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व्यवहार-सुधार

अपणता (अपनापन) अर्थात् मेरापन और आसक्तिमें फर्क है। यह अपणता भी दो प्रकारकी है। मेरापन जो है वह निष्कामभावसे भी होता है और सकामभावसे भी। सकामभावसे जो मेरापन है वह बाँधनेवाला है और निष्कामभावसे जो मेरापन है वह बाँधनेवाला नहीं है। इसकी यह परीक्षा है कि जैसे मैं यह कहूँगा कि अमुक व्यक्ति मेरा है, इनमें मेरा निष्कामभावसे मेरापन रहेगा, तो इनके हितके लिये मेरी पूरी चेष्टा रहेगी। इतनी चेष्टा कि जिनका भाई होनेके नाते इनके साथ मेरापनका भाव है उतनी उनके भाईकी नहीं होगी। अत: इनके आत्माका कैसे कल्याण हो, इसका जितना भाव इनके भाईका इनके कल्याणमें रहेगा, उससे मेरा अधिक रहेगा; क्योंकि मेरा निष्कामभाव है और इनका सकामभाव है। वह मेरा भाव दामी भी होगा और उसकी मात्रा भी अधिक जोरदार होगी। क्योंकि इनका सम्बन्ध तो स्वार्थ ले करके है, इसलिये जब इनका स्वार्थ उनसे सिद्ध नहीं होगा या इनके विपरीत जब भाई खड़ा हो जायगा तो भाईपनेका नाता कायम रहते हुए भी इनके अनिष्टकी चेष्टा भी ये कर सकते हैं। यह बात हमने प्रत्यक्ष देखी भी है। एक सज्जन थे। उनका अपने भाईसे प्रेम था, उस समय उनकी वकीलीमें पैसा मिले ऐसी चेष्टा वे करते रहते थे और जब वे उनके विपरीत हो गये तो एक-दूसरेको मारनेतककी चेष्टा करने लगे। भाईका सम्बन्ध तो कायम रहा, भाईका सम्बन्ध तो परे होता नहीं, भाई तो भाई रहते ही हैं, किंतु जब स्वार्थकी सिद्धि न होकर वह उनके विपरीत हो जाता है तो उसका हित करना तो दूर रहा उसके अनिष्टके लिये कमर कस लेता है। किंतु स्वार्थको लेकर अपणता नहीं होती है तो उसके लिये कितना ही विपरीत हो जाय, उसके हितका जो एक आग्रह है, माने हितका जो कर्तव्य है (निष्कामभावमें आग्रह-कर्तव्य कोई शब्द घटते नहीं) किंतु समझानेके लिये कहते हैं, तो वह अपनत्व उसका कायम रहता है। वह उससे अपना फायदा न उठाये तो दूसरी बात है, किंतु उसकी तरफसे वह कायम रहता है। किन्तु उसके जीने मरनेके विषयमें न तो मरनेपर उसको शोक होता है और न जीनेमें हर्ष होता है।

किन्तु जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ यदि जीनेमें स्वार्थ है तो जीनेमें हर्ष होता है, मरनेमें स्वार्थ है तो उसके मरनेमें हर्ष होता है। जीता हुआ बाधक है तो एक प्रकारसे जीनेमें दु:ख होता है तो उसके हर्ष-शोक आ जाते हैं। जिसका निष्कामभाव है, उसे राग-द्वेष और हर्ष-शोक नहीं होते। इसी प्रकार किसी संस्थाके प्रति जब निष्कामभाव होगा तो वह जो अपनापन है कि ‘अमुक संस्था हमारी है’ वह अपनापन भूषण है। यदि उसमें स्वार्थ है और उसमें मेरापन है तो वह दोषी है। इसी प्रकार पदके विषयमें भी बात है कि मैं मालिक हूँ, प्रेसीडेंट हूँ, मैं मन्त्री हूँ। देखो, इसने मेरी बात नहीं मानी तो इसको दण्ड देना चाहिये, इसे निकाल देना चाहिये, क्योंकि इसने मेरी बात नहीं मानी। मेरी बात नहीं मान करके संस्थाके लिये लाभ है या नुकसान, इसका विचार नहीं किया? अगर संस्थाके लिये बहुत लाभ है तो अपनी बात चाहे मत मानो। तो यह जो पदका एक प्रकारसे अहंकार है यह तो डुबानेवाला है। संस्थाकी हानि तो बर्दाश्त नहीं करनी चाहिये। क्यों नहीं करनी चाहिये, इसके हितके लिये; इसका क्या हित है, यदि यह इसी प्रकारसे काम करेगा तो इसकी उन्नति नहीं होगी। आखिरमें इसको जवाब देना पड़ेगा। और आगे जा करके भी यदि इसकी यही दशा होगी तो इसका परमहित इसको डाँटने-धमकानेमें है तो आप उसे डाँट सकते हैं, धमका सकते हैं। इसके हितके लिये यदि आप उसपर क्रोध भी करें तो आप निर्दोषी हैं और लोग चाहे आपको क्रोधी कहें, कोई हर्जकी बात नहीं। आपकी नीयत क्या है? आपकी नीयत है उसे अच्छा बनाना, उसका हित करना, उसे मनुष्य बनाना। यह आपकी नीयत है तो आप उसको चाहे दो थप्पड़ भी लगा दें, कोई हर्जकी बात नहीं। माता-पिता लगाते हैं कि नहीं, गुरु लगाता है कि नहीं। किंतु उसमें हित रहता है। पदका जो अभिमान है वह गिरानेवाला है। अत: अभिमान अच्छा नहीं है।

पदाधिकारी बनना कोई पाप नहीं। मन्त्री बनो, प्रेसीडेंट बनो, मैनेजर बनो, उसमें कोई दोषकी बात नहीं; किंतु उसका अभिमान नहीं आना चाहिये। अभिमान किसी बातका नहीं आना चाहिये। अभिमानसे मनुष्यका पतन हो जाता है और उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक उत्पन्न हो जाते हैं। जितने पदाधिकारी डूबते हैं, वे अभिमानके कारण डूबते हैं, पदके कारण नहीं। पद चाहे कोई आपको मिले। भगवान‍्को कितना बड़ा पद मिला हुआ है, किंतु भगवान् डूबते थोड़े ही हैं। महात्मा पुरुषका कितना ऊँचा पद है, वह पद उनको डुबानेवाला नहीं है। पदका अभिमान डुबानेवाला है। महात्मा अभिमान करे कि मैं महात्मा हूँ तो वह डूब जाता है। यद्यपि महात्मा तो ऐसा करता ही नहीं और जो करता है वह महात्मा ही नहीं। पदका अभिमान जो है वह हर प्रकारसे डुबानेवाला है, जैसे कि एक सज्जन हैं, वे संस्थासे बहुत ही कम लेते हैं जो नहीं लेनेके समान ही है, उन्हें कोई अपने पदका अभिमान भी नहीं है और परिश्रम भी करते हैं तथा संस्थाका हित भी चाहते हैं, उनकी नीयत भी बहुत अच्छी है, फिर परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब क्यों होता है? इसका जवाब है कि वे सोचकर खुद देखें। वे खुद इस बातको सोचें कि उनमें मान-बड़ाईका दोष है कि नहीं; क्योंकि शरीरके आरामका और रुपयेके स्वार्थका दोष तो देखनेमें नहीं आता है, हमलोगोंके देखनेमें बिलकुल ही नहीं आता है, फिर भी उनमें छिपा हुआ हो तो उसका हमको ज्ञान नहीं है और मान-बड़ाईका दोष जो है उसके विषयमें कह नहीं सकते। यह तो समझमें आता है कि वे मान-बड़ाईके लिये नहीं करते, पर मान-बड़ाईके लिये करें तो बड़ा दोष है। मनुष्य मान-बड़ाईके लिये नहीं करके जो स्वत: प्राप्त हो जाय उसमें निर्विकार रहे, यह बड़ी बात है। इस दोषके लिये हम नहीं कह सकते कि यह दोष उनमें घटता है या नहीं। विचार करनेपर हमको यह दोष भी नहीं दीखता कि उनकी जो शक्ति है उसको कम काममें लाते हों। हाँ, ऐसी अवस्थामें कम लाते ही हैं, जैसे कहीं शासन करनेका काम पड़े तो उसमें उनको कठिनता पड़ती है। शक्ति रहते हुए भी उसको काममें नहीं लाते तो उसे हम दोष नहीं मानते। समयकी चोरी करते हों ऐसी भी बात नहीं है।

किन्हींमें मान-बड़ाईकी बातका सूक्ष्म दोष आ सकता है, हमारी धारणामें जैसे पदका दोष है, यह कहीं आ सकता है, मालिकीका दोष कहीं आ सकता है। इस मालिकीपनेको तो छोड़े नहीं और अभिमानका दोष जितना है उसको निकाले। उस पदका तो त्याग नहीं करे, किंतु पदका जो अभिमान है, उसका त्याग करे और उसकी परीक्षा तो वह खुद ही कर सकता है कि यह दोष हमारेमें आता है कि नहीं।

मान-बड़ाई प्राप्त होनेपर खुश हो जाय, यह दोष आ सकता है। इस दोषके दूर होनेका उपाय यह है कि जैसे कोई अपनेको गाली भी दे और वह बुरी मालूम पड़े, जैसे अपना कोई अपमान करे वह बुरा मालूम दे, उससे भी ज्यादा बुरी बात है जो मान-बड़ाई और प्रतिष्ठामें प्रसन्न हो। इसी प्रकार दो-एक सज्जन और हैं, तो उनका जो रुपये लेकर काम करना है वह तो बिलकुल दोष नहीं है और रुपये ले करके जो सेवाका भाव है, उसमें कमी मालूम देती है। शक्तिका जो प्रयोग है उसमें कमी मालूम देती है। यदि आप मनमें निश्चय करें तो आप शक्तिका ज्यादा प्रयोग कर सकते हैं, समयका ज्यादा प्रयोग कर सकते हैं। वे चाहे जितनी शक्तिका प्रयोग करें, समयका प्रयोग करें किंतु उनकी जो शक्ति, उनकी जो सामर्थ्य, उनकी जो योग्यता, उनका जो समय है, वह यहाँपर अधिक लगे यह हमारे लोगोंकी नीयत है। उनसे ही नहीं, हर एक आदमीसे चाहते हैं तो उनसे भी हम वंचित क्यों रहें। ये तो हम चाहें ही कि उनकी जो शक्ति है, समय है वे उसे और अधिक लगावें। जिनके विषयमें हमने समय और शक्तिके विषयमें दोष कायम नहीं किया, उनको अपने उदाहरणमें रखें।

एक सज्जनके मनके प्रतिकूल होनेसे जो क्रोध आ जावे, उत्तेजना आ जावे, यह बड़ा भारी दोष है और मनकी अनुकूलतामें जो प्रसन्नता होती है यह भी दोष है, हर्ष और शोक, राग और द्वेष—ये दोष हमारेको प्रतीत होते हैं। इसी प्रकारसे जैसे एक सज्जनके लिये कोई पद नहीं है, बिना पदके ही वे अपना पद मानकर अभिमान लावें तो वह और ज्यादा दोष है। कोई अधिकार नहीं है, न कोई मैनेजर हैं, न कोषाध्यक्ष, न मन्त्री, न सभापति, पर उन्हें यह समझना चाहिये कि मैं किसीको भी खुश क्यों नहीं रख सकता, मेरी एक प्रकारसे कहीं पूछ क्यों नहीं है। नाम नहीं लेना चाहिये, पर प्रकरण आता है तो बतला देता हूँ। जैसे एक महाशयजी थे, अब वे चले गये, उनका स्वभाव उनके साथ ही रहा। उनसे न उनके भाईलोग खुश रहते थे, न कोई सत्संगवाला खुश रहता था, न हमलोग खुश रहते थे, फिर भी उनको निभाया। वह दोष उनका वे ही दूर करते तो होता; नहीं किया, बेचारे मर गये, उनकी चर्चा करना बेकार है। हर एक आदमीको लेकर उसको विचार करना चाहिये कि आप स्वर्गाश्रममें रहे तो स्वर्गाश्रममें तो अधिकारी हैं, इनके ऊपर भी कोई मालिक हैं। उनको भी खुश नहीं रख सके, यहाँतक कि जिनके नीचे हो करके रहे, उनको यह सोचना चाहिये कि सभी बुरे नहीं होते, अपनेमें कोई ऐसा दोष है जो कि हम सबको खुश नहीं रख सके, यह दोष क्या है? दोष है अभिमानका। मनुष्यमें योग्यता न हो और योग्यताका अभिमान कर लेवे, वह सबसे ज्यादा खराब है और एक जिद्द, जो उचित जिद्द है वह भी खराब है। मनमाना करना और स्वतन्त्रता—यह अनुचित जिद्द तो खराब है ही। स्वतन्त्रता हम देते तो नहीं, पर बलात् स्वतन्त्रता ले करके उसका उपयोग करना तो उसका दोष है, बड़ा भारी दोष है।

परतन्त्र हो करके रहनेसे मनुष्यका जितना सुधार हो सकता है, उतना स्वतन्त्र रहनेसे नहीं हो सकता। अपनी आत्माके कल्याणके लिये परतन्त्रता एक नम्बर श्रेष्ठ उपाय है। स्त्री अपने पतिके परतन्त्र रहकर पातिव्रत-धर्मका पालन करे तो शीघ्र ही उद्धार हो जावे। पूर्णतासे परतन्त्र रहना चाहिये। पुत्र यदि माता-पिताके परतन्त्र होकर रहे तो उसका जल्दी उद्धार हो जावे। शिष्य यदि गुरुके परतन्त्र होकर रहे तो बहुत जल्दी उसका कार्य सिद्ध हो जावे। भगवान‍्का जो भक्त है, ज्ञानी है, महात्मा है, उनमें जिनकी श्रद्धा हो या उनका अनुयायी होकर रहे तो मेरी समझमें एक क्षणमें कल्याण हो जाय। भगवान‍्के शरण हो करके भक्त होवे या उच्च पुरुषोंके शरण होवे तो एक क्षणमें कल्याण हो जाय; जितनी कमी है, वह पात्रतामें है। उसके लिये तो कुछ समय लगेगा। ऐसे ही मालिक जो हैं, उनके सेवक जो हैं, गुमाश्ता होकर रहें, वे सर्वथा मालिकके अनुकूल हो जावें तो बहुत जल्दी उनका उद्धार हो जावे। इसी उद्देश्यसे उनके अनुकूल होवे, रुपयोंके लिये नहीं। उन्नति रुपयोंकी होगी तो वह परमात्माकी प्राप्तिके उद्देश्यसे दूसरी तरफ चला जायगा। इसलिये यह बात नीचे होकर रहनेवालोंके लिये फायदेमन्द है, ऊपर होकर रहे तो वह उसके लिये सिरपर भार है। उसपर बोझा है, थोड़ी कठिनता तो है, पर इस कठिनताके कारण पद त्यागना नहीं है, उन्हें सिद्ध करना है, जहाँपर एक प्रकारसे त्याग सके वहाँपर त्याग देवे, पर सब जगह नहीं। परंतु यों समझना चाहिये कि यह जोखिमका काम है और वहाँ जोखिम नहीं है, वहाँ तो बननेका ही काम है यानी अनुकूल बन जावे। अनुयायी बन जावे और उसका दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। यहाँ कोई सोचनेकी भी जरूरत नहीं। और उसपर अपना भी भार है, अनुयायी अपने जो आधीन हैं, उसका भी उनपर भार है। जो मालिक हो करके रहे तो मालिकीमें जोखिमका काम है कि वहाँ स्वाभाविक ही अभिमान आ जाता है, जैसे मान-बड़ाई कोई करता है, तो वह स्वाभाविक ही प्यारी लगती है। विचार करते-करते भी एक प्रकारसे वह प्यारी लग ही जाती है अमृतके समान। लगनी चाहिये विषके समान और लगती है अमृतके समान। इसी प्रकारसे तो उसमें मालिकीका अभिमान स्वाभाविक आ ही जाता है और अभिमान आ जानेसे पतन हो जाता है। अभिमान पतन करनेवाला है, चाहे वह किसी भी प्रकारका हो—नामका अभिमान हो या रूपका अभिमान हो, जातिका अभिमान हो, गुणका अभिमान हो, प्रभावका अभिमान हो, उम्रका अभिमान हो, पदका अभिमान हो, देशका अभिमान हो, एक प्रकारसे कोई भी अभिमान है वह रसातलमें ले जाता है। मनुष्यको अभिमानसे भागना चाहिये, दूर रहना चाहिये। पदसे दूर रहनेकी जरूरत नहीं है, किंतु अभिमानसे दूर रहना चाहिये, पद उसका अनिष्ट नहीं करता है, बल्कि अभिमान ही अनिष्ट करता है। महात्मापनेका पद तो मुक्तिको देनेवाला है और उसका अभिमान नरकको देनेवाला है। पर भक्तपनेका अभिमान है कि मैं भगवान‍्का भक्त हूँ, यह अभिमान यदि सच्चा भक्त है तो इतना अनिष्ट नहीं करता। किंतु झूठा अभिमान है तो वह एक प्रकारसे पतन कर देता है। भगवान‍्का भक्त तो है नहीं, पर अपनेको भक्त मान बैठता है, अपने भक्तका पद चाहता है कि मैं भक्त हूँ, ऐसा पद चाहता है, मामला गड़बड़ है। एक प्रकारसे भक्तका सच्चा अभिमान है, उतना उसको नुकसान नहीं। भगवान् उसकी रक्षा करते हैं। किंतु और सब जितने अभिमानमात्र हैं वे सब पतन करनेवाले हैं। इतना एक प्रकारसे हम बाद दे देते हैं, छोड़ देते हैं। जितने अभिमानमात्र हैं, वे पतनकी ओर ले जाते हैं। कोई पद पतन करनेवाला नहीं है, पद चाहे ईश्वरका भी मिल जावे एक प्रकारसे पतन करनेवाला नहीं है। यह जो अभिमान है कि मैं ईश्वर हूँ, यह पतन करानेवाला है। ‘ईश्वरोऽहमहं भोगी’ ‘मैं ईश्वर हूँ, भोगी हूँ’, ये पतन करनेवाले हैं। वास्तवमें ईश्वरका जो पद है, वह कोई बुरा नहीं है वह तो ईश्वरका पद ईश्वरके लिये है ही, वह तो संसारका कल्याण करनेवाला है। भगवान् सबका कल्याण करते ही हैं। महात्मालोग सबका कल्याण करते ही हैं।

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