गीता गंगा
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भगवत्प्रेमकी प्राप्ति कैसे हो?

भगवान् साक्षात् प्रेमके स्वरूप हैं। प्रेमी, प्रेमास्पद और प्रेम एक ही हैं। जैसे भगवान् हुए प्रेमास्पद, भक्त हुए प्रेमी और उनका परस्परका जो सम्बन्ध है वह है प्रेम। तो यहाँ प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद तीन हुए। स्वरूपसे तीन होते हुए भी वास्तवमें तीनों एक ही हैं और तीनों ही चिन्मय हैं। चिन्मय प्रेम ही भगवान‍्का स्वरूप है। हम लोगोंका जो परस्परका प्रेम है वह उसीका प्रतिबिम्ब है। जैसे आकाशमें चन्द्रमा है और आइनेमें उसका प्रतिबिम्ब पड़ता है तो वह प्रतिबिम्ब चन्द्रमासे ही है। सूक्ष्मतासे विचार किया जाय तो वह भी एक चन्द्रमाका ही स्वरूप है। उसका आधार जो है वह असली चन्द्रमा है। इसी प्रकार संसारका परस्परका प्रेम उस परमात्माके स्वरूपभूत प्रेमका प्रतिबिम्ब है। किंतु उसका मूल कारण परमात्मा ही है। परमात्मा चेतन है, उसका स्वरूप चेतन है और यह लौकिक प्रेम जड है, किंतु यह भगवान‍्के उद्देश्यसे हो, भगवान‍्के लिये हो, निष्कामभावसे हो, भगवान‍्की प्राप्तिके लिये या भगवान् में प्रेम होनेके लिये या भगवान‍्की आज्ञा-पालनके लिये हो तो जड होते हुए भी वह प्रेम चिन्मय है और भगवान् में है। इसलिये हमलोगोंको परस्परमें खूब प्रेम बढ़ाना चाहिये। स्त्रीका अपने पुत्रमें, मनुष्यका धनमें, कुटुम्बमें, अपने शरीरमें जो प्रेम है वह प्रेम नहीं, वह तो आसक्ति है। जो हेतुको लेकर प्रेम है, वह तो प्रेम नहीं, आसक्ति है या यों कहो—वह काम है; उसका जो फल है, वह भगवत्प्राप्ति नहीं है। स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठामें जो प्रीति है, आसक्ति है वह बन्धनकारक है; वह तो हमारे लिये बहुत खतरेकी चीज है। उसको तो हटानेकी जरूरत है, वास्तवमें उसे प्रेम न कह करके उसे आसक्ति या काम कहा जाय तो ठीक है। किंतु जो निष्काम प्रेम है, हेतुरहित प्रेम है, भगवान‍्के लिये प्रेम है, वह दूसरे व्यक्तिमें हो तो भी वह हुआ भगवान् में ही। ‘सबमें भगवान् विराजमान हैं’—इस भावसे किसीसे भी प्रेम करना भगवान् से प्रेम करना है। भगवान‍्का जो प्रेम है वह तो संसारसे मुक्ति देनेवाला है, संसारसे उद्धार करनेवाला है और संसारके विषय-भोगोंके उद्देश्यसे या किसी कामनाको लेकर या स्वार्थको लेकर, आसक्तिको लेकर, जो एक प्रकारका मोहजनित प्रेम है वह कथनमात्रका प्रेम है, वह मनुष्यका पतन करनेवाला है। उससे दूर रहना चाहिये।

अत: मान-बड़ाई और प्रतिष्ठाको ठुकराकर निष्कामभावसे आपसमें खूब प्रेम करना चाहिये, किंतु यदि प्रेमकी जगह एक-दूसरेके साथमें ईर्ष्या-द्वेष, वैमनस्य या वैर हो तो यह सब प्रकारसे खतरनाक चीज है। आत्माके लिये हानिकर है। इसीलिये भगवान‍्ने कहा कि—‘निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव’ (गीता ११। ५५)। हे पाण्डव! जो सारे भूतोंमें वैर-भावसे रहित है वह पुरुष ही मुझे प्राप्त होता है। सारे संसारके साथ प्रेम हो, किंतु एकके साथ भी वैर हो, द्वेष हो तो उसे भगवान‍्की प्राप्ति नहीं हो सकती। मान लो एक भाई मेरे सारे शरीरकी पूजा करते हैं, फूल चढ़ाते हैं, आदर करते हैं, नमस्कार करते हैं, किंतु एक अँगुलीको कपड़ेमें किरासन लगाकर आग लगाते हैं तो क्या मैं उनपर खुश होऊँगा। मैं कहूँगा तू क्या करता है? बोले, ‘रोशनी करता हूँ, रोशनी’, आप तो महात्मा हैं, आपका क्या है? हम तो आपको पूजते हैं, नमस्कार करते हैं, सत्कार करते हैं, बारम्बार आपको प्रणाम करते हैं। मात्र एक अँगुलीको किरासनसे भिगोकर थोड़ी रोशनी करते हैं तो हम यही कहेंगे कि हम नहीं चाहते हैं तुम्हारी पूजाको। सारी दुनियाके साथ प्रेम हो और एकके साथमें आपका वैर या द्वेष हो तो आपके लिये वह कलंक है। भगवान् आपको नहीं मिल सकते। इसलिये सबके साथमें निष्कामभावसे प्रेम करना चाहिये या न किसीसे प्रेम, न किसीसे द्वेष अथवा ‘सबकी आत्मा ही परमात्मा है’—इस प्रकार समझकर सबसे प्रेम करना चाहिये। यह बड़े ऊँचे दर्जेकी बात है।

मैंने आपका अपराध कर दिया, आपको मार-पीट दिया, आपको गालियाँ दीं और आपने मेरे ऊपर नालिस कर दी, दावा कर दिया। हाकिमसे हमारी बहुत दोस्ती है। उसने पूछा—क्यों भैया! तुमने मार-पीट की, गालियाँ दीं? मैंने कहा—‘सच्ची बात तो यही है, आपको एकान्तमें कहता हूँ, आपको माफ करना पड़ेगा।’ हाकिमने कहा कि मेरे बापकी सामर्थ्य नहीं कि मैं माफ कर दूँ। जो न्यायप्रिय हाकिम होगा वह तो कभी माफ नहीं करेगा। फिर मैंने पूछा—‘और कोई उपाय है।’ हाकिमने कहा—‘जाओ जिसका तुमने अपराध किया है यदि वह राजीनामा पेश कर दे तो हम तुम्हारे अपराधको माफ कर सकते हैं। हमारा भी अधिकार है माफ करना, न करना। किंतु जिसका तुमने अपराध किया है, वह स्वयं एक प्रकारसे यह अरजी पेश कर देवे कि हम दोनों खुश हो गये और हम अपना दावा उठा लेते हैं तो हम राजीनामा पेश करनेपर उसको स्वीकार कर सकते हैं।’ उसे स्वीकार करना, न करना हमारे हाथकी बात है, इतना हम कर सकते हैं। तो खयाल यह करना चाहिये कि हमने आपका अपराध कर दिया तो संसारमें हमको कोई भी माफ नहीं कर सकता है। न इस लोकमें न परलोकमें। इस लोकमें राजा, महाराजा या हाकिम माफ नहीं कर सकता है, परलोकमें यमराजकी भी सामर्थ्य नहीं कि वह माफ कर सके, किंतु एक साधारण आदमी जिसका हमने अपराध किया है वह माफ कर सकता है। यदि वह माफ कर देवे तो कोई भी हमें दण्ड नहीं दे सकता है। इससे हमको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि किसीके साथ हमारा लड़ाई-झगड़ा हो जावे तो उससे जाकर अपना अपराध माफ करा लेवें। यह मामूली-सी बात है। आगे मामला बढ़ गया, इस गवर्नमेंटके यहाँ तो भी मुश्किल है और लम्बा मामला बढ़ जावे भगवान‍्के यहाँ तो और भी मुश्किल। पर यहाँ तो मामूली-सी बात है। तो माता, बहिनों-भाइयोंसे यही कहना है कि आपलोगोंका किसीसे भी किंचिन्मात्र भी वैमनस्य हो जावे, राग-द्वेष हो जावे तो उसी समय उससे माफी माँगकर वहीं मामला समाप्त कर देना चाहिये। यह बात बहुत ही दामी है। स्त्रियोंमें परस्परमें कलह हो जावे, लड़ाई-झगड़ा हो जावे और उन दोनोंके बीचमें जो बरदाश्त करे, जो गम खाये, वह उन दोनोंमें श्रेष्ठ है। जिससे अपराध हो गया है वह अपने अपराधके लिये क्षमा-प्रार्थना करे तो वह भी श्रेष्ठ है और अपराध तो दूसरी स्त्रीका हो और क्षमा-प्रार्थना दूसरी स्त्री करे अर्थात् अपराध तो हुआ मेरा और क्षमा-प्रार्थना कर रहे हो आप तो आपका बहुत उच्चकोटिका महत्त्व है। इसलिये ज्यादा महत्त्व है कि बिना अपराध हुए आप माफी माँगें और परस्परमें वैमनस्यता नहीं रखें, यह बात भगवान‍्के यहाँ बहुत ऊँची है।

प्राय: आपसे ऐसा कार्य होता ही रहता है, उसमें एक मार्ग ऐसा है जो कि मुक्तिको देनेवाला, दूसरा स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, तीसरा नरक या स्वर्ग दोनोंको न देनेवाला और चौथा है अधोगति देनेवाला। ये चारों बातें खूब ध्यान देकर समझनेकी हैं—जैसे मुझको क्रोध आ गया आपके ऊपर और आप कहते हो कि आपके क्रोधमें मैं कारण हो गया इसलिये मैं बड़ा अपराधी हूँ, आपको माफ करना ही पड़ेगा। आप दयालु हैं, मेरे अपराधकी तरफ आप खयाल न करके क्षमा कर दें और यह बतलाना चाहिये कि मेरी कौन-सी क्रियाके कारणसे आपको क्रोध आया। तो भविष्यमें मैं सावधान रहूँगा, एक प्रकारसे मैं अपराधसे बच सकूँ, यह जो आपका भाव है, यह निष्काम और अहंकाररहित भाव है। इसका फल परमात्माकी प्राप्ति है। यदि ऐसा भाव मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके लिये है तो इस लोकमें आपकी कीर्ति होगी और मरनेके बाद आपको स्वर्ग मिलेगा, यह मध्यम श्रेणीकी बात है। और तीसरी बात यह है कि न तो आपका कोई अपराध है और न कोई आपने क्षमा-प्रार्थना की। अपराध तो मेरा है आपका कोई अपराध ही नहीं तो उस जगह आप मौन हैं, इस विषयमें न आपको पुण्य है न पाप। इससे न आपके लिये स्वर्ग है न नरक और चौथी बात यह कि आप अपनी सफाई देते हुए उसका ही अपराध कायम कर रहे हैं। दूसरोंसे कहते हैं कि देखो, साहब, यह बिना ही कारण मुझको गाली देता है, खोटी-खरी कहता है, क्या इसका अधिकार है जो ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। तो यह आपके लिये बहुत ही नीचे दर्जेकी चीज है। यह व्यवहार आपका पतन करनेवाला है।

इसी प्रकारसे दूसरी श्रेणी बतायी जाती है कि मैंने किसीपर क्रोध किया और जिसपर क्रोध किया उससे प्रार्थना करूँ कि यह मेरा बहुत भारी अपराध हो गया। आपकी कोई गलती नहीं थी, मेरे स्वभाव-दोषके कारण यह मुझसे गलती हो गयी थी और इस गलतीके लिये आपको क्षमा करना पड़ेगा। यह मेरा कहना निष्कामभावसे है, अहंकाररहित होकर कहना है, अभिमानको त्याग करके अपने आत्माके कल्याणके उद्देश्यसे कहना है तो इसका फल मेरे लिये आत्माका उद्धार है। क्रोध करके भी मेरे लिये यह आत्माका उद्धार है। यदि यह बर्ताव मैं मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके लिये कर रहा हूँ। लोग कहेंगे, वाह भाई, आप बड़े अच्छे आदमी हैं। क्रोध तो आ गया परंतु अपनेको सँभाल लिया, अपराध-क्षमा माँग लिया और बेचारा क्या करे। तो इस लोकमें मेरी कीर्ति होगी और मरनेके बाद उत्तम गति मिलेगी। तीसरी बात—क्रोध आनेपर मेरा अपराध है मैंने कुछ भी नहीं कहा और दूसरोंने कहा कि आपकी बड़ी गलती है, इस प्रकारसे खोटी-खरी कहने लग जाते हैं, क्रोध करने लग जाते हैं, यह आपका व्यवहार अच्छा नहीं है। गलतीको स्वीकार कर लेता हूँ तो उसका प्रायश्चित्त हो जाता है और उसका दण्ड न परलोकमें मिलेगा न यहाँ।

चौथी बात—क्रोधवश दूसरा जो मेरा अपराध कायम करना चाहता है और मैं सफाई देता रहता हूँ और उसकी बातका तिरस्कार कर देता हूँ कि नहीं मेरा अपराध नहीं, तुम्हारा ही अपराध है तो वह मेरे लिये नरकमें ले जानेवाला बर्ताव है। अत: यह खयाल रखना चाहिये कि मुझको क्रोध आ जावे तब भी मैं क्षमा माँगूँ और आपको मेरे ऊपर क्रोध आ जावे तब भी मैं क्षमा माँगूँ। मेरा ही अपराध है कि जो मुझे क्रोध आ गया। आपको क्रोध आ जावे उसको मैं अपनेको कारण मानकर अपना ही अपराध मानूँ यह बहुत ऊँचे दर्जेकी बात है, संसारमें कीर्ति बढ़ानेवाली और स्वर्गको देनेवाली है। निष्कामभावसे अहंकाररहित होकर जो मेरा बर्ताव है वह मुक्तिको देनेवाला है।

अब दूसरे पक्षकी बात बतलायी जाती है कि मुझको क्रोध आवे तब भी मैं अपनी सफाई देता हुआ आपका ही अपराध मानता हूँ। अपराध मेरा है और मैं मानूँ अपराध आपका, आपको मेरे ऊपर क्रोध आ जावे उसमें गलती तो है मेरी, किंतु मैं अपराध बताऊँ आपका यह नरकका मार्ग है। अपराध मेरा नहीं है, वास्तवमें सच्ची बात है और मैं उसके लिये सफाई देता हूँ तो मेरा यह सफाई देना उचित है, इसका फल न नरक है न स्वर्ग। जब अपराध ही नहीं तो उसका दण्ड भी नहीं। तो हर एक माता-बहिनों, भाइयोंको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि यदि दूसरा कोई भाई-बहिन हमपर क्रोध करे तो उसमें अपनेको ही हेतु समझकर, अपनेको अपराधी समझकर उससे क्षमाके लिये प्रार्थना करे और हमें किसीपर क्रोध आ जावे उसके लिये भी उससे क्षमाके लिये प्रार्थना करे। यह मार्ग उत्तम है। यदि आपका अपराध है तो भी मैं अपना अपराध मानता हूँ और मेरा अपराध है तो मैं अपना अपराध मानूँ ही। यह सभ्यता भी है शिष्टाचार भी। बड़े ऊँचे दर्जेका बर्ताव भी है। और मुझको क्रोध आये तब भी मैं आपका ही अपराध मानता हूँ कि मेरे क्रोधका कारण तुम हो इसलिये मूल कारण तुम हो। आपको क्रोध आता है तब भी मैं आपको ही दोषी ठहराता हूँ यह जो चाल है, यह हमारे लिये पतन करनेवाली चाल है। प्रत्येक माता-बहिनों और भाइयोंको इस विषयमें हर वक्त तैयार रहना चाहिये। अपना कसूर माननेके लिये अपना अपराध समझकर क्षमाके लिये तैयार रहना चाहिये। जो जितनी सरलता और प्रेमसे क्षमा-प्रार्थना करता है वह उतना ही ऊँचे दर्जेका है। यह बात हर एक भाइयोंको, माता-बहिनोंको सीखनी चाहिये। जो संसारमें दूसरोंका दोष कायम करता है वह खुद अपराधी होकर गिर जाता है। और जो दूसरोंका अपराध भी अपने सिरपर लेता है वह अपराधी होनेपर भी अपराधसे मुक्त होकर उत्तरोत्तर उन्नति करता है और शीघ्र ही परमात्माको प्राप्त कर लेता है। हमलोग—भाई लोग और माता-बहिनें सभी एक प्रकारसे खयाल करके देखें कि हमलोगोंके उद्धार होनेमें हमारी अपनी क्या गलती है, जिससे परमात्माकी प्राप्तिमें इतना विलम्ब हो रहा है। हमारे साधनकी कमी है या क्या कमी है? तो साधनकी कमी है ये भी है ही और हमलोगोंमें दूसरोंका दोष देखनेकी जो बुद्धि है यह अधिक घातक है, इससे मनुष्यका बहुत अधिक पतन हो जाता है। आप सब लोग विचार करके देखें कि हमलोग अपनी बुद्धिके अनुसार वर्षोंसे साधन करते हैं, पर उससे जितना लाभ होना चाहिये उतना लाभ नहीं होता है। क्या कारण है? इस विषयमें हमें गम्भीरतापूर्वक सोचना चाहिये। इसमें अपना ही अपराध समझकर भविष्यमें सुधार करना चाहिये। भगवान‍्के भजन-ध्यान करनेसे जो हमें लाभ होता है उससे अधिक नुकसान होता है पाप-कर्म करनेसे और दूसरोंके प्रति घृणा-बुद्धि करनेसे। मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं एक प्रकारसे अच्छा हूँ और वे बुरे हैं, दूसरोंपर दोष-दृष्टि और अपने प्रति श्रेष्ठ बुद्धि, इससे मनुष्यका पतन हो जाता है। हर एक भाई और माता-बहिनोंको अपने घरमें जो चोर बैठा है इसको खदेड़कर एकदम निकाल देना चाहिये। उसको फटकार देना चाहिये कि फिर हमारे यहाँ कभी नहीं आना। जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और राग-द्वेष बहुत-से जो अवगुण हम लोगोंमें प्रवेश किये बैठे हैं उन सबमें यह एक बड़ा भारी दोष है कि हम दूसरोंको घृणा-बुद्धिसे देखें, द्वेष-बुद्धिसे देखें या वैर-भावसे देखें या ईर्ष्या करें यह हमारे लिये बहुत ही खतरनाक है। और अपने-आपको दोषरहित अर्थात् अच्छा समझें दूसरोंकी अपेक्षा तो यह भी हमारे लिये बहुत ही खतरनाक चीज है।

मैं श्रेष्ठ हूँ, वास्तवमें अच्छा हूँ और अपनेको अच्छा मानता भी हूँ और दूसरा जो निम्न श्रेणीका है उसको नीच मानता हूँ। दोनों बात सच्ची है तो भी यह मान्यता परमात्माकी प्राप्तिमें रुकावट डालनेवाली है। परमात्माकी प्राप्तिमें यह विलम्ब करनेवाली है, यह हमारे इस मार्गमें रोड़ा है। यदि इन दोमेंसे एक बात जो ठीक नहीं है, मैं जिसको नीच मानता हूँ वह नीच नहीं है, जिसे दोषी मानता हूँ वह दोषी नहीं है और यदि उसको मैं जान-बूझकर दोषी ठहराता हूँ तो उसका फल है घोर नरककी प्राप्ति। और बिना जाने यदि दोषी ठहराता हूँ तो भी मैं पापका भागी हूँ। किंतु यह थोड़ा पाप है, वह अधिक पाप है। और मैं अच्छा न होते हुए भी अपनेको अच्छा मानता हूँ तो यह दम्भ है, पाखण्ड है, इसका फल भी नरककी प्राप्ति है। दूसरोंपर झूठा असर डालनेके लिये मैं श्रेष्ठ हूँ, अच्छा हूँ, महात्मा हूँ और हूँ नहीं ये भी एक प्रकारसे मेरे लिये बहुत ही भयानक है। मुझको गर्तमें डालनेवाला है। स्वयं अच्छा होनेपर भी दूसरोंसे घृणा नहीं करनी चाहिये। किसीके पापी होनेपर भी उसे नीच या पापी नहीं समझना चाहिये। यह हमारे लिये हित और लाभकी बात है और इसके विपरीत हमारे लिये पतनकी बात है। वास्तवमें नीचको नीच समझना और अपनेको श्रेष्ठ मानना यह हमारे लिये परमात्माकी प्राप्तिमें रुकावट डालनेवाला है। क्यों, बात सच्ची है जिसको मैं नीच समझता हूँ, वह नीच है और मैं अपनेको अच्छा समझता हूँ वास्तवमें मैं अच्छा हूँ तो इस अच्छाईका जो फल है उससे मैं वंचित रह जाता हूँ, यही मेरे लिये पतन है। परमात्माकी प्राप्तिमें रुकावट डालनेवालोंमें यह भी एक विघ्न है। श्रद्धाकी कमी भी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधक है। इसी प्रकारसे अपनेमें जो अच्छा होनेका अहंकार है वह भी बाधक है। अपराध न होनेपर कोई सफाई देवे तो कोई दोष नहीं है, कोई पाप नहीं। क्योंकि सच्ची बात है, सच्ची बातमें कोई पाप नहीं है। किंतु हमारे लिये शर्मकी बात है। और यह हमारे लिये बहुत उच्च कोटिकी बात है कि कोई आदमी मुझको अपराधी माने तथा मैं अपराधी नहीं हूँ, उसकी दृष्टिसे मैं अपनेको अपराधी मान लूँ तो संसारमें मेरा गौरव है और भगवान‍्के यहाँ मेरे लिये उच्च स्थान है। इन सब बातोंको खयालमें रखकर दूसरे लोग हमें अपराधी मानें तो हम यह कहें कि भाई ऐसी बात आपकी दृष्टिमें है तो मैं क्षमा-प्रार्थना करता हूँ, उसकी वह क्षमा माँगना उच्च कोटिकी चीज है, बहुत गौरवकी चीज है। ऐसी क्षमाको यदि निष्कामभावसे अपना कर्तव्य मानकर करता है, निरभिमान होकर करता है तो बड़े महत्त्वकी चीज है। अपनेको यह बात सीखनी चाहिये। दूसरोंमें दोष नहीं देखना, दूसरे पापी हैं, नीच हैं, अपराधी हैं, उनमें बहुत-से अवगुण भरे हुए हैं। हमें तो उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। उसीमें हमारे लिये लाभकी बात है। दूसरेका अपराध, दूसरेका पाप, दूसरेकी आफत जो मनुष्य अपने ऊपर लेता है, भगवान् उसको देख करके खुश होते हैं और जो अपना अपराध, अपना पाप और अपनी आफत दूसरोंपर डालता है, वह भगवान‍्के द्वारा त्याग दिया जाता है और उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपना अपराध, आफत या पाप दूसरोंके माँगनेपर भी नहीं देना चाहिये। जबरन माथे मढ़ना तो बहुत भारी पाप है, कोई माँगे तो भी नहीं देना चाहिये और दूसरेका पाप, अपराध, ऋण या आफत अपने सिरपर लेना उदारताकी बात है, बहुत उच्च कोटिका भाव है, साथ ही निष्कामभावसे हो तो कहना ही क्या है? किंतु यदि अभिमान आ जाता है कि मैंने बहुत ऊँचे दर्जेका काम किया है, बड़ी उदारताका व्यवहार किया है; उदारताका व्यवहार करके ऊँचे दर्जेका काम करके चित्तमें श्रेष्ठपनेका थोड़ा अभिमान आ जाता है, तो उस श्रेष्ठतामें कमी आ जाती है अर्थात् उसको पूरा लाभ नहीं मिलता है।

परमात्माकी प्राप्ति तो होती ही नहीं, किंतु इस लोकमें उसकी जितनी कीर्ति होनी चाहिये उतनी भी नहीं होती और मरनेपर स्वर्गकी प्राप्तिमें भी कमी आ जाती है। अत: इस लोकमें भी नुकसान है और परलोकमें भी नुकसान ही है। यह शास्त्रसम्मत और युक्तिसम्मत है। इस प्रकार समझदार मनुष्यको जो उत्तम-से-उत्तम पद्धति बतायी गयी उसीके अनुसार अपना जीवन बिताना चाहिये। किंतु इस विषयमें सभी साधारण भाइयोंका विचार जो है स्वाभाविक ही नीचे दर्जेका रहता है। दूसरेका थोड़ा भी अपराध पहाड़के समान और अपना बड़ा भी अपराध एक रज-कणके समान दीखता है। पर बात इसके विपरीत होनी चाहिये। जैसा एक अपने मित्रके साथमें व्यवहार होता है उससे भी बढ़कर व्यवहार होना चाहिये। अपना छोटा-सा जो अपराध है उसको पहाड़के समान समझना चाहिये और अपने प्रतिपक्षीका पहाड़के समान अपराध एक रज-कणके समान समझना चाहिये। जैसा कि श्रीरामचन्द्रजी महाराजने मित्रके लिये कहा है—

निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

और रज-कण भी न समझे तो और भी उत्तम है। मित्रके प्रति जो इस प्रकार नहीं समझता उसकी निन्दा की गयी है—

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

जो अपने मित्रके दु:खको देखकर दु:खी नहीं होता है वह पुरुष इतने नीचे दर्जेका है कि उसका कोई दर्शन करे तो उसे बड़ा भारी पाप लगता है। ‘पातक भारी’ छोटा-मोटा नहीं, बड़ा भारी पाप लगता है।

आपको एक श्रेष्ठ नयी बात बतलायी जाती है। जैसे कोई अपना बुरा करनेवाला है जिसको लोग दुश्मन कहते हैं, उसके दु:खको देखकर जो दु:खी होता है वह बड़ा उच्च-कोटिका पुरुष है और उसके दु:खको देखकर जो दु:खी नहीं होता है वह निम्न श्रेणीका पुरुष है। जैसा कि कहा है—

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

अपने मित्रको दु:खी देखकर जो दु:खी नहीं होता है वह बड़ा भारी पापी है, उसके दर्शन करनेवालेको भी पाप लगता है। मैं इससे विशेष बात कहता हूँ, जो अपने शत्रुके दु:खको देखकर दु:खी नहीं होता है वह भी कम पापी नहीं और शत्रुके दु:खको देखकर जो सुखी होता है वह तो बहुत ही नीचे दर्जेका असाधु, महान् पापी पुरुष है। मित्रोंके दु:खको देखकर तो सभी दु:खी होते हैं पर शत्रुके दु:खको देखकर भी दु:खी होना चाहिये। शत्रुको सुखी देखकर जो प्रसन्न होता है, भगवान् उसपर खुश होते हैं।

एक बात आपको रहस्यकी बतलायी जाती है, जैसे एक पार्टी हमारी है, एक पार्टी आपकी और दोनों पार्टियोंमें मतभेद है। उसमें मेरी पार्टीका यदि कसूर है तो दूसरी पार्टीसे मुझको क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिये। हमारी पार्टीके लोग हमारे ऊपर नाराज हो सकते हैं। अपराध हमारी पार्टीका है, यह बात सच्ची होनेसे ईश्वरके यहाँ हमको कोई दण्ड नहीं मिल सकता। एक प्रकारसे हम सबसे क्षमा-प्रार्थना करें तो हमारे लिये इस लोकमें गौरवकी बात है। परलोकमें हमारे लिये महान् लाभ है। दूसरी पार्टीका अपराध होनेपर भी हमें उसको दण्ड भुगताना नहीं, यह हमारे लिये गौरवकी बात है। उसका अपमान न हो, उसे नीचा नहीं दिखाना, उनके अपराधको अपराध नहीं मानना—ये अपनी पार्टीवालोंको समझाना चाहिये। यदि अपनी पार्टीका अपराध है, दूसरा सच्चा है तो अपनी पार्टीवालेको प्रेमसे समझाना चाहिये कि अपने घरमें समझनेकी बात है, अपराध तो हमलोगोंका ही है उनका थोड़े ही है। ऐसी परिस्थितिमें उलटा हम उसका कसूर समझें तो हमारे लिये अपराधकी बात है। अपनी पार्टीका पक्ष उस अवस्थामें बिलकुल नहीं करना चाहिये। हमारे लिये तो उस समय मौन रहना भी अपराध है और पक्ष लेना तो पाप है। उनको हर प्रकारसे समझाकर अपराधके लिये माफी माँग लेनी चाहिये। अपनी पार्टीवाले तो अपने हैं ही, दूसरी पार्टीवाले भी अपने हो जाते हैं। उससे अच्छा असर होता है। जो अपने शत्रुपर भी अपना अधिकार जमा लेता है, वह अच्छा और श्रेष्ठ पुरुष समझा जाता है। अभिमान और स्वार्थको त्यागनेसे मनमें विनयभाव होनेसे तथा मनमें निरहंकारताके कारण यह बात होती है। यह बात सबसे बढ़कर है। मनुष्यका शरीर पा करके यदि हमने ऐसा नहीं किया तो फिर हमारे लिये बहुत ही दु:ख और लज्जाकी बात है। हम मनुष्य कहलाते हैं तो हमारा काम उच्च कोटिके मनुष्यके समान होना चाहिये। मनुष्योंमें भी श्रेष्ठ पुरुषोंकी भाँति हमारा काम होना चाहिये। इसीमें हमारा इस लोक और परलोकमें कल्याण है। यह असली सुधारकी बात है। बहुत दिनोंतक भजन करनेसे जिस कार्यकी सिद्धि नहीं होती, वह इसके अनुसार चलनेसे हो सकती है। मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा, अहंता-ममता, आसक्ति और स्वार्थ-कामनाका त्याग और साथमें विनयका जो प्रेमयुक्त व्यवहार, वह एकदम निष्कामभावसे केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे करनेसे भगवत्प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है। भजन-ध्यानसे भगवत्प्राप्ति तभी होती है, जब वह निष्कामभावसे हो। सकाम भजनसे भी आत्माका सुधार और उद्धार होता है, किंतु उसमें विलम्ब होता है। सकाम भजन-ध्यान एक तरफ और निष्काम अर्थात् अभिमानरहित सबका उपकार उच्च कोटिका व्यवहार दूसरी तरफ, तो उच्चकोटिके त्यागका व्यवहार ही श्रेष्ठ होगा। जैसे कि भगवान‍्ने गीतामें बतलाया है—

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धॺानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
(१२। १२)

कर्मफल त्यागकर निष्काम जो कर्म है वह श्रेष्ठ है, इससे परमशान्ति तत्काल मिल जाती है।

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