गीता गंगा
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दस नामापराध

सन्निन्दासति नामवैभवकथा
श्रीशेशयोर्भेदधी-
रश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां
नाम्न्यर्थवादभ्रम:।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहित-
त्यागौ च धर्मान्तरै:
साम्यं नामजपे शिवस्य च हरे-
र्नामापराधा दश॥

भगवन्नाम-जपमें दस अपराध होते हैं। उन दस अपराधोंसे रहित होकर हम नाम जपें। कई ऐसा कहते हैं—

राम नाम सब कोई कहे, दशरथ कहे न कोय।
एक बार दशरथ कहे, तो कोटि यज्ञ फल होय॥

और कई तो ‘दशरथ कहे न कोय’ की जगह ‘दशऋत कहे न कोय’ कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत’—दस अपराधोंसे रहित नहीं करते। साथ-साथ अपराध करते रहते हैं। उस नामसे भी फायदा होता है। पर नाम महाराजकी शक्ति उन अपराधोंके नाश होनेमें खर्च हो जाती है। अपराध करता है तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे रुष्ट होते हैं। ये अपराध हमारेसे न हों। इसके लिये खयाल रखें। दस अपराध बताये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं—

(१) ‘सन्निन्दा’—पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषोंकी निन्दा की जाय। अच्छे-पुरुषोंकी, भगवान‍्के प्यारे भक्तोंकी जो निन्दा करेंगे, भक्तोंका अपमान करेंगे, तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे। इस वास्ते किसीकी भी निन्दा न करें; क्योंकि किसीके भले-बुरेका पता नहीं लगता है।

ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ आश्रममें रहनेवाले, मामूली वर्णमें, मामूली आश्रममें, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान‍्के बड़े प्रेमी और भगवान‍्का नाम लेनेवाले होते हैं। उनका तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान‍्के भक्तकी निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे।

‘नाम चेतन कू चेत भाई। नाम चौथे कूँ मिलाई।’ नाम चेतन है। भगवान‍्का नाम दूसरे नामोंकी तरह होता है, ऐसा नहीं है। वह जड़ नहीं है, वह चेतन है। भगवान‍्का श्रीविग्रह चिन्मय होता है—‘चिदानंदमय देह तुम्हारी।’ हमारे शरीर जड़ होते हैं, शरीरमें रहनेवाला चेतन होता है। पर भगवान‍्का शरीर भी चिन्मय होता है। उनके गहने-कपड़े आदि भी चिन्मय होते हैं। उनका नाम भी चिन्मय है। यदि ऐसे चिन्मय नाम महाराजकी कृपा चाहते हो, उसकी मेहरबानी चाहते हो तो जो अच्छे पुरुष हैं और जो नाम लेनेवाले हैं, उनकी निन्दा मत करो।

(२) ‘असति नामवैभवकथा’—जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान‍्की महिमा नहीं जानता, भगवान‍्की निन्दा करता है, जिसकी नाममें रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान‍्के नामकी महिमा मत सुनाओ। वह सुननेसे तिरस्कार करेगा तो नाम महाराजका अपमान होगा। वह एक अपराध बन जायगा। इस वास्ते उसके सामने भगवान‍्के नामकी महिमा मत कहो। साधारण कहावत आती है—

हरि हीराँ री गाठड़ी, गाहक बिना मत खोल।
आसी हीराँ पारखी, बिकसी मँहगे मोल॥

भगवान‍्के ग्राहकके बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई? वह तो आया है दो पैसोंकी मूँगफली लेनेके लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना? क्या करेगा वह रतनका? उसके सामने भगवान‍्का नाम क्यों रखो भाई? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नामकी महिमा सुन नहीं सकते। उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है।

अन्नसे पले हैं, इतने बड़े हुए; परन्तु भीतर पित्तका जोर होता है तो मिश्री खराब लगती है, अन्नकी गन्ध आती है। वह भाता नहीं, सुहाता नहीं। अगर अन्न अच्छा नहीं है, तो इतनी बड़ी अवस्था कैसे हो गयी? अन्न खाकर तो पले हो, फिर भी अन्न अच्छा नहीं लगता? कारण क्या है? पेट खराब है। पित्तका जोर है।

तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात।
जैसे जुरके जोरसे, भोजनकी रुचि जात॥

ज्वरमें अन्न अच्छा नहीं लगता। ऐसे ही पापीको बुखार है, इस वास्ते उसे नाम अच्छा नहीं लगता। तो उसको नाम मत सुनाओ। मिश्री कड़वी लगती है सज्जनो! और मिश्री कड़वी है तो क्या कुटक, चिरायता मीठा होगा? परन्तु पित्तके जोरसे जीभ खराब है। पित्तकी परवाह नहीं मिश्री खाना शुरू कर दो। खाते-खाते पित्त शान्त हो जायगा और मिश्री मीठी लगने लग जायगी।

ऐसे किसीका विचार हो, रुचि न हो तो नाम-जप करना शुरू कर दे इस भावसे कि यह भगवान‍्का नाम है। हमें अच्छा नहीं लगता है, हमारी अरुचि है तो हमारी जीभ खराब है। यह नाम तो अच्छा ही है—ऐसा भाव रखकर नाम लेना शुरू कर दें और भगवान‍्से प्रार्थना करें कि हे नाथ! आपके चरणोंमें रुचि हो जाय, आपका नाम अच्छा लगे। ऐसे भगवान‍्से कहता रहे, प्रार्थना करता रहे तो ठीक हो जायगा।

(३) ‘श्रीशेशयोर्भेदधी:’—भगवान् विष्णुके भक्त हैं तो शंकरकी निन्दा न करें। दोनोंमें भेद-बुद्धि न करें। भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं—

उभयो: प्रकृतिस्त्वेका
प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्भाति।
कलयति कश्चिन्मूढो
हरिहरभेदं विना शास्त्रम्॥

भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनोंका स्वभाव एक है। परन्तु भक्तोंके भावोंके भेदसे भिन्नकी तरह दीखते हैं। इस वास्ते कोई मूढ़ दोनोंका भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता। दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है। हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेदसे भिन्नकी तरह दीखते हैं। ‘हरि-हर’ के भेदको लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’—अपना नाश करनेका अस्त्र है।

भगवान् शंकर और विष्णु इन दोनोंका आपसमें बड़ा प्रेम है। गुणोंके कारणसे देखा जाय तो भगवान् विष्णुका सफेद रूप होना चाहिये और भगवान् शंकरका काला रूप होना चाहिये; परन्तु भगवान् विष्णुका श्याम वर्ण है और भगवान् शंकरका गौर वर्ण है, बात क्या है। भगवान् शंकर ध्यान करते हैं भगवान् विष्णुका और भगवान् विष्णु ध्यान करते हैं भगवान् शंकरका। ध्यान करते हुए दोनोंका रंग बदल गया। विष्णु तो श्यामरूप हो गये और शंकर गौर वर्णवाले हो गये—‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्।’

अपने ललाटपर भगवान् रामके धनुषका तिलक करते हैं शंकर और शंकरके त्रिशूलका तिलक करते हैं रामजी। ये दोनों आपसमें एक-एकके इष्ट हैं। इस वास्ते इनमें भेद-बुद्धि करना, तिरस्कार करना, अपमान करना बड़ी गलती है। इससे भगवन्नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे। इस वास्ते भाई, भगवान‍्के नामसे लाभ लेना चाहते हो तो भगवान् विष्णुमें और शंकरमें भेद मत करो।

कई लोग बड़ी-बड़ी भेद-बुद्धि करते हैं। जो भगवान् कृष्णके भक्त हैं, भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे कहते हैं कि हम शंकरका दर्शन ही नहीं करेंगे। यह गलतीकी बात है। अपने तो दोनोंका आदर करना है। दोनों एक ही हैं। ये दो रूपसे प्रकट होते हैं—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के।’

‘अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’—वेद, शास्त्र और सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है।

(४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदोंके पठन- पाठनकी क्या आवश्यकता है? वैदिक कर्मोंकी क्या आवश्यकता है। इस प्रकार वेदोंपर अश्रद्धा करना नामापराध है।

(५) शास्त्रोंने बहुत कुछ कहा है। कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है। उनकी आपसमें सम्मति नहीं मिलती। ऐसे शास्त्रोंको पढ़नेसे क्या फायदा है? उनको पढ़ना तो नाहक वाद-विवादमें पड़ना है। इस वास्ते नाम-प्रेमीको शास्त्रोंका पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रोंमें अश्रद्धा करना नामापराध है।

(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करनेकी क्या आवश्यकता है? गुरुकी आज्ञापालन करनेकी क्या जरूरत है? नाम-जप इतना कमजोर है क्या? नाम-जपको गुरु-सेवा आदिसे बल मिलता है क्या? नाम-जप उनके सहारे है क्या? नाम-जपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है जो कि गुरुकी सेवा करनी पड़े? सहारा लेना पड़े? इस प्रकार गुरुमें अश्रद्धा करना नामापराध है।

वेदोंमें अश्रद्धा करनेवालेपर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं। सबको रास्ता बतानेवाली हैं। इस वास्ते वेदोंमें अश्रद्धा न करे। ऐसे शास्त्रोंमें—पुराण, शास्त्र, इतिहासमें भी अश्रद्धा न करे, तिरस्कार-अपमान न करे। सबका आदर करे। शास्त्रोंमें, पुराणोंमें, वेदोंमें, सन्तोंकी वाणीमें, भगवान‍्के नामकी महिमा भरी पड़ी है। शास्त्रों, सन्तों आदिने जो भगवन्नामकी महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारतसे बड़ा पोथा बन जाय। इतनी महिमा गायी है, फिर भी इसका अन्त नहीं है। फिर भी उनकी निन्दा करे और नामसे लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा?

जिन गुरु महाराजसे हमें नाम मिला है, यदि उनका निरादर करेंगे, तिरस्कार करेंगे तो नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे। कोई कहते हैं कि हमने गुरु किये पर वे ठीक नहीं निकले। ऐसी बात भी हो जाय तो मैं एक बात कहता हूँ कि आप उनको छोड़ दो भले ही, परन्तु निन्दा मत करो।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते॥

ऐसा विधान आता है। इस वास्ते गुरुको छोड़ दो और नाम-जप करो। भगवान‍्के नामका जप तो करो, पर गुरुकी निन्दा मत करो। जिससे कुछ भी पाया है, पारमार्थिक बातें ली हैं, जिससे लाभ हुआ है, भगवान‍्की तरफ रुचि हुई है, चेत हुआ है, होश हुआ है, उसकी निन्दा मत करो।

(७) ‘नाम्न्यर्थवादभ्रम:’—नाममें अर्थवादका भ्रम है। यह महिमा बढ़ा-चढ़ाकर कही है; इतनी महिमा थोड़ी है नामकी! नाममात्रसे कल्याण कैसे हो जायगा? ऐसा भ्रम न करें; क्योंकि भगवान‍्का नाम लेनेसे कल्याण हो जायगा। नाममें खुद भगवान् विराजमान हैं। मनुष्य नींद लेता है तो नाम लेते ही सुबोध होता है अर्थात् किसीको नींद आयी हुई है तो उसका नाम लेकर पुकारो तो वह नींदमें सुन लेगा। नींदमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्यामें लीन हुई रहती है—ऐसी जगह भी नाममें विलक्षण शक्ति है। ‘शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्’ शब्दमें अपार, असीम, अचिन्त्य शक्ति मानी है। नींदमें सोता हुआ जग जाय। अनादि कालसे सोया हुआ जीव सन्त-महात्माओंके वचनोंसे जग जाता है, उसको होश आ जाता है। जिस बेहोशीमें अनन्त जन्म बीत गये। लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये। ऐसे नींदमें सोता हुआ भी, शब्दमें इतनी अलौकिक विलक्षण शक्ति है, जिससे वह जाग्रत् हो जाय, अविद्या मिट जाय, अज्ञान मिट जाय। ऐसे उपदेशसे विचित्र हो जाय आदमी।

यह तो देखनेमें आता है। सत्संग सुननेसे आदमीमें परिवर्तन आता है। उसके भावोंमें महान् परिवर्तन हो जाता है। पहले उसमें क्या-क्या इच्छाएँ थीं, उसकी क्या दशा थी, किधर वृत्ति थी, क्या काम करता था? और अब क्या करता है? इसका पता लग जायगा। इस वास्ते शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है।

नाममें अर्थवादकी कल्पना करना कि नामकी महिमा झूठी गा दी है, लोगोंकी रुचि करनेके लिये यह धोखा दिया है। थोड़ा ठंडे दिमागसे सोचो कि सन्त-महात्मा भी धोखा देंगे तो तुम्हारे कल्याणकी, हितकी बात कौन कहेगा? बड़े अच्छे-अच्छे महापुरुष हुए हैं और उन्होंने कहा है—‘भैया! भगवान‍्का नाम लो। असम्भव सम्भव हो जाय। लोगोंने ऐसा करके देखा है। असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है। जो नहीं होनेवाली है वह भी हो जाती है। जिनके ऐसी बीती है उम्रमें, उन लोगोंने कहा है। ऐसी असम्भव बात सम्भव हो जाय, न होनेवाली हो जाय। इसमें क्या आश्चर्य है? क्योंकि ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ ईश्वर:’ ईश्वर करनेमें, न करनेमें, अन्यथा करनेमें समर्थ होता है। वह ईश्वर वशमें हो जाय अर्थात् भगवान् भगवन्नाम लेनेवालेके वशमें हो जाते हैं।

नाम महाराजसे क्या नहीं हो सकता? ऐसा कुछ है ही नहीं, जो न हो सके अर्थात् सब कुछ हो सकता है। भगवान‍्का नाम लेनेसे ऐसे लाभ होता है बड़ा भारी। नामसे बड़े-बड़े असाध्य रोग मिट गये हैं, बड़े-बड़े उपद्रव मिट गये हैं, भूत-प्रेत-पिशाच आदिके उपद्रव मिट गये हैं। भगवान‍्का नाम लेनेवाले सन्तोंके दर्शनमात्रसे अनेक प्रेतोंका उद्धार हो गया। भगवान‍्का नाम लेनेवाले पुरुषोंके संगसे, उनकी कृपासे अनेक जीवोंका उद्धार हो गया है।

सज्जनो! आप विचार करें तो यह बात प्रत्यक्ष दीखेगी कि जिन देशोंमें सन्त-महात्मा घूमते हैं, जिन गाँवोंमें, जिन प्रान्तोंमें सन्त रहते हैं और जिन गाँवोंमें सन्तोंने भगवान‍्के नामका प्रचार किया है, वे गाँव आज विलक्षण हैं दूसरे गाँवोंसे। जिन गाँवोंमें सौ-दो-सौ वर्षोंसे कोई सन्त नहीं गया है, वे गाँव ऐसे ही पड़े हैं अर्थात् वहाँके लोगोंकी भूत-प्रेत-जैसी दशा है। भगवान‍्का नाम लेनेवाले पुरुष जहाँ घूमे हैं, पवित्रता आ गयी, विलक्षणता आ गयी, अलौकिकता आ गयी। वे गाँव सुधर गये, घर सुधर गये, वहाँके व्यक्ति सुधर गये, उनको होश आ गया। वे स्वयं भी कहते हैं, हम मामूली थे पर भगवान‍्का नाम मिला, सन्त मिल गये तो हम मालामाल हो गये।

१९९३ वि० सं० में हमलोग तीर्थयात्रामें गये थे तो काठियावाड़में एक भाई मिला। उसने हमको पाँच-सात वर्षोंकी उम्र बतायी। अरे भाई! तुम इतने बड़े दीखते हो, तो क्या बात है? उस भाईने कहा—मैं सात वर्षोंसे ही ‘कल्याण’ मासिक पत्रका ग्राहक हूँ। जबसे इधर रुचि हुई, तबसे ही मैं अपनेको मनुष्य मानता हूँ। पहलेकी उम्रको मैं मनुष्य मानता ही नहीं, मनुष्यके लायक काम नहीं किया। उद्दण्ड, उच्छृंखल होते रहे। तो बोलो, कितना विलक्षण लाभ होता है? ‘तीर्थयात्रा-ट्रेन गीताप्रेसकी है’—ऐसा सुनते तो लोग परिक्रमा करते। जहाँ गाड़ी खड़ी रहती, वहाँके लोग कीर्तन करते और स्टेशनों-स्टेशनोंपर कीर्तन होता कि आज तीर्थयात्राकी गाड़ी आनेवाली है।

यह महिमा किस बातकी है? यह सब भगवान् को, भगवान‍्के नामको लेकर है। आज भी हम गोस्वामीजीकी महिमा गाते हैं, रामायणजीकी महिमा गाते हैं, तो क्या है? भगवान‍्का चरित्र है, भगवान‍्का नाम है। गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं—‘एहि महँ रघुपति नाम उदारा।’ इसमें भगवान‍्का नाम है जो कि वेद, पुराणका सार है। इस कारण रामायणकी इतनी महिमा है। भगवान‍्की महिमा, भगवान‍्के चरित्र, भगवान‍्के गुण होनेसे रामायणकी महिमा है। जिसका भगवान‍्से सम्बन्ध जुड़ जाता है, वह विलक्षण हो जाता है। गंगाजी सबसे श्रेष्ठ क्यों हैं? भगवान‍्के चरणोंका जल है। भगवान‍्के साथ सम्बन्ध है। इस वास्ते भगवान‍्के नामकी महिमामें अर्थवादकी कल्पना करना गलत है।

(८-९) ‘नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ’—निषिद्ध आचरण करना और विहित कर्मोंका त्याग कर देना। जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया, दूसरोंको धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरोंका हक मार लिया तो इसमें क्या पाप लगेगा। अगर लग भी जाय तो नामके सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाममें पापोंके नाश करनेकी अपार शक्ति है—इस भावसे नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है।

भगवान‍्का नाम लेते हैं। अब सन्ध्याकी क्या जरूरत है? गायत्रीकी क्या जरूरत है? श्राद्धकी क्या जरूरत है? तर्पणकी क्या जरूरत है? क्या इस बातकी जरूरत है? इस प्रकार नामके भरोसे शास्त्र-विधिका त्याग करना भी नाम महाराजका अपराध है। यह नहीं छोड़ना चाहिये। अरे भाई! यह तो कर देना चाहिये। शास्त्रने आज्ञा दी है। गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये।

नाम्नोऽस्ति यावती शक्ति: पापनिर्हरणे हरे:।
तावत् कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जन:॥

भगवान‍्के नाममें इतने पापोंके नाश करनेकी शक्ति है कि उतने पाप पापी कर नहीं सकता। लोग कहते हैं कि अभी पाप कर लो, ठगी-धोखेबाजी कर लो, पीछे राम-राम कर लेंगे तो नाम उसके पापोंका नाश नहीं करेगा। क्योंकि उसने तो भगवन्नामको पापोंकी वृद्धिमें हेतु बनाया है। भगवान‍्के नामके भरोसे पाप किये हैं, उसको नाम कैसे दूर करेगा?

इस विषयमें हमने एक कहानी सुनी है। एक कोई सज्जन थे। उनको अंग्रेजोंसे एक अधिकार मिल गया था कि जिस किसीको फाँसी होती हो, अगर वहाँ जाकर खड़ा रह जाय तो उसके सामने फाँसी नहीं दी जायगी—ऐसी उसको छूट दी हुई थी। उसकी लड़की जिसको ब्याही थी, वह दामाद उद्दण्ड हो गया। चोरी भी करे, डाका भी डाले, अन्याय भी करे। उसकी स्त्रीने मना किया तो वह कहता है क्या बात है? तेरा बाप, अपनी बेटीको विधवा होने देगा क्या? उसका जवाँई हूँ। उस लड़कीने अपने पिताजीसे कह दिया—‘पिताजी! आपके जवाँई तो आजकल उद्दण्ड हो गये हैं? कहना मानते हैं नहीं। ससुरने बुलाकर कहा कि ऐसा मत करो, तो कहने लगा—‘जब आप हमारे ससुर हैं, तो मेरेको किस बातका भय है।’ ऐसा होते-होते एक बार उसका जवाँई किसी अपराधमें पकड़ा गया और उसे फाँसीकी सजा हो गयी। जब लड़कीको पता लगा तो उसने आकर कहा—पिताजी! मैं विधवा हो जाऊँगी। पिताजी कहते हैं—बेटी! तू आज नहीं तो कल, एक दिन विधवा हो जायगी। उसकी रक्षा मैं कहाँतक करूँ। मेरेको अधिकार मिला है, वह दुरुपयोग करनेके लिये नहीं है। बेटीके मोहमें आकर पापका अनुमोदन करूँ, पापकी वृद्धि करूँ। यह बात नहीं होगी। वे नहीं गये।

ऐसे ही नाम महाराजके भरोसे कोई पाप करेगा तो नाम महाराज वहाँ नहीं जायँगे। उसका वज्रलेप पाप होगा, बड़ा भयंकर पाप होगा।

(१०) ‘धर्मान्तरै: साम्यम्’—भगवान‍्के नामकी अन्य धर्मोंके साथ तुलना करना अर्थात् गंगास्नान करो, चाहे नाम-जप करो। नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो। सब बराबर है। ऐसे किसीके बराबर नामकी बात कह दो तो नामका अपराध हो जायगा। नाम महाराज तो अकेला ही है। इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं। भगवान् शंकरका नाम लो चाहे भगवान् विष्णुका नाम लो। ये नाम दूसरोंके समान नाम नहीं हैं। नामकी महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है।

इस प्रकार इन दस अपराधोंसे रहित होकर नाम लिया जाय तो वह बड़ी जल्दी उन्नति करनेवाला होता है। अगर नाम जपनेवालेसे इन अपराधोंमेंसे कभी कोई अपराध बन भी जाय तो उसके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है, उसको तो ज्यादा नाम-जप ही करना चाहिये; क्योंकि नामापराधको दूर करनेवाला दूसरा प्रायश्चित्त है ही नहीं।

नाम महाराजकी तो बहुत विलक्षण, अलौकिक महिमा है, जिस महिमाको स्वयं भगवान् भी कह नहीं सकते। इस वास्ते जो केवल नामनिष्ठ है; जो रात-दिन नाम-जपके ही परायण है, जिनका सम्पूर्ण जीवन नाम-जपमें ही लगा है; नाम महाराजके प्रभावसे उनके लिये इन अपराधोंमेंसे कोई भी अपराध लागू नहीं होता। ऐसे बहुत-से सन्त हुए हैं, जो शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों आदिको नहीं जानते थे, परन्तु नाम महाराजके प्रभावसे उन्होंने वेदों, पुराणों आदिके सिद्धान्त अपनी साधारण ग्रामीण भाषामें लिख लिये हैं। इस वास्ते सच्चे हृदयसे नाममें लग जाओ भाई; क्योंकि यह कलियुगका मौका है। बड़ा सुन्दर अवसर मिल गया है।

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