आधारकी शुद्धि
भगवान् हैं, वे सच्चिदानन्दघन हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं, किसी भी देश-काल-पात्रमें उनका अभाव नहीं है। इतना होनेपर भी उनका अनुभव सबको क्यों नहीं होता? इसीलिये नहीं होता कि उनका तत्त्वस्वरूप अत्यन्त ही पवित्रतम और सूक्ष्मतम है। उस सूक्ष्म तत्त्वको जानने और अवधारण करनेके लिये तुम्हें शरीर, मन और बुद्धिरूप आधारको उसके उपयुक्त बनाना पड़ेगा। जबतक शरीर अशुद्ध है, चित्त चंचल और अपवित्र है और बुद्धि स्थूल एवं व्यभिचारिणी है, तबतक भगवान्की यथार्थ अनुभूति नहीं हो सकती। तप, शौच और आचारसे शरीरको शुद्ध करो। सत्संग, भगवन्नाम-जप और भगवद्गुणोंके चिन्तनसे चित्तको शुद्ध और संयत करो। परम सत्य एकमात्र परमात्माके स्वरूपके ध्यानसे बुद्धिको सूक्ष्म और अव्यभिचारिणी बनाओ। फिर परमात्माका अनुभव होनेमें—भगवान्के दर्शनमें देर नहीं होगी।
इसीलिये आधारकी शुद्धिपर इतना जोर दिया गया है। अशुद्ध आधारसे होनेवाला भगवत्प्रतिष्ठाका साधन यथार्थ आनन्द नहीं देता; क्योंकि परम शुद्धका प्रतिबिम्ब भी अशुद्धमें नहीं दीखता। साधन करते रहो। श्रद्धापूर्वक साधन करते-करते ज्यों-ज्यों आधार शुद्ध होगा, त्यों-ही-त्यों उसे भगवान्के पवित्र निवासस्थान बननेकी योग्यता मिलती जायगी और त्यों-ही-त्यों आनन्द भी आने लगेगा। थोड़े आनन्दके लाभसे फिर अधिक आनन्दकी कामना बढ़ेगी और वह कामना साधनाग्निमें ईंधनका काम देगी।
याद रखो—आधारकी शुद्धि उस परम सत्यकी प्रतिष्ठाके लिये अत्यन्त आवश्यक है। तुम अशुद्ध आधारमें उसकी धारणा करना चाहते हो और जब वह नहीं होती तब आधारकी अपरिणतिकी ओर तो ध्यान नहीं देते, सत्यपर ही सन्देह करने लगते हो। ऐसा न करो। शरीर, मन और बुद्धिको यम-नियमोंके द्वारा शुद्ध करनेके प्रयत्नमें पूर्णरूपसे लग जाओ। जब भगवान् इस आधार-मन्दिरको शुद्ध, स्वच्छ और दैवी गुणोंसे सुसज्जित पायेंगे, तब अपने-आप ही इसमें आ विराजेंगे। अब भी हैं तो सही, परन्तु छिपे हैं। फिर पर्दा हट जायगा और तुम अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे उनका सुख-स्पर्श पाकर निहाल हो जाओगे।
जबतक आधारकी यथायोग्य शुद्धि और परिणति न होगी तबतक उसमें किसी महात्माके द्वारा भी शक्तिसंचार किया जाना बड़ा कठिन है; क्योंकि अशुद्ध और अपरिणत आधारमें शक्तिपात होना सहज नहीं। यदि किया जाता है तो शक्तिको वहाँसे प्रतिहत होकर लौट आना पड़ता है, और बलपूर्वक शक्तिको रखे जानेकी कोशिश होती है तो आधार उसे सहन न करके फटने लगता है, क्लेश बढ़ जाता है। कहीं शक्ति रह जाती है तो उसके निष्फल जानेकी ही नहीं, उससे कुफल होनेकी भी खूब सम्भावना रहती है। जैसे उदरामयके रोगीके लिये घृत विषका काम करता है अथवा ताम्रके पात्रमें बनायी हुई खीर जहर-सी हो जाती है, उसी प्रकार अयोग्य पात्रमें उत्तम वस्तु भी प्रतिकूल फल देनेवाली बन जाती है। इसीलिये महात्मालोग जबतक आधारकी उचित परिणति नहीं देख लेते तबतक उसमें न रह सकने लायक उत्तम वस्तुको नहीं देते। हाँ, आधारकी शुद्धि और परिणतिके लिये महात्माओंका संग करो और उनकी कृपाका आश्रय ग्रहण करो। महत्पुरुषोंकी कृपासे और उनके आज्ञानुसार आचरण करनेसे आधारकी शुद्धि शीघ्र हो जायगी और आधारकी शुद्धि होनेपर वे सहज ही शक्तिपात कर सकेंगे।
यह भी नहीं समझ लेना चाहिये कि सभी महात्मा शक्तिपात करते हैं या कर सकते हैं। न तो सबका स्वभाव एक-सा होता है और न सबकी शक्तिमें ही समता होती है। कई महात्मा शक्ति होनेपर भी उसको काममें नहीं लाते, कई न्यून शक्तिसे भी काम लेनेकी चेष्टा करते हैं। जिन महात्माओंकी शक्तिपात करनेकी चेष्टा होती है, उनमें कुछ तो ऐसे बहुत बढ़ी हुई शक्तिवाले हो सकते हैं जो आंशिकरूपसे अपरिणत आधारको भी अपनी शक्तिके द्वारा सहज ही शुद्ध करके उसमें शक्तिस्थापन कर देते हैं। और जिनकी शक्ति कम बलवती होती है वे शुद्ध आधारमें भी बड़ी कठिनतासे शक्तिको पहुँचा सकते हैं। कुछ भी हो, आधारको शुद्ध और परिणत करनेकी चेष्टा प्राणपणसे करते रहो। शुद्ध आधारमें स्वयं ही परमात्मशक्तिका प्रकाश हो जायगा।