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आज्ञापालन और प्रणाम

समझमें नहीं आता कि अच्छे पुरुष मान-बड़ाई और पूजा-प्रतिष्ठाको क्यों स्वीकार कर लेते हैं। युक्तियोंसे बात उचित नहीं जँचती। उच्च श्रेणीके पुरुषोंको इनकी आवश्यकता ही क्या है? यह सत्य है कि उत्तम पुरुषके दर्शन-स्पर्श और उनके साथ भाषणसे ही लाभ है; वे जिस वस्तुका चिन्तन कर लेते हैं, देख लेते हैं और स्पर्श कर लेते हैं वह वस्तु बड़े ही महत्त्वकी हो जाती है। उनके चरणोंसे स्पर्श की हुई धूलि बड़े ही महत्त्वकी है, परन्तु यदि वे उस धूलिको सिर चढ़ानेका निषेध करें तो उस अवस्थामें उनकी आज्ञाको अधिक महत्त्व देना चाहिये। आज्ञा मानकर चरण-धूलि सिर न चढ़ानेसे यही तो हुआ कि उससे जो लाभ होता वह नहीं होगा। परन्तु यह याद रखना चाहिये कि उनकी आज्ञापालनसे होनेवाला लाभ बहुत ही अधिक है। यदि महापुरुषने आज्ञा दे दी कि ‘मुझको प्रणाम न किया करो।’ तो उनके आज्ञानुसार प्रणाम न करनेमें बहुत लाभ है। वास्तवमें प्रणाम करना तो छूटता नहीं। शरीरसे न होकर अन्त:करणसे प्रणाम किया जाता है। फिर यह सोचना चाहिये कि एक वस्तुके ग्रहणमें जब इतना महत्त्व है तो उसके त्यागमें कितना अधिक महत्त्व होगा। विचार करना चाहिये कि एक जगह सोना पड़ा है, रत्न पड़े हैं, वे सब बहुमूल्य हैं, इस बातको जानकर भी एक आदमी उन सोने-रत्नोंको त्याग देता है; और दूसरा उनको उठा लेता है। कीमत दोनों ही समझते हैं। अब बताइये, इन दोनोंमें कौन-सा पुरुष उच्च श्रेणीका है? स्वर्ण और रत्न इकट्ठा करनेवाला या उनका त्यागी? फिर महापुरुषकी चरण-धूलि तो उनकी आज्ञासे छोड़ी जा रही है। इससे उसमें तो और भी परम लाभकी बात है।

जो पुरुष यह समझते हैं, मेरी चरण-धूलिसे मनुष्य पवित्र हो जायँगे, इसलिये उन्हें चरण-धूलि लेने दिया जाय, वह तो स्वयं ही अन्धकारमें हैं। उनसे दूसरोंका क्या उद्धार होगा? परन्तु जो महापुरुष वास्तविक हृदयसे ऐसा नहीं चाहते कि कोई हमारी चरण-धूलि ले, तो उनकी आज्ञा माननी ही चाहिये। उनकी प्रसन्नताके लिये चरण-धूलिसे होनेवाले लाभकी तो बात ही क्या है, मुक्तितकका त्याग कर देना चाहिये!

माता-पिताके अनन्य सेवक भक्त पुण्डरीककी मातृ-पितृ-भक्तिसे प्रसन्न होकर जब भगवान् आये, उस समय उनके माता-पिता उनकी दोनों जंघाओंपर सिर टेककर सो रहे थे। मातृ-पितृ-भक्त पुण्डरीकने भगवान् से प्रार्थना की ‘भगवन्! इस समय मेरे माता-पिता आरामसे सो रहे हैं, इनके आराममें विघ्न उपस्थित करके मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता। यदि आप न ठहरना चाहें तो अभी वापस जा सकते हैं। जिन माता-पिताकी सेवाके प्रभावसे आप पधारे, उस महत्त्वसे आप फिर भी मुझे दर्शन देनेको पधार सकते हैं।’ पुण्डरीककी बात सुनकर उसकी अनन्य निष्ठासे भगवान् को बड़ी प्रसन्नता हुई। यहाँपर यह विचार करना चाहिये कि हमलोग अधिक-से-अधिक लाभ मुक्तिको समझते हैं, वह मुक्ति जिन महापुरुषके द्वारा प्राप्त होती है, वही महापुरुष यदि मुक्तिका त्याग करनेके लिये कहें तो हमें यह क्यों चिन्ता होनी चाहिये कि हमारी मुक्ति कहीं चली गयी। उसे तो वे जब चाहें तभी प्राप्त करा सकते हैं।

प्रणाम करनेके समय यदि कोई महापुरुष निषेध करें तो उस समय तो शायद मनमें कुछ नाराजगी हो परन्तु हृदयपर एक बहुत अच्छा असर होगा। उन्होंने प्रणाम करनेका निषेध किया, इससे आपकी मानसिक इच्छा तो कम हुई ही नहीं, केवल सिर झुकानेसे आप रुके। सिर तो मनुष्य श्रद्धा न होनेपर भी जहाँ-तहाँ झुका देता है; फिर उनकी आज्ञा मानकर सिर न झुकाया गया तो क्या हानि है?

उत्तम पुरुष कहते हैं कि मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा बुरी चीज है, फिर उनको वे स्वयं कैसे स्वीकार कर सकते हैं। स्वयं स्वीकार करें और केवल दूसरोंको निषेध करें, ऐसे लोगोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि महात्मा लोग हृदयसे प्रणाम कराना चाहते हैं तो करनेमें आपत्ति नहीं, परन्तु यदि वे नहीं चाहते, निषेध करते हैं तो उस निषेधाज्ञाको टालना भी पाप है। अवश्य ही उनकी दयालुताके प्रभावसे पाप नहीं होता। तो भी उनकी आज्ञा ही माननी चाहिये। महात्मा पुरुषोंके इच्छानुसार चलनेमें ही लाभ है।

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