हो तो अपने-आपको जानो और मानना चाहते हो तो प्रभुको मानो। तीनोंका परिणाम एक ही होगा॥९११॥

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जैसे कलम बढ़िया होनेसे लिखाई तो बढ़िया हो सकती है, पर उससे लेखक बढ़िया नहीं हो जाता, ऐसे ही करण (अन्त:करण) शुद्ध होनेसे क्रिया तो शुद्ध हो सकती है, पर उससे कर्ता शुद्ध नहीं हो जाता॥९१२॥

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लोग हमें जितना अच्छा समझते हैं, उतने अच्छे हम नहीं होते और लोग हमें जितना बुरा समझते हैं, उससे हम अधिक बुरे होते हैं—इस वास्तविकताको समझकर ‘लोग हमें अच्छा समझें’—इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये और अपनी दृष्टिमें अच्छे-से-अच्छा बननेकी चेष्टा करनी चाहिये॥९१३॥

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संयोगजन्य सुखकी लालसा जितनी घातक है, उतना सुख घातक नहीं है। शरीर बना रहे—यह भाव जितना घातक है, उतना शरीर घातक नहीं है। कुटुम्बका मोह जितना घातक है, उतना कुटुम्ब घातक नहीं है। रुपयोंका लोभ जितना घातक है, उतने रुपये घातक नहीं हैं॥९१४॥

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जो दीखता है, उस संसारको अपना नहीं मानना है, प्रत्युत उसकी सेवा करनी है और जो नहीं दीखता, उस भगवान‍्को अपना मानना है तथा उसको याद करना है॥९१५॥

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मिले हुए संसारका दुरुपयोग मत करो, जाने हुए तत्त्वका अनादर मत करो और माने हुए परमात्मामें सन्देह मत करो॥९१६॥

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हमारे हृदयमें जड़ता (शरीर-संसार)-का जितना आदर हुआ है, उतना ही परमात्माका अनादर हुआ है और वह अनादर ही हमारा पतन करेगा, हमारी अधोगति करेगा॥९१७॥

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नाशवान‍् पदार्थोंकी महत्त्वबुद्धि मनुष्यको पददलित करती है और परमात्माकी महत्त्वबुद्धि उसको ऊँचा उठाती है॥९१८॥

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जो जिस वस्तु, व्यक्ति आदिका दुरुपयोग करता है, उसको उससे वंचित होनेका दु:ख भोगना ही पड़ता है॥९१९॥

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जो अपना है, वह सदा ही अपना है और जो किसी भी समय अपना नहीं है, वह कभी भी अपना नहीं हो सकता॥९२०॥

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जो सभीका होता है, वही हमारा होता है। जो किसी भी समय किसीका नहीं होता, वह हमारा हो ही नहीं सकता॥९२१॥

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साधकका जिस-किसी वस्तु, व्यक्ति आदिमें खिंचाव हो, उसमें वह भगवान‍्का ही चिन्तन करे॥ ९२२॥

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सब जगह समरूप परमात्माको देखना समदृष्टि है और प्रकृति तथा उसके कार्य (शरीर-संसार)-को देखना विषमदृष्टि है॥ ९२३॥

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मनुष्यको अपना संकल्प नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत भगवान‍्के संकल्पमें अपना संकल्प मिला देना चाहिये अर्थात् भगवान‍्के विधानमें परम प्रसन्न रहना चाहिये॥ ९२४॥

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हर समय यह सावधानी रहनी चाहिये कि मेरे द्वारा किसीको कोई कष्ट तो नहीं पहुँच रहा है, किसीको कोई हानि तो नहीं हो रही है?॥ ९२५॥

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यह नियम ले लें कि कोई हमारे मनकी बात पूरी न करे तो हम नाराज नहीं होंगे॥ ९२६॥

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संसारका मालिक परमात्मा है और शरीरका मालिक मैं हूँ— ऐसा मानना गलती है। जो संसारका मालिक है, वही शरीरका भी मालिक है॥ ९२७॥

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जैसे बालक हर अवस्थामें माँको ही पुकारता है, ऐसे ही हर अवस्थामें भगवान‍्को ही पुकारो॥ ९२८॥

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न्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें शान्ति और अन्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें अशान्ति रहती है॥ ९२९॥

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जिससे अपना और दूसरोंका, वर्तमानमें और परिणाममें अहित होता हो, वह सब असत्-कर्म है॥ ९३०॥

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संसारमें जो वस्तु आपके हक (अधिकार)-की और प्राप्त है, वह भी सदा आपके साथ नहीं रहेगी, फिर जो वस्तु बिना हककी और अप्राप्त है, उसकी आशा करनेसे क्या लाभ?॥९३१॥

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यदि जानना ही हो तो अविनाशीको जानो, विनाशीको जाननेसे क्या लाभ?॥९३२॥

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विचार करें कि जिसमें हमारा हित है और जिसको हम कर सकते हैं; उसको हम करते हैं क्या?॥९३३॥

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जानेवालेको जानेवाला समझना और रहनेवालेको रहनेवाला समझना—यही यथार्थ समझ है॥९३४॥

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जिसको पीछे सुलटा न कर सकें, ऐसा उलटा काम कभी नहीं करना चाहिये॥९३५॥

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प्रत्येक परिस्थिति भगवान‍्की लीला (खेल) है, उसे देख-देखकर मस्त होते रहो!॥९३६॥

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द्वैत और अद्वैत केवल मान्यता है। तत्त्वमें न द्वैत है, न अद्वैत॥९३७॥

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यदि हमने कोई अपराध नहीं किया है, हमारा कृत्य ठीक है तो फिर भय नहीं होना चाहिये। अगर भय होता है तो कुछ-न-कुछ, कहीं-न-कहीं हमारी गलती है अथवा अपनी निर्दोषतापर हमारा दृढ़ विश्वास नहीं है॥९३८॥

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प्रत्येक कार्यके आरम्भमें यह विचार करना चाहिये कि हम यह कार्य क्यों कर रहे हैं?॥९३९॥

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ठीक-बेठीक हमारी दृष्टिमें होता है। भगवान‍्की दृष्टिमें सब ठीक-ही-ठीक होता है, बेठीक होता ही नहीं॥९४०॥

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दूसरे हमारेमें गुण देखते हैं तो यह उनकी सज्जनता और उदारता है, पर उन गुणोंको अपना मान लेना उनकी सज्जनता और उदारताका दुरुपयोग है॥९४१॥

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विद्या प्राप्त करनेका सबसे बढ़िया उपाय है—गुरुकी आज्ञाका पालन करना, उनकी प्रसन्नता लेना। उनकी प्रसन्नतासे जो विद्या आती है, वह अपने उद्योगसे नहीं आती॥९४२॥

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भगवान‍्को पुकारनेसे जो काम होता है, वह विवेक-विचारसे नहीं होता॥९४३॥

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भगवान‍्के न मिलनेका दु:ख हजारों सांसारिक सुखोंसे बढ़कर है॥९४४॥

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जैसे वैद्य जो दवा दे, उसीमें हमारा हित है, ऐसे ही भगवान‍् जो विधान करें, उसीमें हमारा परम हित है॥९४५॥

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जैसे गायके शरीरमें रहनेवाला घी काम नहीं आता, ऐसे ही सीखा हुआ ज्ञान काम नहीं आता॥९४६॥

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‘मैं ज्ञानी हूँ’ और ‘मैं अज्ञानी हूँ’—ये दोनों ही मान्यताएँ अज्ञानियोंकी हैं॥९४७॥

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चरित्रकी सुन्दरता ही असली सुन्दरता है॥९४८॥

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याद करो तो भगवान‍्को याद करो, काम करो तो सेवा करो॥९४९॥

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सच्ची बातको स्वीकार करना मनुष्यका धर्म है॥९५०॥

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एक-एक व्यक्ति खुद सुधर जाय तो समाज सुधर जायगा॥९५१॥

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अगर अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता-पिताको सुख पहुँचाओ, उनकी सेवा करो॥९५२॥

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किसीके अहितकी भावना करना अपने अहितको निमन्त्रण देना है॥९५३॥

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याद रखो, भगवान‍्का प्रत्येक विधान आपके परम हितके लिये है॥९५४॥

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किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी अपनी विशेषता दीखती है, यह वास्तवमें पराधीनता है॥९५५॥

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अन्तमें अकेला ही जाना पड़ेगा, इसलिये पहलेसे ही अकेला हो जाय अर्थात् वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे असंग हो जाय, इनका आश्रय न ले॥९५६॥

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ग्रहण करनेयोग्य सर्वोपरि एक नियम है—भगवान‍्को याद रखना और त्याग करनेयोग्य सर्वोपरि एक नियम है—कामनाका त्याग करना॥९५७॥

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‘सन्तोष’ समाज-सुधारका मूल मन्त्र है॥९५८॥

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एकतामें अनेकता और अनेकतामें एकता हिन्दूधर्मकी विशेषता है॥९५९॥

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असत्यका आश्रय लेनेवाला व्यक्ति हमारा नुकसान नहीं कर सकता॥९६०॥

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संसारमें भगवद्भक्तिके समान मूल्यवान् कोई चीज नहीं है॥९६१॥

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परिस्थितिको बदलनेका उद्योग निष्फल होता है और उसके सदुपयोगका उद्योग सफल होता है॥ ९६२॥

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मनुष्य जितनी अधिक आवश्यकता पैदा करता है, उतना ही वह पराधीन हो जाता है॥ ९६३॥

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यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि परमात्माकी दी हुई चीज तो अच्छी लगती है, पर परमात्मा अच्छे नहीं लगते!॥ ९६४॥

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लोग हमें अच्छा मानें या न मानें, अच्छा जानें या न जानें, अच्छा कहें या न कहें, पर हमारे भाव अगर अच्छे हैं तो हमारे चित्तमें हर समय प्रसन्नता रहेगी और मरनेपर सद‍्गति होगी॥ ९६५॥

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अगर कोई खराब चिन्तन आ जाय तो सावधान हो जायँ कि यदि इस समय मृत्यु हो जाय तो क्या गति होगी? अगर सब समय प्रभुका स्मरण होता रहे तो मृत्यु कभी भी आ जाय, कोई चिन्ता नहीं है॥९६६॥

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व्यक्तिगत जीवन बिगड़नेसे पूरा समाज बिगड़ जाता है और व्यक्तिगत जीवन सुधरनेसे पूरा समाज सुधर जाता है; क्योंकि व्यक्तियोंसे ही समाज बनता है॥ ९६७॥

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भगवान‍्के वियोगसे होनेवाला दु:ख (विरह) सांसारिक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है॥ ९६८॥

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जिसको भगवान‍्, शास्त्र, गुरुजन और जगत‍्से भय लगता है, वह वास्तवमें निर्भय हो जाता है॥९६९॥

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हमसे अलग वही होगा, जो सदासे ही अलग है और मिलेगा वही, जो सदासे ही मिला हुआ है॥९७०॥

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दूसरेकी प्रसन्नतासे मिली हुई वस्तु दूधके समान है, माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान है और दूसरेका दिल दुखाकर ली हुई वस्तु रक्तके समान है॥९७१॥

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भूलकी चिन्ता, पश्चात्ताप न करके आगेके लिये सावधान हो जाओ, जिससे फिर वैसी भूल न हो॥९७२॥

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मिटनेवाली चीज एक क्षण भी टिकनेवाली नहीं होती॥९७३॥

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अपनेमें विशेषता केवल व्यक्तित्वके अभिमानसे दीखती है॥९७४॥

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वस्तुओंके बिना भी हम रह सकते हैं। जिनके बिना हम रह सकते हैं, उनके हम गुलाम क्यों बनें?॥९७५॥

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शरीर नजदीक दीखता है और परमात्मा दूर दीखते हैं—यही अज्ञान है। कारण कि शरीर नित्य अप्राप्त है और परमात्मा नित्यप्राप्त हैं। शरीरके साथ हमारा एक क्षण भी संयोग नहीं होता और परमात्माके साथ हमारा एक क्षण भी वियोग नहीं होता॥९७६॥

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शरीरको संसारसे और स्वयंको परमात्मासे अलग मानना गलती है॥९७७॥

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सच्चे धर्मात्मा मनुष्यको किसीकी भी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज (आवश्यकता) रहती है॥९७८॥

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अगर मनुष्य अपने विवेकका अनादर करता है तो उसका विवेक लुप्त हो जाता है और वह अपने विवेकका आदर करता है तो उसका विवेक इतना बढ़ता है कि शास्त्र तथा गुरुके बिना भी उसको परमात्मातक पहुँचा देता है॥९७९॥

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जब हम सबकी बात नहीं मानते, तो फिर दूसरा कोई हमारी बात न माने तो हमें नाराज नहीं होना चाहिये॥९८०॥

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भीतरमें लोभ न हो तो आवश्यक वस्तु अपने-आप प्राप्त होती है; क्योंकि वस्तुका लोभ ही वस्तुकी प्राप्तिमें बाधक है॥९८१॥

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किसी भी व्यक्तिका निरादर नहीं करना चाहिये। निरादर करनेसे वास्तवमें अपना ही निरादर होता है; क्योंकि सब जगत् ईश्वररूप है॥९८२॥

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भारतवर्षमें जन्म लेकर भी मनुष्य भगवान‍्में न लगे—यह बड़े आश्चर्य और दु:खकी बात है! क्योंकि भारतवर्षमें जन्म मुक्त होनेके लिये ही होता है। इसलिये देवता भी भारतवर्षमें जन्म चाहते हैं॥९८३॥

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धर्मका मूल है—स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित॥९८४॥

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धर्मके अनुसार खुद चले—इसके समान धर्मका प्रचार कोई नहीं है॥९८५॥

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‘आशीर्वाद दीजिये’—ऐसा न कहकर आशीर्वाद पानेका पात्र बनना चाहिये॥९८६॥

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वर्तमानका ही सुधार करना है। वर्तमान सुधरनेसे भूत और भविष्य दोनों सुधर जाते हैं॥९८७॥

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दु:खी व्यक्ति ही दूसरेको दु:ख देता है। पराधीन व्यक्ति ही दूसरेको अपने अधीन करता है॥९८८॥

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अज्ञानी तो बीते हुएको स्वप्नकी तरह मानता है, पर ज्ञानी (विवेकी) वर्तमानको स्वप्नकी तरह मानता है॥९८९॥

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वस्तुका महत्त्व नहीं है, प्रत्युत उसके सदुपयोगका महत्त्व है॥९९०॥

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भगवान‍्की आवश्यकताका अनुभव करना ही प्रार्थना है॥९९१॥

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असत् वस्तुका लोभ तो असत् वस्तुकी प्राप्तिमें बाधक है, पर सत् का लोभ सत् की प्राप्तिमें साधक है॥९९२॥

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शरीर-निर्वाहसम्बन्धी हरेक कार्यमें यह सावधानी रखनी चाहिये कि समय और वस्तु कम-से-कम खर्च हों॥९९३॥

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‘पर’ (प्रकृति) की अधीनता पराधीनता है और ‘परकीय’ (भोगों)की अधीनता परम पराधीनता है। ‘स्व’ (स्वरूप) की अधीनता स्वाधीनता और ‘स्वकीय’ की अधीनता परम स्वाधीनता है॥९९४॥

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सिनेमा या टी० वी० देखनेसे चार हानियाँ होती हैं—१.चरित्रकी हानि २.समयकी हानि ३.नेत्र-ज्योतिकी हानि और ४. धनकी हानि॥९९५॥

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कुछ करनेसे प्रकृतिमें स्थिति होती है और कुछ न करनेसे परमात्मामें स्थिति होती है॥९९६॥

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जैसे जलके स्थिर (शान्त) होनेपर उसमें मिली हुई मिट्टी अपने-आप नीचे बैठ जाती है, ऐसे ही वाणी-मन-बुद्धिसे चुप (शान्त, क्रियारहित) होनेपर सब विकार अपने-आप शान्त हो जाते हैं, अहम‍् गल जाता है और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जाता है॥९९७॥

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जो खुद भले नहीं हैं, जिनका स्वभाव भलाई करनेका नहीं है, उन्हींको ऐसा दीखता है कि आज भलाईका जमाना नहीं है!॥९९८॥

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जबतक मनुष्यको दूसरेकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता दीखती है, तबतक वह साधक तो हो सकता है, पर सिद्ध नहीं हो सकता॥९९९॥

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परमात्मा ‘प्राप्त’ हैं और संसार ‘प्रतीति’ है। जो मिलता है, पर दीखता नहीं, उसको ‘प्राप्त’ कहते हैं और जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसको ‘प्रतीति’ कहते हैं॥१०००॥

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