भगवद्भक्त महात्माका स्वरूप एवं प्रभाव
आपने कहा कि ऐसी बात कहिये जिससे हमलोग महात्मा पुरुषोंके वचनोंके अनुसार बन जायँ। हम तो यह कह रहे हैं कि एक पीढ़ी और आगे बढ़ें, क्योंकि महात्मासे परमात्मा बड़े हैं, इसलिये परमात्माके वचनोंके अनुसार ही हो जायँ। गीता साक्षात् भगवान्का वचन है, श्वास है, हृदय है, इसलिये यह भगवान्की वाङ्मयी मूर्ति है। अत: अपना जीवन गीतामय बनाना चाहिये। रही बात वक्ता और श्रोताकी। दोनोंमें ही अद्भुत शक्ति होती है। उन दोनोंके विषयमें—लौकिक विषयमें और अध्यात्मविषयमें भी शास्त्रोंमें एक कथा आती है। महाभारतमें लिखा है—तुलाधार नामका एक वैश्य था, उसके पास एक बार जाजलि ऋषि आये। उन्होंने समुद्रके किनारे बड़ी भारी तपस्या की थी। तपस्या-कालमें उनके मस्तकपर पक्षियोंने घोंसला बना लिया। उनको जब यह मालूम हो गया कि पक्षियोंने मेरे मस्तकपर घोंसला बना लिया है तो वे कुछ नहीं बोले, अचल रहे, ठूँठकी भाँति न हिले न डुले, शौचादिकी तो बात ही नहीं, न खाना न पीना और न सोना। वृक्षकी भाँति स्थिर ही रहे। पक्षियोंके बच्चोंने फिर जब अंडे दिये तो पहलेके पक्षी उड़ गये। अब जो पक्षी पैदा हुए थे, उन पक्षियोंका जोड़ा बहुत समयतक उसमें रहा। रातको वे घोंसलेमें आ जाते, प्रात:काल चूग्गा-पानीके लिये चले जाते। एक समयकी बात है—वे पक्षी उड़ गये और फिर एक महीनेतक लौटकर वापस नहीं आये। जाजलिने सोचा कि अब उन्होंने कहीं दूसरी जगह घोंसला बना लिया है, इसलिये इस बोझको हटा दो। सिरका बोझ उन्होंने हटा दिया। इसके बाद उनके मनमें अहंकार आ गया कि संसारमें मेरे समान क्या कोई तपस्या कर सकता है। उनके इस प्रकार अहंकार करनेपर आकाशवाणी हुई कि हे जाजलि! तू इतना अभिमान मत कर। तुलाधार वैश्य जैसी तपस्या करता है, उसकी तपस्याके सामने तुम्हारी तपस्या कुछ भी नहीं है। जाजलिने सोचा कि अच्छा चलो, तुलाधार वैश्यके पास चलें; देखें कि तुलाधार वैश्य कौन है। तुलाधार वैश्यको पूछते-पूछते वे उसके पास आये और देखा कि वह दुकानपर बैठकर क्रय-विक्रय कर रहा है, सौदा बेच रहा है—नमक, तेल, चीनी, घी, आटा सभी खाद्य पदार्थ बेच रहा है; रस भी बेच रहा है, पर मदिरा और लाख आदि नहीं। यह देखकर जाजलिने सोचा—यहाँ आकाशवाणीके अनुरूप कोई बात तो नहीं दीख रही है या मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा है—ऐसा सोचकर वे वापस जाने लगे। तब तुलाधार वैश्य उन्हें वापस जाते देखकर अपने आसनसे उठा और हाथ जोड़कर कहने लगा—महाराज! समुद्रके किनारे आपने जिस तुलाधारके विषयमें आकाशवाणी सुनी थी, वह तुलाधार वैश्य मैं ही हूँ। यह सुनकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ, यह भी इसको कैसे पता लगा। अपनी तपस्याकी बात तो मैं ही जानता हूँ, इसे कैसे मालूम? फिर बोले—अरे बनिया! जब तूँ रस बेचता है, क्रय-विक्रय करता है, तब तुम्हें इस प्रकारका ज्ञान कैसे हुआ? उसने कहा कि महाराज! मैं सत्य बोलता हूँ और सबके साथ सम व्यवहार करता हूँ। चाहे कोई बुद्धिमान् आ जाय या मूर्ख, बालक आ जाय अथवा युवा, कोई भी आ जाय उसके साथमें मेरा व्यवहार समान-भावसे होता है; इतना ही नहीं, सुख और दु:ख, निन्दा तथा स्तुति, मान अथवा अपमान मेरे लिये समान हैं। गीतामें गुणातीतके और भक्तोंके लक्षणमें समताके जो लक्षण लिखे हैं, वे सब लक्षण उन्होंने अपनेमें बतलाये। इसी कारण उन्हें इस प्रकारका ज्ञान हो जाता था। उसका जो क्रय-विक्रय था वह त्यागपूर्वक था, संसारके कल्याणके लिये ही था, रुपयोंके लिये स्वार्थ-बुद्धिको लेकर नहीं था। जाजलिने कहा कि तुम बात बड़ी-बड़ी करते हो और कार्य तो तुम्हारा बहुत ही नीचा है। तुलाधार बोले कि महाराज! मेरे कार्यकी ओर आप देखते हैं? किंतु खेद है कि इस समय ब्राह्मण लोग अपने यज्ञका परित्याग करके क्षत्रियोचित यज्ञोंके अनुष्ठानमें प्रवृत्त हो रहे हैं। धन कमानेके प्रयत्नमें लगे हुए बहुत-से लोभी और नास्तिक पुरुषोंने वैदिक वचनोंका तात्पर्य न समझकर सत्यसे प्रतीत होनेवाले मिथ्या यज्ञोंका प्रचार कर दिया है, वे तो यज्ञमें पशु-हिंसातक करते हैं, जो वेद-विरुद्ध है। वेदोंमें पशु-हिंसा करना लिखा ही नहीं है, इन ब्राह्मणोंने ही इस प्रकारकी बात चलायी थी। उसके बाद तुलाधार आकाशमें उड़ते हुए उन पक्षियोंकी ओर इशारा कर बोले—हे जाजले! ये वे ही पक्षी हैं, जिन्होंने आपके मस्तकमें घोंसला बनाया था। आप इनको बुलाइये, जिससे ये आपके मस्तकमें अभी आकर बैठें। उन्होंने पक्षियोंको बुलानेका संकेत किया, तत्काल वे पक्षी आये और उनके सिरपर बैठ गये। और उन्होंने मनुष्यके समान स्पष्ट वाणीमें तुलाधारद्वारा उपदिष्ट धर्मोंका ही वर्णन किया। तब जाजलिने तुलाधारसे कहा—तुम्हारे वचनोंकी शक्तिको देखकर तुम्हारेमें मेरी श्रद्धा हुई, क्योंकि ये पक्षी भी तुम्हारी ही बात मान रहे हैं। इसके बाद उपदेश ग्रहणकर जाजलि वहाँसे चले गये। कहनेका अभिप्राय यह है—तुलाधार वैश्यकी यह एक अलौकिक शक्ति थी। एक प्रकारसे यह एक सांसारिक प्रभाव है। अध्यात्मविषयका प्रभाव तो उच्च कोटिका माना जाता है। क्योंकि उससे दूसरेका कल्याण हो जाता है। यह कहकर मैंने यह बतलाया कि महापुरुषोंकी शक्तिके प्रभाव—शाप दे देने, वरदान दे देने, आशीर्वाद दे देनेकी कथासे शास्त्र भरे हुए हैं। उपनिषद्, पुराण, इतिहास, महाभारत, वाल्मीकीय रामायण, भागवत आदिमें बहुतसे उदाहरण हैं। जो सत्यवादी होता है, उसकी वाणीमें भी यह शक्ति आ जाती है फिर जो साक्षात् भगवत्प्राप्त पुरुष है, उसकी तो फिर बात ही क्या है।
दूसरी शक्ति जो श्रोताके विषयमें है उसे कह रहा हूँ। जैसे पाण्डवोंकी माता कुन्तीने आदेश दिया कि तुम यह जो आज भिक्षा लाये हो उसका पाँचों भाई उपभोग करो, यानी काममें लाओ। भीमसेनने इसपर कहा कि माँ! आजकी भिक्षामें एक स्त्री लाये हैं। माँने कहा कि तूने स्त्रीका नाम तो लिया नहीं। ‘माँ! भिक्षा लाये हैं’ यही कहा। कुन्तीने फिर सोचा—बहुत मुश्किलकी बात हुई, जो मैंने कह दिया कि तुम पाँचों ही इसको काममें लाओ, अब यह बात सत्य कैसे होगी। हमारे इस वचनका सत्य होना बहुत ही कठिन है, इस बातको सत्य करना मेरे हाथकी बात नहीं है। इसे सत्य करना तो पाण्डवोंके हाथकी बात है। इसपर राजा युधिष्ठिरने कहा कि माँ! इस आज्ञाका हमलोग पालन करेंगे और पाँचों मिल करके ही इसके साथ विवाह करेंगे। यह बात शास्त्रके विरुद्ध है तथा लोकके भी विरुद्ध है। परंतु महाराज युधिष्ठिरने माताके वचनोंका आदर किया, उनका पालन किया। इस प्रकारसे माताके वचनोंका, महात्माओंके वचनोंका जहाँतक जिस किसीने पालन किया, उस पालन करनेवालेकी शक्तिको श्रद्धा कहो या उसका प्रेम जो कुछ कहो।
जबालाके पुत्र सत्यकामने गुरुकी आज्ञाका पालन करके ब्रह्मकी प्राप्ति की। राजा द्रुपद शिवजीकी आज्ञा मानकर लड़कीको लड़का ही समझे और दूसरे राजाकी कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया, उसमें सफलता ही हुई। धौम्यमुनिके शिष्य आरुणिने गुरुकी आज्ञाका पालन करके बिना पढ़े ही सारे शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया। ऐसे बहुत-से आज्ञा देनेवाले तथा पालन करनेवाले दोनोंके उदाहरण शास्त्रोंमें मिलते हैं। शास्त्रों और महात्माओंकी आज्ञाका पालन हमलोगोंको करना चाहिये, उसी प्रकार चलना चाहिये। हमारेमें यदि ऐसी शक्ति होती तो आज सैकड़ों-हजारों आदमी तैयार हो गये होते और भगवत्प्राप्त पुरुषोंके तुल्य हो जाते या भगवान्की प्राप्ति हो जाती। परंतु हम जो कुछ कह रहे हैं वह प्रार्थनाके रूपमें कह रहे हैं, विनयके रूपमें कह रहे हैं, कुछ उपदेश-आदेशके रूपमें नहीं, गुरु-शिष्यके भावसे नहीं। न स्वामी-सेवकके भावसे कह रहे हैं, जो कुछ कह रहे हैं वह मित्र-भावसे ही कह रहे हैं। इस मित्र-भावसे कहनेका भी एक रहस्य है। वह रहस्य यह है कि हम स्वामीके रूपमें, गुरुके रूपमें नहीं कहते, क्योंकि ऐसा करना हम अपना अधिकार नहीं समझते हैं। कारण कि मैं वैश्य वर्णका गृहस्थाश्रमी व्यक्ति हूँ, दूसरी बात यह है कि हमारेमें वह अलौकिक शक्ति भी नहीं है जैसी कि वेदव्यासजी आदिमें थी। जिन्होंने संजयको दिव्य दृष्टि दी, जिससे उनकी इन्द्रियाँ और मन दिव्य हो गये; जिस प्रकार भगवान्ने अर्जुनको दी थी एवं १५ वर्ष बाद १८ अक्षौहिणी सेनाको भी उसी रूपमें प्रकट कर दिया। यदि हम भी ऐसे होते तो भगवान् हमको शक्ति दे करके संसारके कल्याणके लिये भेजते और हम अपनी शक्तिसे आपलोगोंको लाभ पहुँचा सकते। हमारा तो छोटे-बड़े सभीके लिये सम्मतिके रूपमें निवेदन है, यदि इसे आपलोग अपने काममें लें तो मैं आप सबका आभारी हूँ। आपकी हमारे ऊपर दया है।
अब रहस्य यह बतलाना है कि यदि हम अधिकारी होते और सामर्थ्यवान् होते तथा उस अधिकारके अनुसार हम गुरु-शिष्यका सम्बन्ध करके लोगोंको शिक्षा या आदेश देते तो यह नहीं कह सकते कि उसका क्या नतीजा होता, कुछ कहा नहीं जा सकता। किंतु यह बात तो है ही कि जो गुरुकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसका पतन हो जाता है। आपका और हमारा मित्रताका नाता है, इसलिये हमारी जो राय है, सम्मति है इसे आप काममें यदि नहीं लायें तो आप पापके भागी नहीं होंगे। यह बात तो हम जोरके साथ कह सकते हैं कि आपको इसमें पाप नहीं लगेगा और हम यदि गुरु होते और वह सम्बन्ध आपके साथ जोड़ते तथा आप हमारी आज्ञाका पालन नहीं करते तो आपका पतन होता और आज्ञाके पालन न करनेमें आपको कुछ भय भी होता। सम्भव है कि यदि वह हमारेमें शक्ति होती तो हमारी वह शक्ति बलपूर्वक आपलोगोंसे करवा भी लेती। जैसे राजाकी आज्ञा बलवान् होती है, राजाका हुक्म होता है और उसके अनुसार करना पड़ता है, उसमें हेर-फेर नहीं होता। यह तो उस वक्ताकी शक्तिपर निर्भर है कि कैसा वक्ता है, कैसी शक्ति है। किंतु यह बात साथ-साथमें है जैसे उसके साथमें लाभकी बात है ऐसे उसके साथमें अपने खतरेकी बात भी है। वह बात नहीं माननेसे खतरेकी बात है। यदि आपलोग हमारी बात काममें नहीं लायेंगे तो उस लाभसे वंचित रहेंगे, नया कोई नुकसान, नया कोई पाप नहीं लगेगा। आपको हम बाध्य नहीं कर सकते कि यह बात आपको काममें लानी पड़ेगी। आपकी मर्जी है, आप ला भी सकते हैं नहीं भी ला सकते हैं। लानेमें लाभ है और नहीं लानेमें कोई नुकसान नहीं। किंतु यदि इसको भी नुकसान मानें तो जरूर है, क्या? लाभसे वंचित रहना है। यह नुकसान तो जरूर है। आपसे कहा जाता है कि सत्य बोलना चाहिये और आप सत्य नहीं बोलेंगे तो सत्य बोलनेसे जो लाभ है, उससे तो वंचित ही रहेंगे। आपसे कहा जाय कि ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये और आप ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करेंगे तो ब्रह्मचर्यके पालनसे जो लाभ होता है, वह कैसे मिलेगा। जो शास्त्रकी बात है उसके पालनसे हमको लाभ प्रत्यक्ष होता ही है। इसलिये हमलोगोंको परम शास्त्र गीताको जो साक्षात् भगवान्के मुखपद्मसे नि:सृत है, उसे अच्छी प्रकारसे पढ़ना चाहिये और उसका गायन तथा मनन भी अच्छी प्रकारसे करना चाहिये। शेष और शास्त्रोंके विस्तारकी क्या आवश्यकता है।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
—इसमें और शास्त्रोंकी अवहेलना नहीं की गयी है। शास्त्रोंको महत्ता ही दी गयी है और उनसे भी बढ़कर गीताको अधिक महत्ता दी गयी है। इससे यह बात निकलती है कि शास्त्रोंकी आवश्यकता तो है, ‘गीता सुगीता कर्तव्या’ गीताको अच्छी प्रकारसे पढ़े तो फिर शास्त्रकी आवश्यकता नहीं? नहीं, शास्त्र निरर्थक नहीं है, शास्त्र हैं दामी चीज। पर आत्माके उद्धारके लिये गीताका भी अभ्यास कर लें, और विशेष आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यह गीता स्वयं पद्मनाभ भगवान्के मुख-कमलसे निकली हुई है। पद्मनाभ यानी भगवान् विष्णु हैं जिनके नाभिसे कमल निकला हुआ है। पद्मनाभ और मुख-पद्म इन दोनोंके बीचमें कमल शब्द आया है। गीता जो है वह भगवान्के मुख-कमलसे निकली है और सारे शास्त्र जो हैं वे नाभि-कमलसे निकले हुए हैं। सारे शास्त्र कैसे निकले? सुनो—नाभिसे कमल पैदा हुआ, कमलसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई, ब्रह्माजीसे वेदोंका आविर्भाव हुआ, वेदोंके आधारसे इतिहास, पुराण, शास्त्र, दर्शनशास्त्र, उपनिषद्-श्रुतियाँ—ये सब जितने शास्त्र हैं इनका विस्तार हुआ। परंतु गीता तो भगवान्के ही मुखसे निकली, नाभिसे नहीं। वेदादि सीढ़ी-दर-सीढ़ी निकले हैं और गीता भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे उत्पन्न हुई है। अत: हम जो कुछ आपलोगोंकी सेवामें निवेदन करते हैं एक नम्बरमें तो अधिकांशत: गीताकी बात कहते हैं और दो नम्बरमें अन्य सब शास्त्रोंकी, दर्शनशास्त्र या उपनिषद् या रामायण अथवा महाभारत, भागवत आदि जितने अपने श्रुति-स्मृति, इतिहास और पुराण हैं उनकी। अत: जो भगवान्के वचन हैं, महापुरुषोंके वचन हैं उनको आपलोग काममें लायें तो आपलोगोंका कल्याण हो सकता है, ऐसा मेरा विश्वास है और यदि मैं इसे काममें लाऊँगा तो मेरा कल्याण हो सकता है, इसमें कोई संदेहकी बात नहीं है। यह जो अपने लोगोंमें भगवच्चर्चा होती है, इस भगवच्चर्चा-रूप संगसे आपलोगोंको क्या लाभ होता है इसे तो आप ही समझ सकते हैं। मुझे तो लाभ होता है, यह बात प्रत्यक्ष ही समझमें आती है। मनुष्यको अपने-आपका तो अनुभव रहता ही है। ‘भगवान् की-राधिकाजीकी लीला देख रहा हूँ, मैं उसमें शामिल हूँ, भगवान्की रासक्रीडा जो है, उसमें मेरा प्रवेश है। उसके विषयमें तो मैं अपना अनुभव कह सकता हूँ’—ऐसा कहनेवाला जो है वह अपनेको एवं दुनियाको धोखा देनेवाला है, उसकी बातका कभी विश्वास नहीं करना। जब मैं ऐसा कहता हूँ कि मेरेको कभी ऐसी घटना भी प्राप्त हुई है या नहीं, तो भी मैं कुछ भी नहीं कहूँ। जिसका मैं खुद निषेध करूँ, दम्भी बतलाऊँ तो मैं क्या दम्भकी पंक्तिमें नहीं शामिल होऊँगा। जो कहता है कि मुझको अनुभव होता है, उसको मैं दम्भी समझता हूँ और नहीं कहनेवालोंमें कोई एक होता है।
एक श्रुति कहती है कि जो ऐसा कहता है कि मैंने ब्रह्मको समझ लिया वह नहीं समझा, जो कहता है कि मैंने ब्रह्मको नहीं समझा वह भी नहीं समझा। किंतु जो अपनेको ऐसा मानता है कि मैंने ब्रह्मको जान लिया, उसने कुछ भी नहीं जाना, वह तो बिलकुल गलत है। जो अपनेको ‘नहीं’ कहते हैं उन ‘नहीं’ कहनेवालोंमें कोई एक है—‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च॥’ (केन० २। २)। इस प्रकारसे हमारे वेदोंमें, श्रुतियोंमें, सबमें यह बात बतलायी गयी है। जो ‘नहीं’ कहता है, उसे कभी भगवान् प्रत्यक्ष हो जाते हैं। जो डींग मारता है कि ‘मुझे भगवान् मिल गये—मैं भगवान्का प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ, वहाँ मेरा प्रवेश है’—वहाँ तो सभी मामला गड़बड़ है। वास्तवमें यह भगवत्प्राप्ति है ही नहीं। जो ऐसा कहता है, उसकी परीक्षाकर मैं यह कह सकता हूँ कि इसे भगवत्प्राप्ति नहीं हुई है, परंतु जिसे वास्तवमें परमात्माकी प्राप्ति हुई है, उसके विषयमें मैं कुछ नहीं कह सकता। यह बतलाना कठिन है, क्योंकि यह जो विशेषता है, वह स्वसंवेद्य है परसंवेद्य नहीं। इसे वह स्वयं ही जानता है, दूसरा कोई नहीं जान सकता। प्राय: संसारमें जो लोग हैं, वे दूसरोंपर अपना प्रभाव डालनेके लिये ऐसी बातें बोलते हैं, उसे मोहित करनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसा पुरुष सच्चा नहीं है।
वास्तवमें दुनियामें अधिकांश लोग मान-बड़ाई, पूजा, प्रतिष्ठाके किंकर हैं। लाखों-करोड़ोंमें कोई एक ऐसा महापुरुष है जो मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको विष्ठाके समान समझता है। जो संसारसे विरक्त है, ऐश्वर्यको धूलके समान समझता है, ऐसा हजारों-लाखोंमें कोई एक विरक्त पुरुष होता है और उन विरक्त पुरुषोंमें परमात्माको तत्त्वसे जाननेवाला कोई एक होता है जो भगवत्प्राप्त पुरुष होता है। विरक्तोंकी व्याख्या की जा सकती है, पर भगवत्प्राप्त पुरुषोंकी व्याख्या ‘यो मद्भक्त: स मे प्रिय:’ इस नामसे भगवान्ने की है, गीताके बारहवें अध्यायमें तेरहसे उन्नीस श्लोकतक उस व्याख्याको पढ़ करके भी मनुष्य उसको पहचान नहीं सकता, इसलिये यह बात आती है कि उसे पहचानना बहुत ही कठिन है। अब बात यह आती है कि ऐसा पुरुष कैसे मिले, हमारेमें तो पहचाननेकी सामर्थ्य नहीं, चाह है मिलनेके लिये। आपके हृदयमें भी मिलनेकी इच्छा तीव्र होनी चाहिये, फिर आपको घर बैठे मिल सकते हैं। मिलनेकी तीव्र इच्छा होनी चाहिये, फिर पुरुषकी तो बात ही क्या? भगवान् मिल सकते हैं, बस मिलनेकी इच्छा तीव्र होनी चाहिये, खूब जिज्ञासा होनी चाहिये। दूसरी बात है, ऐसे पुरुष भगवान्की कृपासे मिलते हैं।
बोले, कि कृपा तो है ही। कृपा है तो सही पर मानता कौन है। कृपा माननेसे फल देती है, बिना माने फल नहीं देती। कृपा ही नहीं, भगवान् भी स्वयं अपने प्रकट हो जायँ और हम उनको भगवान् नहीं मानें तो भगवान्के दर्शनका जो लाभ है वह नहीं होगा। जैसे भगवान् श्रीकृष्णजी प्रकट थे। दुर्योधन उन्हें भगवान् नहीं मानता था, इसलिये दुर्योधनको वह लाभ नहीं हुआ, जो अर्जुनको हुआ। हर एक बात माननेपर निर्भर है। प्रत्येक स्थितिमें विकार नहीं होना चाहिये, ऐसी निर्विकार अवस्था होनी चाहिये—ऐसा बनना चाहिये, पर ‘यह हो’ ऐसा नहीं हो रहा है, यह खटपट तो सबके हृदयमें है ही। अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमें द्वेष, अनुकूलमें हर्ष और प्रतिकूलमें शोक होना—यह तो विकार है, हर्ष-शोक, राग-द्वेष ये होते ही रहते हैं। इन विकारोंसे रहित होनेकी एक कसौटी है। मान लो कोई क्रिया हो रही है, उसमें एक भाव—एक भगवद्भाव यदि हो तो फिर नाना भेद हो नहीं सकता। ये जो नाना भेद हैं ये ही हमारे लिये बाधक हैं। जो एकता है, वही समता है और जो समता है वही भगवान्का स्वरूप है। आप चाहे एकीभाव कहें चाहे समता कहें, चाहे भगवान्का स्वरूप कहें, गम्भीरतासे विचार करके देखनेपर एक ही चीज है। हमलोगोंकी दृष्टिमें यह जो एकत्व-भाव आता है, समता आती है तो वह असली भगवान्का प्रतिबिम्ब है, इनका आभास होता है, किंतु उनसे अलग नहीं होता। चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब चन्द्रमासे अलग नहीं होता, सूर्यका प्रतिबिम्ब सूर्यसे अलग नहीं होता, सूर्यके साथमें छिप जाता है।
महात्मा पुरुषोंके अनुकूल बननेकी बात शुरूमें कही थी। महात्माओंके अनुकूल बनना तो बहुत ही सहज है। महात्मा पुरुषोंका मिलना ही कठिन है, वे बड़े भाग्यसे मिलते हैं, या यों कहिये कि भगवान्की कृपासे ही मिलते हैं और मिलनेके बादमें उनको पहचानना कठिन हो जाता है। यदि भगवान्की कृपासे पहचाननेमें बात आ गयी तो फिर भगवान्की प्राप्तिमें कोई विलम्ब नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि महात्माको जो महात्मा समझ लेता है, फिर तो एक प्रकारसे उसमें महात्माका भाव हो जाता है। जैसे गीताके बारहवें अध्यायमें तेरहवें श्लोकसे लेकर अध्यायकी समाप्तिमें उन्नीसवें श्लोकतक। तेरहवें तथा चौदहवेंमें भगवान् कहते हैं—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
‘ऐसा मेरा भक्त मुझको प्यारा है’ उस महात्माके हृदयका भाव है यह। यह अपनेमें जितना जाग्रत् होगा उतना ही महात्मा होगा—इसका यह भाव है। ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ सारे भूतोंमें द्वेष-भावसे रहित। सबमें हेतुरहित मित्रता, सबके ऊपर हेतुरहित दया, हृदयमें ममताका अभाव, अहंकारका अभाव और क्षमा, दूसरेके अपराधका बदला न चाहना क्षमा है। सुख-दु:खमें सम रहना और जो कुछ प्रारब्धवश प्राप्त हो जाय उसमें ईश्वरका विधान समझकर मग्न रहना। हर समय संतुष्ट रहना और बुद्धिको स्थिर रखना।
जिसने अपने मनको जीत लिया है तथा अपनी बुद्धिको भगवान्को अर्पण कर दिया है उसके लिये भगवान् कहते हैं—‘मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥’ मन और बुद्धिको मुझमें अर्पण करनेवाला मेरा भक्त मुझको प्यारा है। यह भाव यदि अपने हृदयमें जाग्रत् हो जाय तो समझना चाहिये कि हम महात्माको समझे हैं। समझनेसे ही वह महात्मा बन जाता है। वह जितना जानता है, उतना ही उस भाववाला बन सकता है। साधारण जाननेसे उसमें साधारण गुण आते हैं, विशेष जाननेसे विशेष गुण। जाननेपर उसमें अलौकिक श्रद्धा पैदा होती है, विश्वास होता है। विश्वास और श्रद्धाका यह प्रभाव है कि वह भाव उसमें प्रविष्ट होकर अंकित हो जाता है। विश्वास एवं श्रद्धाकी कमीके कारणसे ही कमी है। श्रद्धा और अपना विश्वास जितना होता है, उतना ही वह बातको पकड़ता है और धारण करता है। वह बात उसमें उसी प्रकारसे घटने लग जाती है जैसे फोनोग्राफमें जैसी आवाज भरी जाती है वैसी ही आवाज उसमेंसे निकलती है और जैसे फोटो लेनेवाले कैमरेमें जैसा दृश्य होता है वैसा ही दृश्य वह पकड़ता है, इसी प्रकार जो महात्मा पुरुष है, उसके जो आचरण हैं, वे उसके हृदयमें छप जाते हैं। मतलब यह कि जब महात्माके आचरणको वह देखता है तो वह उसके हृदयमें अंकित हो जाता है, उसके बाद उसके आचरण भी वैसे ही होने लग जाते हैं, जैसे महात्माके आचरण होते हैं। तदनन्तर महात्माके संकेतके अनुसार ही वह चेष्टा भी करने लग जाता है, उसको कुछ कहना नहीं पड़ता। महात्माके संकेतके माफिक ही चेष्टा अपने-आप ही होने लग जाती है, क्योंकि महात्मामें विशेष निष्ठा हो जाती है, विश्वास हो तो उसी प्रकारसे ही वे बातें जम जाती हैं। और उसी प्रकारसे वह उसका अनुकरण भी करने लग जाता है तथा उसकी बातका वह इतना आदर करता है कि वह अपने प्राणोंका भी उतना आदर नहीं करता, इस प्रकारसे वह बढ़ता-बढ़ता आगे जाकर स्वयं महात्मा हो जाता है।