भगवान् का हेतुरहित सौहार्द
भगवान् दया करके ही सबका उद्धार करते हैं। भगवान् बड़े प्रेमी हैं, बड़े दयालु हैं। गीतामें भगवान्ने अपने विषयमें स्वयं ही कहा है—
‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥’
(५। २९)
‘मुझको सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर साधक शान्तिको प्राप्त होता है।’
यदि कहें कि हम भगवान्को परम दयालु, परम प्रेमी, हेतुरहित दया करनेवाले, हेतुरहित प्रेम करनेवाले मानते हैं तो हम यही कहेंगे कि आप मानते नहीं, कहते हैं। हम इस बातको जब समझ जायँगे कि भगवान् परम प्रेमी हैं तो फिर हम भगवान्को छोड़कर किसीसे भी प्रेम नहीं करेंगे। भगवान् प्रेममें बिक जाते हैं। प्रेमी भगवान्को खरीद लेता है और बेच भी सकता है। प्रेमीको भगवान्का दर्शन होता है, यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं—
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
यह तो नीति है कि भगवान् सब जगह व्यापक हैं और प्रेमसे प्रकट होते हैं, किंतु प्रेमसे प्रकट होकर उसको दर्शन ही देते हैं, इतनी ही बात नहीं है। वे प्रेमीके अधीन हो जाते हैं। ‘अहं भक्तपराधीन:’—मैं भक्तोंके अधीन हूँ। इतना ही नहीं, भक्त आगे-आगे चलता है, मैं पीछे-पीछे चलता हूँ। उनके चरणोंकी धूलि अपनेपर पड़ जाय तो अपनेको पवित्र मानता हूँ—
‘अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥’
(श्रीमद्भा० ११। १४। १६)
‘उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।’
क्योंकि भक्तकी ऐसी मान्यता है—
‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’
(गीता ४। ११)
‘जो मेरेको जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’
इतना ही नहीं भगवान्को कोई भक्त बेच दे यानी दूसरेको दे दे तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझको दे सकता है। ऐसी कथाएँ आती हैं। नरसी मेहताके लिये भगवान्ने कहा है—‘बेचे तो बिक जाऊँ। नरसी म्हारो सिर धनी।’ नरसी हमारा मालिक है, मुझको बेचे तो मैं बिक जाऊँ।
नरसी मेहताने भगवान् पर एक हुण्डी सात सौ पचास रुपयेकी कर दी। रुपया देकर हुण्डी लेकर वे द्वारकामें गये। वहाँ पता लगा नहीं। लोगोंने पूछा—‘तुम्हें क्या पता बतलाया?’ उन्होंने कहा—‘द्वारकाधीशके मन्दिरके पास साँवलशाह।’ तब लोगोंने कहा—‘यहाँ तो कोई इस नामका आदमी नहीं और न कोई दूकान ही है। तुम किसीके धोखेमें आ गये।’ वे पश्चात्ताप करते हुए वापस लौटे और सोचने लगे, चलकर नरसीकी बेइज्जती करेंगे। रात्रिका समय हो गया। द्वारकाके किनारे आकर शयन करने लगे। बड़े दु:खित थे, इसलिये नींद नहीं आयी, केवल लेट गये थे। इतनेमें भगवान् आये, बोले—‘यहाँ किसीके पास मेरे नामकी सात सौ पचास रुपयेकी हुण्डी है? मैं हुण्डीवालेकी खोज कर रहा हूँ।’ इसपर लेटे हुए उन व्यक्तियोंने कहा—‘हम ही हुण्डी लेकर आये थे, पर आपका पता नहीं लगा।’ इसपर भगवान्ने कहा—‘आप रुपया ले लें और हुण्डी मुझे दे दें’ और उन्होंने ७५० रुपये देकर हुण्डी ले ली तथा पुन: कहा—‘एक मेरी प्रार्थना है—सेठके पास जाकर मेरी निन्दा मत करना। आपसे ही अपने अपराधकी माफी माँगता हूँ। मुझसे बड़ी गलती हुई। आप ढूँढ़ते रहे, रातका समय हो गया, मैं नहीं पहुँचा। मैंने सुना, तब तो दौड़कर आया, वहाँ मेरा अपराध वर्णन मत करना। आप ही मुझे माफ कर दें।’ वे बोले—‘देखो, बेचारा भला आदमी है। हमलोग चले जाते, नरसीको गालियाँ देते, बेइज्जती करते। यह तो घरपर आकर ही हुण्डीका भुगतान दे गया।’ वे सभी दूसरी बार फिर नरसीके पास पहुँचे और बोले, ‘फिर हुण्डी दो।’ नरसी बोले—‘किसपर।’ बोले—‘साँवलशाहपर।’ आपका गुमाश्ता तो बहुत ही भला आदमी है। हमको हुण्डीका भुगतान हमारे घरपर, हम लौटकर जा रहे थे, तब दे गया और कहने लगा—‘मेरा अपराध क्षमा कर देना। जबकि उसका कोई अपराध भी नहीं था। वह हमको अपने स्थानपर नहीं मिला था, किंतु खोजते हुए हमारे पास पहुँच गया। गुमाश्ता तो आपका एक नम्बरका ही है।’ नरसी बोले—‘धन्य भाग्य है तुम्हारा। वे तो साक्षात् भगवान् थे। मैं तो तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुमको उनके दर्शन हो गये। हमारी वहाँ कोई दूकान नहीं, कोई गुमाश्ता नहीं, तुम हमारे गले पड़ गये तो भगवान्के भरोसेपर हुण्डी कर दी। हुण्डी भुन गयी तुम्हारा अहोभाग्य है।’ वे पश्चात्ताप करने लगे। उन्होंने द्वारकामें जाकर देखा तो अब वह दूकानदार वहाँ कहाँ मिले। यह एक प्रकारसे भगवान्को बेचना ही तो है। हुण्डी काट देना एक प्रकारसे बेचना है। भगवान्का भक्त दूसरेको भी भगवान्का दर्शन करा सकता है, स्वयं उसे भगवान्का दर्शन हो जाय तो इसमें शंकाकी बात ही क्या है।
भगवान् के प्रेमका विषय इतना गहन है कि वाणीकी गति नहीं कि उसको बतला सके। मनकी शक्ति नहीं कि कल्पना करके दृष्टान्त देकर वाणीको आज्ञा दे, बुद्धिकी भी क्षमता नहीं। समझना चाहिये कि असंख्य ब्रह्माण्डोंके मालिककी हम-जैसे तुच्छ प्राणियोंके साथ मित्रता? हमारी उनकी क्या बराबरी! यह भी ऐश्वर्यको लेकर उनके प्रभावको समझे। मैंने असंख्य ब्रह्माण्डका मालिक बतलाया, यह भगवान्की उपमा, उनका प्रभाव नीचे-से-नीचे दरजेका है। ओहो! असंख्य ब्रह्माण्डका मालिक नीचे-से-नीचे दरजेका है? यह ऐश्वर्यको चाहनेवाले पुरुषोंके लिये है। ऐश्वर्यमय रूप ही तो बतलाया। एकका नहीं, बीसका नहीं, लाख ब्रह्माण्डका मालिक। भगवान्को ऐसा समझे तो एक-दो ब्रह्माण्ड ही तो देगा, तो ब्रह्माण्डके ऐश्वर्यसे उनको तौलते हैं न? भगवान् ऐश्वर्यशाली ही तो हुए। जैसे कोई हजारों गाँवोंका राजा हो, ऐसे वह हजारों ब्रह्माण्डोंका मालिक है। राजा खुश हो तो एक-दो गाँव दे दे। भगवान् खुश हों तो उसको एक-दो ब्रह्माण्डका ऐश्वर्यशाली या ब्रह्मा बना दें तो तुम्हारी भगवान्के विषयमें यही तो बुद्धि हुई!
भगवान् प्रेममय, आनन्दमय, चिन्मय, ज्ञानमय हैं, इसकी तो थोड़ी भी आपने कल्पना ही नहीं की। आप यदि यह समझें कि मेरा आत्मा अल्पज्ञ है, परमात्मा सर्वज्ञ है, मैं घटाकाशकी तरह हूँ और परमात्मा महाकाशकी तरह है। परमात्माकी उदारता देखो कि घटाकाशकी तरह एक जीव यदि परमात्माकी शरण जाये तो महाकाशस्थानीय परमात्मा अपने-आपको उसके हाथोंमें अर्पण कर दें।
जो अपने-आपको भगवान्के समर्पण कर देता है, भगवान् भी अपने-आपको उसके समर्पण कर देते हैं, यह उनकी उदारता देखो। अपनी औकात कितनी! एक तुच्छ! हम तो अल्पज्ञ हैं, तुच्छ हैं, परमात्मा महान् हैं। उनकी महत्ताकी तरफ खयाल करो। वे महान् ज्ञानस्वरूप, चेतनस्वरूप हैं। वह सर्वज्ञ परमात्मा अपनी सर्वज्ञता उनके अर्पण कर देता है, हम अपनी अल्पज्ञता उनके अर्पण करते हैं। उनकी सर्वज्ञताकी तरफ खयाल करो, अपनी अल्पज्ञताकी तरफ खयाल करो। तब तो तुमने उनको ज्ञानसे तौला, सर्वज्ञतासे तौला। तुमने ऐश्वर्यसे तौला तो क्या तौला? यह तो सब नाशवान् और मिथ्या पदार्थ हैं। तुम भगवान्को कुछ नहीं समझे। उसको आत्मासे तौलना चाहिये था। मनुष्य जब इस प्रकार समझ जाता है, तब वह परमात्माको छोड़कर और किसीसे प्रेम नहीं करता। वह ऐश्वर्यको देखकर मोहित नहीं होता। वह समझता है—यह स्वप्नवत् मायामात्र है, कुछ भी नहीं है। परमात्मा ऐसे प्रेमी कि जो उनसे प्रेम करता है, उसके लिये वे बिक जाते हैं। वे सब कुछ दे देते हैं। प्रेमके बदलेमें अपने-आपको अर्पण कर देते हैं। व्यक्तिका प्रेम पाकर उसके बदलेमें भगवान् अपने-आपको समर्पण कर दें, कितनी बड़ी प्रीति! कितनी बड़ी उदारता है!
दयाकी बात
यदि हम यह उदाहरण दें कि भगवान् दयाके सागर हैं तो यह उदाहरण भी नीचे दरजेका है, क्योंकि सागर भी सीमावाला है। भगवान्की दयाकी कोई सीमा नहीं। सारी दुनियामें जो दया है, वह उस दयासागरकी एक बूँद है, यह उदाहरण भी ठीक नहीं है। उदाहरण उसके लिये है ही नहीं। भगवान् कहते हैं मुझको दयालु मान ले तो परमशान्ति मिल जाय। तो दयाके तत्त्वको हमलोग समझे ही नहीं।
जब हम यह मानते हैं कि हम उसके लायक नहीं, इतना तो ठीक है। पर जब हम उसके साथ यह मान लेते हैं कि भगवान्के दर्शन हमारे लिये असम्भव हैं तो निराश हो बैठते हैं। निराश हो जाना उनकी असीम कृपाके विषयमें ठीक-ठीक न समझना ही है। यदि हम यह समझते हैं कि भगवान् बड़े भारी दयालु हैं, हमारे अवगुणोंकी तरफ देखते ही नहीं तो फिर हमारे हृदयमें निराशा कभी आ ही नहीं सकती। भगवान् अपने विरदकी तरफ देख करके दर्शन देते हैं। इस तत्त्वरहस्यको यदि समझते तो कभी हम निराश नहीं होते। भगवान् तो इतने दयालु हैं कि हम इतना अपराध करते हैं तो भी वे उसका दण्ड नहीं देते। यही दण्ड देते हैं कि उनके दर्शन नहीं होते, इसे ही भले दण्ड मान लो। जब भगवान् हमारे अवगुणोंकी तरफ खयाल ही नहीं करते हैं तो हम यह क्यों कहें कि हमारे अवगुणोंकी तरफ देखकर भगवान् दर्शन नहीं देंगे। भगवान् तो हमारे अवगुणोंकी तरफ खयाल ही नहीं करते और हम उसको कायम करते हैं कि भगवान् हमारे अवगुणोंकी तरफ खयाल करते हैं। तो फिर भगवान् दयालु कहाँ रहे? हम भगवान्को जब परम दयालु समझ जायँगे, तब हम उनके विरदपर हिम्मत रखेंगे और विश्वास रखेंगे कि हमको भगवान्का अवश्य दर्शन होगा। ऐसा हमारे दिलमें जब विश्वास होगा तब हम दर्शनोंसे कभी वंचित नहीं रहेंगे। भगवान् कितने दयालु हैं हम समझे ही कहाँ! भगवान्को दयालु मानकर भी हम दर्शनोंसे वंचित रहते हैं तो दयाके प्रभावको कुछ भी नहीं समझे। हमने वास्तवमें भगवान्को दयालु समझा ही नहीं। भगवान् पात्रको तो दर्शन देते ही हैं यह तो नीति ही है, इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है। जो जिज्ञासु होता है, श्रद्धालु होता है, उसको भगवान् दर्शन देते हैं। जो प्रेमी होता है उसको दर्शन देते हैं यह न्याय ही है। भगवान् तो एक प्रकारसे कोई कैसा भी नीच अथवा पापी क्यों नहीं हो उसकी तरफ नहीं देख करके अपात्रको भी दर्शन देते हैं। कुपात्रको भी दर्शन देते हैं। कैसा भी कुपात्र और नीच क्यों न हो। केवल यह मानना है कि भगवान् सबके सुहृद् हैं। बिना कारण ही दया करनेवाले, प्रेम करनेवाले हैं।
हम यदि यह मानें कि हम पात्र नहीं हैं, इसलिये भगवान् हमको दर्शन नहीं देते, तो ‘भगवान् बिना ही कारण दया करनेवाले, प्रेम करनेवाले हैं’ उनके इस सुहृद्भावको हम कहाँ समझे? हम तो यही समझे कि हेतुको लेकर भगवान् दया करते हैं। वास्तवमें वे तो हेतुरहित दया करनेवाले हैं। हमें यह मनुष्यका शरीर मिला यह तो मात्र उनकी अहैतुकी कृपाका परिणाम है। क्या इसे हमारे आचरणोंको देखकर भगवान्ने दिया? भगवान् प्रजाजनोंको उपदेश देते हुए स्वयं कहते हैं—
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
कभी दया करके भगवान् बिना ही कारण, भगवान् प्रेमी हैं, दयालु हैं इसलिये दर्शन देते हैं, अपने विरदकी ओर देखकर। यदि जीवोंकी तरफ देखकर विचार किया जाय तो मनुष्योंकी सृष्टि ही नहीं होनी चाहिये। मनुष्योंकी सृष्टि होती है, वह भगवान् दया करके मनुष्य बनाते हैं। आचरणोंकी तरफ देख करके तो मनुष्यका शरीर मिलना सम्भव ही नहीं है। पर भगवान् देखते हैं कि क्या करें सबको मौका तो देना चाहिये। सबको ही मौका देते हैं। कुपात्र हो चाहे अपात्र हो।
हमको तो यह बात प्रतीत होती है, जो भगवान्को एक प्रकारसे नहीं चाहता है, उसको भी भगवान् चाहते हैं। भगवान् तो दर्शन देनेके लिये लालायित रहते हैं। केवल निमित्तमात्र बनाते हैं। कोई बहाना मिल जाये, कोई निमित्त बन जाये। इतना ही हम हृदयसे मान लें कि ‘भगवान् पात्र-कुपात्र नहीं देखते, बड़े दयालु हैं।’ उनके हृदयमें दया आ जाती है। एक माता सबको मेवा-मिष्टान्न देती है, एक लड़का कुपात्र और बदमाश है, उसको भी दिये बिना उसका हृदय नहीं मानता, किंतु उस लड़केके सामने रख दे और लड़का क्रोधमें आकर फेंक दे तो माँ क्या करे। इसी प्रकार भगवान् दया करके अपना दर्शन देनेके लिये तैयार हैं, किंतु हम दर्शन जो नहीं पा रहे हैं यह उसका दण्ड है कि हम उसकी दयाके रहस्यको नहीं जानते। दयाके रहस्यको जानते तो हम अपने आचरणकी तरफ क्यों देखते, भगवान्के विरदकी तरफ ही देखते और विरदकी तरफ देखते तो भगवान् मिले बिना कैसे रह सकते? हमारेमें ही कमी है कि हम भगवान्के प्रभावको तो जानते ही नहीं अपितु उन्हें निर्दयी मानते हैं। निर्दयी माननेका यह अभिप्राय है कि यदि दयालु मानते तो उनकी दयापर मुग्ध हो जाते कि कैसी उनकी अपार दया है?
यह देखा जाता है कि एक आदमी भगवान्का दर्शन नहीं चाहता, उसको भी भगवान् दर्शन देते हैं। फिर भी वह स्वीकार नहीं करे तो भगवान् क्या करें। दुर्योधन क्या भगवान्के दर्शनोंका पात्र था? भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी अपने अवतारके रूपमें दुर्योधनको तथा औरोंको दर्शन दे रहे थे। तब तो आप यह भी कह सकते हैं कि यह मनुष्य है या परमात्मा, कैसे समझें? किंतु दुर्योधनकी सभामें दुर्योधनको जब विश्वरूप प्रकट करके दिखलाया तब तो उसको समझना चाहिये था। ऐसा रूप क्या कोई मनुष्य धारण कर सकता है? भगवान्ने अपात्रोंको भी बिना आकांक्षाके, बिना माँगके प्रकट होकर दर्शन दिया। किंतु वह दर्शन पा करके भी यह नहीं समझा कि ये साक्षात् भगवान् हैं, दर्शन पाकर भी परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित रहा। तो भगवान्की दयामें तो कोई कमी नहीं।
विष देनेवाली पूतनाको भी भगवान्ने मुक्ति दी थी कि मेरे साथमें इसका किसी प्रकार भी सम्बन्ध हो गया तो इसकी तरफ क्या देखूँ, मैं अपनी तरफ देखूँ। अपने कर्तव्यकी तरफ देखूँ, भगवान् भक्तके कर्तव्यकी तरफ नहीं देखते। दूसरे दुष्टोंके कर्तव्यकी तरफ भी नहीं देखते, फिर भक्तके कर्तव्यकी तरफ तो देखेंगे ही क्या, अपने विरदकी तरफ ही देखते हैं और अपने विरदकी तरफ जब देखते हैं तो हम सभी पात्र हो जाते हैं। किंतु भगवान्की दया हम स्वीकार नहीं करें, तब भगवान्का क्या उपाय? भगवान् परम दयालु हैं इतनी बात तो हमको स्वीकार करनी चाहिये। जब हम भगवान्की दयाकी तरफ देखेंगे तो विह्वल हो जायँगे। फिर भगवान्के बिना हम रह नहीं सकेंगे।
बच्चा माँकी दयाके प्रभावको थोड़ा जानता है। छोटा बच्चा एक-दो सालका, माँके बिना रहना नहीं चाहता। माँ उसको छोड़कर चली जाय तो वह रोता ही रहता है। उसका उपाय तो नहीं, सिवा रोनेके। किंतु हमलोग तो रोते भी नहीं। माँका प्रभाव जितना लड़का जानता है कि माँ मेरी है, वह बड़ी दयालु है, मुझसे बड़ा प्रेम करती है, इस प्रकारसे जाननेवाला छोटा बच्चा माँके वियोगको बर्दाश्त नहीं कर सकता। किंतु हमलोग भगवान्के वियोगको बर्दाश्त कर रहे हैं, इसीलिये यह वियोग है।
हमलोगोंको भगवान्के दर्शन होनेमें जो विलम्ब हो रहा है, भगवान्की सुहृदताके तत्त्वको न जाननेका ही यह परिणाम है। भगवान् सबके सुहृद् हैं यदि इस प्रकार हम जाननेवाले होते तो विलम्ब नहीं होता। जब कि भगवान् में श्रद्धा, प्रेम न रखनेवाले पुरुष हैं, भगवान्को नहीं माननेवाले पुरुष हैं, भगवान्की दयाके तत्त्व-रहस्यको नहीं जाननेवाले पुरुष हैं, भगवान्के प्रेमके तत्त्वको नहीं जाननेवाले पुरुष हैं, भगवान्को जो नहीं चाहते हैं, उनको भी भगवान् दर्शन देनेके लिये प्रयत्न करते हैं। जो चाहते हैं, उनके लिये क्यों नहीं प्रयत्न करेंगे? उत्तंक नहीं जानता था कि ये भगवान् हैं, ऐसा नहीं समझा था, तब भी भगवान्ने समझाया कि ‘मैं साक्षात् भगवान् हूँ? मुझको शाप मत देना। शाप देनेसे आपकी गुरु-भक्ति नष्ट हो जायगी। गुरुकी सेवाका मिलनेवाला फल नष्ट हो जायगा। मैं साक्षात् परमेश्वर हूँ, मुझको शाप लगता नहीं। मैंने इस समय मनुष्यके रूपमें अवतार लिया है, यह उसको भगवान् कहते हैं। मैं साक्षात् पूर्ण ब्रह्म परमात्मा जब-जब संसारमें विप्लव होता है, तब-तब अवतार लेता हूँ। मैं कच्छप, मत्स्य, वराहके रूपमें प्रकट होता हूँ। देवयोनि, मनुष्ययोनि, पशुयोनिमें आवश्यकतानुसार प्रकट होता हूँ। वर्तमानमें मनुष्ययोनिमें प्रकट हुआ हूँ।’ तब उसने कहा—‘यदि आप साक्षात् परमात्मा हैं तो मुझे अपना विश्वरूप दिखलाइये।’ भगवान्ने अपना विश्वरूप उसको दिखलाया। किंतु भगवान्ने ही तो उसको परिचय दिया। भगवान्ने सोचा कि इसने आत्माके कल्याणके लिये बड़ी भारी गुरुभक्ति की है, सो आत्माका कल्याण होना ही चाहिये। भगवान्ने दर्शन देकर आत्माका उद्धार किया। वहाँ उसकी तरफसे भगवान्की माँग नहीं थी। भगवान्को जानता ही नहीं। माँग कैसे करे? इस प्रकार भगवान् जब खोज-खोज करके उद्धार करते हैं, तब जो भगवान्को प्राप्त करनेकी इच्छा करता है, उसको भगवान् दर्शन नहीं देंगे तो किसको दर्शन देंगे? कोई कैसा ही पापी क्यों नहीं हो उसके सारे पाप ‘भगवान् सुहृद् हैं’ यह जाननेसे ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे कोई गुफामें कितने ही वर्षोंका अँधेरा क्यों नहीं हो, वहाँ बिजलीकी रोशनी होनेके साथ ही अन्धकार भाग जाता है। इसी प्रकार कितना ही अज्ञान हो, ज्ञान होनेके साथ ही मिट जाता है। पापोंका कितना ही ढेर हो, ज्ञानाग्निसे सब दग्ध हो जाता है—
‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥’
(गीता ४। १९)
‘ऐसे उस ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्म हुए कर्मोंवाले पुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।’ साथ ही—
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥
(गीता ४। ३६)
भगवान् ने अर्जुनसे कहा—‘यदि तू सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है तो भी ज्ञानरूप नौकाद्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पापोंको अच्छी प्रकार तर जायगा।’
किंतु जानबूझकर पाप नहीं करना चाहिये। पिछले जितने पाप हैं उनके लिये हमको यह समझना चाहिये कि भगवान् अकारण ही दया, प्रेम करनेवाले हैं। उनकी कृपासे सब पापोंका नाश हो जायगा। भगवान् में अपार दया है। इस बातको माननेके बाद कोई भी पापी उनकी दयासे वंचित नहीं रह सकता। हम तो पापी हैं, किंतु भगवान् तो निर्दयी नहीं। हम अपनेको पापी मानकर भगवान्को निर्दयी मानते हैं यह अपराध करते हैं। अपने पापोंको लेकर यह मानते हैं कि हमारा उद्धार होना कठिन है, असम्भव है, नहीं हो सकता। ऐसा समझना तो भगवान्की दयाका तिरस्कार करना है। अपने घरमें मामूली अन्धकार है, वह सूर्यसे भी दूर नहीं हो सकता यह मानना मूर्खता है। यह अन्धकार तबतक ही है जबतक सूर्यभगवान् उदय नहीं होते। सूर्यभगवान् सबपर दया करके रोज उदय होते हैं। रात्रिमें हमको यह विचार करना चाहिये कि आज सूर्यभगवान् उदय होंगे और यह अन्धकार सूर्यके उदय होनेके साथ ही एकदम दूर हो जायगा। हम प्रकाशमें जो काम करना चाहते हैं, वह सूर्यकी रोशनीमें करें। प्रात:काल रोशनी अवश्य होगी। सूर्यभगवान् यह नहीं देखते कि मैं किसके लिये उदय होऊँ, किसके लिये नहीं। वे तो उदय हो ही जाते हैं। उदय होनेपर भी उल्लूको नहीं दीखता। उसके नेत्र बंद हो जाते हैं। इसमें सूर्यका कोई दोष नहीं है। भगवान्की दया सूर्यके प्रकाशके समान उदय हुई है, उससे यदि हम आँख मींच लेते हैं तो हमको अन्धकार-ही-अन्धकार दीखता है। हम दयासे लाभ नहीं उठावें, तो यह हमारी मूर्खता है। दयाके सामने तो दूसरेका छोटा-बड़ा अपराध कोई चीज नहीं है। हमारे कर्तव्यसे ही हमारा उद्धार होता है तो फिर दया क्या चीज है! होता है भगवान्की दयासे। हम समझते हैं, हमारा उद्धार हमारे कर्तव्यसे होगा, हम अभी उस दरजेपर नहीं पहुँचे हैं। उस दरजेपर पहुँचेंगे तब हमारा कल्याण होगा। जैसी हमारी मान्यता है, वैसा ही हमको फल मिलता है। जब पात्र होंगे तभी कल्याण होगा। जब हम यह समझते कि भगवान्की दया पात्र-कुपात्रको नहीं देखती तो हम उसकी दयासे वंचित क्यों रहते? भगवान्की दयाके प्रभावको हम नहीं मानते हैं, बल्कि इतने दयालु भगवान्को निर्दयी समझते हैं। यह एक प्रकारका अपराध है।
परम दयालु परमात्माको निर्दयी समझना क्या? कि हम दयाके पात्र नहीं हैं, इसलिये वंचित हैं। भगवान्के आगे तो सभी दयाके पात्र हैं। हम मानते हैं कि हम दयाके पात्र नहीं इसीलिये अपात्र हैं। भगवान्ने तो निर्णय किया नहीं कि तुम दयाके पात्र नहीं हो। भगवान्की सबपर अपार दया है, उसने तो दयाका भण्डार खोले रखा है। कोई भाई सदाव्रत बाँटता है, खुले दरबारमें। एक आदमी कहता है मैं वहाँ जाकर क्या करूँ। इसपर दूसरेने कहा क्यूँ नहीं गये? वह बोला—वे तो भूखोंको देते हैं, मुझको नहीं मिलेगा। तुमने जाकर देखा? मुझको विश्वास है वहाँ मिलेगा नहीं। तो तुमने उस दाताको निर्दयी समझा। वहाँ तो खुला दरबार है कोई ले आवे। तुमने ऐसा क्यों मान लिया कि वहाँ मिलेगा नहीं? इसपर उसने कहा—मैंने लोगोंसे पूछा था और पता चला कि वहाँ तो भिखारियोंको मिलता है। तो मैं उसका पात्र नहीं। भगवान्के आगे तो सभी भिखारी हैं, सभी पात्र हैं। भगवान् अपनी दृष्टिसे सभीको पात्र समझते हैं।
जो कोई निराकारका उपासक होता है, उसको भगवान् दर्शन देनेके लिये बाध्य नहीं हैं, यह बात ठीक है, किंतु भक्ति करनेवालेके लिये तो वे बाध्य हैं—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(गीता ११। ५४)
(भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—) ‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’
भक्तके लिये तो बाध्य हैं, निर्गुण-निराकारवालोंको दर्शन देनेके लिये बाध्य नहीं हैं, किंतु यह तो नहीं कि उनको दर्शन नहीं देते। यह भी नहीं जो नहीं चाहता है, उसे नहीं देते हैं, जो कुपात्र है, अपात्र है उसका उद्धार नहीं करते, ऐसी बात तो नहीं है।
भगवान् तो बिना ही कारण सबपर दया और प्रेम करनेवाले हैं—ऐसा हमलोग कहते ही हैं किंतु मानते नहीं, जानते नहीं। माननेसे ही वह आगे आकर जानता है। पहले मान लें, किंतु हम तो ऐंठ रखते हैं कि ऐसा क्यों मानें। भगवान्को भगवान् माननेमें भी हमको संकोच होता है, शर्म आती है। माननेसे आगे जाकर जानेंगे। तुमको स्वीकार कर लेना चाहिये। स्वीकार करनेके योग्य तो भगवान् हैं ही। किंतु हम तो स्वीकार ही नहीं करते।
जैसे कन्याके लिये वर है, वह उसके लिये वरण करनेयोग्य है, पति बनानेयोग्य है, पति माननेयोग्य है, किंतु कन्या पति बनाना नहीं चाहती उसे, स्वामीके योग्य नहीं मानती तो वर क्या उपाय करे? संसारमें स्वामी बनानेयोग्य एकमात्र परमात्मा ही है। उसको भी हम स्वामी मानना नहीं चाहते, तब हमारी दुर्गति हो तो इसमें स्वामीका क्या दोष है? योग्य वरको भी जब कन्या स्वीकार नहीं करे और वह अविवाहिता रहे तो उस कन्याकी बेसमझी है। भगवान्को स्वामी मानना चाहिये। भले ही स्वामी न मानो किंतु उनका अस्तित्वमात्र माननेसे ही मनुष्यको बहुत लाभ हो जाता है। भगवान् हैं, निश्चय हैं, यह माननेसे भी बहुत लाभ हो जाता है और वह स्वामी बनानेके योग्य हैं तो फिर जो उन्हें याद करता है, उनका ध्यान करता है, उसके कल्याणमें शंका ही क्या है। गायत्री-मन्त्रका भी यह सिद्धान्त है उसमें ‘वरेण्यम्’ उसका यह अर्थ है जो मैंने बतलाया है। भगवान्को इस शब्दका अर्थ मान लिया वह पात्र हो गया।
भगवान् को अपना स्वामी स्वीकार कर ले। जो भगवान्को स्वामी स्वीकार नहीं करता है, उसके कल्याणके लिये भी भगवान् चेष्टा करते हैं, जैसे महात्मा लोग। जो उन्हें महात्मा नहीं मानते हैं, तो भी वे इतने दयालु होते हैं कि मुझको महात्मा न माने अन्य किसीको भी मानकर अपनी आत्माका उद्धार तो कर ले। दूसरेको महात्मा मानकर अपनी आत्माका कल्याण कर लेता है तो महात्मा खुश होता है। जैसे कोई कहता है कि तुम राम-नामको भजो, उससे तुम्हारा कल्याण हो जायगा, किंतु उसकी बातपर विश्वास नहीं है। उसका विश्वास महात्मा गाँधीजीपर है तो वह कहता है—गाँधीजी राम-नामकी उपासना करते थे, भक्त थे। देखो, उन्होंने खुद कहा है—‘राम-नामके समान कुछ नहीं है।’ गाँधीजीको महात्मा मानकर उनका अनुकरण करो, राम-नामका भजन करो। गाँधीजीके सिद्धान्तको मानकर, उनको महात्मा मानकर, गुरु मानकर राम-नामकी उपासना करने लग जाता है तो महात्मा बड़े खुश होते हैं कि इसने रास्ता अच्छा पकड़ लिया, इसका कल्याण होनेकी सम्भावना है। किसी प्रकारसे जीवोंका कल्याण हो। महात्मा बड़े दयालु होते हैं। जैसे भगवान् दयालु हैं। वैसे ही उनके अनुयायी भी भक्त, साधु-महात्मा, दयालु होते हैं। इसीलिये भगवान् कहते हैं—ऐसे दयालु मुझे प्रिय हैं—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
× × ×
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३-१४)
‘जो सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है, वह मेरेमें मन-बुद्धि अर्पण करनेवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है।’
‘वह मुझे प्रिय है’—यह भाव भगवान्का है एवं भक्तोंका भी यही भाव है। इसलिये उच्चकोटिके भक्त भी बड़े खुश होते हैं। यदि कोई आदमी भगवान्की भक्ति करता है तो उसको देखकर वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं—किसीको गुरु माने, महात्मा माने, किंतु भक्ति तो भगवान्की ही करता है ना। हमारे स्वामीकी करता है। इसी प्रकार किसीकी भी बात मानकर भगवान्की भक्ति करे, भगवान्का गुमाश्ता तो यही समझता है कि हमारे मालिकका भक्त बन गया। वह तो दलाल बनकर कोशिश करता है कि भगवान्की भक्ति करो। दूसरा दलाल पहुँच गया और उसको भगवान्की भक्तिमें लगा दिया तो वह प्रसन्न होता है। यह नहीं कि मेरे द्वारा ही होना चाहिये। दलाल कोई भी हो, वह भक्ति तो भगवान्की करता है। इस प्रकार किसीकी भी बात मानकर भगवान्की भक्ति अवश्य करना है।