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॥ श्रीहरि:॥

अमूल्य समयका सदुपयोग

प्रतिक्षण समय बीतता जा रहा है, जो समय चला जाता है वह फिर लौटकर नहीं आता। जितनी आयु हमारी चली गयी वह तो लाख रुपये खर्च करनेपर भी वापस नहीं आती। समयसे तो ऐश, आराम, भोग तथा भगवान‍्तक भी मिल जाते हैं, पर समय किसीसे नहीं मिल सकता। मनुष्यका जन्म बार-बार नहीं मिलेगा, मनुष्य-जीवनका समय अमूल्य है, जिसका उपयोग ठीकसे करनेपर भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है। ऐसे समयको किसी भी अन्य कार्यमें लगावे तो उसकी पूर्ति हो ही नहीं सकती। इसलिये भगवान‍्की प्राप्तिके लिये ही अपने समयको लगाना चाहिये। भगवान‍्की प्राप्तिके साधनके सिवा अपनी वाणीसे व्यर्थ बकवाद न करें, कानोंसे दूसरी बातें न सुनें तथा नेत्रोंसे अन्य किसीको न देखें और न हृदयमें स्थान ही दें। ये अपने फाटक हैं, इन्हें भगवान‍्के लिये ही खोलना है और दूसरे कार्योंके लिये इन द्वारोंको बंद रखना चाहिये। भगवान‍्की दी हुई चीजें—स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्य, धन, शरीर, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ और अपना जीवन तथा प्राण—सब कुछ भगवान‍्की प्राप्तिके काममें लगा दें तो हमारा जीवन सफल हो जाय। भगवान‍्की दी हुई जो चीज है उससे और अधिककी भगवान् आशा भी नहीं करते और कहते भी नहीं और कहें भी तो हम लावेंगे कहाँसे? भगवान् कहते हैं जो तेरे अधिकारमें है वह सब मुझको समर्पण कर दे, बस बेड़ा पार है। इकरार तो यह है कि सब-का-सब भगवान‍्के समर्पण कर देवें, पर हमें ऐसा विश्वास है कि इसमें त्रुटि भी रह जाय तो उसकी पूर्ति करके भगवान् मदद करते हैं, उसका कार्य सिद्ध कर देते हैं, नहीं तो फिर अपात्र-कुपात्रको भगवान‍्की प्राप्ति कैसे हो। इसे एक कहानीके माध्यमसे समझें—

एक सज्जन किसी धनी महाजनसे दस हजार रुपये ऋणके रूपमें लाये और व्यापार किया। उसमें घाटा लग गया। पाँच हजार रुपये तो उस घाटेमें समाप्त हो गये। मात्र पाँच हजार बचे। महाजनको जब मालूम हुआ कि पाँच हजार रुपये तो समाप्त हो गये और पाँच हजार रुपये बचे हैं तो उन्होंने उसको अपने विश्वासी आदमीके द्वारा कहला दिया कि तुम किसी बातकी चिन्ता मत करना। तुम्हारे पास जो रुपये बच गये हैं, बस उनको तुम दे दो। तुम्हारा खाता चुकता कर देंगे। तुम्हें ऋणसे मुक्त कर देंगे। तो उसने सच्चे दिलसे जो कुछ था वह सब महाजनको सौंप दिया। जितने पैसे पासमें थे सब सौंप दिये और जो घरपर कपड़ा-बर्तन आदि तथा दूकानमें सामान था वह सब भी लाकर महाजनको सौंप दिया। पाँच हजार रुपयेकी पूर्ति तो हो गयी, पाँच हजार रुपये बाकी रहे। तो महाजनने कहा कि ‘हम तुम्हें दस हजारकी फाड़गती (ऋण-मुक्ति) देते हैं अर्थात् तुम्हारा खाता चुकता कर देते हैं।’ यह सुनकर वह रोते हुए बोला—हम पाँच हजार रुपये माफ नहीं कराना चाहते, आप पाँच हजार रुपयेकी फाड़गती देवें और पाँच हजार रुपये जो बाकी हैं वे हमसे काम करवाकर चुकता करा लेवें। हमारी स्त्री, हमारा लड़का तथा हमें कहीं बिक्री कर दें या हमलोगोंको नौकरीमें लगा दें। हम सबके खानेके अतिरिक्त जो बचेगा, वह आपके पास जमा कर देंगे। रखकर क्या करना है। तब महाजनने पाँच हजार रुपये उसके ऋणके पेटे जमा करवा लिये और बाकी पाँच हजार उसके नाम रखे। ऋणीने कहा कि इन पाँच हजार रुपयोंकी आप रजिस्ट्री करा लो, फिर मैं पासमें रुपये होनेपर ना नहीं कर सकूँगा। आज तो हमारा मन ठीक है, कल हमारा मन खराब हो जाय। महाजनने कहा—जिसकी ऐसी नीयत है उसके लिये कोई चिन्ताकी बात नहीं। तुम एक काम करो, हम तुम्हें एक दूकान खुलवा देते हैं। वह बोला—‘दूकान तो आप खुलवा देंगे, किंतु उसमें यदि फिर घाटा लगेगा तो मैं कहाँसे लाऊँगा। पाँच हजार रुपयेका मेरे सिरपर पहलेसे ही ऋण है, घाटा होनेसे और ऋण बढ़ जायगा’ तो महाजनने कहा कि ‘हम दूकानमें ऐसा कर देंगे कि तुम्हारा घाटेमें हिस्सा नहीं रहेगा और मुनाफेमें चौथाई हिस्सा रहेगा। घाटे-मुनाफे दोनोंमें हो तो आधा तुम्हारा आधा हमारा। किंतु तुम्हारा केवल नफेमें ही हिस्सा रहेगा तो एक चौथाई तुम्हारा तीन चौथाई हमारा।’ वह बोला—‘आपकी इच्छा।’ महाजनने दूकान करवा दी और अपना एक आदमी दे दिया। रोजगार होता रहा। वह, उसकी स्त्री और लड़का सब एक ही समय रोटी खाते, जिससे उसका खर्च कम रहा और जो बचा उसे महाजनके पास जमा करता रहा। इस तरह महाजनकी ऋणवाली सब रकम पूर्ण हो गयी।

दूसरा एक बेईमान आदमी था। उसने भी महाजनसे दस हजार रुपये लिये थे, उसकी नीयत खोटी थी। उसे भी पाँच हजार रुपयेका घाटा लगा, किंतु उसने कह दिया कि मुझे तो ऐसा घाटा लगा कि आपके दस हजार रुपये समाप्त हो गये। दस हजार रुपये आप और लगायें तो शायद पहलेके दस हजार रुपये आपको मिल जायँ। महाजनने कहा—‘हम तुम्हारा विश्वास नहीं करते।’ वह बोला—‘अमुक आदमीको तो आपने पचास हजार रुपये लगाकर दूकान करा दी।’ बोले—‘भैया! उसकी नीयत अच्छी है।’ वह बोला—‘हमारी नीयत उससे बढ़कर है।’ बोले—‘है तो बढ़कर पर खोटी है। उसने तो अपने घरमें जो कुछ था सब लाकर रख दिया।’ वह बोला—‘हम कहाँसे रख दें, हमारा तो सब खतम हो गया। अब और हमें थोड़ा दो।’ तो महाजन बोले—‘तुम्हें नहीं मिल सकता।’ अत: उसको एक पैसा भी नहीं दिया। यह तो दृष्टान्त है। इसको दार्ष्टान्तमें इस प्रकार समझना चाहिये। बेईमानके लिये तो यह उत्तर है—

आये थे कछु लाभ को खोय चले सब मूल।
फिर जाओगे सेठ पै पल्ले पड़ेगी धूल॥

इस प्रकार हम सब लोग लाभके लिये आये थे। हमलोगोंने जो ऋण लिया, वह सब समाप्त करके अब फिर सेठके पास जायँगे कि आपने जो कुछ ऋण दिया था, वह सब समाप्त हो गया और अबकी बार फिर दे दीजिये तो पहलेका ऋण और यह ऋण भी चुका देंगे। सेठने इनकार कर दिया कि एक पैसा भी नहीं देंगे। तो इस संसारमें जो दूसरोंके धनपर कमर कस करके मजेसे खर्च करते हैं वे तो बेईमान आदमी हैं। उनको फिर इस संसारमें मनुष्यका शरीर मिलना सम्भव नहीं है। मनुष्यका जो शरीर है, इसका जो जीवन है, वह असली धन है। इस मनुष्य-शरीरको पा करके जो जीवन-धनको अर्थात् समयको बरबाद करता रहता है और बरबाद करके फिर जाकर धर्मराजके सम्मुख खड़ा हो जाता है और कहता है कि ‘मुझे पुन: मनुष्यका शरीर दो।’ तो यमराज कहते हैं कि ‘मूर्ख! जो तुझे दिया उसे तो तूने मिट्टीमें मिला दिया। तुझे शर्म नहीं आती? तू फिर माँगनेके लिये आ गया, अब मनुष्यका शरीर तुझे नहीं मिलेगा। तुझे तो घोर नरक-यातना भोगनी पड़ेगी।’ जो मनुष्य संसारमें आ करके खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ (ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्) चार्वाकके इस सिद्धान्तको स्वीकार करता है उसकी यहाँ और वहाँ भी दुर्दशा होती है। संसारमें जो आदमी अपने लाभसे अधिक खर्च करता है उसमें बेईमानीके लक्षण हैं। जिसे महाजनकी रकम खर्च करनी ही नहीं है, चाहे भूखों मर जाय उसकी उत्तम नीयत है। जो मनमें ऐसी धारणा कर लेवे कि अपना प्रतिदिन पाँच रुपयेका रोजगार होता है तो उससे अधिक खर्च नहीं करना। उसे पाँच रुपयेका ही अन्न खरीदकर अपने कुटुम्बका पालन करना है। बोले, कि ‘उससे काम नहीं चले तो।’ नहीं चले तो क्या होगा, मृत्यु ही तो होगी। किंतु वह मरना भी मुक्तिको देनेवाला है। और भगवान् मरने नहीं देंगे यह विश्वास रखना चाहिये। इसपर एक इतिहास याद आ गया—

चित्रकूटमें एक संत थे। उनका नाम था श्रीरामनारायणजी ब्रह्मचारी। वे अपना भजन-ध्यान करते थे और जीविकाके लिये उनके पास खेत, दो बैल और एक गाय थी। गाय और बैलोंको खेतमें चराते तथा खेत बोते और उसमें जो कुछ घास आदि होती वह तो गाय और बैलको खिला दिया करते और अन्नसे अपने शरीरका निर्वाह करते। नमक, कपड़ा या अन्य आवश्यक वस्तुएँ अन्न देकर बदल लेते, अन्नकी बिक्री नहीं करते। कोई आदमी उनको संत-महात्मा समझकर उनके लिये भेंटमें फल ले जाता तो लेते नहीं। अपने खानेके लिये अन्न उपजा लेते। उससे अपना काम चलाते, अत: दूसरेकी चीज किसी हालतमें नहीं लेते। ऐसा उनका नियम था। किसीने पूछा कि ‘महाराज! आप लेते ही नहीं, किंतु किसी वर्ष वर्षा नहीं हुई तो?’ वे बोले—‘ऐसा हो ही कैसे सकता है कि वर्षा न हो। जिसने पैदा किया है, उसको जिंदा रखना है, वह तो वर्षा करेगा ही। हमारे पास तो कोई स्टाक और पूँजी नहीं है तथा दूसरेकी चीज हम लेते नहीं हैं तो हमारा निर्वाह उनको करना होगा।’ उनके खेतमें तो वर्षा होती ही थी और वे उससे अपना निर्वाह किया करते थे। जो आदमी सर्वथा भगवान‍्के ही भरोसे हो जाता है, उसकी भगवान‍्को चिन्ता रहती है, सब प्रबन्ध भगवान् करते हैं। तो वे त्यागी और विरक्त पुरुष थे, बहुतोंने उनका दर्शन किया है, हमने भी उनका दर्शन किया है। कोई भी चीज किसीसे किसी भी हालतमें नहीं लेते थे, यह उनका पक्का नियम था। कोई उनके द्वारपर आ जाय तो उन्हें देखकर कहते कि ‘तुम भी भोजन कर लो।’ वह कहता—‘महाराज! नहीं, आपको संकोच हो जायगा, क्योंकि भोजन परिमित ही है।’ वे कहते—‘नहीं-नहीं, हम उतनेसे अपना काम चला लेंगे।’ गायका जो दूध होता है उसे वे तथा उनके सेवक दोनों ही पी लेते हैं और कोई बाहरका आदमी आ जाता है तो कहते, लो भाई! तुम भी पी लो। उसमेंसे ही घी भी बना लेते बिलोकर। जब गाय दूध नहीं देती तो उस समय घी लिया करते। एक गाय, दो बैल, एक उनका सेवक और एक आप—इन सबका कार्य उस खेतसे चला करता, पर किसीसे कुछ लेना नहीं। दिन-रात भजन-ध्यान, मात्र पाँच-छ: घंटे शयन करना और शेष समयमें खूब जप-ध्यान करना। यदि कोई वहाँ चला जाय और शिक्षाकी बात पूछी तो कह दी, नहीं तो कुछ नहीं। इस प्रकार अपना जीवन बिताया करते थे। तो जो आदमी भगवान‍्के ऊपर निर्भर हो जाया करता है, सब प्रकारसे भगवान् उसके लिये चेष्टा करते हैं।

पहले जिस एक दृष्टान्तकी चर्चा की गयी है उसका तात्पर्य है कि हमलोग जो यहाँ आये हैं, हमारा महाजन धर्मराज है, उससे सौ वर्षकी आयु लेकर यहाँ आये, उसमें पचास वर्षकी आयु बीत गयी अर्थात् दस हजार रुपये ही सौ वर्षकी आयु है और महाजन ही धर्मराज है। धर्मराजने किसी महात्माके द्वारा कहलाया कि जो धन चला गया सो चला गया बाकीको तुम दे दो। तो उसने जो आधा अपने पास बचा था सब दे दिया। अपने तन, मन और सब चीजोंको भगवान‍्के समर्पण कर दिया। धर्मराज और भगवान् एक ही हैं, यहाँ दो नहीं हैं, सब कुछ अपने भगवान‍्के समर्पण कर दिया। भगवान‍्ने आधा लेकर इसका खाता चुकता कर दिया तो वह रोने लगा कि मैं इस प्रकार नहीं चाहता, (संसारसे उद्धार कर दो वही खाता चुकता करना है।) वे ऋणसे मुक्त करते हैं तो वह नहीं चाहता कि ऐसे हमें ऋण-मुक्त करें। हमारेसे परिश्रम करवा करके मुक्त करना चाहिये। तो फिर मालिकने उसका विश्वास करके बड़ी दूकान खुलवा दी। अर्थात् भगवान‍्के भावोंका संसारमें प्रचार करनेमें सम्मिलित करना लम्बी रकम लगाना है। और कहा कि भाई, तुम्हारी एक चौथाई भागीदारी रही। संसारमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्यका खूब प्रचार करो, तो वह प्रचार करने लगा। उस प्रचारसे उसका उद्धार हो गया। उसने कहा—यह हमारे लिये न्याययुक्त है। वह कम खर्चमें अपना निर्वाह कर लेता और जो बचता उसे भगवान‍्के कोषमें जमा कर देता। उसका नफेमें हिस्सा था घाटेमें नहीं था। जो आदमी परोपकारमें अपना जीवन निष्कामभावसे लगाता है उसे केवल नफा ही होता है, घाटा तो होता ही नहीं।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(गीता २। ४०)

निष्कामकर्मका आरम्भ है, पर उसका कभी विनाश नहीं होता। उसमें उलटा पाप नहीं लगता, उसमें घाटा नहीं लगता। थोड़ा भी यदि निष्कामताका पालन हो जाय तो वह निष्कामभाव उसको महान् भयसे तार देता है। तो उसकी पाँच हजार रुपयेकी पूर्ति जल्दी हो गयी। जो पचास वर्षमें होनी थी वह सालभरमें ही हो गयी। छ: महीने यदि डटकर साधन करे तो परमात्माकी प्राप्ति निश्चित है, जो पचास वर्षमें आजतक नहीं हुई। जिनकी पचास वर्षकी आयु हो गयी है और परमात्माकी प्राप्ति अभी नहीं हुई है, उनको छ: महीनेमें परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। जैसे अपने दाल-रोटी खाते आये हैं, वैसे ही खाते रहें, क्योंकि दाल-रोटी खाकर जो बचे वह महाजनके खजानेमें जमा करना है। घाटेका काम नहीं, हिस्सा नफेमें है। करना यह है कि भगवद्भावसे भरे हुए गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थोंका भगवान‍्के भक्तोंमें प्रचार करना। व्याख्यानके द्वारा, पुस्तकोंके द्वारा भावोंका, भगवत् गुणोंका, उनके चरित्रोंका, उनके नाम-रूपका खूब प्रचार करना, इसी काममें अपना सारा समय बिताना और जिस समय कोई सुननेवाला न मिले, उस समय भगवान‍्के नामका जप-ध्यान करना, उनकी नवधा भक्तिमें अपना जीवन बिताना, एक मिनट भी व्यर्थ नहीं खोना। पाँच-छ: घंटे सोनेमें और शौच, स्नान, भोजन आदिमें जो समय लगे वह तो लगेगा ही। नहीं तो आदमी जी कैसे सके। अत: जीवन चलानेके लिये ही खाना, पीना और सोना चाहिये। जीना भी महाजनका ऋण चुकानेके लिये क्योंकि शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी कर्म करता हुआ मनुष्य कभी पापका भागी नहीं होता—

‘शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥’

भगवान् श्रीकृष्ण गीताके चौथे अध्यायके २१ वें श्लोकमें कहते हैं—

‘निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।’

निराशी:—आशारहित, कामनारहित यानी निष्कामभावसे कर्म करनेवाला जो कर्म करता है, संसारमें भगवद्भावोंका निष्कामभावसे प्रचार करता है और बदलेमें लेता कुछ नहीं और मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ जिसकी जीती हुई हैं, जिसने संसारके विषय-भोगोंसे वृत्तियोंको खींच करके अपने वशमें कर रखा है, चित्तको जिसने जीत लिया है, एक वक्त रूखा-सूखा जो मिल जाता है वही खा लेता है और इन्द्रियोंका जो विषय है उसे इन्द्रियोंको देता नहीं है तथा परिग्रह-संग्रहका त्याग कर दिया है। जो कुछ अपने पास बचा था वह सब भगवान‍्को समर्पण कर दिया। पचास वर्ष तो फालतू बीत गये और बाकी जो पचास वर्ष रहे उसे भगवान‍्के चरणोंमें अर्पण कर दिया। अपने पास जो कुछ बर्तन, कपड़ा, गहना आदि सामग्री घरमें थी, वह सब भगवान‍्के समर्पण कर दिया। अपने पास कुछ भी नहीं रखा, इसी प्रकार पुत्र, धन तथा शरीरमें जो बल, बुद्धि, तेज आदि था वह और मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ इन सब पदार्थोंको भी भगवान‍्के अर्पण कर दिया। ये सब चीजें हमारी नहीं आपकी हैं। समर्पणके बाद व्यक्ति अपनेको भगवान‍्का ऋणी मानकर ये सब चीजें उन्हींकी समझकर इसकी रक्षामात्र करता है। जैसे चौकीदार धनका रखवाला होता है, उसका मालिक नहीं। ऐसे ही इस शरीरके मालिक तो भगवान् हैं, हम तो इसकी रखवाली और देखभाल करते हैं। घरमें बैठकर इसकी रखवाली करे कि यह कायम रहे, बना रहे। इस संसारमें हमलोग इस प्रकार अपना समय बितावें—भगवान् के नामका जप, भगवान‍्के स्वरूपका ध्यान और पूजा, उनके चरणोंकी सेवा और उनकी बातोंको कानोंसे सुनना, उनको नमस्कार करना और प्रभुको स्वामी तथा अपनेको सेवक समझना। प्रभु अपनेको सखा समझते हैं, मित्र समझते हैं इसलिये सखाभाव भी रखें। हम तो उसके लायक नहीं हैं, किंतु पूँजी न होनेपर भी भगवान‍्ने अपना सखा समझकर दूकानमें मुनाफेमें हमारी एक चौथाई साझेदारी कर दी। अत: हमें मुनाफा होना ही है। इस प्रकारसे मनुष्य निष्कामभावसे थोड़ा भी कार्य करता है तो उससे उसका कल्याण हो जाता है। हमलोगोंको अपना सर्वस्व भगवान‍्के समर्पण कर देना चाहिये। अपनेमें जो बल-बुद्धि है उसे अर्पण करना क्या है कि अपनी शक्तिभर भगवान‍्की प्राप्तिके लिये भगवान‍्की आज्ञाके अनुसार प्रयत्न करना, बलका प्रयोग करना है और अपना जो समय है उसे तो भगवान‍्के समर्पण कर ही दिया। अपनेमें जो बुद्धि है वह भी भगवान‍्के समर्पण कर देना, भगवान‍्के गुण और प्रभावको समझ-समझकर क्षण-क्षणमें मुग्ध होना बुद्धिका काम है। फिर हमारे प्रभु कितने दयालु हैं, हमारे सिरपर ऋण हो गया, उसके लिये भी भगवान् मदद करके उस ऋणकी पूर्ति कर लेते हैं। हमारे पास तो पूँजी नहीं कि रोजगार करके उस ऋणसे मुक्त हो जावें। हमारी मदद भगवान् ही करते हैं। भगवान‍्के नामका जप और ध्यान लोगोंसे कराना, रोजगार-व्यवहार सब भगवान‍्के नामपर ही होता है। इस प्रकार भगवान‍्ने अपना फर्म हमें सौंप दिया।

दूसरे एक बेईमान आदमीने आकर कहा कि इसको तो आपने अपना फर्म सौंप दिया और मुझको भी सौंप दें तो मैं भी आपके ऋणसे मुक्त हो जाऊँ। उन्होंने कहा—‘तुम बेईमान आदमी हो, तुम्हें फर्म नहीं सौंप सकते।’ वह कहता है कि ‘आप तो नहीं सौंपते, किंतु मैं आपका फर्म डाल लूँगा।’ उसने अपने फर्मपर भगवान‍्का नाम डाल लिया। भगवान‍्की दूकान है, माला लेकर बैठ गया ‘राम-राम’ करता रहा और बोला—फर्म या दूकान तो हरिनारायणकी है। बोले, आप क्या करते हो? वह बोला, हम तो भगवान‍्के गुमाश्ते हैं, भगवान् पर ही हम तो निर्भर हैं और ये दूकान भगवान‍्की है। अपनेको भगवान‍्का भक्त सिद्ध करके लोगोंको धोखा देना शुरू किया। लोग कहते, माला फेरता है, भजन करता है, बड़ा भला आदमी है तो लोग विश्वास करके जाकर रुपये जमा करा देते हैं। वह अपनेको धर्मात्मा और भगवान‍्का भक्त सिद्ध करता है। इस प्रकार संसारमें नाम और सत्संगकी ओटमें सत्संगी और भगवान‍्का भक्त कहलाकर लोगोंको धोखा देता है जो घोर नरकका रास्ता है, ऐसे बेईमान और धोखेबाजोंको भगवान् दण्ड देते हैं और जो वास्तवमें सच्चे भगवान‍्के भक्त हैं उनका उद्धार कर देते हैं। अत: हमलोगोंको सच्चे भक्तके समान अपना जीवन बिताना चाहिये। जिससे थोड़े ही समयमें हमारा कल्याण हो सकता है। कहते हैं—

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(गीता २। ४०)

जो आदमी अपना सर्वस्व और अपने-आपको भी भगवान‍्को सच्चे दिलसे समर्पण कर देता है, उसका थोड़े ही समयमें उद्धार हो जाता है। अपने हृदयसे समझता है कि ये सब चीजें भगवान‍्की हैं, मैं भगवान‍्का और भगवान् मेरे। मेरे अधिकारमें स्त्री, पुत्र, रुपये, धन-ऐश्वर्य और मन-बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीरमें जो बल और शक्ति है, ये सब भगवान‍्को समर्पण करके भगवान् में लगा देनेपर उसकी सारी क्रिया ही भगवान‍्के लिये होती है। ऐसा भक्त वास्तवमें भगवान‍्का सच्चा भक्त है। भगवान् सच्चे भक्तोंका विश्वास करते हैं और उनका उद्धार करते हैं। जो आदमी निष्कामभावसे कर्म करता है उस क्रियाका कभी नाश नहीं होता। वह कायम रहती है और उसका उलटा परिणाम अर्थात् घाटा भी नहीं होता। उसको कोई बाध्य नहीं करता कि यह काम तुमको करना ही पड़ेगा और जो काम किया जाता है वह दामी (मूल्यवान्) होता है। इस प्रकार निष्कामकर्मका थोड़ा पालन भी महान् भयसे तार देता है। अर्थात् सब प्रकारके ऋणोंसे मुक्त होकर वह भगवान‍्को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार पचास वर्षोंमें जिस कार्यकी सिद्धि नहीं हुई वह छ: महीनेमें हो सकती है।

साधक प्रात:काल चार बजे उठकर शौच-स्नान करके एकान्तमें यदि यज्ञोपवीती हो तो संध्योपासन और गायत्रीका जप करे तथा अन्य सबके लिये—स्त्री हो, शूद्र हो, चाहे कोई भी हो भगवान‍्के नामका जप, स्वरूपका ध्यान और उनकी मानसिक पूजा करे तथा गीता-रामायणका अर्थसहित पाठ करे और व्यवहार-कालमें सबमें भगवद‍्बुद्धि करके सबकी सेवा निष्कामभावसे करे, यह साधना बहुत उच्च कोटिकी है। प्रेममें मुग्ध होकर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक गुप्तरूपसे मनसे जप करे और साथ ही भगवान‍्का ध्यान तथा भगवान‍्के गुण-प्रभाव, तत्त्व-रहस्य तथा स्वरूपका मनन करे और इस प्रकार स्तुति-प्रार्थना करे—‘प्रभो! ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य-मण्डल, तारा इत्यादि सब आप ही हैं। आप ही परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत, अविनाशी और सर्वव्यापी हैं। प्रभो! मैं सब साधनोंसे हीन हूँ, मैं महान् अपराधी हूँ तथा आपसे मैं यही चाहता हूँ कि आपके ऋणसे मैं मुक्त हो जाऊँ। इतना होनेपर भी मेरे ऊपर आपने बड़ी भारी दया की और कर रहे हैं। मेरा विश्वास करके आप मेरा परम हित कर रहे हैं। यह साधन तथा और जो कुछ भी होता है सब आपकी कृपासे होता है। आप ही आश्वासन देकर हिम्मत बँधा करके सब करवा लेते हो। बस, नित्य-निरन्तर आपका भजन-ध्यान बना रहे जिससे आपके ऋणसे मुक्त हो जाऊँ। आपमें मेरा प्रेम और परम श्रद्धा हो यही आपसे मैं चाहता हूँ।’ यही हमारा असली धन है, भगवान‍्का काम करना अर्थात् सबको भगवान‍्के काममें लगाना। संसारमें भगवान‍्की भक्ति तथा उनके गुण-प्रभावके तत्त्वका खूब प्रचार करना और भगवान‍्के स्वरूपको याद कर-करके मुग्ध होना और भगवान‍्की सेवा करनेके समयमें भगवान‍्के नाम-रूपको नहीं भूलना। सबकी सेवा ही भगवान‍्की सेवा है। भगवान‍्की आज्ञाके अनुसार सबकी तन-मन-धनसे निष्कामभावसे सेवा करना ही भगवान‍्का काम करना है।

छ: घंटे रात्रिके सोनेके समयमें भगवान‍्के स्वरूप और उनके नामको याद करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्तुति-प्रार्थना करते हुए शयन करना चाहिये। तो जो आज पचास वर्षोंमें नहीं हुआ वह छ: महीनेमें हो सकता है। ऋणसे मुक्त होनेके लिये भगवान् स्वयं उसकी मदद करते हैं। भगवान‍्ने प्रतिज्ञा की है कि ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९। २२)। जो भक्त निष्कामभावसे मेरा भजन-चिन्तन करता है मैं उसका योगक्षेम वहन करता हूँ। मेरी प्राप्तिमें जो कमी है उसकी तो पूर्ति कर देता हूँ, जहाँतक पहुँच गये उसकी रक्षा करता हूँ। उसके साधनको देखकर भगवान् मुग्ध हो जाते हैं।

आपको जो दो दृष्टान्त दिये उनमें एक तो अच्छे साधक पुरुषका और दूसरा दम्भी-पाखण्डीका। संसारमें भगवान‍्के नाम या सत्संगकी ओटमें जो दम्भ-पाखण्ड करते हैं और कहलाते हैं सत्संगी तथा उस सत्संगसे मुक्ति एवं धन भी चाहते हैं, ऐसे लोगोंको मुक्ति मिलनी तो दूर रही, घोर दण्ड मिलता है। दूसरा जो ईमानदार अच्छी नीयतवाला होता है, उसको यहाँ भी आनन्द, वहाँ भी आनन्द। सब प्रकारसे भगवान् उसका विश्वास करते हैं, उसको अपने हृदयसे लगाते हैं, फिर उसका योगक्षेम वहन करते हैं। उसको संसार-सागरसे तार देते हैं। स्वयं भगवान् उसको वह बुद्धि देते हैं, जिससे उनकी प्राप्ति होती है। उसको सहारा दे करके सब प्रकारके ऋणोंसे—पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण और देव-ऋणसे मुक्त कर देते हैं। पितरोंका उद्धार करके मानो सारी पृथ्वीका उसने दान दे दिया और सबकी सेवा करके मानो सारे भूतप्राणियोंसे वह मुक्त हो गया। भगवान‍्की कृपाके प्रभावसे उसमें अहंकार नहीं, ममता नहीं, अपना सारा जीवन, अपना तन-मन-धन सब भगवान‍्की चीज समझकर भगवान‍्को समर्पण कर देवे तो पहले उसने जो अपना समय बर्बाद किया, उससे उसपर भगवान‍्का ऋण तथा भगवान‍्की तरफसे अपराधी था, किंतु अब वह अपराध तथा ऋण समाप्त हो गया और उसका वह समय सार्थक हो गया। थोड़ेसे समयमें ही अपना कल्याण कर लिया। बाकीका जो समय है उसमें उत्तम-से-उत्तम काम किया उसके लिये भगवान् कहते हैं—

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६९)

अर्जुन! इस गीताशास्त्रका जो मेरे भक्तोंमें प्रचार करता है, उसके समान हमारा प्रिय कार्य करनेवाला संसारमें न तो कोई हुआ, न है और न भविष्यमें होगा। तो वह भगवान‍्का प्रियतम भक्त है। शेष समयमें जबतक जीवित रहे, तबतक हँस-हँस कर, नाच-नाचकर, गा-गाकर मुग्ध होता रहे तो उसके कामसे भगवान् मुग्ध हो जाते हैं और वह भगवान‍्की लीलाको देख-देखकर स्वयं मुग्ध होता है कि देखो, भगवान् कितने दयालु हैं, मदद कर-करके छ: महीनेमें हमारा काम बना दिया। हमारी क्या सामर्थ्य कि हम सदाके लिये भगवान‍्के ऋणसे मुक्त हो जावें। अब तो वह भगवान‍्को देख-देखकर मुग्ध होता है। भगवान् उसकी क्रियाको देख-देखकर मुग्ध होते हैं। वह देखता है कि ये सब हुआ भगवान‍्की कृपासे। भगवान‍्ने स्वयं ये सब बातें कीं, अब उसके आनन्दका ठिकाना नहीं, ऐसे भगवत्प्राप्त भक्तकी लीला-चरितको देख-देखकर भगवान् हँसते और मुग्ध होते हैं। भक्त और भगवान् एक-दूसरेको मुग्ध करते रहते हैं। भगवान‍्की सारी लीला भक्तको मुग्ध करनेके लिये होती है और भक्तको हर समय यह दीखता है कि जो कुछ हो रहा है, वह सब भगवान‍्की लीला हो रही है और भगवान् सबके हृदयमें विराजमान हो रहे हैं। भगवान् उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं। भगवान‍्की चेष्टा भक्तके लिये और भक्तकी चेष्टा भगवान‍्के लिये—दोनोंकी चेष्टा परस्पर एक-दूसरेको मुग्ध करनेके लिये, आनन्द और प्रेमकी वृद्धिके लिये। या यूँ कहो कि प्रेम तो वहाँ पूर्ण है ही, आनन्द वहाँ पूर्ण है ही, क्या गुंजाइश है वहाँ यह कहनेके लिये। दोनों तरफ वहाँ कमी है ही नहीं, न भगवान‍्के लिये न भक्तके लिये। भगवान‍्का भक्त संसारमें जबतक जीता है, हँस-हँस करके, नाच-नाच करके उनके भगवद्भावोंका प्रचार करता रहता है। ऐसे पुरुषोंके संगमें हमलोग भी सम्मिलित हो जावें तो कितनी प्रसन्नताकी बात है। इस प्रकारके सत्संगकी ही यह महिमा है—

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(मानस ५। ४)

हे तात! स्वर्ग और मोक्षके सब सुखोंको तराजूके एक पलड़ेमें रखा जाय तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़ेपर रखे हुए उस सुखके बराबर नहीं हो सकते जो क्षणमात्रके सत्संगसे होता है। क्योंकि स्वर्ग तो कोई चीज ही नहीं है और मुक्ति तो वह दूसरोंको ही देता है। तो वह तो जीता हुआ ही मुक्त है अर्थात् जीवन्मुक्त है ही।

इस प्रकारसे जो अपने समयको बिताता है उसका जीवन तो एक प्रकारसे अलौकिक है। उसके साथमें रहनेवाले भी उस समूहमें रहनेवाले आनन्दमें मुग्ध होते रहते हैं, वे यही चाहते हैं कि निरन्तर भगवान‍्की चर्चा होती रहे और इसीमें अपना जीवन बीतता रहे। न तो कोई भोग चाहते हैं और न मोक्ष चाहते हैं, क्योंकि ये सब इसके बराबरीमें कोई महत्त्व नहीं रखते। वहाँ न लज्जा, न भय, न मान, न बड़ाई, न आदर, न सत्कार, न स्तुति, न प्रार्थना—सब भावों और क्रियाओंसे ऊपर उठ जाता है और उसकी एक अलौकिक स्थिति हो जाती है। इसीलिये अपना जन्म है, ऐसा समझ करके अपना समय उपर्युक्त प्रकार बिताना चाहिये।

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