शीघ्र भगवत्प्राप्ति कैसे हो?
एक भाईने मुझसे पूछा कि भगवान्की प्राप्ति एक क्षणमें कैसे हो? इसका यदि कोई उपाय हो तो बतलाइये। मैंने कहा—आपलोगोंको अपने पूरे जीवनमें यदि भगवान्की प्राप्ति हो जाय तो उससे मैं अपनेको धन्य समझता हूँ और जिनको भगवान् मिल जायँ वह तो धन्य है ही। क्योंकि जिसे भगवान्की प्राप्ति हो जाय तो यह समझना चाहिये कि उसे ईश्वरकी कृपासे सब कुछ मिल गया। भगवान्की प्राप्ति तो उसे होती है जो पात्र होता है। परंतु हमलोग उस प्रकारके पात्र हैं नहीं। परमात्माकी प्राप्ति करनी बड़ी अच्छी बात है। अच्छे विषयको जाननेमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।
‘परमात्मा है’ यदि यह विश्वास दृढ़ हो जाय तो परमात्मा उससे छिप नहीं सकते। किसी भी वस्तुका ज्ञान एक क्षणमें हो जाता है और जब ज्ञान हो जाता है, तब अज्ञानका नाश हो ही जाता है। भगवान्की अप्राप्तिमें अज्ञान ही कारण है, इसीलिये इतना विलम्ब हो रहा है। इस विषयमें एक कथा आती है—राजा जनक बहुत-से हुए हैं, उनमेंसे एक जनककी कथा इस प्रकार है। वह साधु ब्राह्मणोंको बुलाया करते, उनकी सेवा तथा सत्कार करते, उन्हें भोजन कराते और कहते कि ‘आप यदि ज्ञानी-महात्मा हैं तो मुझे उपदेश कीजिये, परंतु ऐसा उपदेश दीजिये कि जिससे जितनी देरमें घोड़ेके एक पाँवड़ेमें मैं अपना पाँव रखूँ और दूसरे पाँवड़ेपर पाँव रखनेतक मुझे ज्ञान हो जाय।’ उन्हें ज्ञान देनेके लिये बहुत-से बड़े-बड़े ज्ञानी-महात्मा आते, परंतु ज्ञान नहीं दे पाते, फलस्वरूप राजा उन्हें बंदी बना लिया करते। ऐसे सैकड़ों बंदी बना लिये गये।
एक मुनि थे कहोड, वे भी राजाको ज्ञान देने गये और ज्ञान न दे सके तो उन्हें भी बंदी बनना पड़ा। कहोडका एक पुत्र था अष्टावक्र। उसका अष्टावक्र नाम पड़नेकी कथामें यह बताया गया है कि जब वह माताके गर्भमें था, तभी उसको चारों वेदोंका शुद्ध ज्ञान था। एक दिन उसके पिता कहोड मुनि वेदका पाठ कर रहे थे। पाठमें अशुद्धियाँ आ रही थीं। माताके गर्भस्थ शिशुने माताके मुखसे बार-बार कहा कि आपका यह पाठ अशुद्ध है, यह पाठ अशुद्ध है। कहोडको क्रोध आ गया, बोले कि अरे, गर्भमें पड़ा हुआ ही यह मुझको उपदेश दे रहा है, निकलेगा तो न मालूम हमारी क्या फजीहत करेगा; क्रोधाविष्ट थे ही, उन्होंने गर्भके ऊपर लात मारी। कच्चा गर्भ था, उसके हाथ-पैर आदि सब टेढ़े हो गये—हाथ टेढ़े, पैर टेढ़े, मुँह टेढ़ा, सब टेढ़े। एक प्रकारसे वह निराले ढंगका ही जनमा। उसके अंग आठ जगहसे टेढ़े थे। इस कारण उसका नाम अष्टावक्र हुआ।
अष्टावक्रके पिता कहोड जिस समय राजा जनकको ज्ञान न दे सकनेके कारण जनकके यहाँ बंदी बने थे, उस समयमें अष्टावक्रकी अवस्थाका ही उद्दालक मुनिका पुत्र उसका मामा था, जिसका नाम था श्वेतकेतु। मामा-भांजा दोनों साथ-साथ खेलते। जैसे श्वेतकेतु अपनी माताको माता और पिताको पिता कहा करता, उसी प्रकार अष्टावक्र भी अपने नानाको पिता और नानीको माता कहा करते, कारण कि मामा जैसा कहता, वह भी वैसा ही कहता। बच्चोंमें इस प्रकारसे देखा-देखीकी आदत पड़ ही जाती है। वे दोनों आपसमें नित्य खेला करते। अपने राजपूतानेमें एक खेल है, गेंदसे राज्य गिरानेका। वे दोनों ऐसा ही खेल खेल रहे थे। अष्टावक्रने गेंद मारा और गेंद लक्ष्यपर गिर गया, विजयी हो गया, उसने कहा मेरी जीत हो गयी। उसके मामाको क्रोध आ गया, बोला कि तू तो यहाँ विजयके आनन्दमें मग्न है, पर तेरा बाप बंदी बनकर जेलमें है। यह बात उसके लग गयी और माँके पास आकर कहा कि ‘माँ! मेरे पिता कौन हैं?’ वह बोली—‘ये हैं ना’। उसने कहा—‘ना ये तो तेरे पिता हैं, मेरे पिता कहाँ हैं?’ माँ रोने लगी और बोली—‘बेटा! तू तो ऐसी घड़ीमें पैदा हुआ कि तेरे जननेके बाद ही तेरे पिता राजा जनकके यहाँ कैदमें पड़ गये।’ यह सुनकर उसने कहा—‘माँ! मैं उस जनकके पास जाऊँगा और उसको परास्त करूँगा।’ माँने बहुत मना किया, परंतु उस बालकको धुन चढ़ गयी। जोश आ गया और साथमें जो उसका मामा श्वेतकेतु था, वह भी उसके साथ गया। जब वे दोनों राजा जनकके यहाँ दरबारमें प्रवेश करने लगे तो ड्योढ़ीदारने रोका और कहा कि तुम सब कहाँ जाते हो? वे बोले कि हम राज्यसभामें जाते हैं। ड्योढ़ीदारोंने बतलाया कि यहाँ विद्वानोंकी—पण्डितोंकी सभा है, बालकोंकी नहीं। वे बोले—क्या अवस्थामें जो बालक है वह वहाँ नहीं जा सकता या ज्ञान और बुद्धिमें जो बालक है वह वहाँ नहीं जा सकता? यदि अवस्थामें बालक वहाँ नहीं जा सकता तो हम नहीं जा सकते और यदि मूर्ख बालक नहीं जा सकता तो हम सब जा सकते हैं, हमारा अधिकार है। तुम हमसे शास्त्रार्थ करो, यदि मैं शास्त्रार्थमें तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दे दूँ तो हमें जाने देना। उन्होंने देखा कि ये वास्तवमें अवस्थामें बालक तो हैं, पर वैसे ये पण्डितोंके भी दाँत खट्टे करनेवाले हैं। ड्योढ़ीदारने उनको छोड़ दिया और सभामें जाकर दोनों खड़े हो गये। अष्टावक्रको देखकर लोग हँसने लगे। लोगोंको हँसते देख अष्टावक्र भी हँसने लगा। राजाने पूछा—‘तुम क्यों हँस रहे हो।’ अष्टावक्रने कहा कि ‘तुम सब क्यों हँसते हो?’ सभासद् बोले कि ‘हम तुम्हारा शरीर देखकर हँस रहे हैं।’ वह बोला—‘मैं इसलिये हँस रहा हूँ कि मैंने समझा था कि यहाँ पण्डितोंकी सभा है, परंतु यहाँ तो सब चमार-ही-चमार बैठे हैं। यदि यह बात मुझको पहले मालूम होती कि यहाँ चमारोंकी सभा है तो मैं नहीं आता। मैं तो पण्डितोंकी सभा समझकर यहाँ आ गया। पण्डित जो होते हैं, वे गुण और विद्या देखते हैं तथा जो चमार होते हैं वे हड्डी या चमड़ेकी परीक्षा करते हैं। यहाँके पण्डित हड्डी और चामसे बने मेरे शरीरको देखकर हँस रहे हैं, यह देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है।’ यह सुनकर सब चुप हो गये। अष्टावक्रने फिर कहा कि ‘मैंने सुना है कि आपके यहाँ ऐसी पद्धति है कि यदि कोई पण्डित यहाँ आकर ज्ञानका उपदेश करे और अपने ज्ञानसे संतुष्ट कर दे तो आप उसको संतुष्ट करते हैं और जो संतुष्ट नहीं कर सकता, उसको आप बंदी बना लेते हैं। उपदेश इतनी जल्दी करना पड़ता है कि घोड़ेके एक पाँवड़ेमें एक पाँव रखते ही दूसरा पाँव ज्यों ही दूसरेमें रखे इतने समयमें ही जो अपने ज्ञानसे संतुष्ट कर दे वही ज्ञानी माना जाता है।’ राजा जनकने कहा—‘हाँ, यह बात सही है, यही नियम है।’ वे बोले कि ‘मैं तुझे ज्ञान देने आया हूँ।’ राजाने कहा—‘बहुत ठीक है। परंतु आप यह बात समझ लीजिये कि घोड़ेके एक पाँवड़ेमें एक पाँव रखते ही तत्काल दूसरेमें रखनेतकके अंदरमें ही ज्ञान देना पड़ता है।’ अष्टावक्र बोले—‘इतनी देरमें तो मैं तीन बार ज्ञान दे सकता हूँ।’ राजा बोले—‘बहुत ठीक है।’ घोड़ा मँगाया गया। अष्टावक्र सामने खड़े हुए, राजा घोड़ेके एक पाँवड़ेमें एक पाँव रखकर दूसरा ज्यों ही दूसरेपर रखना चाहते थे, त्यों ही अष्टावक्रने कहा—‘मन मुट्ठीमें पकड़ो।’ राजा बोले—‘अरे भई! मन मुट्ठीमें कैसे पकड़ा जायगा। मन ऐसी वस्तु नहीं है कि उसको मुट्ठीमें पकड़ ले। आप मन मुट्ठीमें पकड़नेका तात्पर्य बतलाइये।’ अष्टावक्र बोले—‘तात्पर्य यह है कि जबतक मैं दूसरी आज्ञा न दूँ, तबतक तुम्हारा मन तुम्हारी मुट्ठीमें ही रहे। अपनी मुट्ठीमें तुम ऐसा ध्यान लगाओ कि मन एकदम मुट्ठीमें ही रहे, इधर-उधर न जाय।’ राजाने कहा—‘यह होना तो कठिन है।’ अष्टावक्र बोले—‘इतने समयमें ज्ञान होना भी कठिन है। फिर बोले कि उपदेश पात्रको दिया जाता है, यदि तुम उपदेश प्राप्त करनेके पात्र हो तो इतने लम्बे समयकी क्या आवश्यकता है, अत: तुम पात्र तो हो नहीं और बंदी बनाते हो ब्राह्मणोंको, ऋषियोंको। तुम्हारे यहाँ तो अभी तैयारी ही नहीं है, कहते हो कि मुझे ज्ञान दो। कोई हाथमें चलनी लेकर आवे और कहे कि इसमें दूध डाल दो, चलनीमें तो दूध ठहरेगा ही नहीं, वह निकल जायगा। दूध ठहरनेके लिये तो पात्र होना चाहिये, दूध तो पात्रमें ठहरता है। तुम पात्र तो हो नहीं, उलटे दोष देते हो ब्राह्मणोंको। यह तुम्हारा अन्याय है।’ राजाने कहा—‘तो क्या करना चाहिये?’ अष्टावक्रने कहा—‘पहले तुम पात्र बनो, फिर पात्र बननेके बाद प्रश्न करो। तब यदि हम तुम्हें इतने समयमें ज्ञान नहीं दे सकेंगे तो तुम मुझे बंदी बना लेना।’ राजाने सोचा, बात तो ठीक है। बोले—‘महाराज! आप ही मुझे पात्र बनाइये।’ अष्टावक्र बोले—‘पात्र बननेमें तो समय लगेगा, पात्र बननेके बाद देरीका काम नहीं है।’ राजाने कहा—‘महाराज! आपकी क्या आज्ञा है।’ वे बोले—‘प्रथम तो तुमने जिन निरपराधी ब्राह्मणोंको कैद कर रखा है, उनको छोड़ दो। फिर पात्र बननेका प्रयत्न करो। तब तुम्हें ज्ञान बतलायेंगे। एक क्षणका काम है, मिनटका काम है।’ राजाने वैसा ही किया जैसा अष्टावक्रजीने कहा। अष्टावक्रने राजा जनकको जिस ज्ञानका उपदेश दिया, उसका नाम है—‘अष्टावक्र-गीता’। इसमें यह बतलाया गया है कि यदि हम भगवत्प्राप्तिके पात्र बन जायँ तो परमात्माकी प्राप्तिमें कोई विलम्ब नहीं है। जैसे बिजली ठीक हो जाय फिर तो स्विच दबानेके साथ ही बल्ब जल जायगा, एक मिनटका भी विलम्ब नहीं होगा। जो विलम्ब है वह बिजलीके ठीक होनेमें ही है, अपनी तैयारी करो। तैयारी होनेके बादमें ज्ञान तो एक क्षणमात्रमें हो सकता है। उसमें विलम्ब नहीं हो सकता। यह बात तो मैंने आपलोगोंको समझानेके लिये एक कथाके रूपमें कही।
बात यह थी कि एक क्षणमें भगवान् कैसे मिलें। मैं कहता हूँ कि यदि हमलोग पात्र हो सकेंगे तो भगवान् मिल जायँगे। पात्र बननेकी चेष्टा करनी चाहिये। भगवत्प्राप्तिके पात्र बननेका उपाय है ‘परमात्माको सब जगह देखना।’ अगर हमारी सब जगह भगवद्बुद्धि हो जाय तो परमात्माकी प्राप्ति तुरंत हो सकती है। भगवान् कहते हैं—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
बहुत जन्मोंके अन्तमें जो भी कुछ वासुदेव या परमात्माका स्वरूप है, इस प्रकारका अनुभव करनेवाला महात्मा है और वह बहुत दुर्लभ है।
इससे पहले यह समझना चाहिये कि संसारमें जो कुछ भी है वह सब भगवान्का है, तभी भगवत्प्राप्ति होगी। इस सिद्धान्तके अनुसार सर्वत्र भगवद्बुद्धि रखनेवालेकी कुत्तेमें भी भगवद्बुद्धि हो जाती है। यद्यपि कुत्तेमें भगवद्बुद्धि होनी कठिन है, क्योंकि वह एक तो स्वयं अपवित्र है और अपवित्र वस्तुका भक्षण करता है तथा उसमें अपवित्र वस्तु ही भरी हुई है, तथापि वह परमात्मा है, उसके लिये भी हमारी भगवद्बुद्धि होनी चाहिये, किंतु जो साक्षात् परमात्मा है और जो भगवत्प्राप्त पुरुष है तथा जो जिज्ञासु है—परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधनहेतु तत्पर है—उनमें भी आप उनके छिद्र देखते रहते हैं, उनमें दोषबुद्धि रखते हैं, तो आपका इतनी जल्दी कल्याण कैसे होगा? भगवान् तो कहते हैं कि सबमें भगवद्बुद्धि करो, पर आप ऐसा न भगवान् में करते हैं और न महात्माओंमें तथा न जिज्ञासुओंमें। भगवद्बुद्धि तो सबमें करनी चाहिये। यदि ऐसा न हो सके तो इनमें तो अवश्य करनी ही चाहिये—जो साक्षात् भगवान् हैं उनमें और महात्मा पुरुषमें तथा उच्च कोटिके साधक जो हैं, उनमें। उन लोगोंमें भी आपलोगोंकी जो बुद्धि है वह उच्चकोटिकी नहीं है। भगवद्बुद्धि नहीं है। उनके गुणोंकी ओर भी आप खयाल नहीं करते। दिनभर उनके अवगुणोंकी ही चर्चा करते रहते हैं। भला बतलाओ तो भगवान्की प्राप्ति कैसे होगी। यह बड़ी मुश्किलकी बात है।
हाँ, तो मैंने जिस साधकसे यह बात कही कि अमुक मनुष्य कहता है कि हमको भगवान्की प्राप्ति नहीं हुई और हमलोग भी ऐसा मानते हैं कि नहीं हुई। इनमें कुछ अवगुण हैं। इनको कभी-कभी झुँझलाहट आ जाती है, जिससे इनमें क्रोधका, लोभका कुछ दोष घट जाता है तो हम टीका-टिप्पणी करते हैं। मान लो, जैसे मैं कहूँ कि आये हुए आदमीकी खातिर करनेवाले ये जो सज्जन हैं उनमें हम दोष-बुद्धि करते हैं, ऐसी स्थितिमें यदि किसी भी भाईमें अवगुण हैं तो हमें उसके अवगुणोंकी तरफ नहीं देखना चाहिये, उसके गुणोंकी तरफ देखना चाहिये। जब ऐसा हो सकेगा तभी हम लाभ उठा सकेंगे। हम यदि अवगुण ही देखते रह जायँगे तो हमारे हृदयमें अवगुण-ही-अवगुण इकट्ठे हो जायँगे। हमारे घरमें मैला इकट्ठा हो जायगा। हमारे घर पहलेसे ही बहुत मैला इकट्ठा हो रहा है और गाँवका मैला और इकट्ठा कर लेंगे तो उद्धार होना तो दूर रहा, पतनकी तरफ ही जायँगे। एक व्यक्तिने मुझसे शिकायत की कि ये जो कमरा देते हैं इनसे अमुकको दिक्कत है। बात उनकी एकदम सही है, कोई फर्क नहीं। मैंने कहा—बात ऐसी है कि यदि यह काम तेरे जिम्मे लगा दिया जाय तो मुझे निश्चय है कि इनसे अधिक दोष तुममें आयेंगे और यदि विश्वास न हो तो आजसे यह काम अपने जिम्मे ले लो। उनसे बढ़िया करके दिखलाओ। दोष निकालना तो आसान बात है, क्योंकि क्रियामें दोष तो हम श्रीराम और श्रीकृष्णमें भी कर सकते हैं। वास्तवमें वे लोग मेरी सम्मतिके अनुकूल लोगोंको जगह देते हैं, व्यवहार कहीं बिगड़ जाता है तो वे भी नहीं चाहते और मैं भी नहीं चाहता हूँ और भगवान् तो चाहेगा ही क्यों? पर कहीं-कहीं ऐसी बात घट जाती है। आनेवाला सोचता है कि सेठजी तो भले आदमी हैं, परंतु यह ही चोर है। ऐसी स्थितिमें कठिनता आ जाती है और दूसरा कोई उसके स्थानमें हो तो उसके लिये भी कठिनाई होगी। मेरे मनमें तो यह भाव रहता है कि भगवान् जैसे राजी रहें, वैसे मैं सबको राजी रखूँ और उनका यह भाव रहता है कि जिससे मैं राजी रहूँ वैसा करूँ। तो उनमें जो दोष लगाये उसे मैं समझूँ कि मेरे ऊपर ही लग गया। वह चाहे मेरे ऊपर दोष लगाये और चाहे भगवान् पर लगाये। मेरा तो यह कहना है कि दोष-बुद्धि किसीमें भी नहीं करनी चाहिये और गुण-बुद्धि करनी चाहिये। यदि किसीको समझाना हो तो उसके गुणकी अधिक प्रशंसा करें और अवगुण कम बतायें। पहले उसके गुण बतलायें कि आप कैसी सेवा कर रहे हैं, सत्संग छोड़कर आप काम करते हैं। आप दिनभर खट रहे हैं। जितने भी आपको गुण दीखें सब कह डालो। फिर तो वह स्वयं ही पूछेगा कि भइया क्या कह रहे हो हमारेमें कोई त्रुटि हो तो उसे बतलाओ। तब कहे—त्रुटिको मैं क्या समझूँ, पर आप पूछ रहे हैं तो मैं बताता हूँ। आपने जो अमुक काम किया, इसमें मुझे यह गलती मालूम हुई। यदि ऐसा न करके इसे इस प्रकार करते तो और भी सुगम होता। वे भी इस बातको स्वीकार करते कि ठीक है, यह बात उस समय मेरे हृदयमें नहीं आयी, आगेसे ऐसे ही करूँगा और वह शिक्षा भी उसके लगेगी, सोचेगा कि यह मेरा अपना है। बात यह है कि यदि किसीको शिक्षा देनी हो तो पहले उसके गुण कहने चाहिये, फिर यदि वह पूछे तो उसकी कमियाँ-त्रुटियाँ जो उसमें दीखें, नम्रतापूर्वक प्रेमसे कहनी चाहिये। ऐसा करनेसे उसपर असर भी होगा और उसका सुधार भी होगा।
भगवान् की प्राप्तिके लिये भगवान्के स्वरूप आदिके श्रवण-मननमें अपना चित्त, अपनी बुद्धि और इन्द्रियाँ लगा देनी चाहिये, साथ ही उत्तम कर्म भी करते रहना चाहिये, तीर्थोंमें आकर उत्तम आचरण करना चाहिये। जैसे—दान, तप, यज्ञ, दीन-दुखियोंकी सेवा आदि। देवताओंका मन्दिरोंमें दर्शन करना चाहिये, उपवास तथा व्रत करना चाहिये। यम-नियमोंका पालन करना चाहिये। ये सभी उत्तम-उत्तम कार्य हैं।
यम पाँच प्रकारके होते हैं—१. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य और ५. परिग्रहका त्याग। अहिंसाका मतलब यह है कि किंचिन्मात्र भी कभी भी किसीको किसी निमित्तसे कष्ट नहीं पहुँचाना। किसीकी भी आत्माको कभी कष्ट नहीं पहुँचाना। मनसे, वाणीसे, शरीरसे किसी भी प्रकारसे कभी किसी भी जीवको किंचिन्मात्र भी कष्ट नहीं देना चाहिये। इसीका नाम अहिंसा है। इसी प्रकार सत्य वचन बोलनेका तात्पर्य है। जो बात जितनी सुनी, जितनी देखी या जितनी समझी हो उतनी-की-उतनी ही कह देना एवं वैसी-की-वैसी करना, न कम करना, न अधिक। यह खयाल रखना चाहिये कि हमारे सत्यपालनमें किसीकी हिंसा न हो जाय। सत्य वचन बोलते हुए उसके हितकी बात और प्रिय बात कहनी चाहिये। कम बोलना चाहिये। अस्तेयका अर्थ है किसी प्रकारकी चोरी न करना। दूसरेका द्रव्य न तो ठगना चाहिये, न नजर छिपाकर लेना चाहिये, न डाका डालना चाहिये और न जबरदस्ती करनी चाहिये। किसी भी प्रकारसे किसीका धन नहीं लेना चाहिये। साधु और ब्राह्मणको आवश्यक चीज—अन्न, वस्त्र, पुस्तक यदि कोई दे तो वे ले सकते हैं, वह चोरी नहीं है। चोरी तो वह है जो किसीकी नजर बचाकर ले ले, किसीपर दबाव डालकर ले ले, फुसलाकर ले ले, किसी दूसरेके हकका हरण कर ले। ऐसा कभी भी नहीं करना चाहिये, तीर्थोंमें तो करना ही नहीं चाहिये। सब प्रकारसे ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये। किसी भी प्रकारसे अपने वीर्यका नुकसान नहीं करना चाहिये। पुरुषोंको स्त्रियोंसे, स्त्रियोंको पुरुषोंसे परहेज करना चाहिये। पुरुषोंको स्त्रियोंका न तो दर्शन करना चाहिये, न स्पर्श। न अश्लील बात करनी चाहिये, न एकान्त-वास और न रमण। किसी भी प्रकारसे सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। यदि बहुत जरूरी बात हो, भगवद्विषयकी बात हो तो माता तथा बहन समझकर बात की जा सकती है। परिग्रहका त्याग करना चाहिये। ‘भविष्यके लिये किसी प्रकारके स्वादका, शौकीनीका, ऐशो-आरामका, भोग-विलासका संग्रह करना ठीक नहीं है।’—ऐसा विचार करके उसका त्याग कर देना चाहिये। केवल अपने शरीरके निर्वाहार्थ भगवान् कहते हैं—
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
(गीता ४। २१)
‘जीत लिया है अन्त:करण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है सम्पूर्ण भोगोंकी सामग्री जिसने, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्मको करता हुआ पापको नहीं प्राप्त होता है।’
केवल शरीर-निर्वाहार्थ सत्कर्म करते हुए पुरुषको कभी पाप प्राप्त नहीं होता। शरीर-सुखके लिये भोग-दृष्टिका त्याग करना चाहिये। ऐश-आरामकी दृष्टिसे संसारके पदार्थोंका संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। परिग्रहका त्याग करना संग्रहका त्याग करना है। इन पाँच प्रकारके यमका अच्छी तरह पालन करना चाहिये।
नियम पाँच हैं, उन नियमोंको तीर्थोंमें आकर धारण करना चाहिये। पहला है शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता)। बाहरी पवित्रता गंगाजल, मिट्टी एवं शौचाचार—सदाचारसे हो जाती है। सदाचारका मतलब यह है कि सभीके साथ उत्तम व्यवहार हो। सदाचार और पवित्र भोजन करना यह बाहरकी पवित्रता है; आहार, व्यवहार और स्नान आदिके द्वारा अपनेको शुद्ध रखना चाहिये। भीतरकी पवित्रता है—काम, क्रोध, लोभ, राग-द्वेष आदि जो बहुत-से दोष-पाप भीतरमें इकट्ठे हो रहे हैं, उन सबका नाश करना। इसका नाम है शौच। दूसरा है संतोष। इच्छासे या परेच्छा अथवा ईश्वरेच्छासे जो कुछ प्राप्त हो जाय बस, उसीमें आनन्द माननेको संतोष कहते हैं। ‘यदृच्छालाभसंतुष्टो०’ (गीता ४। २२)। लड़का पैदा हुआ तो आनन्द, लड़का मर गया तो आनन्द। लाख रुपये चले गये तो आनन्द, लाख रुपये आ गये तो आनन्द, शरीरमें बीमारी आ गयी तो आनन्द, बीमारी चली गयी तो आनन्द। तात्पर्य यह कि हरि-इच्छासे जो कुछ भी आ करके मिल जाय बस उसीमें आनन्द मानना। इसका नाम है संतोष। तीसरा है तप। इसका मतलब है इन्द्रियोंको वशमें रखना, मन तथा बुद्धिको संयत करना। एकादशी तथा पूर्णिमाका व्रत करना। समय-समयसे उपवास करना भी तपके अन्तर्गत ही माना जाता है। भारी-से-भारी आपत्ति आनेपर भी अपने धर्मका त्याग न करना तप है। धर्मके पालनरूप तपद्वारा मन, इन्द्रियों, वाणी तथा शरीरको शुद्ध बनाना होता है। जैसे सोनेको आगमें तपाया जाता है तो वह सोना शुद्ध हो जाता है, उसका खोट झर जाता है, सोना सोना ही रह जाता है। उसी प्रकार हमारा मन, हमारी इन्द्रियाँ और बुद्धि—ये सब दूषित हो रही हैं। इसलिये धर्म-पालन-तपके द्वारा इन्हें तपाकर सोना-जैसा बनाना है। धर्मके लिये कष्टका सहन करना तप है। गीता, रामायण, महाभारत-जैसे धार्मिक पुस्तकोंका प्रतिदिन घंटा आध घंटा स्वाध्याय करना—अध्ययन करना स्वाध्याय-जप कहा जाता है। ईश्वर-प्रणिधानका भाव है ईश्वरकी भक्ति। ईश्वरको हर समय याद रखना—भगवान् के स्वरूपको, भगवान्के नामको प्रतिक्षण ध्यानमें रखना। भगवान्का ध्यान करते समय भगवान्के गुणोंको और चरित्रोंको याद करना चाहिये। जब एकान्त समय मिले तब भगवान्के नामका गुप्त रूपसे मानसिक जप करे और उसे प्रकाशित न करे। नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे किया जानेवाला जप बहुत दामी है। इन बताये हुए तपकी बातोंको तीर्थोंमें आकर अवश्य करना चाहिये। पितरोंके उद्धारके लिये प्रत्येक तीर्थोंमें जाकर तर्पण एवं पिण्ड-दान करना चाहिये। बदरिकाश्रममें एक ब्रह्मकपाल तीर्थ है। कहा जाता है कि वहाँ पिण्ड-दान करनेसे पितरोंका उद्धार हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थमें जाकर क्षौर-कर्म करवाना, पितरोंको जल देना, पिण्ड देना बहुत ही उत्तम बात है। अपनेसे बन सके तो प्रत्येक तीर्थमें जाकर यज्ञ करो। चाहे पाँच रुपया ही खर्च करो। दान अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये। जैसे कोई भूखा है तो उसको अन्न दिया जाय। यदि एक दम नंगा हो तो उसको वस्त्र दिया जाय, विद्यार्थियोंको गीता, रामायण आदि पुस्तक दिया जाय। बीमार व्यक्तिको दवा दी जाय। तात्पर्य यह कि जो जिसका पात्र हो उसको वह चीज दी जाय। दान सात्त्विक करना चाहिये। भगवान्ने गीतामें कहा है—
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥
(गीता १७। २०)
‘हे अर्जुन! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भावसे जो दान देश, काल और पात्रके प्राप्त होनेपर, प्रत्युपकार न करनेवालेके लिये दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।’
इसलिये ‘देना ही कर्तव्य है’ ऐसा समझकर दान दिया जाय—उसके बदलेमें किसी प्रकारकी कोई कामना नहीं करे। प्रत्युपकारकी कामना तो करे ही नहीं। जिससे अपना कोई प्रयोजन न हो उसे देश, काल, पात्रके अनुसार निष्कामभावसे दे तथा कर्तव्य समझकर दे। उत्तम देश, उत्तम काल और उत्तम पात्रको इस प्रकार समझना चाहिये—यदि तीर्थस्थान है तो वह उत्तम देश है और तीर्थस्थानमें भी यदि ग्रहण है, अमावास्या है, व्यतीपात है तो ये उत्तम काल हैं, जिसको दान दिया जाय वह भी दान ग्रहण करनेका पात्र हो। जो जिस वस्तुका पात्र हो उसे वही दिया जाय। यहाँ एक प्रकारसे मैंने देश, काल, पात्रकी व्याख्या बतलायी है। दूसरे प्रकारकी व्याख्या इस प्रकार है—दान उस देशमें दिया जाय, जहाँ देनेवाला कोई नहीं है और वहाँ आवश्यकता है। जैसे बाढ़ आ गयी, भूकम्प आ गया, आग लग गयी और कोई विपत्ति घट गयी, वहाँ देनेवाला कोई नहीं है तो वह देश पात्र है। काल पात्र वह है जैसे किसी समय किसीको किसी वस्तुका अभाव हो गया, कोई चीज पैदा नहीं हुई और प्रजा भूखसे मर रही है तो वह समय एक प्रकारसे दान देनेका समय है। और पात्र वह है जो दु:खी है, भूखा है, अनाथ है, अभ्यागत है, लँगड़ा है, कोढ़ी है, विधवा स्त्रियाँ हैं, कमानेकी शक्ति नहीं है, रोजगार करनेपर भी खानेभरको नहीं मिलता, उसको दान देना चाहिये; वह दान ग्रहण करनेका पात्र है। यह दूसरे प्रकारकी देश, काल, पात्रकी व्याख्या है।
तीर्थमें आ करके उत्तम-से-उत्तम कार्य करना चाहिये। बड़ोंके चरणोंमें नमस्कार करना चाहिये तथा उनकी सेवा एवं आज्ञाका पालन करना चाहिये। यदि पत्नी पतिको देवता मानकर उसकी पूजा करे, घरभरकी सेवा करे, नमस्कार करे, तो वह केवल पातिव्रतधर्मसे ही अपने पतिके साथ उत्तम गतिको प्राप्त होती है। ऐसे ही जो लड़के हैं वे माता-पिताको नारायणका स्वरूप समझकर उनकी सेवा करें, उनकी आज्ञाका पालन करें और उनके चरणोंमें नमस्कार करें तो सहजमें ही उनका उद्धार हो जाय। इसी प्रकारसे भगवान्की भक्ति की जाय। अपने गुरुकी, महात्माओंकी तन-मन और वाणीसे सेवा करे। यदि यह सेवा निष्कामभावसे करे तो कैसा भी पापी क्यों न हो उसका शीघ्र ही उद्धार हो जायगा।
यहाँतक मैंने एक बात तो कही यज्ञ, दान आदि कर्मोंकी तथा दूसरी बात कही भगवान्की भक्तिकी और तीसरी बात तपस्याकी। तात्पर्य यह कि मन और इन्द्रियोंका जो व्यापार है उसका संयम करना और कर्मोंका त्याग करना अर्थात् इनको अक्रिय बना करके कष्ट सहकर तपस्या करना। इस प्रकार कर्मोंके फलका त्याग तथा शरीरसे खूब कर्म करना कर्मानुष्ठानके ये दो भेद हो गये—निष्कामकर्म और उपासना।
उपासना भक्तिका नाम है। भाव यह कि ईश्वरकी भक्ति करना—ज्ञान और वैराग्यद्वारा भोगोंका त्याग करके परमात्माके स्वरूपका विवेक-बुद्धिसे ज्ञान प्राप्त करना। सभी नियम कल्याण करनेवाले हैं। दानकी अपेक्षा ईश्वरकी भक्ति ज्यादा उत्तम है। मानो एक भाईने दानमें सौ रुपये दिये और इस रुपयेका अन्न मँगा करके साधुओंको दान दे दिया या वस्त्र मँगाकर दे दिया, जूता मँगाकर दे दिया अथवा बदरिकाश्रम जानेवाले भाइयोंको यह सब मँगाकर दे दिया और दूसरे भाईने सौ रुपयेका सामान मँगाया और उसे साधुओंकी कुटियोंमें जा-जा करके, खोज-खोज करके पात्र देख-देख करके दिया तथा शरीरसे मेहनत किया तो सौ रुपयेसे ज्यादा वह महत्तम है और इससे भी ज्यादा लाभ भगवान्की भक्ति करनेवाले या भजन करनेवालेको है। मानो एक आदमीने लाख रुपये दान कर दिये और एक आदमीने एक दिन भगवान्के भजन और ध्यानमें मन लगा दिया, एक दिनकी तो बात ही क्या, अगर एक घंटा भी मन लगाकर भजन-ध्यान कर ले तो उसके मुकाबले न हजार रुपये हैं, न लाख रुपये। कोई भाई आनेवाले भाईके लिये मकान बनवा दे, कमरा बनवा दे, उनके रहनेकी व्यवस्था करवा दे, समझो कि यह जो पुण्य है, धर्म है, लोगोंकी सेवा है, यह भी निष्कामभावसे करनेपर मुक्ति देनेवाली है। किंतु भगवान्के भजन-ध्यानके बराबर नहीं है। आपलोगोंसे कहा जाता है कि आपलोग जब यहाँ सत्संगमें आयें तब पैसा अधिक खर्च न करें, क्योंकि जो पैसा अधिक खर्च करता है वह बार-बार सत्संगमें नहीं आ सकता। कारण कि उसके घरवाले कहते हैं कि तीर्थोंमें गया और कितना पैसा खर्च कर आया—पाँच सौ रुपये खर्च कर आया। दूसरी बार जानेको कहा तो कहा कि भाई! एक बार जानेमें कम-से-कम ५०० रुपयेका खर्च आयेगा। अपना रोजगार भी अच्छा नहीं चलता है, इसलिये घरमें ही बैठकर क्यों न भजन कर लो, तीर्थोंमें जाकर ही भजन क्यों करे, क्या नारायण वहीं बैठा है? घूमनेके लिये जानेमें १० रुपये, आनेमें १० रुपये और ३० रुपये दो महीने रहकर खानेमें, इस प्रकार ५० रुपये लगेंगे। वे बोलेंगे ५० रुपये वहाँ लगेंगे तो कोई बात नहीं, यहाँ भी तो ५० रुपये लग जाते हैं। वे कहेंगे अच्छा प्रतिदिन शरीर वृद्ध होता जा रहा है, तीर्थमें जाना ही चाहिये। तीर्थमें जाना अच्छी बात है। फिर बोलेंगे कि हाँ, तुम तो बूढ़े हो गये और तेरे हाथोंसे खर्चा भी कम लगता है, इसलिये तुम सदा तीर्थमें ही रहा करो। इतना कहनेका निष्कर्ष यह है कि यहाँ आ करके ज्यादा खर्च नहीं करना चाहिये। यदि फिर अपनेको यहाँ आना है, आनेका मन करे तो अपनी शक्तिके अनुसार खर्च करना चाहिये। शक्तिसे बाहर खर्च नहीं करना चाहिये। मान लो किसी-किसी भाईके सिरपर ऋण है तो सिरके ऊपर ऋण रहते तीर्थ करोगे तो ऋण और बढ़ेगा। दूसरोंके पैसोंसे तीर्थ करना ठीक नहीं है। गम्भीरतासे विचार करके देखो, अपने घर पूँजी तो है नहीं, जितनी पूँजी है उतनी उधारकी है और उसे खर्च करता है तो दूसरेका पैसा खर्च करता है। ऐसे आदमीको तीर्थ नहीं करना चाहिये। कोई-कोई आदमी तीर्थ करते हैं तो उस तीर्थमें दूसरेका पैसा ले लेते हैं, उधार लेकर दान करते हैं तो दूसरोंके पैसेसे तीर्थ करना बहुत नीचे दर्जेकी बात है। यदि पूछो कि कोई ब्राह्मण हो, साधु हो और उनके पास पैसा न हो तो उनके लिये भी यह नीचे दर्जेकी बात है क्या? तो उनके लिये दो बात है—बिना याचनाके यदि कोई दे दे अथवा उनको तीर्थ करवा दे तो उस ब्राह्मणके लिये, साधुके लिये वह अमृतके समान है और यदि वह माँग ले तो वह उसके लिये निन्दनीय है। माँगो सबके लिये, अपने लिये नहीं, परंतु यदि बिना माँगे कोई तीर्थ करवा दे तो वह उसके लिये पाप नहीं है, अमृतके समान है। इसी प्रकारसे वह दान भी अमृतके समान है जो बिना माँगे दे। माँगना वह है जैसे चंदा-चिट्ठा है। जैसे एक आदमीने चंदेमें सौ रुपया माँगा, कहा—तू तो लखपति हो, तुम्हें तो कम-से-कम ५०० रुपये देने चाहिये। उसने कहा—नहीं मेरी तो इतनी इच्छा है। उसने कहा—नहीं मैं भी बनियाका बेटा हूँ, पाँच सौ लेकर जाऊँगा। उसने कहा—नहीं दो सौ रुपये ले जा। आखिरमें तीन सौ रुपयेमें सौदा तय हुआ। तो यह जो दान है एक प्रकारसे तामसी दान है। देना तो पड़ता है, हमलोगोंको भी देना पड़ता है, पर है वह तामसी दान। कहावत है—
नहीं माँगा तो दूध बरोबर और माँग लिया तो पाणी।
खेंचा-तानी रक्त बरोबर ये संतोंकी वाणी॥
ऐसा लेना-देना लेनेवालेके लिये भी विषके समान है और देनेवालेके लिये भी विषके समान है। दोनोंके लिये निन्दनीय है। जैसे तीर्थमें आकर यदि कोई पुण्य करे तो वह अनन्त होता है, उसी प्रकार यदि तीर्थोंमें आकर कोई पाप करे तो वह भी अनन्त हो जाता है। तीर्थोंमें ऐसी शक्ति है कि वह सबको अनन्त कर दे। कोई भाई तीर्थमें आकर यदि चोरी करे, व्यभिचार करे, झूठ बोले, मद्य पिये, जूआ खेले तो वह भी उसका अनन्त हो जाता है। जैसे गंगाका ध्यान करने, उसमें स्नान करने, उसका पान करने, दर्शन करनेसे सब पाप कट जाते हैं, उसी प्रकार गंगामें कोई पेशाब करे, टट्टी करे तो वह घोर नरकमें जाता है। किसी अन्य स्थानपर टट्टी जाय तो इतना पाप नहीं है, परंतु गंगामें कोई टट्टी जाय तो बहुत पापकी बात है। यहाँ आकर गंगासे बहुत दूर जा करके टट्टी-पेशाब करना चाहिये। गंगाके किनारे न दातुन करना चाहिये, न खखार फेंकना चाहिये और न धोती धोनी चाहिये, न फटकारनी चाहिये। धोतीका पानी किनारे आकर निचोड़ना चाहिये, पर यह ध्यान रखना चाहिये कि वह निचोड़ा पानी गंगामें न चला जाय।
गंगाजीमें स्नान करनेसे पहले गंगाजीका ध्यान करना चाहिये, दण्डवत् प्रणाम करना चाहिये, फिर पुष्प चढ़ाकर गंगाजीका पूजन करके स्नान करना चाहिये। क्योंकि गंगाजीमें स्नान करनेका बहुत माहात्म्य है, इसके विपरीत गंगाजीमें टट्टी-पेशाब जाना बहुत बड़ा पाप है। जैसे किसी महात्मा पुरुषकी सेवा करना बहुत बड़ा पुण्य है, पर उनका तिरस्कार करना बहुत बड़ा पाप है। जैसे तुलसीमें जल डालना बहुत बड़ा पुण्य है, पर उसमें पेशाब करना बहुत बड़ा पाप है। हरेक तरहसे आपको समझ लेना चाहिये कि तीर्थोंमें आ करके किसी भी प्रकारका पाप नहीं करना चाहिये। यदि पुण्य न हो तो पाप तो नहीं ही करे। भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन्! यदि हमसे कोई पुण्य न हो तो पाप भी न हो। आप मेरी रक्षा करें। इसी तरहसे तीर्थोंमें जाकर रहना चाहिये। इससे शीघ्र ही परा भक्ति-प्राप्तिपूर्वक भगवत्प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त हो जाता है और जगदीश्वर भगवान्के प्राप्त हो जाने तथा प्रसन्न हो जानेपर कुछ भी अलभ्य या प्राप्य शेष नहीं रह जाता अर्थात् सब कुछ प्राप्त हो जाता है।