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गुरु बननेकी चेष्टा मत करो

तुम विद्या-बुद्धिमें, शक्ति-सामर्थ्यमें, बल-पौरुषमें, पद-प्रतिष्ठामें, धन-ऐश्वर्यमें, कला-कौशलमें, सौन्दर्य-माधुर्यमें, संयम-साधनमें, त्याग-वैराग्यमें और ज्ञान-विज्ञानमें कितने ही बड़े क्यों न हो जाओ, भूलकर भी कभी भगवान‍्के आसनको मत चाह बैठना।

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भगवान‍्की अचिन्त्य शक्तिका तिरस्कार करके जो मनुष्य मोह या अभिमानवश लोगोंके हृदयसे भगवान‍्के दिव्य और नित्य नामरूपको हटाकर अपने भौतिक और अनित्य नाम रूपको बैठाना चाहता है और भगवान‍्के बदले उनसे अपने हाड़-मांसके अपावन पुतलेकी पूजा-अर्चा करवाता है, उसका पतन होते देर नहीं लगती!

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तुम्हारे अन्दर जो कुछ भी शक्ति है, जो कुछ भी सत्ता-महत्ता है, सब भगवान‍्से आयी है, भगवान‍्की दी हुई है। उनकी दी हुई शक्ति-सत्ता-महत्ताको विनयपूर्वक हमेशा ईमानदारीके साथ उन्हींकी सेवामें समर्पण करते रहो। ऐसा करनेसे ये और भी बढ़ेंगी और भी पवित्र होंगी। भगवान‍्की महत्त्वपूर्ण शक्तियोंका स्रोत तुम्हारी ओर बह चलेगा और तुम्हें अपने अन्दर लेकर महान् शक्तिशाली बना देगा।

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सदा विनम्र रहो। सारे सद‍्गुणों और अखिल ऐश्वर्योंके भण्डार श्रीभगवान‍्के चरणोंमें अपनेको अर्पण करते रहो। तुम्हारे पास कोई भी आवे, उसे सीधा भगवान‍्का नाम बतला दो। तुम्हारी पूजाके लिये कैसा भी बहुमूल्य पदार्थ तुम्हारे सामने आवे, उसे सीधे भगवान‍्के अर्पण करवा दो। ललचा मत जाओ—किसी भी लोभनीय वस्तुको देखकर! ललचाये कि गिरे! तुम तो अपने लिये सबसे अधिक, नहीं-नहीं, एकमात्र लोभनीय मानो श्रीभगवान‍्को ही! और अपने आचरणोंसे, सद्‍व्यवहारसे, भगवान‍्की दी हुई शक्तिके सदुपयोगसे ऐसा प्रयत्न करो कि जिसमें जगत‍्के नर-नारी श्रीभगवान‍्की ओर झुकें, उनकी भक्ति करें और उनके प्रेमको पाकर कृतार्थ हो जायँ।

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जहाँतक हो गुरु बननेकी चेष्टा कभी मत करो, शिष्य ही रहो। इसीमें तुम्हारी भलाई है। कहीं भगवान‍्की प्रेरणासे गुरु बनना पड़े तो सावधान हो जाओ। तुम्हारी जिम्मेवारी और भी गुरुतर हो जाती है। गुरुपनका घमण्ड न करो। सदा-सर्वदा सचेत रहकर निष्कपटभावसे बाहर और भीतरसे अपनी प्रत्येक चेष्टाको शुद्ध, सात्त्विक और भगवत्सेवामयी बना लो। तुम्हारी एक भी चेष्टा—एक भी क्रिया ऐसी नहीं होनी चाहिये जिससे सर्वाराध्य भगवान‍्के प्रति किसीके भी मनमें तनिक-सी भी अमंगलमयी अश्रद्धा उत्पन्न हो। भगवान‍्से सदा प्रार्थना करते रहो और उनकी कृपाके बलपर ऐसा दृढ़ निश्चय रखो, जिससे कभी कोई अनीति-अनाचार तुम्हारे द्वारा बने ही नहीं। शिष्योंको जैसे बनाना चाहते हो, स्वयं पहले अपने आचार-विचारसे, क्रिया और भावनासे वैसे ही बन जाओ। पहले अपने गुरु बनो, फिर दूसरोंके।

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भगवान‍्को प्राप्त होनेवाली पूजा-प्रतिष्ठा और मान-बड़ाईसे सदा बचते रहो। जहाँ कोई भी पुरुष, किसी भी स्थितिमें, किसी भी कारणसे भगवान‍्के बदले तुम्हें उनके सिंहासनपर बैठाना चाहे, वहीं तुरन्त दृढ़तापूर्वक विरोध करके उसकी अभिलाषाकी जड़ ही काट डालो। याद रखो, ऐसा विचार ही तुम्हारे पतनका बीज है। देखो, तुम्हारी असावधानी या मूढ़तासे यह बो न दिया जाय। ऐसी विकट भूल न कर बैठना!

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