भगवान् की दयाका रहस्य
ईश्वरकी यह बड़ी भारी कृपा है कि उत्तम देश, उत्तम काल, उत्तम जाति, उत्तम धर्ममें अपना जन्म हुआ, किंतु इन सबसे बढ़कर यह बात है कि अपना समय भगवच्चर्चामें व्यतीत हुआ। इसी प्रकार भविष्यमें आनेवाला समय यदि उत्तम कार्योंमें व्यतीत हो तो भगवान्की दया समझनी चाहिये और बुरे कार्योंमें बीते तो अपने स्वभावका दोष समझना चाहिये। दोनों ही बातें प्रारब्धपर निर्भर नहीं हैं। अपने द्वारा कोई खराब क्रिया हो तो उसे अपने स्वभावका दोष समझना चाहिये और अपने द्वारा बढ़िया क्रिया हो तो उसे भगवत्कृपा समझनी चाहिये। भगवान्की कृपाका फल परम कल्याणकारक और अपने स्वभावकी क्रियाका फल दु:खरूप है। किंतु भगवान्की कृपासे वह भी माफ हो जाता है, यह सिद्धान्त समझना चाहिये। अपने द्वारा कोई भी यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, सेवा, उपकार या भगवान्का भजन-ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय इत्यादि हो तो उसे भगवान्की कृपा ही समझनी चाहिये। भगवान् ही हमें संसारके बुरे कार्योंसे हटाकर अच्छे कार्योंमें लगाते हैं। झूठ, कपट, चोरी, डकैती, बेईमानी आदि कोई भी बुरा काम हो तो उसे अपने स्वभावका दोष मानना चाहिये। कुसंगका असर महात्माओंपर नहीं पड़ता। अत: इसे अपने स्वभावका ही दोष समझना चाहिये। दूसरे आदमीके माथे चाहे मढ़ दो कि कुसंगीका साथ होनेसे मेरेमें यह खराबी आयी पर वह खराबी आपने स्वीकार की तभी आयी बलात् नहीं आयी। अत: कुसंगका त्याग तो करना ही चाहिये, उसके पास नहीं जाना चाहिये, बल्कि उसका नाम ही नहीं लेना चाहिये। कुसंगसे हानि ही होती है। सत्संगसे लाभ है। अत: अपने लोगोंको सत्संग ही करना चाहिये।
सत्संग भगवान्की दयासे ही मिलता है। सत्संगसे जो लाभ है वह उनकी दयासे ही है। सत्संग ईश्वरकी वह कृपा है जो परम लाभ पहुँचाती है, उसकी कोई सीमा नहीं। लाभ उठानेवालोंपर यह बात निर्भर करती है। उसकी दयाको हमलोग जितनी समझते हैं वह थोड़ी है। भगवान्की दयाकी कोई सीमा नहीं है, अपरिमित है। हमलोगोंको उसकी जो दया समझमें आती है वह सीमित है। किंतु अपने ऊपर उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक भगवान्की दया समझें तो शीघ्र ही भगवान्की प्राप्ति हो सकती है। इसलिये हर एक लीलामें, हर बातमें, हर समयमें दया देखें और उसे देखते-देखते इतना मुग्ध हो जायँ कि भगवान् ही आकर चेत करावें। जबतक भगवान्के साक्षात् दर्शन नहीं हों तबतक यह समझें कि हम लोगोंने भगवान्की पूरी दया समझी ही नहीं।
क्योंकि भगवान्की जो अपरिमित दया है, उसका तत्त्व-रहस्य समझ लें तो उसी वक्त भगवान्की प्राप्ति हो जानी चाहिये। यदि भगवान्की प्राप्तिमें विलम्ब हो रहा है तो यही समझना चाहिये कि उसकी दयाको ठीकसे समझे ही नहीं। जिधर अपनी दृष्टि जाय चारों तरफ दया-ही-दया दृष्टिगोचर हो, दयाका एक सागर भरा है, आप उस सागरमें डूबे हुए हैं। इस सागरका तो किनारा है। भगवान्की दयाके सागरमें दयाका किनारा नहीं है। भगवान्की दयाको देख-देखकर मनुष्य हँसता ही रहे। हँसते-हँसते ही मर जाय तो कितने आनन्दकी बात है और उससे बढ़कर क्या है? अत: दयाके सागरमें डूब जाय, संसारके सागरमें नहीं। दयाके सागरमें अपनेको डुबोकर रखे। भगवान्ने सूर्यद्वारा प्रकाश, बादलोंद्वारा जल तथा पर्याप्त हवा जीवन चलानेके लिये दिया है। जिसका कोई मूल्य नहीं देना पड़ता और उस प्रकाश, जल तथा हवाके समान प्रकाश, जल तथा हवा लाखों रुपये खर्च करनेपर भी नहीं प्राप्त हो सकती। पर भगवान्ने मुफ्त दिया है, यह उनकी कितनी बड़ी दया है। इससे भी बढ़कर दया है कि भगवान्ने हमलोगोंको स्त्री, पुत्र, धन, मकान, शरीरमें बल-बुद्धि-ज्ञान आदि सब कुछ दिया है। ये सब वस्तुएँ दी हैं परमात्माकी प्राप्तिके लिये। यह तो भगवान्की दया है ही कि उन्होंने हमको यह चीजें दीं, किंतु इससे भी बढ़कर दया है, जब प्रतिकूल परिस्थिति पैदा कर देते हैं अथवा हमें दु:ख-क्लेश इत्यादि देते हैं अर्थात् भगवान् हमसे ये चीजें लेते हैं, जैसे स्त्री मर गयी, पुत्र मर गया, धनका नाश हो गया, बीमारी हो गयी। एक भक्तने कहा है—
सुख के माथे सिल पड़े जो नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दु:ख की जो पल पल नाम रटाय॥
जिस सुखके मिलनेपर हम भगवान्को भूल जायँ उस सुखके माथेपर पत्थर पड़े और उस दु:खकी बलिहारी है, वह दु:ख धन्य है जिसमें क्षण-क्षणमें भगवान्के नामकी याद आये। संसारमें भगवान् दु:खमें ही याद आते हैं। किसी भक्तने कहा है—
दुखमें सुमिरन सब करे सुखमें करे न कोय।
जो सुखमें सुमिरन करे तो दुख काहे को होय॥
दु:खमें सभी भगवान्को याद करते हैं, पर सुखमें कोई नहीं याद करता। यदि सुखमें भजन करे तो दु:ख हो ही क्यों? अच्छा तो दु:ख ही है जो भगवान्का सुमिरन करानेवाला है। इसी प्रकार हमारे शरीरमें ज्वर हो जाय या कोई बीमारी हो जाय और उसमें भगवान् याद आवें तो वह बीमारी हमारे लिये बहुत लाभदायक है। संसारकी कोई भी विपत्ति आये तो भगवान्की विशेष दया समझनी चाहिये; क्योंकि जब हमें बीमारी होती है तो पापका जो फल है दु:ख, उसको भोग लेनेसे पाप मिट जाता है और हम पवित्र हो जाते हैं। हमको शुद्ध बनानेके लिये भगवान् ये सब बीमारी देते हैं। भीष्मजीने भगवान् से प्रार्थना की कि हमने जितने पाप किये हैं, वे सब रोगरूपमें प्राप्त हो जायँ, और मुझको पापरहित बना दें, शुद्ध बना दें। मैं यह नहीं चाहता कि दु:ख भोगनेके लिये मुझको पुन: जन्म लेना पड़े। एक और आनन्दकी बात यह है कि अपनेको बीमारी हो गयी, बुखार हो गया तो हम उसको तप समझ लेवें, तप समझ करके उसका आदर करें तो परम तपका जो फल है वह प्राप्त होता है, यह लाभ है। और दु:खकी प्राप्ति होनेपर निरन्तर यह बात याद आती है कि मैंने जो पाप किये थे उसके फलस्वरूप यह दु:ख भोग रहा हूँ। इससे यह धारणा बनेगी कि पाप नहीं करना चाहिये। भगवान्की स्मृतिमें दु:ख प्रधान हेतु होता है, अत: दु:खको सुखसे बढ़कर समझना चाहिये। अत: विपत्तिमें भगवान्की विशेष दया समझें। यह अलग बात है कि किसी-किसी समयमें भगवान्की याद सभीको आती है। यदि याद नहीं आते तो आप क्या करते, कुछ भी नहीं करते। यह भगवान्की विशेष दया है। समय-समयपर भगवान् आपको विशेष याद आ जाते हैं, याद आनेके बादमें उनको भुला देना, छोड़ देना यही हमारी मूर्खता है, अन्यथा उन्हें भुलावे क्यों? स्वाभाविक ही कभी भगवान् याद आ जाते हैं यह भगवान्की प्रत्यक्ष दया है। यदि भगवान् नहीं याद आते तो हमारा क्या जोर था। हर एक विषयकी प्राप्तिमें, हर एक विषयमें भगवान्की दयाका दिग्दर्शन करना चाहिये। गीतामें भी भगवान्ने कहा है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
‘जो मुझको सब जगह देखता है और सबको मुझमें देखता है, उससे मैं अलग नहीं होता और वह मुझसे अलग नहीं होता।’ इस प्रकार देखनेका जो ज्ञान है वह परमात्मासे ही होता है। हर समय हमारी यह बुद्धि हो कि हम सर्वत्र भगवान्को देखें और सबको भगवान् में देखें। इससे हमें अधिकाधिक प्रसन्नता और शान्ति मिलती है। कीर्तन करते-करते प्रेममें मूर्च्छित हो जाय, अपने-आपको भूल जाय, कीर्तनके सिवा किसी बातका ज्ञान नहीं रहे। भाव बढ़ते-बढ़ते बढ़ जाय तो भगवान् तुरंत प्रकट हो जावें। जैसे द्रौपदीने एक ही बार सकामभावसे एक आवाज लगायी तो भगवान् वहाँ तुरंत आ गये। इसी प्रकारसे भाव, दया, नाम-जप और प्रेमकी भी बात है। प्रेम बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ जाय कि वह एकदम अपने-आपको भूल जाय, मूर्च्छित हो जाय प्रेममें।’ तो भगवान् उसी समय प्रकट हो जायँ। सत्संगकी शास्त्रोंमें मुक्तिसे बढ़कर महिमा बतलायी है। अपने भाग्यके भरोसे बैठा रहे तो भगवान् भाग्यसे तो मिलते नहीं हैं, वे तो भगवत्कृपासे मिलते हैं, प्रेमसे मिलते हैं। प्रेम, श्रद्धाकी अपनेमें कमी है तो अपने दयाके पात्र हैं। भगवान् दयासे ही मिलते हैं, भगवान्के आगे रोना चाहिये, स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। हृदयसे रोकर प्रार्थना होती है, तो उसकी सुनवायी भगवान् अधिक करते हैं। करुणासे रोये और हृदयसे नहीं रोये तो भगवान्के आनेमें विलम्ब हो सकता है। जैसे एक लड़का है जो माँको पुकारता है, माँ-माँ, कहकर रोता है। माँ उसकी बातपर ध्यान नहीं देती। दूसरी स्त्रीने कहा—‘तेरा बेटा इतनी देरसे रो रहा है और तू उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देती है, कितनी देरसे रो रहा है। इसके दु:खकी तरफ तो खयाल कर।’ माँ कहती है कि ‘यह झूठे रो रहा है। देखो, आँसू तो एक भी नहीं आ रहा है।’ इस प्रकार बनावटी रोनेका असर जैसे माँपर नहीं पड़ता, उसी प्रकार अपने रोनेका कोई विशेष असर नहीं पड़ता है, क्योंकि अपना रोना हृदयसे नहीं है। हृदयका जो उद्गार है, हृदयका जो करुणा-भाव है, उससे अगर भगवान्के आगे रोयें तो भगवान्को बाध्य होकर आना पड़े। अत: हृदयके भावको बढ़ाना चाहिये। रोनेके लिये हृदयकी व्याकुलता इतनी बढ़ जाये कि हम भगवान्के वियोगको बर्दाश्त नहीं कर सकें। हमारेमें योग्यता नहीं, गुण नहीं, आदर नहीं, भक्ति नहीं, वैराग्य नहीं, ज्ञान नहीं, कुछ भी नहीं हो, केवल भगवान् से मिलनेकी इच्छा हो तो भगवान् यह नहीं देखते कि यह पात्र है या अपात्र है।
एक धनी और दयालु आदमी है। वह मिठाई खा रहा है। एक गरीब आदमी आ करके बैठ जाय और कहे कि मुझे भी जलेबी दो। थोड़ी दयावाला उसको भी जलेबी दे देता है और उसे खाकर वह प्रसन्न हो जाता है, क्योंकि इससे पहले उसने कभी जलेबी नहीं खायी थी। उसकी प्रसन्नताको देखकर दाताके मनमें भी बड़ी प्रसन्नता होती है। भगवान् बड़े उच्चकोटिके दाता हैं। हम कुछ भी न चाहकर अपनेको अपात्र समझते हुए एकमात्र प्रभुके दर्शनकी इच्छा करें। भगवान् देखते हैं कि भाई, जब इसकी उत्कट इच्छा है तो दर्शन दे ही दो। पात्रको तो जलेबी पैसा देनेपर बाजारमें हलवाईकी दूकानसे मिल ही जाती है और पैसेके अभावमें भी जलेबी खानेकी इच्छा हो तो उसको भी जलेबी मिल जाती है। जलेबीके लिये आतुर होकर किसीसे कहे—‘बाबू! हमने कभी भी जलेबी नहीं खायी, हमें एक जलेबी दिला दो।’ तो किसी-न-किसीके मनमें दया आ ही जाती है और वह दिला देता है। हमलोगोंके हृदयमें जो दया है वह मामूली दया है। दया-सागर जो भगवान् हैं वे पात्रताको देखते नहीं। यदि वे समझ लेवें कि इसको दर्शनोंकी इच्छा है तो मेरा कर्तव्य है इसको दर्शन देना। हमें भगवान्के विरद, दया और स्वभावकी तरफ देखकर दर्शनकी इच्छा करनी चाहिये तो हम अपात्र होते हुए भी पात्र हो जाते हैं। भगवान्का स्वभाव कोमल है, वे बड़े दयालु हैं, वे अपने दासोंके दु:खको देखकर बिना प्रकट हुए रह ही नहीं सकते। वे दोषोंको तो देखते ही नहीं। इस प्रकार हम भगवान्की दयाके प्रभावको समझकर उस दयाके बलपर दर्शन कर सकते हैं। हम अपात्र हैं इसलिये दूर हैं, यह अपनी ही समझकी कमी है। हमलोग, हर एक भाई खयाल करके अपनी तरफ देखें तो जो कुछ भी हम भगवान्की दयाका लाभ उठा रहे हैं ये ही असम्भव-सी बात है। क्योंकि कहाँ तो हमलोग और कहाँ भगवान्। रामचरितमानसके उत्तरकाण्डमें श्रीभरतजी कहते हैं—
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
‘हे नाथ! यदि आप मेरी करनीकी तरफ खयाल करके देखो तो सौ करोड़ कल्पोंतक भी मेरा उद्धार होना सम्भव नहीं है।’
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
आप अपने दासोंके दोषोंकी तरफ नहीं देखते हैं, आपका स्वभाव बड़ा कोमल है। आप दीनोंके बन्धु हैं और मैं दीन हूँ। इससे हमें विश्वास होता है कि भगवान् हमें मिलेंगे। इसी प्रकारसे हमलोग भी अपने मनमें समझ लें तो जो बात भरतके लिये थी, वही हमारे लिये है। भरतसे ज्यादा हमारे अपराध हो सकते हैं; किंतु ज्यादा कितने ही हों, जहाँ सूर्यका प्रकाश होता है वहाँ थोड़ा या ज्यादा अन्धकारका खयाल थोड़े ही किया जाता है, वहाँ तो चाहे जितना भी अन्धकार हो सब भाग जाता है। हर एक भाई अपने ऊपर विचार करके देखें, हम अपनेपर विचार करके देखते हैं कि देखो हम कितने नीचे दर्जेके हैं, दूसरी तरफ भगवान्की दयाकी तरफ देखते हैं तो हमको आश्चर्य होता है कि हमारे-जैसे पुरुषपर भी भगवान्की दया हो सकती है, तो दूसरोंपर दया हो तो बात ही क्या है। हम जो आपको शास्त्रोंकी इतनी बातें सुनाते हैं तो यह एक प्रकारसे हमारी कोई पैतृक सम्पत्ति है क्या? हमारी कोई कमाई है या कोई हमारी पूँजी है, केवल भगवान्की दयाके सिवा और दूसरी बात ही क्या है। मेरेसे भी नीची श्रेणीके लोग संसारमें हैं, वे भी परमात्माकी दयाके प्रभावसे ब्रह्माकी पदवीतक पहुँच सकते हैं। किंतु भगवान्की दयाके प्रभावको अपने ऊपर समझना और मानना चाहिये। मैं तो माननेवालोंमें नहीं हूँ, बल्कि मैं भगवान्की दयाके प्रभावको न जाननेवालोंमें हूँ। उनकी दयाका जो प्रभाव है, तत्त्व है, रहस्य है उसको मैं न जाननेवाला और न माननेवाला हूँ। ऐसे आदमीपर भी भगवान् दया कर रहे हैं फिर जो अपने ऊपर दया समझे, जाने, माने, उसका तो क्या ठिकाना है। इसलिये मैं कहता हूँ कि जो अपने ऊपर भगवान्की दया समझे, उसपर भगवान्की दया उस समझसे भी बहुत ज्यादा है। क्योंकि मैं अपने ऊपर घटा करके देखता हूँ कि भगवान्की जो दया है उनका जो तत्त्व-रहस्य है उसको जो जानता है उसको कितना लाभ होता है, यह वही जाने। किंतु भगवान्की दयाका तत्त्व-रहस्य नहीं जाननेवाला, नहीं समझनेवाला, नहीं माननेवाला जो व्यक्ति है उसके ऊपर भी भगवान्की इतनी अपार—अपरिमित दया है तो दूसरोंके ऊपर यानी माननेवालेपर हो तो उचित न्याय ही है। इसलिये यह बात कही जाती है कि अपात्रपर भी भगवान्की दया होती है।
हर एक मनुष्यको यह समझना चाहिये कि मेरे ऊपर भगवान्की सबसे ज्यादा दया है, पात्र तो हूँ नहीं किंतु दया सबसे ज्यादा है। इस बातको मान लेनेसे फिर उसको चारों तरफ दया-ही-दया दीखने लगती है। मानो वह दयाके सागरमें डूबा हुआ है। जब वह एक प्रकारसे दयाका अनुभव करता है तो उसको सर्वत्र भगवान्के दर्शन होने लगते हैं, हर समय भगवान्की लीला होती-सी उसको दीखती है। वस्तु—पदार्थमात्रमें उसको भगवान्का स्वरूप दीखता है और जड़-चेतनके द्वारा होनेवाली उसकी क्रिया—लीला दीखती है। ये जो अपने भगवान्की लीला कराते हैं—रामलीला, कृष्णलीला यह तो कृत्रिम है, यह तो बनावटी है किंतु उसको जो दीखती है, वह असली है। उसको तो हर समय भगवान्की लीला दीखती है। संसारमें हवा चल रही है या मन, इन्द्रियों और शरीरके अनुकूल अथवा प्रतिकूल जो कुछ क्रिया हो रही है उसको भगवान्की लीला ही दीख रही है। आप खयाल करके देखिये, लोग सिनेमा देखने जाते हैं, उसमें उनको तमाशे दीखते हैं और वे बिलकुल झूठे हैं। झूठे हैं और दूसरी तरफ सिनेमाके खेल भी हैं, यह बुद्धि भी है तो भी उसे देखकर खुश होते हैं, तभी तो बार-बार देखने जाते हैं। नहीं तो क्यों जावें, वह जो सिनेमाका खेल-तमाशा है, बनावटी है और मनुष्य-कृत है। उसको देखना मूर्खता है और भगवान्की तरफसे जो तमाशा हो रहा है, उस तमाशेके मुकाबलेमें और कोई तमाशा है ही नहीं।
भगवान् प्रकट होकर यदि लीला करें और उनको हम भगवान् समझ लेवें तो उस समय उनकी लीलाको देख-देखकर हमको प्रसन्नता होनी चाहिये। यही भगवान् तो कृष्णावतारमें लीला करते थे। भगवान्की प्रत्येक क्रिया गोपियोंके लिये लीलारूप थी और जिनकी भगवान् में श्रद्धा नहीं थी, उनके लिये वह लीला नहीं थी। जब ब्रह्माजी भगवान्को भगवान् नहीं समझे तो भगवान्की बाल-लीला उनके लिये लीला नहीं थी। यदि वे समझते कि भगवान् लीला कर रहे हैं तो ग्वालबालों और बछड़ोंको ले जाकर एक गुफामें क्यों रखते। उनकी बुद्धिमें भ्रम हो गया था। ग्वालबाल उस लीलाको लीला समझते थे और गोपियाँ उससे भी बढ़कर समझती थीं। घरके द्वारपर सब खड़ी रहतीं कि भगवान् इधरसे होकर निकलेंगे। भगवान् गायोंके बछड़ोंके पीछे-पीछे चल रहे हैं। उन बछड़ोंके खुरकी धूल उड़कर भगवान्के शरीरपर पड़ती तो भगवान् धूलधूसरित हो जाते, सारे बदनपर धूल-ही-धूल भर जाती। सूक्ष्म धूल जिसे मिट्टी कहते हैं भगवान्के शरीरपर छा जाती है। ऐसे भगवान्के धूलधूसरित स्वरूपको देख करके गोपियाँ प्रसन्न हो रही हैं। यदि सारे शरीरपर धूल पड़नेसे सुन्दरताकी महत्ता हो तो दूसरे लोग अपने ऊपर धूल गिरा करके महत्ता पा लेते, किंतु उससे कोई प्रसन्नता नहीं होती, वह तो गोपियोंका भाव था कि भगवान् किसी भी रूपमें, किसी भी प्रकारसे उनको भगवान् दीखते थे और उनकी प्रत्येक चेष्टा लीलारूपमें दीखती थी। भगवान् एक रूपमें हो करके चेष्टा करते थे, तो उनकी क्रिया लीला दीखती थी। भगवान्ने अनेक रूप धारण कर लिये ग्वालबालों तथा बछड़ोंके रूपमें। लीलाका विस्तार हो गया तो उन भगवान्के स्वरूपोंके द्वारा जो भी चेष्टा होती थी समझनेवाले लोगोंके लिये वह सब भगवान्की लीला होती थी। जो नहीं समझते उनके लिये कुछ भी नहीं। जो मनुष्य इस संसारके तत्त्व-रहस्यको समझ जाता है कि वर्तमानमें जितने संसारके स्वरूप हैं वे सभी भगवान्के स्वरूप हैं और इनके द्वारा होनेवाली सभी चेष्टा भगवान्की लीला है तो समझो कि भगवान् श्रीकृष्णजीकी मौजूदगीमें जो उनकी लीला हो रही थी वह थोड़ी दूरमें हो रही थी। सारे ब्रह्माण्डमें जो होती है वह तो उससे भी बढ़कर लीला है। यही भाव (गीता ६। ३१में) इस प्रकार बताया गया है—
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
सारे भूतोंमें स्थित जो मैं हूँ, ऐसे मुझ परमात्मामें जो एकीभाव हुआ अर्थात् सब जगह मुझ परमात्माके स्वरूपका अनुभव करनेवालोंके अनुभवमें मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं। परमात्माको ही सब जगह देखनेवाला संसारमें जो कुछ कर रहा है, बरतता है, भगवान् कहते हैं कि वह मेरेमें ही बरत रहा है, वह तो भगवान्के साथ ही लीला कर रहा है और सबको भगवान्का स्वरूप समझकर और उनके साथ जो बर्ताव कर रहा है वह बर्ताव भगवान्के ही साथ हो रहा है। सबको भगवान् समझ लेनेके बाद जैसा भगवान्के साथ व्यवहार होना चाहिये वैसा ही व्यवहार होगा। वह सबको भगवान् समझकर और रसास्वाद लेता हुआ आनन्दमें मुग्ध रहेगा और उसकी सारी चेष्टा भगवान्के साथ रमण—क्रीडा करनेमें होती है। उनके स्वरूपका अनुभव तो केवल माननेकी बात है, भगवान् सबमें हैं और मैं भगवान्के साथ क्रीडा करता हूँ, खेल करता हूँ, मैं रमण करता हूँ; क्रीडा, रमण और खेल—ये तीनों एक ही बात हैं। उसके आनन्द—शान्तिका क्या ठिकाना, यह आनन्द—शान्ति सबमें मौजूद है। केवल मान लेनेकी बात है। जबतक समझमें न आवे तबतक भगवान्के वचनोंको मान लेनेके बाद आगे जाकर वह बात समझमें आ जाती है। भगवान् स्वयं कहते हैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
जो पुरुष मुझको सब जगह देखता है और सबको मुझमें देखता है, जैसे बादलोंमें आकाशको देखता है और आकाशके एक अंशमें बादलोंके समूहको देखता है। यह साकारका दृष्टान्त है कि जहाँ नेत्र तथा मन जाय वहीं भगवान्को देखे। जैसे गोपियाँ देखा करती थीं। भगवान् उनके नेत्रोंमें बसते थे, उनके हृदयमें बसते थे। इसका मतलब है जो चीज नेत्रोंमें वास करे वही बाहर दीखती है। भले ही वह सूक्ष्म दीखे। इसी प्रकार हम भगवान्को अपने नेत्रोंमें, हृदयमें बसा लेवें तो जहाँ भी हमारे नेत्र-मन जायँ वहीं भगवान् दीखें। भगवान् सब जगह हैं ऐसा मान करके देखना शुरू करें तो उसका परिणाम यह होगा कि ‘तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥’ उसकी दृष्टिसे मैं कभी दूर नहीं होता, वह मुझसे कभी दूर नहीं होता। तो इसका परिणाम होता है—
‘सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।’
(गीता ६। ३१)
भगवान् कहते हैं—सब भूतोंमें जो मैं स्थित हूँ, ऐसे मुझ परमात्मामें वह स्थित है। मुझ परमात्मामें स्थित होकर संसारमें अपने शरीरसे बरतता है तो वह मेरेमें ही बरतता है। जब यह समझ लेता है कि सारा ब्रह्माण्ड परमात्मामें है, मैं भी परमात्मामें हूँ और परमात्मा सबमें परिपूर्ण है, ऐसा अनुभव करके वह सब प्रकारसे बरतता हुआ परमात्मामें ही तो बरतता है। सब-के-सब परमात्मामें हैं तो उसका भी तो शरीर परमात्मामें ही है। परमात्मामें वह तन्मय हो जाता है, एकीभाव हो जाता है। एकीभाव हो करके वह परमात्मामें स्थित हो करके चेष्टा करता है। अपने-आपको वह परमात्माको समर्पण कर देता है अर्थात् अपने-आपको परमात्मामें मिला देता है। परमात्मामें एकीभाव हो जाता है, परमात्मामें वह रम जाता है और स्वयं उन परमात्मामें तद्रूप होकर चेष्टा करता है। उसकी लीला परमात्मामें ही है, परमात्माके बाहर नहीं। हमलोगोंको जिनको ज्ञान नहीं, वे लोग उनकी चेष्टाको अलग देखते हैं। हमारा देखना व्यर्थ, उसका देखना ठीक, इस प्रकार उसके आनन्द और शान्तिकी क्या सीमा? भगवान्के साथमें खेल करता है, जैसे गोपी-ग्वाल भगवान् श्रीकृष्णके साथ खेला करते थे, क्रीडा करते थे; पर वे तो किसी-किसी समय करते थे और यह तो आठों पहर करता है, अत: उस लीलासे यह लीला दामी है—महत्त्वपूर्ण है।