नाम-जपकी विधि
नाम-जपकी खास विधि क्या है? खास विधि है कि भगवान्के होकर भगवान्के नामका जप करें, ‘होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु’। अब थोड़ी दूसरी बात बताते हैं। भगवान्के नामका जप करो; पर जपके साथमें प्रभुके स्वरूपका चिन्तन भी होना चाहिये। जैसे—‘गंगाजी’ का नाम लेते हैं तो गंगाजीकी धारा दिखती है कि ऐसे बह रही है। ‘गौमाता’ का नाम लेते हैं तो गायका रूप दिखता है। ऐसे ‘ब्राह्मण’ का नाम लेते हैं तो ब्राह्मणरूपी व्यक्ति दिखता है। मनमें एक स्वरूप आता है। ऐसे ‘राम’ कहते ही धनुषधारी राम दीखने चाहिये मनसे। इस प्रकार नाम लेते हुए मनसे भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करो। यह खास विधि है। पातंजलयोगदर्शनमें लिखा है—‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’, ‘तस्य वाचक: प्रणव:’ भगवान्के नामका जप करना और उसके अर्थका चिन्तन करना अर्थात् नाम लेते जाओ और उसको याद करते जाओ।
श्रीकृष्णके भक्त हों तो उनके चरणोंकी शरण होकर, ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’ इस मन्त्रको जपते हुए साथ-साथ स्वरूपको याद करते जाओ। नाम-जपकी यह खास विधि है। एक विधि तो उसके होकर नाम जपना और दूसरी विधि—नाम जपते हुए उसके स्वरूपका ध्यान करते रहना। कहीं भूल होते ही ‘हे नाथ! हे नाथ!!’ पुकारो। ‘हे प्रभो! बचाओ, मैं तो भूल गया। मेरा मन और जगह चला गया, हे नाथ! बचाओ।’ भगवान्से ऐसी प्रार्थना करो तो भगवान् मदद करेंगे। उनकी मददसे जो काम होगा, वह काम आप अपनी शक्तिसे कर नहीं सकोगे। इस वास्ते भगवान्के नामका जप और उनके स्वरूपका ध्यान—ये दोनों साथमें रहें।
‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्।’
(गीता ८। १३)
‘ॐ’ इस एक अक्षरका उच्चारण करे और मेरा स्मरण करे। यह जगह-जगह बात आती है। इस वास्ते भगवान्के नाम-जपके साथ भगवान्के स्वरूपकी भी याद रहे।
नाम-जप दिखावटीपनमें न चला जाय अर्थात् मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरेको भक्त मानें, अच्छा मानें, लोग मेरेको देखें—यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये। यह भाव होगा तो नामकी बिक्री हो जायगी। नामका पूरा फल नहीं मिलेगा; क्योंकि आपने नामको मान-बड़ाईमें खर्च कर दिया। इस वास्ते दिखावटीपन नहीं होना चाहिये नाम-जपमें। नाम-जप भीतरसे होना चाहिये—लगनपूर्वक। लौकिक धनको भी लोग दिखाते नहीं। उसको भी तिजोरीमें बंद रखते हैं, तो लौकिक धन-जैसा भी यह धन नहीं है क्या? जो लोगोंको दिखाया जाय। लोगोंको पता लगे तो क्या भजन किया? गुप्तरीतिसे करे, दिखावटीपन बिलकुल न आवे। नाम-जप भीतर-ही-भीतर करते रहें। एकान्तमें करते रहें, मन-ही-मन करते रहें और मन-ही-मनसे पुकारें, लोगोंको दिखानेके लिये नहीं। लोग देख लें तो उसमें शर्म आनी चाहिये कि मेरी गलती हो गयी। लोगोंको पता लग गया। हमें एक महात्मा मिले थे। उन्होंने एक बात कही।
प्रह्लादजीको इतना कष्ट क्यों पाना पड़ा? प्रह्लादजीने अपना भजन प्रकट कर दिया। अगर वे प्रकट न करते तो उनको इतना कष्ट क्यों पाना पड़ता? इस वास्ते अपना भजन प्रकट न करें। किसीको पता ही न होने दें कि यह भगवान्का भजन करता है। बहिनों-माताओंको चाहिये कि वे ऐसी गुप्तरीतिसे भगवान्के भजनमें लग जायँ। देखो, गुप्तरीतिसे किया हुआ भजन बड़े महत्त्वका होता है। पाप भी गुप्त किये हुए बडे़ भयंकर होते हैं। भजन भी बड़ा लाभदायक होता है। गुप्त दिया हुआ दान भी बड़ा लाभदायक है। गुप्त दान कौन-सा है? घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है, गुप्त दान नहीं है। गुप्त दान कौन-सा है? जिसके घरमें चला जाय, उसे पता नहीं चले कि कहाँसे आया है? किसने दिया है? देनेवालेका पता न लगे, यह गुप्त दान होता है। घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है। चोरीका पाप होता है।
एक बार सुबहके प्रवचनमें मैंने कह दिया कि गरीबोंकी सेवा करो। तो एक भाई बोले—गरीबोंकी सेवा करते हैं तो गरीब तंग कर देते हैं महाराज! तो मैंने कहा—सेवा इस ढंगसे करो कि उन्हें मालूम न हो कि किसने सेवा की। वह तो आपकी सेवा है, नहीं तो लोगोंमें झंडा फहराते हैं कि हम देते हैं, देते हैं। भीड़ बहुत हो जायगी, लोग लूट लेते हैं, तंग करते हैं। यह सेवाका भाव नहीं है। केवल वाह-वाह लेनी है और कुछ नहीं है।
भीतरका भाव हो जाय कि इनके घर कैसे चीज पहुँचे? किस तरहसे इनकी सहायता हो जाय। कैसे गुप्त दिया जाय, तो उस दानका माहात्म्य है। ऐसे ही गुप्तरीतिसे भजन हो। भगवान्के नामका जप भीतर-ही-भीतर हो। नामजप भीतरसे नहीं होता है तो बोलकर करो, कोई परवाह नहीं; पर भाव दिखावटीपनका नहीं होना चाहिये। कोई देख भी ले, तो वह इतना दोष नहीं है, प्रत्युत दिखावेका भाव महान् दोष है। आप नित्य-निरन्तर भजनमें लग जाओ। कहीं कोई देख भी ले तो सावधान हो जाओ। उसके लिये यह नहीं कि हमारा भजन ही बंद हो जाय।
(१) भगवान्के होकर भजन करें, (२) भगवान्का ध्यान करते हुए भजन करें, (३) गुप्तरीतिसे करें, (४) निरन्तर करें, क्योंकि बीचमें छूटनेसे भजन इतना बढ़िया नहीं होता। निरन्तर करनेसे एक शक्ति पैदा होती है। जैसे, बहिनें-माताएँ रसोई बनाती हैं? तो रसोई बनावें तो दस-पंद्रह मिनट बनाकर छोड़ दें, फिर घंटाभर बादमें शुरू करें। फिर थोड़ी देर बनावें, फिर घंटाभर ठहरकर करने लगें। इस प्रकार करनेसे क्या रसोई बन जायगी? दिन बीत जायगा, पर रसोई नहीं बनेगी। लगातार किया जाय तो चट बन जायगी। ऐसे ही भगवान्का भजन लगातार हो, निरन्तर हो, छूटे नहीं, रात-दिन, सुबह-शाम कभी भी छूटे नहीं। नारदजी महाराज भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं—‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ सब कुछ भगवान्के अर्पण कर दे, भगवान्को भूलते ही परम व्याकुल हो जाय। जैसे मछलीको जलसे बाहर कर दिया जाय तो वह तड़फड़ाने लगती है। इस तरहसे भगवान्की विस्मृतिमें हृदयमें व्याकुलता हो जाय। भगवान्को भूल गये, गजब हो गया! उसकी विस्मृति न हो। लगातार उसकी स्मृति रहे और प्रार्थना करे—‘हे भगवान्! मैं भूलूँ नहीं, हे नाथ! मैं भूलूँ नहीं।’ ऐसा कहता रहे और निरन्तर नाम-जप करता रहे।
(५) इसमें एक बात और खास है—कामना न करे अर्थात् मैं माला फेरता हूँ, मेरी छोरीका ब्याह हो जाय। मैं नाम जपता हूँ तो धन हो जाय, मेरे व्यापारमें नफा हो जाय। ऐसी कोई-सी भी कामना न करे। यह जो संसारकी चीजोंकी कामना करना है यह तो भगवान्के नामकी बिक्री करना है। इससे भगवान्का नाम पुष्ट नहीं होता, उसमें शक्ति नहीं आती। आप खर्च करते रहते हो, मानो हीरोंको पत्थरोंसे तौलते हो! भगवान्का नाम कहेंगे तो धन-संग्रह हो जायगा। नहीं होगा तो क्या हो जायगा? मेरे पोता हो जाय। अब पोता हो जाय। अब पोता हो गया तो क्या? नहीं हो गया तो क्या? एक विष्ठा पैदा करनेकी मशीन पैदा हो गयी, तो क्या हो गया? नहीं हो जाय तो कौन-सी कमी रह गयी? वह भी मरेगा, तुम भी मरोगे! और क्या होगा? पर इनके लिये भगवान्के नामकी बिक्री कर देना बहुत बड़ी भूल है। इस वास्ते ऐसी तुच्छ चीजोंके लिये, जिसकी असीम, अपार कीमत है, उस भगवन्नामकी बिक्री न करें, सौदा न करें और कामना न करें। नाम महाराजसे तो भगवान्की भक्ति मिले, भगवान्के चरणोंमें प्रेम हो जाय, भगवान्की तरफ खिंच जायँ यह माँगो। यह कामना नहीं है; क्योंकि कामना तो लेनेकी होती है और इसमें तो अपने-आपको भगवान्को देना है। आपका प्रेम मिले, आपकी भक्ति मिले, मैं भूलूँ ही नहीं—ऐसी कामना खूब करो।
सन्तोंने भगवान्से भक्ति माँगी है। अच्छे-अच्छे महात्मा पुरुषोंने भगवान्के चरणोंका प्रेम माँगा है—
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु
तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन
सो राउर निज गेहु॥
भगवान् शंकर माँगते हैं—
बार बार बर मागउँ
हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी
भगति सदा सतसंग॥
तो उनके कौन-सी कमी रह गयी? पर यह माँगना सकाम नहीं है। तीर्थ, दान आदिके जितने पुण्य हैं, उन सबका एक फल माँगे कि भगवान्के चरणोंमें प्रीति हो जाय। हे नाथ! आपके चरणोंमें प्रेम हो जाय, आकर्षण हो जाय। भगवान् हमें प्यारे लगें, मीठे लगें। यह कामना करो। यह कामना सांसारिक नहीं है।
भगवान्का नाम लेते हुए आनन्द मनाओ, प्रसन्न हो जाओ कि मुखमें भगवान्का नाम आ गया, हम तो निहाल हो गये! आज तो भगवान्ने विशेष कृपा कर दी, जो नाम मुखमें आ गया। नहीं तो मेरे-जैसेके लिये भगवान्का नाम कहाँ? जिनके याद करनेमात्रसे मंगल हो जाय ऐसे जिस नामको भगवान् शंकर जपते हैं—
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनंग आराती॥
वह नाम मिल जाय हमारेको। कलियुगी तो हम जीव और राम-नाम मिल जाय तो बस मौज हो गयी, भगवान्ने विशेष ही कृपा कर दी। ऐसी सम्मति मिल गयी, हमारेको भगवान्की याद आ गयी। भगवान्की बात सुननेको मिली है; भगवान्की चर्चा मिली है, भगवान्का नाम मिला है, भगवान्की तरफ वृत्ति हो गयी है—ऐसे समझकर खूब आनन्द मनावें, खूब खुशी मनावें, प्रसन्नता मनावें।
एक बात और विलक्षण है! उसपर आप ध्यान दें। बहुत ही लाभकी बात है, (६) जब कभी भगवान् अचानक याद आ जायँ, भगवान्का नाम अचानक याद आ जाय, भगवान्की लीला अचानक याद आ जाय, उस समय यह समझे कि भगवान् मेरेको याद करते हैं। भगवान्ने अभी मेरेको याद किया है। नहीं तो मैंने उद्योग ही नहीं किया, फिर अचानक ही भगवान् कैसे याद आये? ऐसा समझकर प्रसन्न हो जाओ कि मैं तो निहाल हो गया। मेरेको भगवान्ने याद कर लिया। अब और काम पीछे करेंगे। अब तो भगवान्में ही लग जाना है; क्योंकि भगवान् याद करते हैं, ऐसा मौका कहाँ पड़ा है? ऐसे लग जाओ तो बहुत ज्यादा भक्ति है। जब अंगद रवाना हुए और उनको पहुँचाने हनुमान्जी गये तो अंगदने कहा—‘बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि’ याद कराते रहना रामजीको। तात्पर्य जिस समय अचानक भगवान् याद आते हैं, उस समयको खूब मूल्यवान् समझकर तत्परतासे लग जाओ। इस प्रकार छ: बातें हो गयीं।
गुप्त अकाम निरन्तर, ध्यान-सहित सानन्द।
आदर जुत जप से तुरत, पावत परमानन्द॥
कई भाई कह देते हैं, हम तो खाली राम-राम करते हैं। ऐसा मत समझो। यह राम-नाम खाली नहीं होता है? जिस नामको शंकर जपते हैं, सनकादिक जपते हैं, नारदजी जपते हैं, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, संत-महात्मा जपते हैं, वह नाम मेरेको मिल गया, यह तो मेरा भाग्य ही खुल गया है। ऐसे उसका आदर करो। जहाँ कथा मिल जाय, उसका आदर करो। भगवान्के भक्त मिल जायँ, उनका आदर करो। भगवान्की लीला सुननेको मिल जाय, तो प्रसन्न हो जाओ कि यह तो भगवान्ने बड़ी कृपा कर दी। भगवान् मानो हाथ पकड़कर मेरेको अपनी तरफ खींच रहे हैं। भगवान् मेरे सिरपर हाथ रखकर कहते हैं—‘बेटा! आ जा।’ ऐसे मेरेको बुला रहे हैं। भगवान् बुला रहे हैं—इसकी यही पहचान है कि मेरेको सुननेके लिये भगवान्की कथा मिल गयी। भगवान्की चर्चा मिल गयी। भगवान्का पद मिल गया। भगवत्सम्बन्धी पुस्तक मिल गयी। भगवान्का नाम देखनेमें आ गया।
मालाके बिना अगर नाम-जप होता हो तो मालाकी जरूरत नहीं। परन्तु मालाके बिना भूल बहुत ज्यादा होती हो तो माला जरूर रखनी चाहिये। मालासे भगवान्की यादमें मदद मिलती है।
माला मनसे लड़ पड़ी, तूँ नहिं बिसरे मोय।
बिना शस्त्रके सूरमा लड़ता देख्या न कोय॥
बिना शस्त्रके लड़ाई किससे करें! यह माला शस्त्र है भगवान्को याद करनेका! भगवान्की बार-बार याद आवे, इस वास्ते भगवान्की यादके लिये मालाकी बड़ी जरूरत है। निरन्तर जप होता है तो मालाकी कोई जरूरत नहीं, फिर भी माला फेरनी चाहिये, माला फेरनेकी आवश्यकता है।
दूसरी आवश्यकता है—जितना नियम है उतना पूरा हो जाय, उसमें कमी न रह जाय उसके लिये माला है। माला लेनेसे एक दोष भी आता है। वह यह है कि आज इतना जप पूरा हो गया, बस अब रख दो माला। ऐसा नहीं करना चाहिये। भगवद्भजनमें कभी संतोष न करे। कभी पूरा न माने। धन कमानेमें पूरा नहीं मानते। पाँच रुपये रोजाना पैदा होते हैं जिस दुकानमें, उस दुकानमें सुबहके समयमें पचास रुपये पैदा हो गये तो भी दिनभर दुकान खुली रखेंगे। अब दस गुणी पैदा हो गयी तो भी दुकान बंद नहीं करेंगे। परन्तु भगवान्का भजन, नियम पूरा हो जाय तो पुस्तक भी समेटकर रख देंगे, माला भी समेटकर रख देंगे; क्योंकि आज तो नित्य-नियम हो गया। यह बड़ी गलती होती है। मालासे यह गलती न हो जाय कहीं कि इतनी माला हो गयी, अब बंद करो। इसमें तो लोभ लगना चाहिये कि माला छोड़ूँ ही नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा करता रहूँ।
‘कल्याण’ में एक लेख आया था—एक गाँवमें रहनेवाले स्त्री-पुरुष थे। गँवार थे बिलकुल। पढ़े-लिखे नहीं थे। वे मालासे जप करते तो एक पावभर उड़दके दाने अपने पास रख लेते। एक माला पूरी होनेपर एक दाना अलग रख देते। ऐसे दाने पूरे होनेपर कहते कि मैंने पावभर भजन किया है। स्त्री कहती कि मैंने आधा सेर भजन किया, आधा सेर माला भजन किया। उनके यही संख्या थी। तो किसी तरह भगवान्का नाम जपे। अधिक-से-अधिक सेर, दो सेर भजन करो। यह भी भजन करनेका तरीका है। जब आप लग जाओगे तो तरीका समझमें आ जायगा।
जैसे सरकार इतना कानून बनाती है फिर भी सोच करके कुछ-न-कुछ रास्ता निकाल ही लेते हो। भजनकी लगन होगी तो क्या रास्ता नहीं निकलेगा। लगन होगी तो निकाल लोगे। सरकार तो कानूनोंमें जकड़नेकी कमी नहीं रखती; फिर भी आप उससे निकलनेकी कमी नहीं रखते। कैसे-न-कैसे निकल ही जाते हैं। तो संसारसे निकलो भाई। यह तो फँसनेकी रीति है।
भगवान्के ध्यानमें घबराहट नहीं होती, ध्यानमें तो आनन्द आता है, प्रसन्नता होती है; पर जबरदस्ती मन लगानेसे थोड़ी घबराहट होती है तो कोई हर्ज नहीं। भगवान्से कहो—‘हे नाथ! मन नहीं लगता।’ कहते ही रहो, कहते ही रहो। एक सज्जनने कहा था—कहते ही रहो ‘व्यापारीको ग्राहकके अगाड़ी और भक्तको भगवान्के अगाड़ी रोते ही रहना चाहिये कि क्या करें बिक्री नहीं होती, क्या करें पैदा नहीं होती।’ ऐसे भक्तको भगवान्के अगाड़ी ‘क्या करें, महाराज! भजन नहीं होता है, हे नाथ! मन नहीं लगता है।’ ऐसे रोते ही रहना चाहिये। ग्राहकके अगाड़ी रोनेसे बिक्री होगी या नहीं होगी, इसका पता नहीं, पर भगवान्के अगाड़ी रोनेसे काम जरूर होगा। यह रोना एकदम सार्थक है।
सच्ची लगन आपको बतायेगी कि हमारे भगवान् हैं और हम भगवान्के हैं। यह सच्चा सम्बन्ध जोड़ लें। उसीकी प्राप्ति करना हमारा खास ध्येय है, खास लक्ष्य है। यह एक बन जायगा तो दूजी बातें आ जायँगी। बिना सीखे ही याद आ जायँगी, भगवान्की कृपासे याद आ जायँगी।