भगवान् के गुण-प्रभावके तत्त्व-रहस्यका वर्णन
भगवत्तत्त्व-रहस्यको ठीक-ठीक समझनेके लिये एक कहानी सुनाते हैं, जो लोकोक्ति या गढ़ी हुई हो सकती है। एक पण्डितजी थे। उनका जो लड़का था वह बड़ा बदमाश था। उसमें झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि सभी अवगुण थे। उसके पिताके पास बहुत रुपये थे। वे शिवजीके उपासक थे। उनके पास शिवजीका एक मन्दिर, अपना मकान और बागीचा था। इसके अलावा उनके पासमें एक लाख रुपये नकद थे और जगह-जमीन आदि जो था, वह भी करीब एक लाखका स्टेट था। उन्होंने सोचा—मेरे मरनेपर यह लड़का मेरे धनको बरबाद कर देगा, यह इसका पात्र नहीं है, किंतु यह जमीन और यह सम्पत्ति तो रहेगी ही। इसको तो बेच नहीं सकते। लेकिन एक लाख रुपये जो नकद हैं, ये इसको नहीं देना है। उन्होंने उन रुपयोंको गुप्त रख दिया। लड़केके बुरे आचरणको देखकर वे सदा दु:खी रहते। जब वे मरने लगे तो रोने लगे। लड़का बोला—‘पिताजी! रोते क्यों हो?’ बोले—‘तेरेमें जो दुर्गुण-दुराचार हैं उनको देखकर मैं रोता हूँ। मेरी जो सम्पत्ति है इसको तू नष्ट कर देगा।’ लड़केने कहा कि ‘यह मेरे स्वभावका दोष है, यह तो मेरेसे दूर होना मुश्किल है, किंतु एक बात कोई आप बतला दें तो उसको मैं काममें लानेकी चेष्टा करूँगा।’ उसको पिताने एक मन्त्र सिखला दिया और बोले कि जब तुम स्नान करो तो इसका एक बार प्रतिदिन पाठ कर लिया करो। यदि कोई महात्मा तुमको इसका सच्चा अर्थ बतलानेवाले मिल जायँगे तो तुम्हारी सांसारिक दरिद्रता नष्ट हो जायगी। उसको मन्त्र सिखला दिया और उसने उसको खूब कण्ठस्थ कर लिया। उस मन्त्रका अभिप्राय यह था कि ‘मेरे लड़केमें दुराचार बहुत हैं, यह सदाचारी बन जाय तो मेरा जो गुप्त धन है, इसको महात्मा पुरुष बतला दें। मैंने एक लाख रुपये शिवजीके मन्दिरकी गुंबजमें चैत्र-शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिनके बारह बजे रखे हैं। इसका जो रहस्य है, जब यह पात्र बने तभी महात्मा इसे समझायें नहीं तो नहीं’—यह उसका अर्थ था। वह रोज स्नान करते समय इसका पाठ कर लेता। पिता मर गया। मरनेके बाद वह पाठ करता ही रहा। उसकी सम्पत्ति, मन्दिरको छोड़कर प्राय: नष्ट हो गयी। वह जुआ खेला करता था। सट्टा-फाटका करता था। उसमें बरबाद हो गया। पहले उसमें चोरी-जारी, हिंसा, भक्ष्याभक्ष्य—यह सभी बुरी आदतें थीं; किंतु रुपये जब समाप्त हो गये तो ये सब स्वत: ही बंद हो गये। जुआरी पैसा हो तो जुआ खेले। वह बहुत दु:खी हो गया। न उसको उधार मिलता है, न उसको भीख ही मिलती है माँगनेपर। उस दु:खसे दु:खी होकर वह रो रहा था। स्नान किया और स्नान करके उसने समयके अनुसार उस श्लोकका पाठ किया। एक अच्छे विद्वान् महात्मा उसे सुनकर उसका तात्पर्य समझ गये। उन्होंने कहा—‘जो तुम यह पाठ करते हो, इसका क्या मतलब है?’ वह बोला—‘मतलब यह है कि जब मेरे पिताजी मरे तो उन्होंने कहा कि इस श्लोकका तुम सदा पाठ करना। इस श्लोकसे तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जायगी। किंतु होगी तभी जब तुम दुराचारोंको छोड़ दोगे, कोई महात्मा तुमको इसका तत्त्व-रहस्य समझा देगा।’ महात्मा बोले—‘इसके तत्त्व-रहस्यको तुम समझे?’ वह बोला—‘नहीं समझा।’ महात्माने कहा—‘मैं समझ गया, उसका सार जो है मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। सुनो, तुम्हारे पिताके पास रुपये थे?’ वह बोला कि एक लाख रुपये नकद थे। बोले—‘मरनेके समय तुम्हें दिया नहीं?’ बोला—‘दिया नहीं।’ बोले—‘बतलाया नहीं।’ बोला—‘बतलाया भी नहीं।’ बोले—‘क्यों?’ बोला—‘पता नहीं क्यों?’ महात्मा बोले—‘मुझको पता है।’ बोला—‘महाराज! आप बतला दो।’ बोले—‘तुम्हारे पिताकी यह आज्ञा है कि लड़का जब पात्र हो जाय, दुराचारको छोड़ दे तब बतलाना। तुम इसका क्या अर्थ समझे?’ बोला—‘मैं इसका यह अर्थ समझा कि हमारे एक शिवजीका मन्दिर है, उसकी जो गुंबज है, उसमें पिताजीने लाख रुपये रखे हैं। यह समझकर हमने उस गुंबजको तुड़वाया था, किंतु उसमें एक पाई भी नहीं मिली। फिर उस गुंबजको वैसा-का-वैसा बनवा दिया।’ बोले—‘अच्छा किया। यदि गुंबजमें होता, उसका यही अर्थ ठीक होता तो रहस्य और तत्त्वको समझानेकी क्या आवश्यकता रहती। इसका कोई तत्त्व-रहस्य है और उसको मैं जानता हूँ।’ वह उनके चरणोंमें गिर गया। बोला—‘आप जानते हो तो मैं बहुत दु:खी हूँ, मेरे सिर ऋण भी हो गया। सम्पत्ति तो सब नष्ट हो गयी और इस मन्दिरका पिताजी ट्रस्ट बना गये तथा उसको धर्मार्थ कर गये। मन्दिर तो धर्मार्थ होता ही है। बस, यही बचा है, जिसका मेरे पास कोई उपाय नहीं और कोई सम्पत्ति भी नहीं है। मुझको अब न ऋण मिलता है, न भीख? मारा-मारा फिरता हूँ, बड़ा दु:खी हूँ।’ बोले—‘मैं तुम्हें बतला दूँ। किंतु तुम्हारेमें जो दुर्गुण-दुराचार हैं, उनको तुम छोड़ दो तो।’ वह बोला—‘महाराज! मैं छोड़ दूँगा।’ महात्मा बोले—‘पहले नहीं बतलाऊँगा। पहले तुम छोड़ दो।’ उसने कहा—‘आपको विश्वास कैसे आयेगा।’ वे बोले—‘तुम सालभर इसका परहेज रखो फिर सदाके लिये प्रतिज्ञा करो।’ उसने कहा—‘ठीक है।’
एक सालके बाद वह फिर उस महात्मासे मिला और बोला—‘महाराज! अब हमने सब छोड़ दिया है। मुझमें व्यभिचारका जो दोष था, बिलकुल भी नहीं रहा। दूसरी स्त्रीको माताके समान समझता हूँ, झूठ नहीं बोलता और चोरी भी नहीं करता, सब छोड़ दिया—मद्य-पान, मांस-भक्षण, जुआ खेलना आदि जो मेरेमें दोष थे, सब मैंने छोड़ दिये। अब तो मैं केवल भगवान्का भजन-ध्यान ही करता हूँ और इधर-उधरसे भीख माँगकर खाता हूँ। उधार कोई देता नहीं, मुझपर जो ऋण है वह है ही। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ—प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्यमें कोई भी दोष मुझमें नहीं आने पावेंगे। अब आप मेरे पिताका धन मुझको बतला देवें।’ वे बोले—‘चैत्र-शुक्लपक्ष प्रतिपदा आने दो।’ उसने कहा—‘ठीक है।’ कुछ दिनोंके बाद चैत्र-शुक्ल प्रतिपदाका दिन आ गया। वह बोला—‘महाराज! कल है वह दिन।’ वे बोले—‘कल तुम चार मजदूर रख लेना।’ बोला—‘महाराज! पैसा नहीं है।’ महात्माने कहा—‘पैसा हम देंगे।’ वह बोला—‘ठीक है।’ कुलियोंको रख लिया। महात्मा बोले—‘तुम्हारा मन्दिर कहाँ है?’ उसने जाकर मन्दिर दिखाया। उन्होंने चारों तरफ निगाह करके देखा और बोले—कुलियोंको बुलाकर लाओ। यहाँ कुली नौ बजे आते हैं। जमीन खोदनेकी सामग्री सब मँगाकर रखो। उसने कहा, रख दी। बोला—‘महाराज! बतलाओ।’ महात्माजी बोले—‘तुम जो पाठ करते हो, उसमें जो मन्त्र बोलते हो, उस मन्त्रमें तो यह बात है कि हमारा लड़का दुराचारी है, इसमें दुर्गुण भरे हैं, जब इसमें दुर्गुण-दुराचार न रहें तो हमारी जो सम्पत्ति है, इसको महात्मा बतला दें। हमारी सम्पत्ति मन्दिरकी जो गुंबज है, उसमें चैत्र-शुक्ल प्रतिपदाके दिन बारह बजे रखी गयी है। अत: दिनके बारह बजने दो।’ जब दिनके बारह बज गये तो उसके गुंबजकी जहाँ छाया पड़ती है वहाँ निशान कर दिया। और बोले—‘इसको यहाँसे खोदो।’ वहाँ खोदनेसे एक लाख रुपये निकले। वे बोले—‘यह तुम्हारे बापकी सम्पत्ति है, इसको तुम ले लो। कुलीसे क्या ठहराया है।’ वह बोला—‘एक रुपया कुली।’ तो वे बोले—‘चार रुपये इनको दे दो। ठीक है, बाकी धन तुम्हारा।’ वह बोला—‘आप भी कुछ लें।’ वे बोले—‘हम कुछ लेते नहीं, तुम्हारे पिताका धन है, तुम्हारा है।’ इस प्रकार उसको अपने पिताकी सम्पत्ति मिल गयी।
हमलोगोंके पिता एक ही हैं भगवान्। उनकी सम्पत्ति है मुक्ति और यह सबकी चीज है। यह जो लौकिक स्वराज है, वह तो एकको ही मिल सकता है। हमारे जो परम पिता परमात्माकी सम्पत्ति है वह युवराज-पद सबको मिल सकता है। इसी प्रकारकी पदवी है, उसे परमात्माकी प्राप्ति कहो, मुक्ति कहो, वह सबको मिल सकती है।
यह आपसे एक बात कही गयी। इसका जो तत्त्व-रहस्य है, वह सबको समझना चाहिये। आपका पिता कौन है—परमात्मा। उन्होंने हमलोगोंको गीताका उपदेश अर्जुनको निमित्त बनाकर दिया है। इसका हमलोग स्नान करके पाठ करते ही हैं, इसका अर्थ भी समझते हैं, शब्दार्थ समझते हैं, किंतु उसका तत्त्व-रहस्य नहीं समझते। एक भी श्लोकका तत्त्व-रहस्य समझ जायँ तो बेड़ा पार है। अर्थ समझना क्या है? और तत्त्व-रहस्य समझना क्या है? उसे बतलाते हैं—‘भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥’ (गीता ५। २९)। यह जो श्लोक है, यही हमारे आत्माका उद्धार करनेके लिये उच्चकोटिका मन्त्र है। इसके चार चरण हैं, चारों चरणोंमेंसे एकमें तो फल बतलाया है और तीनमें तीन साधन बतलाये हैं। ‘भोक्तारं यज्ञतपसाम्’ यज्ञ और तपोंका भोक्ता, ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ सब लोकोंका महान् ईश्वर, ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ सब भूतोंका सुहृद् मुझको जानकर मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है। यहाँ शान्तिसे अर्थ परमशान्ति लेना चाहिये। यह सांसारिक शान्ति नहीं, यह पारमार्थिक शान्ति है। इसलिये जो तीन साधन बतलाये, तीनोंको धारण करनेसे या किसी एकको करनेसे भी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। एकको करनेसे भी हो जाती है फिर तीनोंके करनेसे हो जाय तो बात ही क्या है! यह शब्दार्थ हुआ। इसे तो हम समझ गये। इसका तत्त्व और रहस्य नहीं समझे। तत्त्व क्या है? रहस्य क्या है? तत्त्व यह समझना चाहिये कि पहली बात यहाँ भगवान् कहते हैं, मुझको यज्ञ और तपोंका भोक्ता समझनेसे मनुष्यको शान्ति प्राप्त होती है—‘भोक्तारं यज्ञतपसां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति, सर्वलोकमहेश्वरं ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति, सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ ‘यज्ञ और तपोंका मुझको भोक्ता जानकर, सब लोकोंका महेश्वर मुझको जानकर और सब भूतोंका परम सुहृद् मुझको जानकर मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है।’
यज्ञ और तपोंका भोक्ता, इसका अभिप्राय क्या है? इसका तात्त्विक अर्थ क्या है? संसारमें लोग जो यज्ञ करते हैं, उन सबका भोक्ता मैं हूँ। जितने प्रकारके संसारमें यज्ञ हैं—कोई आदमी अग्निमें आहुति देता है तो भगवान् कहते हैं कि मैं अग्निरूप बनकर आहुति ग्रहण करता हूँ। अर्थात् अग्निमें दी हुई आहुतिका मैं भोक्ता हूँ, मैं खाता हूँ। पितरोंको जो पिण्ड देते हैं, जल देते हैं, श्राद्ध करते हैं तो मैं पितृरूपसे खानेवाला हूँ। अतिथिको जो भोजन कराते हैं, जिसको मनुष्य-यज्ञ कहते हैं तो उस अतिथिके रूपमें भी मैं ही भोजन करता हूँ। जिसको बलिवैश्वयज्ञ कहते हैं, जो सारे भूतोंको आहुति दी जाती है, भगवान् कहते हैं, उन सारे भूतोंके रूपमें मैं ही एक प्रकारसे भोजन करता हूँ। भाव यह है कि सारी दुनिया मेरा स्वरूप है। मनुष्य जो भी कुछ करता है—किसीकी सेवा करता है, किसीको दान देता है या उपकार करता है, वह सब मेरी ही सेवा है। यह इसका तात्त्विक अर्थ हुआ। इस तात्त्विक अर्थको समझ करके वैसे ही करने लग जावें तब हमको परम शान्ति मिल सकती है। कोई हमारे घरपर अतिथि आवे तो उसको साक्षात् भगवान् समझकर उसकी सेवा करने लग जावें। भगवान् से मिलनेपर जैसी प्रसन्नता, शान्ति, आनन्द होता है, वैसा ही आनन्द होना चाहिये। यदि गीताको हम सत्य मानते हैं, विश्वास करते हैं तो ऐसा ही हमको समझना चाहिये। रास्तेमें कहीं कोई वृक्ष आ गया तो प्रभु! आप यहाँ वृक्षका रूप धारण करके बैठे हो, ऐसा मनमें विचारकर उसमें जल डालें—जैसे पीपलका वृक्ष है, बड़का वृक्ष है, तुलसीका वृक्ष है, आँवलेका वृक्ष है। शास्त्रोंमें बतलाया है कि ये साक्षात् भगवान्के ही स्वरूप हैं। गीता भी कहती है ‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्’ (१०। २६)। सारे वृक्षोंमें मैं अश्वत्थ हूँ। यह बात विशेषरूपसे कही गयी है। सामान्य भावसे तो सब मेरे ही स्वरूप हैं (१०। २०)। हमको तो यह समझना चाहिये कि सभी भगवान्के स्वरूप हैं। विश्वासपूर्वक जो इस प्रकार करता है, (विश्वास होनेसे वह करेगा ही) तो जो यह विश्वास कर लेना है वही उसका रहस्य जान लेना है।
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति॥
आकाशसे गिरा हुआ जल जैसे पहाड़ोंसे बहकर नदियोंमें आता है और नदियोंमें होता हुआ वह जल समुद्रमें जाकर गिरता है। वर्षाका जल भूमिमें जितना सूख जाता है, उसके बाद जितना बच जाता है, चारों तरफसे वह जल बहकर समुद्रमें जाकर मिल जाता है। इसी प्रकार हम जो देवताओंको या किसीको भी नमस्कार करते हैं, वह भगवान्को प्राप्त होता है। यह समझना इसका रहस्य समझना है। भगवान्को कैसे प्राप्त होता है। सबमें भगवान् विराजमान हैं, इसलिये सबको नमस्कार करना भगवान्को ही नमस्कार करना है। सबकी सेवा करना भगवान्की सेवा करना है, जो पूजा तथा सबका सत्कार है सो भगवान्की ही पूजा है, भगवान्का ही सत्कार है। इसके विपरीत यदि किसीका तिरस्कार करते हैं तो वह भगवान्का तिरस्कार है। सबके हितमें रत होकर सबकी सेवा करनी चाहिये—‘परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥’ जो दूसरेके हितमें रत रहता है, उसके लिये संसारमें कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है। भगवान् गीतामें भी कहते हैं कि ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥’ (१२।४)—जो सारे भूतोंके हितमें रत हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। सबको नारायण समझकर जो सबकी सेवा करता है, वास्तवमें यही भगवान्को सब यज्ञोंका भोक्ता समझना, तत्त्व-रहस्य समझना है। हम जो भी कुछ यज्ञ करते हैं, दान देते हैं, तप करते हैं, सेवा करते हैं, उसमें यह भाव रखना चाहिये कि हम इसके द्वारा भगवान्की सेवा कर रहे हैं। हम यह सब भगवान्की आज्ञाके अनुसार करते हैं, भगवान्के लिये ही करते हैं। भगवान्की प्राप्तिके लिये करते हैं, तो भगवान्के लिये करते हैं या भगवान् में प्रेमके लिये करते हैं तो भगवान्के लिये ही करते हैं। यह उद्देश्य रखकर हम सबको नारायणका स्वरूप समझकर सेवा करें, यज्ञ करें या दान दें, तप करें या जो कुछ करें तो उसका वास्तविक तत्त्व-रहस्य समझना है।
अब दूसरी बात बतायी जाती है। भगवान् कहते हैं कि ‘सर्वलोकमहेश्वरं ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति’—मुझको सब लोकोंका महान् ईश्वर समझकर—जानकर मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है। यह हमने सुन तो लिया कि भगवान् सब लोकोंके ईश्वर हैं, ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, किंतु बातको ठीक समझे नहीं, शब्दार्थ समझे, किंतु तत्त्व समझना चाहिये, रहस्य समझना चाहिये। तत्त्व यह है कि भगवान् ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर हैं और भगवान् से बढ़कर संसारमें कोई नहीं है, जब इस बातको हम तत्त्वसे समझ जायँगे तो हम भगवान्को एक क्षण भी नहीं भूलेंगे। भगवान्को हर क्षण भजेंगे। भगवान्को छोड़कर और किसीका भी भजन नहीं करेंगे, क्योंकि यह बात भगवान्ने गीता (१५।१९)-में बतलायी है—
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
जो असंमूढ पुरुष हैं, जिसमें किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी मूढ-भाव नहीं है, सबके तत्त्वको समझनेवाला है, ऐसा सर्वज्ञ है वह पुरुष। एक तो सिद्ध होते हैं, दूसरे साधक। ऐसे जो साधक साधु-महात्मा हैं, वे नित्य-निरन्तर मुझको भजते हैं। मुझको छोड़कर जो दूसरेको भजते हैं, वे मुझको सर्वोत्तम नहीं समझते।
जैसे आप कहते हैं कि भगवान्की स्मृति निरन्तर नहीं रहती है तो इससे यह बात सिद्ध होती है कि भगवान्को छोड़कर इससे भी बढ़कर किसी चीजको समझते हैं, तभी तो दूसरी चीजको भजते हैं, नहीं तो क्यों भगवान्को छोड़कर अन्यको भजते। भगवान्ने इसके पूर्व निर्णय कर दिया कि एक तो क्षर पदार्थ है, एक अक्षर—
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
(गीता १५। १६)
—इस संसारमें दो प्रकारके प्राणी हैं—एक तो क्षर और दूसरे अक्षर। सारे भूत—प्राणी तो क्षर हैं यानी भूत—प्राणियोंके जो ये शरीर हैं वे क्षर हैं और आत्मा जो है वह अक्षर है।
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:॥
(१५। १७)
उत्तम पुरुष जो है वह इन दोनोंसे अलग (वह क्षरसे अतीत है और अक्षरसे भी उत्तम) है, जिसका नाम परमात्मा है, वह तीनों लोकोंमें व्याप्त होकर सबका भरण-पोषण करता है। जिसका नाम ईश्वर है उसे पुरुषोत्तम कहते हैं; भगवान् कहते हैं वह मैं हूँ। तो मुझ परमात्माको जो पुरुषोत्तम समझता है उसकी यह कसौटी है कि वह सर्वभावसे मुझको ही भजता है। सर्वभाव कैसे है—
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
‘हे देवदेव! आप ही हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु, सखा, स्वामी, गुरु, पति सब कुछ हो और विद्या, धन आप ही हो। जो इस प्रकारसे सर्वभावसे मुझको भजता है तो फिर उसको दूसरी चीजकी आवश्यकता नहीं रहती। और मुझसे बढ़कर दूसरी चीज समझता है, तभी उसको भजता है। उसका सेवन करता है। तो इस तत्त्वको समझ करके इस गुप्त बात-(रहस्य) को समझ करके फिर इसी काममें लग जाता है। यदि नहीं लगा तो समझो कि उस रहस्यको समझा नहीं। जब रहस्यको समझकर इस कार्यको आरम्भ कर देता है तो उसको भगवान्की प्राप्ति हो जाती है, परमपदकी प्राप्ति हो जाती है, मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है। यही अपने परमपिताका गड़ा हुआ गुप्त धन है। उस लड़केको उस महात्माने उसके पिताका धन बतला दिया। उसके अनुसार उसने प्रयत्न किया, धन मिल गया। धन मिलनेमें तो विलम्ब हुआ नहीं, कष्ट हुआ नहीं। बरसों बीत गये, परंतु पिताका धन होते हुए भी उसको नहीं मिला। उस धनके रहस्यको समझानेवाला कोई महात्मा आ गया तो तुरंत ही मिल गया।
तीसरी बात है—‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ मुझको सब भूतोंका सुहृद् जानकर मनुष्य शान्तिको प्राप्त होता है। यानी परमशान्तिको प्राप्त होता है। भगवान् सब भूतोंके सुहृद् हैं, बिना कारण दया और प्रेम करनेवाले हैं यह तो शब्दार्थ हुआ। इसका तत्त्व समझना चाहिये। तत्त्व यह कि भगवान् सब जगह हैं; जड नहीं, चेतन हैं। हमलोग जो बोल रहे हैं, भगवान् सुन रहे हैं, जो क्रिया करते हैं, भगवान् देख रहे हैं; क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं, इस बातको आपने समझ लिया। बोला, समझ लिया। शान्ति मिली, बोले नहीं मिली। तो नहीं समझा, क्योंकि इसका यह फल है कि ‘ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति’, ‘मां ज्ञात्वा’ मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानकर मनुष्य शान्तिको प्राप्त हो जाता है। इसमें तत्त्व शब्द तो नहीं है। बोले—अध्याहार कर लो, समझ लो, जो तुम जानते हो इतना जाननेसे शान्ति नहीं मिलती। उसको यथार्थरूपसे जाननेसे शान्ति मिलती है। कोई एक भिखारी घर-घर भीख माँग रहा है और जहाँ जाता है वहाँ धक्का मिलता है। किसीने उसको कह दिया—यहाँ पासमें ही एक बहुत उच्चकोटिके दाता हैं, उनके घर जो जाता है वह खाली हाथ नहीं आता। उनके पास जाकर व्यक्ति जो कुछ माँगता है वही उसको मिल जाता है। यहीं पासमें ही घर है और उसने ले जाकर बतला भी दिया कि यह घर है। फिर वह भिखारी क्या वहाँ बिना माँगे सब्र करेगा? कभी नहीं। वह सदाके लिये अपनी दरिद्रता दूर हो जाय ऐसी माँग पेश करेगा। क्या भूखों मरता वह सड़कपर बाहर पड़ा रहेगा? सम्भव नहीं। यहाँ जो भगवान् सब जगह विराजमान हो रहे हैं, उनको सुहृद् जाननेसे ही शान्ति मिल जाती है। सुहृद् जान लेगा तो अपने द्वारपर पड़े हुए भिखारीकी वह मालिक रोज सँभाल रखता है, बिना माँगे ही देता है और याचना करनेपर तो उसी समय मिल जाता है। हम भगवान्को सुहृद् मान लें कि भगवान् बिना कारण ही दया और प्रेम करनेवाले हैं, फिर क्या हम भगवान्को छोड़कर किसी दूसरेसे प्रेम करेंगे? कभी नहीं। हम उस परम दयालु, परम प्रेमी भगवान् से प्रेमकी याचना किये बिना क्या रह सकेंगे? वे तो बिना याचना किये ही सब कुछ देते हैं। ‘हेतुरहित दयालु हैं, हेतुरहित प्रेमी हैं’, उनके समान कोई है ही नहीं। इससे भी बढ़कर एक बात है कि भगवान् हेतुरहित दया करनेवाले हैं, हेतुरहित प्रेम करनेवाले हैं, इस बातका जब हमको ज्ञान हो जायगा कि भगवान् में यह एक बड़ा भारी गुण है। सबसे बढ़कर यह भगवान् में गुण है। उसी वक्त हम भी सब भूतोंके परम प्रेमी और परम दयालु बन जायँगे। भगवान् एक ऐसे पुरुष हैं जो हेतुरहित प्रेम करनेवाले हैं और जो उनको जान जाता है, वह भी फिर वैसा ही बन जाता है—
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
हे असुरारी! हेतुरहित प्रेम करनेवाले या तो आप हैं या आपका भक्त है, दो ही हैं और तीसरा कोई नहीं। हमको यह समझना चाहिये कि रामके समान संसारमें हेतुरहित प्रेम करनेवाला और कोई भी नहीं है। इस बातको समझ लेनेपर उसका रामके साथ अनन्य प्रेम हो जायगा।
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु कोउ नाहीं॥
हे उमा! रामके समान हित करनेवाला माता-पिता, गुरु, बन्धु-बान्धव कोई भी नहीं है, जब इस प्रकार हमको ज्ञान हो जायगा कि भगवान्के समान दुनियामें हमारा कोई भी हितैषी-प्रेमी नहीं है तो हम भगवान्को छोड़कर क्या सांसारिक जड पदार्थोंसे—भोगोंसे कभी प्रेम करेंगे? यदि प्रेम करते हैं तो अभी हम समझे नहीं। भगवान्के तत्त्व-रहस्यको जब समझ जायँगे तो भगवान्के सिवा दूसरे किसीसे हम प्रेम कर ही नहीं सकते। दूसरेसे करेंगे तो सबमें भगवान् समझकर ही प्रेम करेंगे। विषय-भोगोंसे यदि हमें आनन्द प्राप्त होता है तो हम भगवान्को हेतुरहित प्रेमी कहाँ समझे। हम दूसरेसे प्रेम करते हैं यही भगवान्के तत्त्व-रहस्यको न समझना है।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
भगवान् श्रीरामके उपदेश सुनकर बदलेमें प्रजा उत्तरकाण्डमें कह रही है कि हे प्रभु! दुनियामें सब स्वार्थके मित्र हैं, मतलबके साथी हैं। स्वप्नमें भी स्वार्थको छोड़कर मित्रता करनेवाला कोई नहीं है, भगवान् और उनके भक्तके सिवा। इस प्रकारसे जो समझता है, उसका भगवान् में अनन्य और विशुद्ध प्रेम हो जाता है। भगवान्के प्रेमीमें, भगवान्के प्रियतममें जो लक्षण बताये वह उसमें आ जाते हैं।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३-१४)
मेरा वह भक्त मुझको प्यारा है जो किसी भी प्राणीमें द्वेषभाव नहीं रखता। क्योंकि जो सब भूतोंका सुहृद् होता है, उसका किसीसे द्वेषभाव नहीं रहता और द्वेष है तो वह सबका सुहृद् नहीं है। जिसकी ममतारहित मित्रता है, हेतुरहित मित्रता है, कोई प्रयोजन नहीं, सबमें मित्रता है, मैत्री है, मित्रकी भाँति भाव है, सबके ऊपर हेतुरहित दया है, भगवान् हेतुरहित दयालु हैं और वह पुरुष भी हेतुरहित दयालु है, हेतुरहित प्रेमी है। बोले—हेतुरहित शब्द स्पष्ट नहीं हुआ। बोला—आगे चलो—‘निर्मम:’ यानी किसीमें भी ममता नहीं। मेरा भाई है, मेरा बेटा है, चाचा है, सम्बन्धी है—इन सब सम्बन्धोंको लेकर सबके ऊपर दया नहीं है। ‘निरहङ्कार:’ ऐसा होनेपर अहंकार भी नहीं है कि मैं हेतुरहित दयालु हूँ या प्रेमी हूँ। अहंकारका उसमें नामोनिशान भी नहीं है। ‘समदु:खसुख:’ सुख और दु:खकी प्राप्ति होती है तो वह भगवान्का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर उसमें समचित्त रहता है। ‘क्षमी’ है, कभी कोई आदमी कितना ही अपराध कर दे, उस अपराधको अपराध ही नहीं समझता। अपराध समझकर माफ करना तो दूर, उसका अपराध ही नहीं समझता। जैसे कोई छ: महीनेका, सालभरका लड़का अपने पिताकी मूँछ पकड़कर खींच ले तो क्या उसका अपराध माना जा सकता है? पिता कहते हैं—इसका अपराध है ही नहीं या माँ उसको मारती है तो वह मारनेका तत्त्व समझता ही नहीं, कभी उठाकर पिताके मुक्का लगा देता है। सालभरका लड़का है, वह क्या समझे। उस अपराधको पिता अपराध ही नहीं समझता। ऐसे ही कोई वैद्य किसी रोगीको देखने जाता है। रोगी एकदम संनिपातमें है या पागल है। अर्थात् त्रिदोष हो गया है, जिससे वह प्रलाप करता है। गाली निकालता है या जो उसके नजदीक आता है, उसे मार भी देता है। वैद्यको भी मार देता है, किंतु वैद्य उसको अपराध नहीं समझता है, क्योंकि वह पागल (बेहोश) है, उसे किसी बातका ज्ञान नहीं है। यह नहीं कि वैद्य भी उसको थप्पड़ लगाये। जब इस प्रकार संसारमें साधारण माता-पिता और वैद्यलोग भी उसकी बातपर ध्यान नहीं देते, तो मायामें उन्मत्त मनुष्यकी क्रियापर ज्ञानी, महात्मा कैसे ध्यान देगा। तो इस अपराधको अपराध ही नहीं मानता। ‘संतुष्ट: सततं योगी’ ऐसा योगी महात्मा हर समय आनन्दमें मस्त रहता है, संतुष्ट रहता है। परमात्माके स्वरूपमें मग्न रहता है। ‘यतात्मा’ जिसने मनको वशमें कर लिया है। ‘मय्यर्पितमनोबुद्धि:’ दृढ़ निश्चयसे जिसने मन-बुद्धिको मेरेमें अर्पण कर दिया ऐसा मेरा भक्त मुझको प्यारा है। मन-बुद्धिको भगवान् में समर्पण करनेवालेके लिये भगवान्के सिवा और कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं। उसका मन एक भगवान्को छोड़कर और दूसरी चीजका कभी चिन्तन करता ही नहीं, जहाँ उसका मन जाता है, वहीं भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करता है। ऐसा मेरा भक्त मुझको प्यारा है। यह लक्षण उसमें घट जाते हैं। भगवान् सबके सुहृद् हैं तो भक्त भी सबका सुहृद् बन जाता है। अगर हम सबके सुहृद् नहीं बने तो कम-से-कम परम दयालु भगवान्के पास जाकर रुदन करें तो दु:खसे रहित हो जायँ और जो उनकी प्राप्तिका अभाव है, उन परमात्माको प्राप्त कर लें यानी परम शक्तिको प्राप्त कर लें। इस प्रकारसे जो भगवान्को समझता है वह भगवान् से पूर्ण लाभ उठाकर उनकी प्राप्ति कर लेता है। जैसे भिखारी किसी धनीको पाकर अपनी दरिद्रता दूर कर ही लेता है। अपनी आत्माकी तृप्ति कर लेना, शान्तिलाभ उठाना साधारण लाभ है। विशेष लाभ उठाना तो वैसा ही बन जाना है। दोनों ही बातें ठीक हैं। परम शान्ति तो उसको मिल ही जाती है और वह भगवान्को प्राप्त हो ही जाता है और भगवान् कहते हैं कि ‘मम साधर्म्यमागता:’ मेरे सादृश्य धर्मवाला बन जाता है अर्थात् जैसा मैं हूँ वैसा ही बन जाता है तो यह भगवान्ने गीताके १४। २ में बतलाया है। इस रहस्यको आपको बतला दिया। हमलोगोंको इसका तत्त्व और रहस्य समझना चाहिये, समझना यही है कि तदनुसार बन जायँ।