ब्राह्मणत्वकी रक्षा परम आवश्यक है
हिंदूजातिकी आज जो दुर्दशा है, वह पराधीन है, दीन है, दु:खी है और सभी प्रकारसे अवनत है; इसके कारणपर विचार करते समय आजकल कुछ भाई ऐसा मत प्रकट किया करते हैं कि वर्णाश्रम-धर्मके कारण ही हिंदू जातिकी ऐसी दुर्दशा हुई है। वर्णाश्रम-धर्म न होता तो हमारी ऐसी स्थिति न होती। परन्तु विचार करनेपर मालूम होता है कि इस मतको प्रकट करनेवाले भाइयोंने वर्णाश्रम-धर्मके तत्त्वको वस्तुत: समझा ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि जबतक इस देशमें वर्णाश्रम-धर्मका सुचारुरूपसे पालन होता था, तबतक देश स्वाधीन था तथा यहाँपर प्राय: सभी प्रकारकी सुख-समृद्धि थी। जबसे वर्णाश्रम-धर्मके पालनमें अवहेलना होने लगी, तभीसे हमारी दशा बिगड़ने लगी। इतनेपर भी वर्णाश्रम-धर्मकी दृढ़ताने ही हिंदूजातिको बचाये रखा। वर्णाश्रम न होता और उसपर हिंदूजातिकी आस्था न होती तो शताब्दियोंमें होनेवाले आक्रमणोंसे और विजेताओंके प्रभावसे हिंदूजाति अबतक नष्ट हो गयी होती!
पर-देशीय और पर-धर्मीय लोगोंकी सभ्यता, भाषा, आचरण, व्यवहार, रहन-सहन और पोशाक-पहनावा आदिके अनुकरणने वर्णाश्रमधर्मकी शिथिलतामें बड़ी सहायता दी है। पहले तो मुसलमानी शासनमें हमलोग उनके आचारोंकी ओर झुके—किसी अंशमें उनके आचार-व्यवहारकी नकल की, परन्तु उस समयतक हमारी अपने शास्त्रोंमें, अपने पूर्वजोंमें, अपने धर्ममें, अपनी नीतिमें श्रद्धा थी, इससे उतनी हानि नहीं हुई, परन्तु वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृतिकी आँधीमें तो हमारी आँखें सर्वथा बंद-सी ही हो गयीं। हम मानो आँखें मूँदकर—अन्धे होकर उनकी नकल करने लगे हैं। इसीसे वर्णाश्रम-धर्ममें आजकल बहुत शिथिलता आ गयी है। और यदि यही गति रही तो कुछ समयमें वर्णाश्रम-धर्मका बहुत ही ह्रास हो जायगा। और हमारा ऐसा करना अपने ही हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारनेके समान होगा। धर्म और नीतिके त्यागसे एक बार भ्रमवश चाहे कुछ सुख-सा प्रतीत हो, परन्तु वह सुखकी चमक उस बिजलीके प्रकाशकी चमकके समान है जो गिरकर सब कुछ जला देती है। धर्म और नीतिका त्याग करनेवाले रावण, हिरण्यकशिपु, कंस और दुर्योधन आदिकी भी एक बार कुछ उन्नति-सी दिखायी दी थी, परन्तु अन्तमें उनका समूल विनाश हो गया!
दु:खकी बात है कि पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृतिके मोहमें पड़कर आज हिंदू-जातिके अधिकांश पढ़े-लिखे लोग दूसरोंके आचार-व्यवहारका अनुकरण कर बोलचाल, रहन-सहन और खान-पानमें धर्मविरुद्ध आचरण करने लगे हैं और इसके परिणामस्वरूप वर्णाश्रम-धर्मको न माननेवाली, विधर्मी जातियोंमें विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करके वर्णमें संकरता उत्पन्न कर रहे हैं। वर्णमें संकरता आनेसे जब वर्ण-धर्म, जाति-धर्म नष्ट हो जायगा तब आश्रम-धर्म तो बचेगा ही कैसे? अतएव सब लोगोंको बहुत चेष्टा करके पाश्चात्य आचार-व्यवहारोंके अनुकरणसे स्वयं बचना और भ्रमवश अनुकरण करनेवाले लोगोंको बचाना चाहिये।
हिंदू सनातनधर्ममें अत्यन्त छोटेसे लेकर बहुत बड़ेतक सभी कार्योंका धर्मसे सम्बन्ध है। हिंदूका जीवन धर्ममय है। उसका जन्मना-मरना, खाना-पीना, सोना-जागना, देना-लेना, उपार्जन करना और त्याग करना—सभी कुछ धर्मसंगत होना चाहिये। धर्मसे बाहर उसकी कोई क्रिया नहीं होती। इस धर्मका तत्त्व ही वर्णाश्रम-धर्ममें भरा है। वर्णाश्रम-धर्म हमें बतलाता है कि किसके लिये, किस समय, कौन-सा कर्म, किस प्रकार करना उचित है। और इसी कर्म-कौशलसे हिंदू अपने इहलौकिक जीवनको सुखमय बिताकर अपने सब कर्म भगवान् के अर्पण करता हुआ अन्तमें मनुष्य-जीवनके परम ध्येय परमात्माको प्राप्त कर सकता है। इस धर्ममय जीवनमें चार वर्ण हैं और उन चार वर्णोंमें धर्मकी सुव्यवस्था रखनेके लिये सबसे प्रथम ब्राह्मणका अधिकार और कर्तव्य माना गया है। ब्राह्मण धर्म-ग्र्रन्थोंकी रक्षा, प्रचार और विस्तार करता है और उसके अनुसार तीनों वर्णोंसे कर्म करानेकी व्यवस्था करता है। इसीसे हमारे धर्मग्रन्थोंका सम्बन्ध आज भी ब्राह्मणजातिसे है और आज भी ब्राह्मणजाति धर्म-ग्रन्थोंके अध्ययनके लिये संस्कृत भाषा पढ़नेमें सबसे आगे है। यह स्मरण रखना चाहिये कि संस्कृत अनादि भाषा है और सर्वांगपूर्ण है। संस्कृतके समान वस्तुत: सुसंस्कृत भाषा दुनियामें और कोई है ही नहीं। आज जो संस्कृतकी अवहेलना है उसका कारण यही है कि संस्कृत राजभाषा तो है ही नहीं, उसे राज्यकी ओरसे यथायोग्य आश्रय भी प्राप्त नहीं है और तबतक होना बहुत ही कठिन भी है जबतक हिंदू-सभ्यताके प्रति श्रद्धा रखनेवाले संस्कृतके प्रेमी शासक न हों। इसलिये जबतक वैसा नहीं होता, कम-से-कम तबतक प्रत्येक धर्म-प्रेमी पुरुषका कर्तव्य होता है कि वह सनातन वैदिक वर्णाश्रम-धर्मकी रक्षाके हेतुभूत ब्राह्मणत्वकी और परम धर्मरूप संस्कृत ग्रन्थोंकी एवं संस्कृत भाषाकी रक्षा करे।
धर्मग्रन्थ और संस्कृत भाषाकी रक्षा होनेसे ही सनातनधर्मकी रक्षा होगी; परन्तु इसके लिये ब्राह्मणके ब्राह्मणत्वकी रक्षाकी सर्वप्रथम आवश्यकता है। आजकल जो ब्राह्मणजाति ब्राह्मणत्वकी ओरसे उदासीन होती जा रही है और क्रमश: वर्णान्तरके कर्मोंको ग्रहण करती जा रही है, यह बड़े खेदकी बात है। परन्तु केवल खेद प्रकट करनेसे काम नहीं होगा। हमें वह कारण खोजने चाहिये जिससे ऐसा हो रहा है। इसमें कई कारण हैं। जैसे—
(१) पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यताके प्रभावसे धर्मके प्रति अनास्था।
(२) धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके लिये किये जानेवाले हमारे प्रत्येक कर्मका सम्बन्ध धर्मसे है और धार्मिक कार्यमें ब्राह्मणका संयोग सर्वथा आवश्यक है, इस सिद्धान्तको भूल जाना।
(३) ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी पुरुषोंके द्वारा जो वस्तुत: ज्ञान और भक्तिके तत्त्वको नहीं जानते, ज्ञान और भक्तिके नामपर कर्मकाण्डकी उपेक्षा होना, और इसी प्रकार निष्काम कर्मके तत्त्वको न जानकर निष्काम कर्मकी बात कहनेवाले लोगोंद्वारा सकाम कर्मकी उपेक्षा करनेके भावसे प्रकारान्तरसे कर्मकाण्डका विरोधी हो जाना।
(४) संस्कृतज्ञ ब्राह्मणका सम्मान न होना। शास्त्रीय कर्मकाण्डकी अनावश्यकता मान लेनेसे ब्राह्मणका अनावश्यक समझा जाना।
(५) कर्मकाण्डके त्याग और राज्याश्रय न होनेसे ब्राह्मणकी आजीविकामें कष्ट होना और उसके परिवार-पालनमें बाधा पहुँचना।
(६) त्यागका आदर्श भूल जानेसे ब्राह्मणोंकी भी भोगमें प्रवृत्ति होना और भोगोंके लिये अधिक धनकी आवश्यकताका अनुभव होना।
(७) शास्त्रोंमें श्रद्धाका घट जाना।
इस प्रकारके अनेकों कारणोंसे आज ब्राह्मणजाति ब्राह्मणत्वसे विमुख होती जा रही है, जो वर्णाश्रम-धर्मके लिये बहुत ही चिन्ताकी बात है।
यह स्मरण रखना चाहिये कि ब्राह्मणत्वकी रक्षा ब्राह्मणके द्वारा ही होगी। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने सदाचार, सद्गुण, भक्ति तथा ज्ञान आदिके प्रभावसे भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं; परन्तु वे ब्राह्मण नहीं बन सकते। ब्राह्मण तो वही है जो जन्मसे ही ब्राह्मण है और उसीको वेदादि पढ़ानेका अधिकार है। मनु महाराजने कहा है—
अधीयीरंस्त्रयो वर्णा: स्वकर्मस्था द्विजातय:।
प्रब्रूयाद् ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चय:॥
(मनु० १०।१)
‘अपने-अपने कर्मोंमें लगे हुए (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य—तीनों) द्विजाति वेद पढ़ें, परन्तु इनमेंसे वेद पढ़ावे ब्राह्मण ही, क्षत्रिय-वैश्य नहीं। यह निश्चय है।’
इससे यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणके बिना वेदकी शिक्षा और कोई नहीं दे सकता। और वेदके बिना वैदिक वर्णाश्रम-धर्म नहीं रह सकता, इसलिये ब्राह्मणकी रक्षा अत्यन्त आवश्यक है।
शास्त्रोंमें ब्राह्मणको सबसे श्रेष्ठ बतलाया है। ब्राह्मणकी बतलायी हुई विधिसे ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारोंकी सिद्धि मानी गयी है। ब्राह्मणका महत्त्व बतलाते हुए शास्त्र कहते हैं—
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्याॸशूद्रो अजायत॥
(यजुर्वेद ३१। ११)
‘श्रीभगवान् के मुखसे ब्राह्मणकी, बाहुसे क्षत्रियकी, ऊरुसे वैश्यकी और चरणोंसे शूद्रकी उत्पत्ति हुई है।’
उत्तमांगोद्भवाज्ज्यैष्ठॺाद्ब्रह्मणश्चैवधारणात्।
सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मण: प्रभु:॥
तं हि स्वयम्भू:स्वादास्यात्तपस्तप्त्वादितोऽसृजत्।
हव्यकव्याभिवाह्याय सर्वस्यास्य च गुप्तये॥
(मनु० १।९३-९४)
‘उत्तम अंगसे (अर्थात् भगवान् के श्रीमुखसे) उत्पन्न होने तथा सबसे पहले उत्पन्न होनेसे और वेदके धारण करनेसे ब्राह्मण इस जगत् का धर्मसे स्वामी होता है। ब्रह्माने तप करके हव्य-कव्य पहुँचानेके लिये और इस सम्पूर्ण जगत् की रक्षाके लिये अपने मुखसे सबसे पहले ब्राह्मणको उत्पन्न किया।’
वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठॺान्नियमस्य च धारणात्।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मण: प्रभु:॥
(मनु० १०।३)
‘जातिकी श्रेष्ठतासे, उत्पत्तिस्थानकी श्रेष्ठतासे, वेदके पढ़ने-पढ़ाने आदि नियमोंको धारण करनेसे तथा संस्कारकी विशेषतासे ब्राह्मण सब वर्णोंका प्रभु है।’
भगवान् श्रीऋषभदेवजी कहते हैं—
भूतेषु वीरुद्भ्य उदुत्तमा ये
सरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठा:।
ततो मनुष्या: प्रमथास्ततोऽपि
गन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये॥
देवासुरेभ्यो मघवत्प्रधाना
दक्षादयो ब्रह्मसुतस्तु तेषाम्।
भव: पर: सोऽथ विरंचवीर्य:
स मत्परोऽहं द्विजदेवदेव:॥
न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्यत्
पश्यामि विप्रा: किमत: परं तु।
यस्मिन्नृभि: प्रहुतं श्रद्धयाह-
मश्नामि कामं न तथाग्निहोत्रे॥
(श्रीमद्भा० ५।५।२१—२३)
‘समस्त भूतोंमें स्थावर (वृक्ष) श्रेष्ठ हैं। उनसे सर्प आदि कीड़े श्रेष्ठ हैं। उनसे बोधयुक्त पशु आदि प्राणी श्रेष्ठ हैं। उनसे मनुष्य और मनुष्योंसे प्रमथगण श्रेष्ठ हैं। प्रमथगणसे गन्धर्व और गन्धर्वोंसे सिद्धगण, सिद्धगणसे देवताओंके भृत्य किन्नर आदि श्रेष्ठ हैं। किन्नरों और असुरोंकी अपेक्षा इन्द्र आदि देवता श्रेष्ठ हैं। इन्द्रादि देवताओंसे दक्ष आदि ब्रह्माके पुत्र श्रेष्ठ हैं। दक्ष आदिकी अपेक्षा शंकर श्रेष्ठ हैं और शंकर ब्रह्माके अंश हैं, इसलिये शंकरसे ब्रह्मा श्रेष्ठ हैं! ब्रह्मा मुझे अपना परम आराध्य परमेश्वर मानते हैं, इसलिये ब्रह्मासे मैं श्रेष्ठ हूँ और मैं द्विजदेव ब्राह्मणोंको अपना देवता या पूजनीय समझता हूँ, इसलिये ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। इस कारण ब्राह्मण सर्वपूज्य हैं, हे ब्राह्मणो! मैं इस जगत् में दूसरे किसीकी ब्राह्मणोंके साथ तुलना भी नहीं करता फिर उनसे बढ़कर तो किसीको मान ही कैसे सकता हूँ। ब्राह्मण क्यों श्रेष्ठ हैं? इसका उत्तर यही है कि मेरे ब्राह्मणरूप मुखमें जो श्रद्धापूर्वक अर्पण किया जाता है (ब्राह्मण भोजन कराया जाता है) उससे मुझे परम तृप्ति होती है; यहाँतक कि मेरे अग्निरूप मुखमें हवन करनेसे भी मुझे वैसी तृप्ति नहीं होती!’
उपर्युक्त शब्दोंसे ब्राह्मणोंके स्वरूप और महत्त्वका अच्छा परिचय मिलता है। इसी प्रकार मनु महाराजने भी कहा है—
भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धिजीविन:।
बुद्धिमत्सु नरा: श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणा: स्मृता:॥
ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धय:।
कृतबुद्धिषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधि जायते।
ईश्वर: सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥
(मनु० १।९६, ९७, ९९)
‘स्थावर जीवोंमें प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, प्राणधारियोंमें बुद्धिमान्; बुद्धिमानोंमें मनुष्य और मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ कहे गये हैं। ब्राह्मणोंमें विद्वान्, विद्वानोंमें कृतबुद्धि (अर्थात् जिनकी शास्त्रोक्त कर्ममें बुद्धि है), कृतबुद्धियोंमें शास्त्रोक्त कर्म करनेवाले और उनमें भी ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। उत्पन्न हुआ ब्राह्मण पृथ्वीपर सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि वह सब प्राणियोंके धर्मसमूहकी रक्षाके लिये समर्थ माना गया है।’
ब्राह्मणोंकी निन्दाका निषेध करते हुए भीष्मपितामह युधिष्ठिरसे कहते हैं—
परिवादं च ये कुर्युर्ब्राह्मणानामचेतस:।
सत्यं ब्रवीमि ते राजन् विनश्येयुर्न संशय:॥
(महा० अनु० ३३।१८)
‘हे राजन्! जो अज्ञानी मनुष्य ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हैं, मैं सत्य कहता हूँ कि वे नष्ट हो जाते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।’
परिवादो द्विजातीनां न श्रोतव्य: कथंचन।
आसीताधोमुखस्तूष्णीं समुत्थाय व्रजेच्च वा॥
न स जातो जनिष्यन्वा पृथिव्यामिह कश्चन।
यो ब्राह्मणविरोधेन सुखं जीवितुमुत्सहेत् ॥
(महा० अनु० ३३।२५-२६)
‘ब्राह्मणोंकी निन्दा कभी नहीं सुननी चाहिये। यदि कहीं ब्राह्मणनिन्दा होती हो तो वहाँ या तो नीचा सिर करके चुपचाप बैठा रहे अथवा वहाँसे उठकर चला जाय। इस पृथ्वीपर ऐसा कोई भी मनुष्य न जन्मा है और न जन्मेगा ही जो ब्राह्मणोंसे विरोध करके सुखसे जीवन व्यतीत कर सके।’
इसपर यदि कोई कहे कि ब्राह्मणोंकी जो इतनी महिमा कही जाती है, यह उन ग्रन्थोंके कारण ही तो है, जो प्राय: ब्राह्मणोंके बनाये हुए हैं और जिनमें ब्राह्मणोंने जान-बूझकर अपने स्वार्थसाधनके लिये नाना प्रकारके रास्ते खोल दिये हैं। इसका उत्तर यह है कि ऐसा कहना वस्तुत: शास्त्र-ग्रन्थोंसे यथार्थ परिचय न होनेके कारण ही है। शास्त्रों और प्राचीन ग्रन्थोंके देखनेसे यह बात सिद्ध होती है, ब्राह्मणने तो त्याग-ही-त्याग किया। राज्य क्षत्रियोंके लिये छोड़ दिया, धनके उत्पत्तिस्थान कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य आदिको और धनभण्डारको वैश्योंके हाथ दे दिया। शारीरिक श्रमसे अर्थोपार्जन करनेका कार्य शूद्रोंके हिस्सेमें आ गया। ब्राह्मणोंने तो अपने लिये रखा केवल संतोषसे भरा हुआ त्यागपूर्ण जीवन!
इसका प्रमाण शास्त्रोंके वे शब्द हैं, जिनमें ब्राह्मणकी वृत्तिका वर्णन है—
ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन॥
ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्।
मृतं तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥
सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।
सेवाश्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥
(मनु० ४।४—६)
‘ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यानृतसे अपना जीवन बितावे परन्तु श्ववृत्ति अर्थात् सेवावृत्ति—नौकरी न करे। उञ्छ और शिल१ को ऋत जानना चाहिये। बिना माँगे मिला हुआ अमृत है। माँगी हुई भिक्षा मृत कहलाती है और खेतीको प्रमृत कहते हैं। वाणिज्यको सत्यानृत कहते हैं उससे भी जीविका चलायी जा सकती है किन्तु सेवाको२ श्ववृत्ति कहते हैं इसलिये उसका त्याग कर देना चाहिये।’
१-खेतमें पड़े हुए अन्नके दाने बीननेको उञ्छ कहते हैं और धानोंकी फलियाँ बीननेको शिल कहते हैं।
२-नौकरीसे यहाँ अध्यापनादि कार्य नहीं लेना चाहिये।
उपर्युक्त वृत्तियोंमें ब्राह्मणोंके लिये उञ्छ और शिल ये दो वृत्तियाँ सबसे उत्तम मानी गयी हैं। वेद पढ़ाना, यज्ञ करवाकर दक्षिणा ग्रहण करना तथा बिना याचनाके दान लेना भी बहुत उत्तम अमृतके तुल्य कहा गया है। एवं भिक्षावृत्ति भी उनके लिये धर्मसंगत है। ब्राह्मणधर्मका पालन करनेवाले ब्राह्मणोंके लिये अधिक-से-अधिक सालभरके अन्नका संग्रह करनेकी आज्ञा दी गयी है। जो एक माससे अधिक अन्नका संग्रह नहीं करता उसको उससे श्रेष्ठ माना है, उससे श्रेष्ठ तीन दिनके लिये अन्न-संग्रह करनेवालेको और उससे भी श्रेष्ठ केवल एक दिनका अन्न-संग्रह करनेवालेको बताया गया है।
आपत्तिकालमें क्षत्रिय या वैश्यकी वृत्तिसे भी ब्राह्मण अपनी जीविका चलावे तो वह निन्दनीय नहीं है। धर्मशास्त्रका यही आदेश है। विडालवृत्ति और वकवृत्ति* ये दो वृत्तियाँ वर्जित हैं, इन दो वृत्तियोंको और श्ववृत्तिको छोड़कर उपर्युक्त किसी भी वृत्तिसे जीविका चलानेवाला ब्राह्मण पूजनीय और सेवनीय है। ब्राह्मणोंकी जीवननिर्वाहकी वृत्ति ही इतनी कठिन है, यही नहीं है; ब्राह्मणके जीवनका उद्देश्य और उसके जीवनकी स्थिति कितनी कठोर, तपोमयी और त्यागपूर्ण है, यह भी देखिये!
* धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भक:।
वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्र: सर्वाभिसंधक:॥
अधोदृष्टिर्नैष्कृतिक: स्वार्थसाधनतत्पर:।
शठो मिथ्याविनीतश्च वकव्रतचरो द्विज:॥
(मनु० ४। १९५-१९६)
दम्भी, सदा लोभी, कपटी, लोगोंको ठगनेवाले हिंसक और सबकी निन्दा करनेवालेको वैडालवृत्तिवाला जानना चाहिये। जिसकी दृष्टि नीचेकी ओर रहती है, जो निष्ठुर, स्वार्थ-साधनमें तत्पर, शठ और मिथ्या-विनयी है वह ब्राह्मण वकव्रती कहलाता है।
ये वकव्रतिनो विप्रा ये च मार्जारलिंगिन:।
ते पतन्त्यन्धतामिस्रे तेन पापेन कर्मणा॥
(मनु० ४। १९७)
जो ब्राह्मण बगुलावृत्तिसे और विडालवृत्तिसे रहते हैं वे उस पापसे अन्धतामिस्रनामक नरकमें पड़ते हैं।
धृता तनूरुशती मे पुराणी
येनेह सत्त्वं परमं पवित्रम्।
शमो दम: सत्यमनुग्रहश्च
तपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र॥
मत्तोऽप्यनन्तात्परत: परस्मा-
त्स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किंचित्।
येषां किमु स्यादितरेण तेषा-
मकिंचनानां मयि भक्तिभाजाम्॥
(श्रीमद्भा० ५।५।२४-२५)
‘उन ब्राह्मणोंने इस लोकमें अति सुन्दर और पुरातन मेरी वेदरूपा मूर्तिको अध्ययनादिद्वारा धारण किया है। उन्हींमें परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, सहनशीलता और अनुभव आदि मेरे गुण विराजमान हैं। वे ब्राह्मण द्वार-द्वारपर भिक्षा माँगनेवाले नहीं होते, साधारण मनुष्यसे कुछ माँगना तो दूर रहा, देखो मैं अनन्त हूँ और सर्वोत्तम परमेश्वर हूँ, एवं स्वर्ग और मोक्षका स्वामी हूँ, किन्तु मुझसे भी कुछ नहीं चाहते [उनके आगे राज्य आदि वस्तुएँ केवल तुच्छातितुच्छ पदार्थ ही नहीं, विषतुल्य हैं]। वे अकिंचन (सर्वत्यागी) महात्मा विप्रगण मेरी भक्तिमें ही सन्तुष्ट रहते हैं।’
ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं न सुखाय कदाचन।
तप:क्लेशाय धर्माय प्रेत्य मोक्षाय सर्वदा॥
(बृहद्धर्मपुराण, उत्तरखण्ड २।४४)
‘ब्राह्मणकी देह विषयसुखके लिये कदापि नहीं है, वह तो सदा-सर्वदा तपस्याका क्लेश सहने, धर्मका पालन करने और अन्तमें मुक्तिके लिये ही उत्पन्न होती है।’
इसी प्रकार भागवतमें कहा है—
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च॥
(११।१७।४२)
‘ब्राह्मणका यह शरीर क्षुद्र विषयभोगोंके लिये नहीं है, यह तो जीवनभर कठिन तपस्या और अन्तमें आत्यन्तिक सुखरूप मोक्षकी प्राप्तिके लिये है।’
इससे पता चलता है कि ब्राह्मणका जीवन कितना महान् तपसे पूर्ण है। वह अपने जीवनको साधनमय रखता है। जिस मान-सम्मानको सब लोग चाहते हैं, ब्राह्मण उस मानसे सदा डरता है और अपमानका स्वागत करता है—
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥
(मनु० २।१६२)
‘ब्राह्मणको चाहिये कि वह सम्मानसे सदा विषके समान डरता रहे और अपमानकी अमृतके समान इच्छा करता रहे।’
इतना ही नहीं, उसकी साधनामें जरा-सी भूल भी क्षम्य नहीं है—
न तिष्ठति तु य: पूर्वां नोपास्ते यश्चपश्चिमाम्।
स शूद्रवद्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:॥
(मनु० २।१०३)
‘जो ब्राह्मण न प्रात:कालकी सन्ध्या करता है और न सायं संध्या करता है वह ब्राह्मणोंके सम्पूर्ण कर्मोंसे शूद्रके समान बहिष्कार कर देने योग्य है।’
ऐसे तप, त्याग और सदाचारकी मूर्ति ब्राह्मणोंको स्वार्थी बतलाना अनभिज्ञताके साथ ही उसपर अयथार्थ दोषारोपण करनेके अपराधके सिवा और क्या है?
अतएव धर्मपर श्रद्धा रखनेवाले क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र प्रत्येकका यह कर्तव्य होना चाहिये कि वे दान, मान, पूजन आदिसे ब्राह्मणोंका सत्कार करें, सेवा और सद्व्यवहारके द्वारा ब्राह्मणोंको अपने ब्राह्मणत्वके गौरवकी बात याद दिलाकर उन्हें ब्राह्मणत्वकी रक्षाके लिये उत्साहित करें। शास्त्रीय कर्म, षोडश संस्कार (इनमें अधिक-से-अधिक जितने हो सकें), सकाम-निष्काम कर्मानुष्ठान, देवपूजन आदिके द्वारा ब्राह्मणोंकी सम्मानरक्षा और उनकी आजीविकाकी सुविधा कर दें, स्वयं ब्राह्मणोंकी जीविका कदापि न करें, जहाँतक हो सके संस्कृत भाषाका आदर करें और अपने बालकोंको अधिकारानुसार ब्राह्मणोंके द्वारा संस्कृतका जानकार बनावें, संस्कृत पाठशालाओंमें वृत्ति देकर ब्राह्मणबालकोंको पढ़ावें। धर्मग्रन्थोंमें श्रद्धा करके धर्मानुष्ठानका अधिकारानुसार प्रचार करें और शास्त्रोक्त रीतिसे जिस किसी प्रकारसे भी ऐसी चेष्टा करते रहें, जिसमें ब्राह्मणोंको आजीविकाकी चिन्ता न हो, उनके शास्त्रज्ञ होनेसे उनका आदर बढ़े और ब्राह्मणत्वमें उनकी श्रद्धा बढ़े। क्योंकि ब्राह्मणत्वकी रक्षाके लिये—जो वर्णाश्रमधर्मका प्राण है—स्वयं भगवान् पृथ्वीतलपर अवतार लिया करते हैं।
ब्राह्मणसेवा और ब्राह्मणोंको दान देनेका क्या महत्त्व है, उससे किस प्रकार अनायास ही अर्थ, धर्म, काम, मोक्षकी सिद्धि होती है। इसपर नीचे उद्धृत थोड़े-से शास्त्रवचनोंको देखिये। महाराज पृथु कहते हैं—
यत्सेवयाशेषगुहाशय: स्वराड्-
विप्रप्रियस्तुष्यति काममीश्वर:।
तदेव तद्धर्मपरैर्विनीतै:
सर्वात्मना ब्रह्मकुलं निषेव्यताम्॥
पुमाँल्लभेतानतिवेलमात्मन:
प्रसीदतोऽत्यन्तशमं स्वत: स्वयम्।
यन्नित्यसम्बन्धनिषेवया तत:
परं किमत्रास्ति मुखं हविर्भुजाम्॥
अश्नात्यनन्त: खलु तत्त्वकोविदै:
श्रद्धाहुतं यन्मुख इज्यनामभि:।
न वै तथा चेतनया बहिष्कृते
हुताशने पारमहंस्यपर्यगु:॥
यद् ब्रह्म नित्यं विरजं सनातनं
श्रद्धातपोमंगलमौनसंयमै:।
समाधिना बिभ्रति हार्थदृष्टये
यत्रेदमादर्श इवावभासते॥
(श्रीमद्भा० ४। २१। ३९—४२)
‘सबके हृदयमें स्थित, ब्राह्मण-प्रिय एवं स्वयं प्रकाशमान ईश्वर हरि जिसकी सेवा करनेसे यथेष्ट सन्तोषको प्राप्त होते हैं उस ब्राह्मणकुलकी ही भागवतधर्ममें तत्पर होकर विनीत भावसे सब प्रकार सेवा करो। ब्राह्मणकुलके साथ नित्य सेवारूप सम्बन्ध होनेसे शीघ्र ही मनुष्यका चित्त शुद्ध हो जाता है। तब अपने-आप ही परम शान्ति अर्थात् मोक्ष मिलता है। भला ऐसे ब्राह्मणोंके मुखसे बढ़कर दूसरा कौन देवताओंका मुख हो सकता है? ज्ञानरूप, सबके अन्तर्यामी अनन्त हरिकी भी तृप्ति ब्राह्मण मुखमें ही होती है। तत्त्वज्ञानी पण्डितोंद्वारा पूजनीय इन्द्रादि देवोंका नाम लेकर श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणमुखमें हवन किये हुए हविष्यको श्रीहरि जितनी प्रसन्नताके साथ ग्रहण करते हैं उतनी प्रसन्नताके साथ अचेतन अग्निमुखमें डाली हुई हविको नहीं स्वीकार करते। जिसमें यह सम्पूर्ण विश्व आदर्शकी भाँति भासित होता है, उसी नित्य शुद्ध सनातन वेदको ये ब्राह्मणलोग श्रद्धा, तपस्या, मंगलकर्म,* मौन (मननशीलता या भगवद्विरोधी बातोंका त्याग), संयम (इन्द्रियोंका दमन) एवं समाधि (चित्तकी भगवान् में स्थिति) करते हुए यथार्थ अर्थके देखनेके लिये नित्यप्रति धारण करते हैं अर्थात् अध्ययन करते रहते हैं।’
* प्रशस्ताचरणं नित्यमप्रशस्तस्य वर्जनम्।
एतद्धि मंगलं प्रोक्तमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभि:॥
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—
ब्राह्मणप्रतिपूजायामायु: कीर्तिर्यशो बलम्।
लोका लोकेश्वराश्चैव सर्वे ब्राह्मणपूजका:॥
त्रिवर्गे चापवर्गे च यश:श्रीरोगशान्तिषु।
देवतापितृपूजासु सन्तोष्याश्चैव नो द्विजा:॥
(महा० अनु० १५९।९-१०)
‘ब्राह्मणकी पूजा करनेसे आयु, कीर्ति, यश और बल बढ़ता है। सभी लोग और लोकेश्वरगण ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं। धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गको और मोक्षको प्राप्त करनेमें तथा यश, लक्ष्मीकी प्राप्ति और रोग-शान्तिमें और देवता एवं पितरोंकी पूजामें ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करना चाहिये।’
न तं स्तेना न चामित्रा हरन्ति न च नश्यति।
तस्माद्राज्ञा निधातव्यो ब्राह्मणेष्वक्षयो निधि:॥
न स्कन्दते न व्यथते न विनश्यति कर्हिचित्।
वरिष्ठमग्निहोत्रेभ्यो ब्राह्मणस्य मुखे हुतम्॥
(मनु० ७।८३-८४)
‘ब्राह्मणोंको दी हुई अक्षय निधिको शत्रु अथवा चोर नहीं हर सकते और न वह नष्ट होती है, इसलिये राजाको ब्राह्मणोंमें इस अनन्त फलदायक अक्षय निधिको स्थापित करना चाहिये अर्थात् ब्राह्मणोंको धन-धान्यादि देना चाहिये। अग्निमें घृतकी आहुति देनेकी अपेक्षा ब्राह्मणोंके मुखमें होमा हुआ अर्थात् उन्हें भोजन देनेका फल अधिक होता है; क्योंकि न वह कभी झरता है, न सूखता है और न नष्ट होता है।’
इतना ही नहीं, राजाके लिये तो मनु महाराज आज्ञा करते हैं—
यस्य राज्ञस्तु विषये श्रोत्रिय: सीदति क्षुधा।
तस्यापि तत्क्षुधा राष्ट्रमचिरेणैव सीदति॥
श्रुतवृत्ते विदित्वास्य वृत्तिं धर्म्यां प्रकल्पयेत्।
संरक्षेत्सर्वतश्चैनं पिता पुत्रमिवौरसम्॥
संरक्ष्यमाणो राज्ञा यं कुरुते धर्ममन्वहम्।
तेनायुर्वर्धते राज्ञो द्रविणं राष्ट्रमेव च॥
(मनु० ७।१३४—१३६)
‘जिस राजाके देशमें वेदपाठी (श्रोत्रिय ब्राह्मण) भूखसे दु:खी होता है उस राजाका देश भी दुर्भिक्षसे पीड़ित हो शीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिये राजाको चाहिये कि वह श्रोत्रिय ब्राह्मणका शास्त्रज्ञान और आचरण जानकर उसके लिये धर्मानुकूल जीविका नियत कर दे और जैसे पिता अपने खास पुत्रकी रक्षा करता है वैसे ही इस वेदपाठीकी सब भाँति रक्षा करे। राजासे रक्षित होकर (वेदपाठी) जो नित्य धर्मानुष्ठान करता है उससे राजाके राज्य, धन और आयुकी वृद्धि होती है।’
यहाँतक कहा गया है—
न विप्रपादोदकपङ्कलानि
न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि।
स्वाहास्वधाकारविवर्जितानि
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि॥
‘जिन घरोंमें भोजन करनेके लिये आये हुए ब्राह्मणोंके चरणोंकी धोवनसे कीचड़ नहीं होती, जिनमें वेद-शास्त्रोंकी ध्वनि नहीं गूँजती, जहाँ हवनसम्बन्धी स्वाहा और श्राद्धसम्बन्धी स्वधाकी ध्वनि नहीं होती वे घर श्मशानके समान हैं।’
ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम्।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयो: पिता॥
(मनु० २।१३५)
‘ब्राह्मण दस वर्षका हो और राजा सौ वर्षका हो तो उनको पिता-पुत्रके समान जानना चाहिये अर्थात् उन दोनोंमें छोटी उम्रके ब्राह्मणोंके प्रति राजाको पिताके समान मान देना चाहिये।’
ब्राह्मण सद्गुण और सदाचार सम्पन्न होनेके साथ ही विद्वान् हो तब तो कहना ही क्या है, विद्वान् न हो तो भी वह सर्वथा पूजनीय है।
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्॥
(मनु० ९।३१७)
‘अग्नि वेदमन्त्रोंसे प्रकट की हुई हो या दूसरे प्रकारसे, वह जैसे परम देवता है वैसे ही विद्वान् हो या अविद्वान्, ब्राह्मण भी परम देवता है। अर्थात् वह सभी स्थितियोंमें पूज्य है।’
ब्राह्मणोंकी इतनी महिमा गानेवाले शास्त्र ब्राह्मणोंको सावधान करते हुए जो कुछ कहते हैं, उससे उनका पक्षपातरहित होना सिद्ध हो जाता है। शास्त्रकारोंको पक्षपाती बतलानेवाले भाई नीचे लिखे शब्दोंपर ध्यान दें—
अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥
तस्मादविद्वान् बिभियाद् यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहात्।
स्वल्पकेनाप्यविद्वान् हि पङ्के गौरिव सीदति॥
(मनु० ४।१९०-१९१)
‘जो ब्राह्मण तप और विद्यासे हीन होकर दान लेनेकी इच्छा करता है वह उस दातासहित इस प्रकार नरकमें डूबता है जैसे पत्थरकी नावपर चढ़ा हुआ मनुष्य नावसहित डूब जाता है। इसलिये अविद्वान् ब्राह्मणको जैसे-तैसे प्रतिग्रहसे डरना चाहिये; क्योंकि अनधिकारी अज्ञ ब्राह्मण थोड़े-से ही दानसे कीचमें फँसी गौके समान नरकमें दु:ख पाता है।’ अस्तु,
ऊपरके विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्णाश्रमधर्मकी रक्षा हिंदूजातिके जीवनके लिये अत्यावश्यक है और वर्णाश्रमकी रक्षाके लिये ब्राह्मणकी। ब्राह्मणका स्वरूप तप और त्यागमय है। और उस तप और त्यागपूर्ण ब्राह्मणत्वकी पुन: जागृति हो, इसके लिये चारों वर्णोंके धर्मप्रेमी पुरुषोंको भरपूर चेष्टा करनी चाहिये। ब्राह्मणकी अपने षट्कर्मोंपर* श्रद्धा बढ़े, ब्रह्मचिन्तन, सन्ध्योपासना और गायत्रीकी सेवामें उसका मन लगे और वेदाध्ययनकी ओर उसकी प्रवृत्ति हो इसकी बड़ी आवश्यकता है और यह ब्राह्मणकी सेवा-पूजा, सम्मान-दान आदिके द्वारा ब्राह्मणोचित कर्मोंके प्रति उसके मनमें उत्साह उत्पन्न करनेसे ही हो सकता है।
* अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥
(मनु० १।८८)
पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना—ये छ: कर्म ब्राह्मणोंके लिये रचे हैं।
वेदमेव सदाभ्यस्येत्तपस्तप्यन् द्विजोत्तम:।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तप: परमिहोच्यते॥
(मनु० २।१६६)
ब्राह्मण तप करता हुआ सदा वेदका ही अभ्यास करता रहे; क्योंकि इस लोकमें वेदका अभ्यास ही ब्राह्मणका बड़ा भारी तप कहा गया है।
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च॥
उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौच: समाहित:।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरांचिरम्॥
(मनु० ४। ९२-९३)
ब्राह्ममुहूर्तमें (अर्थात् रात्रिके पिछले पहरमें) जागना चाहिये और धर्म-अर्थके उपार्जनके हेतुओंका, कारणसहित शरीरके क्लेशोंका और वेदके तत्त्वार्थ अर्थात् ब्रह्मका बारंबार चिन्तन करना चाहिये। ब्राह्मणको चाहिये कि (शय्यासे) उठकर (मल-मूत्रादि) आवश्यक कामसे शुद्ध और सावधान होकर प्रात: सन्ध्या और सायं-सन्ध्याके अपने-अपने कालमें बहुत देरतक गायत्रीका जप करते हुए उपासना करे।
यदि ब्राह्मणत्व जाग्रत् हो गया और उसने फिरसे अपना स्थान प्राप्त कर लिया तो ब्राह्मण फिर पूर्वकी भाँति जगद्गुरुके पदपर प्रतिष्ठित हो सकता है और मनु महाराजका यह कथन भी शायद सत्य हो सकता है—
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:॥
(२। २०)
‘इस देश (भारतवर्ष)में उत्पन्न हुए ब्राह्मणसे पृथ्वीपर सब मनुष्य अपना-अपना आचार सीखें।’
इसपर यदि कोई कहे कि यह तो अतीत युगके ब्राह्मणोंके स्वरूपकी और उन्हींकी पूजाकी बात है। वर्तमान कालमें ऐसे आदर्श त्यागी ब्राह्मण कहाँ हैं जो उनकी सेवा-पूजा की जाय? इसका उत्तर यह है कि अवश्य ही यह सत्य है कि ऐसे ब्राह्मण इस कालमें बहुत ही कम मिलते हैं। कलियुगके प्रभाव, भिन्नधर्मी शासक, पाश्चात्य सभ्यताके कुसंग और जगत् के अधार्मिक वातावरण आदि कारणोंसे इस समय केवल ब्राह्मण ही नहीं, सभी वर्णोंमें धर्मप्रेमी सच्चे आचारवान् पुरुष कम मिलते हैं। परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हैं ही नहीं। बल्कि ऐसा कहना असंगत नहीं होगा कि इस गये-गुजरे जमानेमें भी वेदाध्ययन करनेवाले नि:स्पृही, त्यागी, सदाचारी, ईश्वर और धर्ममें अत्यन्त निष्ठा रखनेवाले ब्राह्मण मिल सकते हैं। चारों ओर अनादर और तिरस्कार पानेपर भी आज ब्राह्मणवर्णने ही सनातन संस्कृति और सनातन संस्कृत भाषाको बना रखा है। भीख माँगकर भी ब्राह्मण आज संस्कृत पढ़ते हैं। शौचाचारकी ओर देखा जाय तो भी यह कहना अत्युक्ति न होगा कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णकी अपेक्षा ब्राह्मणोंमें अपेक्षाकृत आज भी आचरणकी पवित्रता कहीं अधिक है। ऐसी स्थितिमें उनपर दोषारोपण न कर, उनकी निन्दा न कर, उनसे घृणा न कर, उनकी यथायोग्य सच्चे मनसे सेवा करनी चाहिये जिससे वे पुन: अपने स्वरूपपर स्थित होकर संसारके सामने ब्राह्मणत्वका पवित्र आदर्श उपस्थित कर सकें और उचित उपदेश और आदर्श आचरणके द्वारा समस्त जगत् का इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण करते हुए उन्हें परमात्माकी ओर अग्रसर कर सकें। सबसे मेरी यही विनीत प्रार्थना है।