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भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान

भगवान् का ध्यान करनेके लिये एकान्त और पवित्र स्थान होना चाहिये। जहाँ कोई विघ्न-बाधा न हो, कोई हल्ला-गुल्ला न हो, शान्त स्थान हो। आसन कुश या कम्बल अथवा दोनोंका ही हो। उसपर सुखपूर्वक पालथी मारकर स्थिरतासे बैठना चाहिये। बिलकुल हिलना-डुलना नहीं चाहिये, और यदि पासमें दूसरा कोई बैठा हो तो उससे थोड़ा अलग बैठना चाहिये। महर्षि पतंजलिने कहा है—‘स्थिरसुखमासनम्।’ आसन ऐसा होना चाहिये जिसपर स्थिरतापूर्वक—सुखपूर्वक अचल हो करके बैठा जा सके। भगवान‍्ने गीतामें बतलाया है—‘समं कायशिरोग्रीवम्।’ काया, सिर और गला एक सीधमें रखना चाहिये—सम रहना चाहिये तथा मेरुदण्ड सीधा रहना चाहिये। आसनपर बैठनेके बाद मनमें संसारकी जो नाना प्रकारकी कामनाएँ हैं, उन सबको एकदम चेष्टासे दूर कर देना चाहिये और आसक्तिसे भी रहित हो जाना चाहिये। संसारमें सुख-बुद्धि होनेसे ही उनमें आसक्ति और विषयोंका चिन्तन होता है। आसक्ति होनेसे ही उनमें कामना उत्पन्न होती है। संसारमें कहीं आसक्ति न हो तो कामना भी नहीं होती। संसारके पदार्थोंमें सुख-बुद्धि अज्ञानसे है। वास्तवमें संसारमें सुख है नहीं। संसार परिणामी, विनाशशील और अनित्य है। इसलिये उसे भुला ही देना चाहिये। संसारको नाशवान् और क्षणभंगुर समझकर संकल्परहित हो जाना चाहिये। यदि इसमें किंचित् भी सत्ता या आसक्ति हो तो उसे दूर कर देना चाहिये और फिर ध्यान करना चाहिये। यह समझना चाहिये कि भगवान् निर्गुण-निराकार-रूपमें सदा-सर्वदा-सर्वत्र हैं ही। और यही भगवान् सगुण-निराकारके रूपमें प्रकट होते हैं, फिर सगुण-साकारके रूपमें प्रकट होते हैं। जैसे आकाशमें निराकाररूपमें सदैव जल रहता है और वही जल भापके रूपमें प्रकट हो करके बादलोंका रूप धारणकर जल तथा बर्फके रूपमें बरसने लगता है। विचार करना चाहिये कि आकाशमें जो निराकार-रूपमें जल है, वही जल बादलके रूपमें, बूँदोंके रूपमें और बर्फके रूपमें भी है। इसी प्रकारसे जो निर्गुण-निराकार परमात्मा है, वह सगुण-निराकारके रूपमें प्रकट होकर फिर महान् प्रकाशके रूपमें, सगुण-साकारके रूपमें प्रकट हो जाते हैं तो धातुसे विचार करनेपर सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार भगवान‍्के सभी रूप एक ही हैं।

एक सत्-चित्-आनन्द परमात्माके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरी वस्तु नहीं है। यदि कहें कि जल तो विकारी है तो क्या भगवान् भी विकारी हैं? ब्रह्म तो निर्विकार है, उसमें कोई विकार नहीं होता। विकारसे भरे अज्ञानी मनुष्योंको अपना विकार ब्रह्ममें दीखता है। उसमें तो कोई विकार है ही नहीं। जैसे आकाश एकदम निर्मल है, उससे भी बढ़कर भगवान् निर्मल हैं। भगवान‍्के जो भक्त हैं, वे भगवान‍्के सगुण-साकार-रूपको देखना चाहते हैं। उनके प्रेमके कारण निराकार भगवान् साकार-रूपमें आ जाते हैं। उन भगवान‍्के जो गुण हैं सभी दिव्य और चेतन हैं। भगवान‍्का जो साकार रूप है वह भी चेतन है। जब कभी भगवान् अवतार लेते हैं, तब अपने ऊपर एक मायाका पर्दा डाल लेते हैं और असली रूप छिपा लेते हैं, परंतु भक्तोंके सम्मुख अपना असली रूप प्रकट कर देते हैं, जिससे भक्तोंकी दृष्टि भी दिव्य हो जाती है, इसलिये वे भगवान‍्के उस दिव्य सगुण स्वरूपको देख सकते हैं।

यदि कहो कि भगवान‍्का जो स्वरूप अलौकिक, दिव्य और चिन्मय गुणोंसे सम्पन्न है, फिर ऐसे भगवान‍्का स्वरूप सगुणसाकारके रूपमें कैसे प्रकट हो जाता है? इसका उत्तर यह है कि भक्तोंके प्रेमके कारण। भक्तोंके प्रेमके कारण भगवान् आ जाते हैं यह तो कोई युक्ति-संगत बात नहीं है। निर्गुण-निराकार ब्रह्म सगुण-साकारके रूपमें आ जावें यह उनकी लीला है। भगवान् असम्भवको भी सम्भव कर सकते हैं, उनके लिये कोई भी बात असम्भव नहीं है। समस्त साकार पदार्थ पहले निराकार ही थे। ‘अव्यक्ताद‍्व्यक्तय: सर्वा:’ (गीता ८। १८)। उस अमूर्तसे सारी मूर्तियाँ मूर्त हुई हैं। जितने मूर्तिमान् पदार्थ हैं, उनके दो रूप प्रत्यक्ष देखनेमें आते हैं। जैसे मैंने जलके विषयमें कहा, वैसे ही अग्निके विषयमें समझें। अग्नि जो दियासलाईमें व्याप्त है वह निराकार है। घिसनेसे वह प्रकट हो जाती है—साकाररूपमें आ जाती है। इसी प्रकारसे पृथिवीका जो आदि रूप है वह निराकार ही है, फिर वह साकाररूपमें आ जाता है। सभी साकार पदार्थ पहले निराकार थे, किंतु अब साकाररूपमें आ गये, पर ये पदार्थ विकारी हैं। परमात्मा तो निर्विकार हैं। वे अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट हो जाते हैं। उनका यथार्थ रूप सबको दिखायी नहीं देता—

‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।’
(गीता ७। २५)

भगवान् कहते हैं, मैं सबको दिखायी नहीं देता हूँ। योगमायासे आवृत होकर रहता हूँ। ‘मूढोऽयं नाभिजानाति’ मूढ़ पुरुष मुझे नहीं जानते हैं। ‘लोको मामजमव्ययम्’ मैं जो अज और अविनाशी हूँ, ऐसे मुझ परमात्माको मूढ़लोग नहीं जानते। भक्तलोगोंके सामनेसे वह पर्दा हटा लेता हूँ, अत: वे हमारा असली रूप देख पाते हैं। भगवान‍्का साक्षात्कार होनेमें प्रेम ही असली कारण है। जहाँ प्रेम होता है, वहीं भगवान् प्रकट हो जाते हैं। रामचरितमानसके बालकाण्डमें देवताओंकी सभामें शिवजीने यही कहा है—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

अर्थात् हरि—परमात्मा सब जगह पूर्णरूपसे व्याप्त हैं, वे प्रेमसे ही प्रकट होते हैं। ‘हरिर्हरति पापानि’ हरि शब्दका अर्थ है हरना। ‘हरि’ शब्दके उच्चारणसे समस्त पाप दूर हो जाते हैं। ‘हरि’ शब्द परमात्माका नाम है और यह सभी पापोंको हरनेवाला है। इसलिये उनका नाम हरि है। वैसे तो भगवान‍्के अनेक नाम हैं—सच्चिदानन्द परमात्मा, सत्-चित्-आनन्दघनके बहुत-से नाम हैं, किंतु प्रभुका यह नाम विशेष है। कोई भी वेदका मन्त्र उच्चारण होता है तो ‘हरि: ओ३म्’ इस प्रकार ‘हरि’ शब्द ‘ओम्’ शब्दके साथ उच्चारित होता है। इस कारण इसका महत्त्व भी विशेष है। शब्दार्थको देखते हुए भी ‘हरि’ शब्द विशेष महत्त्व रखता है। हमें इस शब्दसे उन्हें पुकारना चाहिये। वे हमारे सारे पापोंका नाश कर देंगे। परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं।

भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान हमें प्रेमपूर्वक मुग्ध होकर करना चाहिये। क्योंकि भगवान् प्रेमसे साक्षात् प्रकट हो जाते हैं। जब हम अधिक तन्मय होकर भगवान‍्का ध्यान करते हैं तो भगवान् वहाँ उसी समय साक्षात् प्रकट हो जाते हैं। द्रौपदीने बड़े ही करुणभावसे दुर्वासामुनिके आगमनके समय भगवान‍्का ध्यान किया था और पुकार लगायी थी। उसने कहा था—‘हे नाथ! हे गोपाल! हे गोविन्द! हे दामोदर!’ इस तरह भगवान‍्के नामका कीर्तन किया तो उसी समय भगवान् एकदम प्रकट हो गये थे। जब कीर्तन करनेसे भगवान् प्रकट हो जाते हैं तो ध्यानमें प्रकट हो जायँ तो कौन बड़ी बात है। ध्यान करना तो हमारे अधीन है, हमें भी उसी प्रकार भगवान‍्का कीर्तन-ध्यान करना चाहिये।

सूरदासजी कहते हैं—

बाँह छुड़ाए जात हौ निबल जान के मोय।
हृदय से जब जाओगे पुरुष बदूँगा तोय॥

आप हमें निर्बल जानकर बाँह छुड़ाकर जा रहे हैं, किंतु जब मेरे हृदयमेंसे जहाँ आप बसे हैं, उसमेंसे निकलकर जायँगे तो मैं आपको सामर्थ्यवान् समझूँगा, पुरुष समझूँगा। यह प्रेमसे उन्होंने कहा था। यह प्रेमसे विनोद है। इसे भगवान‍्का तिरस्कार नहीं समझना चाहिये।

भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करनेके पहले एकभावसे, समभावसे, न आगे न पीछे, न जोरसे न धीमे एक-दूसरेके लयमें लयको मिलाते हुए करुणभावमें मुग्ध हो करके भगवान‍्का बारबार कीर्तन करना चाहिये—

‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे,
हे नाथ नारायण वासुदेव।’

भगवन्नामका कीर्तन करते समय ऐसी भावना करनी चाहिये कि भगवान् सगुण-निराकार-रूपमें सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं। भगवान‍्के जो दिव्य गुण हैं ये सब जगह समभावसे परिपूर्ण हैं। भगवान‍्का स्वरूप सत्-चित्-आनन्दघन है। भगवान‍्का स्वरूप सत् (सत्तारूप) से, चित् (बोधस्वरूप - ज्ञानस्वरूप) से और आनन्दस्वरूपसे सब जगह समभावसे स्थित है। उनका स्वरूप आकाशसे भी बढ़कर अनन्त, सम, निराकार और सर्वत्र व्याप्त है। वह परमात्मा आनन्दरूपसे सब जगह मौजूद है। जो चेतन है वही आनन्द है, जो आनन्द है वही चेतन है। संसारमें हमलोगोंको जो समभाव दीखता है यह सात्त्विक गुण है, या मायाका सात्त्विक भाव है, अत: इसे हम सात्त्विक गुण होते हुए भी जड कह सकते हैं। इस प्रकारसे आकाशकी जो अनन्तता है वह जड है। आकाशका स्वरूप चिन्मय और आनन्दमय नहीं है किंतु परमात्मा चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और आनन्दस्वरूप है। भावरूप है, प्रेमरूप है, अमृतमय है, आनन्दमय है, रसमय है—ये सभी शब्द भगवान‍्के स्वरूपकी बातें कहते हैं और स्वरूप ही गुणोंके रूपमें प्रकट होता है। इसलिये स्वयं भगवान् चेतन हैं और उनके गुण भी चिन्मय हैं। आप ध्यानसे देखें, सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द प्रतीत हो रहा है। मानो हमलोग अमृतरूप आनन्दके सागरमें डूबे हैं। यह जो शान्ति प्रतीत हो रही है यह भगवान् से होती है। अत: भगवान‍्का यह स्वरूप ही है। इस प्रकारसे भगवान् में क्षमा, शान्ति, समता, संतोष, सरलता आदि अनन्त दिव्य गुण हैं। जितने गुण हमलोगोंके दृष्टिगोचर होते हैं इनसे भी और अधिक गुण जिनको हम जानते भी नहीं उनमें मौजूद हैं। प्रकृतिका जो सात्त्विक भाव जिसे हम महत्तत्त्व कहते हैं, समष्टि बुद्धि कहते हैं, उस बुद्धिरूप आइनेमें भगवान् प्रतीत हो रहे हैं। भगवान‍्के ये भाव प्रकट हो रहे हैं, भगवान् वास्तवमें चिन्मय हैं, भगवान‍्के स्वरूपका, भावोंका, गुणोंका जो समूह है वह शुद्धबुद्धि और समत्वबुद्धिमें आता है। ये भावोंमें आनेसे सात्त्विक गुणके नामसे कहे जाते हैं। प्रकृति जड होनेके कारणसे उसको हम जड कहते हैं। किंतु जो बुद्धिके अन्तर्गत आते हैं, वे बुद्धिसे मिले होनेके कारण जड-से प्रतीत होते हैं, किंतु वास्तवमें जो भगवान् बिम्बरूपसे हैं, चिन्मयरूपसे हैं, ये गुण नीचे-ऊपर, बायें-दायें सब ओर प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हो रहे हैं। जैसे भगवान् निर्गुण-निराकार-रूपमें थे और सगुण-साकार दिव्य रूपमें आ गये, एक महान् प्रकाशके रूपमें जिसको नेत्रोंसे अनुभव कर सकते हैं। सूर्य उदय होनेके एक मिनट पहले जैसे संसारमें महान् प्रकाश हो जाता है, क्योंकि महान् प्रकाश भगवान‍्का स्वरूप है। उन्हींके प्रकाशसे ये सूर्य, चन्द्र और तारागण तथा बिजली आदि प्रकाशित होते हैं। वही एक महान् प्रकाशका पुंज भगवान् श्रीकृष्णजीका दिव्य स्वरूप है और वही प्रकाशका पुंज होनेसे साकाररूपमें हमें दीखने लगता है। इसलिये भगवान् गोविन्दका आह्वान करना चाहिये। आह्वान करनेसे भगवान् एकदम प्रकट हो जाते हैं—

गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे दीन बिहारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे नैनोंके तारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे मन के चुरारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे गोपियोंके प्यारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे प्रेम पियारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
गोविन्द गोविन्द गोविन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥
कृष्ण मुरारे दीन बिहारे।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरे॥

आनन्द है, आनन्द है, आनन्द है। देखो कैसा आनन्द हो रहा है। महान् प्रकाशके रूपमें प्रकट हो करके और साक्षात् दिव्य रूपमें आकाशमें प्रकट होनेवाले भगवान‍्का कैसा अलौकिक स्वरूप है! अहा, आनन्द, आनन्द, आनन्द, पूर्णानन्द, पूर्णानन्द, पूर्णानन्द!

नाथ सकल साधन मैं हीना।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

भगवान् श्रीकृष्ण आकाशमें विराजमान हो रहे हैं, भगवान‍्का स्वरूप करीब चार-साढ़े-चार फुट लम्बा और उनकी आयु लगभग बारह वर्षकी है। भगवान् आकाशमें बहुत ही सुन्दर रूपसे चमक रहे हैं। उनके चरण बड़े सुन्दर हैं, चरणोंके तलवोंमें गुलाबी रंगकी झलक और ऊर्ध्वरेखाएँ हैं। अंगुलियोंके नीचे चक्र और शंखकी भाँति रेखाएँ हैं और तलवोंके बीच ध्वजा, अंकुश तथा वज्रके चिह्न हैं। भगवान् अब और निकट पहुँच गये। अत: उनके चरणोंका ऊपरी भाग भी दीखने लगा। वे बहुत ही कोमल हैं, उनके छूनेसे शरीरमें रोमांच हो जाता है और आनन्दकी लहरें उठने लग जाती हैं। जिस प्रकार सागरमें जलकी लहरें उठती हैं, उसी प्रकारसे शरीरमें आनन्दकी लहरें लहराती हैं। भगवान‍्के चरण तथा उनकी अंगुलियाँ भी अलौकिक सुन्दर हैं। नाखूनोंमें अलग चमक है। भगवान् नूपुर पहने हुए हैं, दोनों पिंडलियाँ, दोनों पैर और जंघाएँ परम सुन्दर हैं। पीताम्बर पहने हुए हैं, जिससे भगवान‍्का स्वरूप सुशोभित हो रहा है। पीताम्बर झीना है, जिससे भगवान‍्का स्वरूप उसमेंसे झलकता, चमकता हुआ बिलकुल प्रत्यक्षकी तरह दीखता है। भगवान‍्केसरिया रंगका जामा पहने हुए हैं, वह भी बहुत ही झीना है। उसमेंसे भी भगवान‍्का स्वरूप भीतरसे चमकता है। गलेमें बड़ी सुन्दर वनमाला पहने हुए हैं। मालामें पुष्पोंके साथ-साथ तुलसीके पत्तोंके गुच्छे भी गुँथे हुए हैं। गलेमें मोतियोंकी भी माला है, उसमें घुँघची (गुंजा) पिरोयी हुई है। भगवान् गलेमें रत्नोंका कण्ठा और रत्नजटित हार भी पहने हुए हैं। भगवान‍्की दोनों भुजाएँ घुटनोंतक लम्बी हैं। भगवान् वंशी बजा रहे हैं। बायें हाथमें वंशी धारण किये हुए हैं और दायें हाथसे सुर चला रहे हैं। वंशीका अग्रभाग भगवान‍्के अधरोष्ठपर है, मानो वंशी भगवान‍्का अधरामृत (यानी ओठसे चूनेवाला अमृत) पान कर रही है। भगवान् गुलनार रंगका एक दुपट्टा भी धारण किये हैं। भगवान‍्के दोनों हाथ लम्बे, चमकीले और चिकने हैं। हाथोंमें अँगूठी पहने हुए हैं और बाँहोंमें अनन्त (एक आभूषण) बाँधे हुए हैं। भगवान‍्के कंधे पुष्ट और बहुत ही सुन्दर हैं, छाती चौड़ी, गला लम्बा है। उनके ओष्ठ लाल बिम्बाफलकी भाँति या लाल मणिकी तरह चमकते हैं। वे जब बोलते हैं तो उनकी वाणी अमृतके समान प्यारी लगती है, मानो उसके अंदर प्रेम भरा हुआ है। ओठ जब खोलते हैं, उससे मनुष्य मुग्ध हो जाता है और दाँतोंकी पंक्तियाँ मानो मोतियोंकी पंक्ति हों। भगवान‍्की वाणी सुन्दर, अर्थयुक्त और प्रेमभरी है। बहुत ही मधुर और कानोंके लिये अमृतके समान प्यारी लगती है। भगवान् में अलौकिक सुगन्ध आती है जो बहुत ही मधुर और नासिकाके लिये अमृतके समान प्रिय है। भगवान‍्के दोनों कान बहुत ही सुन्दर हैं और कानोंमें रत्नजटित कुण्डल पहने हुए हैं। उनकी आकृति मकरके समान है और नासिका बहुत ही सुन्दर है। दोनों कपोल पीले रंगकी आभासे युक्त एकदम चमक रहे हैं। भगवान् एकदम श्याम हैं, किंतु गालोंपर गुलाबी रंगकी झलक है। कानोंके कुण्डलकी आभा गालोंपर पड़नेसे विशेष शोभा बढ़ जाती है। भगवान‍्के दोनों नेत्र खुले हुए हैं और चपल हैं। वे नीले रंगके दो खिले हुए कमलके सदृश हैं। भगवान‍्के नेत्रोंकी आकृति कमलकी पंखुड़ियोंके समान है और उनके नेत्रोंका खिलना कमलके पुष्पके समान। भगवान‍्का मुख भी गुलाबके पुष्प-सा खिला हुआ है। भगवान् हँसते हैं तो मानो प्रेमकी वर्षा कर रहे हैं। अब भगवान् आकाशमें फिर ऊपरको उठ जाते हैं। आकाशमें जा करके नेत्रोंके द्वारा हमलोगोंपर प्रेमकी वर्षा कर रहे हैं। हम सब प्रेममें मुग्ध हो रहे हैं। प्रेम ही आनन्दके रूपमें दीखता है, उसको हम आनन्द कहें या प्रेम कहें। उसमें ऐसा एक अलौकिक रस है इसलिये उसको हम रस भी कह सकते हैं।

भगवान् सबको समभावसे देखते हैं, इसलिये प्रभुका नाम समदर्शी है। मानो समताकी वर्षा करते हैं और हमलोग समभावमें मग्न हो गये हैं। हमलोगोंकी विषमता चली गयी है। और वहाँ राग-द्वेष आदि मायाका कोई भी कटक नहीं आ सकता। भगवान् जहाँ विराजमान रहते हैं, वहाँसे माया कोसों दूर रहती है। भगवान् अपने नेत्रोंसे मानो शान्तिकी वृष्टि कर रहे हैं। भगवान् साक्षात् क्षमारूप हैं, भगवान् में अनन्त गुण हैं और उन गुणोंको नेत्रोंके द्वारा वे संसारमें फैला रहे हैं, विकीर्ण कर रहे हैं। सारा संसार यानी समस्त ब्रह्माण्ड उन गुणोंसे परिपूर्ण हो रहा है। नेत्रोंके द्वारा विकसित होकर मानो उनके हृदयके उत्तम भावोंकी वर्षा हो रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो गुणोंकी बाढ़ आ गयी हो। उनके भावोंका मानो सागर उमड़ गया हो और उस सागरमें हमलोग मग्न हो रहे हैं। उनके क्षमा, दया, शान्ति, समता, संतोष, सरलता आदि अनेक गुण हैं। भगवान् स्वयं बोधस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, आनन्दस्वरूप हैं। ये आनन्दघन परमात्मा भावके रूपमें, गुणोंके रूपमें, हमलोगोंमें उत्तमभावके रूपमें परिपूर्ण हो रहे हैं। उनके नेत्र खिले हुए कमलके सदृश और चपल हैं, उनके नेत्रोंके मध्यमें लाल रंगके डोरे हैं जैसे कमलके फूलकी पंखुड़ियोंमें हुआ करते हैं। भौंहें भौंरोंके समान हैं और भृकुटी बहुत ही सुन्दर है तथा ललाट चमक रहा है और उसपर श्रीधारी तिलक है। शीशपर काले रंगके केश भौंरोंके समान हैं और मस्तकपर बहुत ही चमकीले मोरमुकुट बाँधे हुए हैं, उसके बीचमें सोनेके ताँतमें घुँघची और मोती गुँथे हुए हैं। मुकुट बहुत ही सुन्दर चमक रहा है। इस प्रकार भगवान् आकाशमें खड़े हैं। भगवान‍्का सारा बदन एकदम श्यामवर्ण है और उसमें अलौकिक चमक है। जैसे पूर्णिमाका चन्द्रमा आकाशमें स्थित होकर सारे ब्रह्माण्डमें अपनी चाँदनी फैलाता है, ऐसे ही भगवान् आकाशमें स्थित होकर अपना प्रकाश चारों ओर फैला रहे हैं। भगवान‍्का सारा स्वरूप अलौकिक और अद्भुत है। भगवान् आकाशमें स्थित होकर हँस रहे हैं। हमलोग भगवान् से प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! जैसा चमकीला स्वरूप हम आकाशमें देख रहे हैं, वैसा ही स्वरूप हम साक्षात् नेत्रोंसे दर्शन करना चाहते हैं। आपका यही स्वरूप सदा हमारे ध्यानमें रहे। आपमें हमारा परम प्रेम हो, आपमें हमारी परम श्रद्धा हो, आपसे हमारा कभी वियोग न हो, हम सदा आपके ही पास रहें और सदा ही आपकी सेवा करते रहें। आपमें हमारा निष्काम और सरल प्रेम हो। हम आपके नामका जप, आपके स्वरूपका ध्यान नित्य-निरन्तर करते रहें।

हमलोग वृन्दावनमें बैठे हैं, इस स्थानका नाम रमणरेती है। भगवान‍्ने यहाँ रमण किया था, इसलिये इसका नाम रमणरेती है। भगवान‍्ने यहाँ दिव्य रास किया था और वे गोपियोंके साथ मिल करके नाचा करते थे, गाया-बजाया करते थे। असलमें सबके साथ मिल करके नृत्य किया करते थे। सब मुग्ध हो जाया करते थे। इसके पासमें जमुना नदी बह रही है और यहाँ एक कदम्बका वृक्ष है। उसके ऊपर भगवान् चढ़ जाते हैं। कमलके सदृश नेत्रवाले भगवान् वृक्षकी डालपर बैठे हैं। वह जमीनपर फैली हुई है, उसपर बैठकर भगवान् अपने पैरोंको आहिस्ते-आहिस्ते नीचेकी ओर झुला रहे हैं और वंशी बजा रहे हैं। जिसकी ध्वनि बहुत ही सुन्दर अमृतके समान मधुर है, उसका हमलोग कर्णपुटके द्वारा पान कर रहे हैं। भगवान‍्का दर्शन नेत्रोंके लिये और वाणी तथा वंशीकी ध्वनि कानोंके लिये, सुगन्ध नासिकाके लिये और उनका स्पर्श हाथों और अन्य अंगोंके लिये अमृतके समान है। भगवान‍्के दर्शन-भाषण-स्पर्श-वार्तालाप सभी अमृतमय, आनन्दमय, रसमय और प्रेममय हैं। भगवान‍्का दर्शन और स्पर्श बहुत मधुर है, इसीलिये भगवान‍्के इस रूपको माधुरी मूर्ति कहते हैं।

ध्यान करें कि एकाएक भगवान् डालसे वंशी बजाते हुए कूद पड़ते हैं और हम सबलोग भी खड़े होकर उनके साथमें नाचते, गाते और बजाते हैं। हमलोगोंके चारों ओर बीचमें मण्डलाकार गोपियाँ भी खड़ी हुई हैं और गाती-बजाती हैं। गोपियोंके बाहर दूसरा मण्डल है गोपबालकोंका जिनके साथ भगवान् खेला करते हैं। उनका मण्डल भी गोलाकारमें सुशोभित हो रहा है। उसके बाद एक तीसरा मण्डल है जो भगवान‍्के भक्तोंका है, जिसमें पशु-पक्षी, मनुष्य, सुर-असुर, यक्ष और राक्षस—ये सभी हैं। पशुओंमें हनुमान्, अंगद आदि बंदर और पक्षियोंमें गरुड, काकभुशुण्डि, जटायु आदि सभी दिव्य रूप धारण करके भगवान‍्के नाम-गुणोंका कीर्तन करते हुए मुग्ध हो रहे हैं। देवताओंमें शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि, यक्षोंमें कुबेर आदि और राक्षसोंमें विभीषण आदि तथा असुरमण्डलीमें प्रह्लाद और बलि आदि, मनुष्योंमें अम्बरीष, ध्रुव, कीर्तिमान् आदि बहुत-से भक्त मिलकर मण्डलाकार खड़े होकर भगवान‍्के नाम तथा गुणोंका कीर्तन कर रहे हैं। उसके बाद मण्डलाकारमें खड़ी हुई गौएँ कान ऊँचा करके भगवान‍्की वंशी-ध्वनि सुन रही हैं। सब एकदम प्रेममें मुग्ध हो रहे हैं और मानो सब कोई मिल करके रास कर रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं, उनके दिव्य गुणोंका गान कर रहे हैं। सब प्रेममें मुग्ध होकर नाचते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और सब कोई अपने-आपको भूले हुए हैं। ऐसा भगवान‍्का अलौकिक स्वरूप है और भगवान् सबके मध्यमें गाते-बजाते मुग्ध हो रहे हैं। नेत्रोंसे सभीको देख रहे हैं मानो सबके ऊपर जादू-सा कर रहे हैं, सभी मन्त्रमुग्ध हो रहे हैं। सभी भगवान् श्रीकृष्णको ही देख रहे हैं, मानो हम सब नेत्रोंसे भगवान‍्को पी जायँगे। सबलोग भगवान‍्को अपने हृदयमें ले जा रहे हैं। इस प्रकार हम जब हृदयमें देखते हैं तो भगवान‍्का वही स्वरूप हमारे हृदयमें दीखता है जो स्वरूप बाहर है। जहाँ हमारे नेत्र और मन जाते हैं, वहीं भगवान‍्का स्वरूप दीखता है, भगवान् हमारे हृदय और नेत्रोंमें बस गये हैं, बाहर-भीतर सर्वत्र भगवान् परिपूर्ण हो रहे हैं। निराकाररूपसे तो हो ही रहे हैं, वही भगवान् महान् प्रकाशके रूपमें प्रकट होकर सगुण-साकारके रूपमें—भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें दीख रहे हैं। भगवान‍्का श्यामवर्ण स्वरूप है, बड़ा ही चमकीला और सुन्दर है, जैसे काले रंगकी घटा जलसे भरी हुई हो। इस प्रकारका उनका श्यामवर्ण है कि जैसे कसौटीका पत्थर होता है। पर उसमें चमक कम होती है, इनमें चमक अधिक है, वह तो कोमल भी नहीं है, कठोर है और पत्थर है। भगवान‍्के साथ किसीकी तुलना नहीं की जा सकती। भगवान् पुष्प तथा मखमलसे भी कोमल हैं। नवनीतका भी हम उदाहरण नहीं दे सकते, नवनीतमें अँगुली बैठ जाती है और वह बहुत गीला भी होता है। भगवान‍्कोमल होते हुए भी बहुत ही अलौकिक हैं। स्पर्श करते समय, मिलनेके समय, ऐसा भाव उत्पन्न होता है कि उनमें प्रवेश कर जायँ, उनको अपने नेत्रोंके द्वारा पी जायँ। भगवान‍्का दर्शन-भाषण-स्पर्श—सभी अलौकिक, अमृतमय और आनन्दमय है, ऐसे भगवान‍्के स्वरूपको देखते हुए तथा उसमें मुग्ध होते हुए, चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते और सोते समय मानो भगवान् हमारे साथ रहते हैं, हर समय इस प्रकारका भाव रखना चाहिये। गोपियाँ अपने काम करनेके समय भी भगवान‍्के नाम और गुणोंका कीर्तन किया करती थीं अर्थात् निरन्तर ही भगवान‍्के नाम और गुणोंका कीर्तन करती थीं। और उनका मन भगवान् में बसता था तथा भगवान् उनके हृदयमें और नेत्रोंमें बसते थे। गाय दुहते समय, दही बिलोते समय, रसोई बनाते समय, घरमें झाड़ू देते समय, बच्चोंको नहलाते समय, घर लीपते समय अर्थात् प्रत्येक कार्य करते समय भगवान‍्के नाम और गुणोंका गायन करती हुई और भगवान‍्का मनसे ध्यान करती हुई गोपियाँ अपने कार्य किया करती थीं। इसी प्रकार हमलोगोंको भी प्रत्येक कार्य करते समय निरन्तर भगवान‍्का स्मरण करना चाहिये। सोनेके समयमें भगवान‍्के नाम और गुणोंका ध्यान करते हुए शयन करना चाहिये और जिस प्रकारसे महान् रास होता है, उसमें सभी लोग प्रेमसे नाचते-गाते-बजाते हैं, उसी प्रकारसे हमलोग इस समय महान् रासमें सम्मिलित हो करके भगवान‍्के नाम-गुणोंका गान करते हुए परिक्रमा कर रहे हैं। भगवान‍्के बहुत-से नाम हैं, भगवान‍्के अनन्त नाम हैं—श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण, मधुसूदन आदि। हमारा मन भगवान् में और उनके नेत्र हमारे सम्मुख हैं, वे हमलोगोंको एक साथ समभावसे देखते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भगवान् हमारे ही सम्मुख हो रहे हैं। भगवान् नाचते हैं, गाते हैं, बजाते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् आकाशके बीच चले जाते हैं और फिर उस कदम्बके वृक्षपर बैठकर अपने पैरोंको हिलाते हुए नेत्रोंसे बारम्बार दृष्टि डालते हुए प्रेमसे वंशी बजा रहे हैं। फिर थोड़ी देर बाद उस डालपरसे उछलकर बीचमें कूद पड़ते हैं तो सब नाचते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और प्रेममें मुग्ध हो जाते हैं। फिर भगवान् खड़े हो जाते हैं, उस समय उनका एक पैर तो खड़ा है और दूसरे पैरकी एड़ी उठी हुई है, मात्र पंजा जमीनपर है ऐसी बाँकी झाँकीसे खड़े हो जाते हैं। पैर टेढ़े, कमर टेढ़ी और खड़े भी टेढ़े हैं तथा हाथ भी टेढ़े, वंशी भी टेढ़ी, गला भी टेढ़ा, मुकुट भी टेढ़ा और नेत्र भी टेढ़े अर्थात् सब प्रकारसे टेढ़े खड़े हुए हैं। ऐसी झाँकी जो सब जगहसे टेढ़े (बाँके) होनेसे बाँकेविहारी कहाते हैं। कभी आकाशमें स्थित होकर एक प्रकारसे सबके ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। कभी आकाशमें चले जाते हैं, कभी उछल करके कदम्बकी डालपर बैठ जाते हैं, कभी कूद पड़ते हैं, कभी नाचते हैं, कभी गाते हैं, कभी बजाते हैं—इस प्रकारसे भगवान् लीला कर रहे हैं। ऐसे लीलामय स्वरूपको निरन्तर अपने ध्यानमें रखते हुए विचरण करना चाहिये, जैसे गोपियाँ विचरण किया करती थीं।

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