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॥ श्रीहरि:॥

नाम-महिमा

राम राम राम .....................
एक भी श्वास खाली खोय ना खलक बीच,
कीचड़ कलंक अंक धोय ले तो धोय ले;
उर अँधियारो पाप-पुंज सों भरी है देह,
ज्ञानकी चराखाँ चित्त जोय ले तो जोय ले।
मानखा जनम फिर ऐसो ना मिलेगा मूढ़,
परम प्रभुजीसे प्यारो होय ले तो होय ले;
छिन भंग देह ता में जनम सुधारिबो है,
बीजके झबाके मोती पोय ले तो पोय ले॥

भाई-बहिनोंने पैसोंको बहुत कीमती समझा है। पैसा इतना कीमती नहीं है, जितना कीमती हमारा समय है। मनुष्य-जन्मका जो समय है, वह बहुत ही कीमती है। मनुष्य-जन्मके समयको देकर हम मूर्खसे विद्वान् बन सकते हैं। समयको देकर हम धनी बन सकते हैं। समय लगनेपर एक आदमीके परिवारके सैकड़ों लोग हो जाते हैं। समयको लगाकर हम संसारमें मान, आदर, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त कर सकते हैं; बहुत बड़ी जमीन-जायदाद आदिको अपने अधिकारमें कर सकते हैं। समय लगनेसे स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है। इतना ही नहीं, मनुष्य-शरीरका समय लगानेसे हो जाय परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति, जिसके बाद प्राप्त करना कुछ बाकी न रहे। इस प्रकार समय लगाकर सांसारिक सब चीजें प्राप्त हो सकती हैं; परन्तु सब-की-सब चीजें, रुपये-पैसे आदि देनेपर भी जीनेका समय नहीं मिलता।

जैसे, आपने सत्तर-पचहत्तर वर्षोंकी उम्रमेंसे साठ वर्ष रुपये कमानेमें लगाये, साठ वर्षोंमें बहुत जमीन-जायदाद इकट्ठी कर ली, मकान बना लिये, बहुत सम्पत्ति इकट्ठी कर ली। अब उस सम्पत्तिको पीछे देकरके अगर हम साठ घंटे भी और जीना चाहें तो जी सकते हैं क्या? इसमें थोड़ा-सा विचार करें। जिस सम्पत्तिके संग्रहमें साठ वर्ष खर्च हुए, उस सम्पूर्ण सम्पत्तिको देकर हम साठ घंटे भी खरीद सकते हैं क्या? एक वर्षकी कीमतमें हम एक घंटा भी लेना चाहें तो नहीं मिल सकता। जिस पूँजीके बटोरनेमें एक वर्ष लगा, उस पूँजीके बदलेमें एक मिनट और साठ वर्षकी पूँजीसे साठ मिनट लेना चाहें तो नहीं मिल सकते तो हमारा समय बरबाद हो गया न?

वैश्य भाई ऐसा व्यापार नहीं करते कि जिसमें पूँजी तो लग जाय और पीछे कौड़ी एक बचे नहीं। व्यापारमें तो कुछ-न-कुछ पैदा होना ही चाहिये, परन्तु इधर साठ वर्षोंकी उम्रमें जितनी पूँजी इकट्ठी की, उसके बदलेमें साठ महीने मिल जायँ, साठ दिन मिल जायँ तो भी बारहवाँ अंश तो मिला; परन्तु साठ दिन तो दूर रहे साठ घंटा, साठ मिनट भी नहीं मिलते और समय हमारा लग गया साठ वर्षका, तो हम बहुत घाटेमें चले गये। बहुत क्या, केवल कोरा घाटा-ही-घाटा।

आज दिनतकके समयमें हमने जो संग्रह किया है, उस संग्रहके बदलेमें हमारा गया हुआ समय मिलेगा क्या? नहीं मिलेगा। ऐसे समय बरबाद न हो, इसके लिये आजसे ही विशेषतासे सावधान हो जायँ। हम विशेष सावधान तभी हो सकते हैं, जब निर्णय करके आयें कि हम क्या चाहते हैं। यदि हम रुपये-पैसे चाहते हैं, मान-बड़ाई चाहते हैं, नीरोगता चाहते हैं, सदा जीते रहना चाहते हैं तो ये सब बातें कभी नहीं हो सकतीं, असम्भव हैं।

मनुष्योंको इसका भी होश नहीं है कि हम क्या चाहते हैं? हमारी असली चाह क्या है—इसका भी पता नहीं है; क्योंकि हम खोज ही नहीं करते, इधर ध्यान ही नहीं देते कि वास्तवमें हमारी चाह क्या है। इस वास्ते सज्जनो! इसमें तो स्वयं आपको सोचना होगा। इसमें कोई सहारा देनेवाला नहीं है। जब मृत्यु आयेगी, उस समयमें प्यारे-से-प्यारे, ज्यादा स्नेह रखनेवाले रो देंगे। इसके सिवाय और क्या कर सकते हैं वे? कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। अगर आप भजन करते, भगवान‍्में लगते, तो क्या यह दुर्दशा होती?

‘धनवंता सोई जानिये जाके राम-नाम धन होय।’

राम-नामरूपी धन पासमें होता तो मरनेपर वह पूँजी साथमें चलती। भजन आपने किया है, भगवान‍्का नाम लिया है, भगवान‍्का चिन्तन किया है, सद्भावोंका संग्रह किया है, अपनी प्रकृति सुधार ली है अर्थात् अपने स्वभावका सुधार कर लिया है तो वह आपके साथ चलेगा। परन्तु यहाँकी चीजें बटोरी हैं, ये साथमें नहीं चलेंगी। स्वभावमें जो बात आ गयी, वह साथमें चलेगी। आपने अपना स्वभाव जितना शुद्ध बना लिया, उतना आपने काम कर लिया। जितना भजन आपने कर लिया, आपने उतना संग्रह कर लिया; उतनी साथ जानेवाली पूँजी हो गयी। यह पूँजी ऐसी विलक्षण है कि सांसारिक धनको चुरानेवाले जो चोर-डाकू हैं न? वे भी उस पूँजीको चुरा नहीं सकते। आपकी सांसारिक पूँजीपर डाका पड़ता है; परन्तु भजनरूपी पूँजीपर डाका नहीं पड़ता। शरीर यहाँ रहेगा तो वह पूँजी आपके साथ रहेगी और शरीर जायगा तो वह पूँजी आपके साथ जायगी। इसका भार नहीं होगा, बोझा नहीं होगा।

यहाँ संसारमें रहते हुए भाई अलग-अलग होते हैं, तो उनमें पूँजीका, घरका बँटवारा होता है; परन्तु आपके इस धनका कभी बँटवारा नहीं होगा कि इतना उसके हिस्सेमें आता है। इतना अमुक-अमुकके हिस्सेमें आता है। पर यह धन कभी घटता नहीं और कभी मिटता भी नहीं। परमात्माकी प्राप्ति करा देता है। दु:खोंका सदाके लिये अन्त करा देता है। महान् आनन्दकी प्राप्ति करा देता है। ऐसा भजन करनेके लिये हमारी जीभ सदा खुली है। खास बात हो तो बोलो, उसके सिवाय नाम जपते रहो—

हाथ काम मुख राम है, हिरदे साँची प्रीत।
दरिया ग्रेही साध की याही उत्तम रीत॥

जो हाथसे तो काम-धन्धा करते रहे और मुखसे राम राम राम.....चलता रहे और हृदयमें भगवान‍्से अपनापन हो, वह गृहस्थी सन्त है। इस साधनको सभी भाई-बहिन स्वतन्त्रतासे कर सकते हैं। हृदयमें भगवान‍्के प्रति सच्चा प्रेम हो कि भगवान् हमारे हैं और हम भगवान‍्के हैं। संसार हमारा नहीं है और हम संसारके नहीं हैं। संसारकी सेवा कर देनी है; क्योंकि संसारकी सेवाके लिये ही यहाँ आना हुआ है। संसारसे लेनेके लिये नहीं आये हैं हम। यहाँ लेना कुछ नहीं है। यहाँकी ये चीजें साथ चलेंगी नहीं। मेरी-मेरी कर लोगे तो अन्त:करणमें मेरेपनका जो संस्कार पड़ेगा, वह जन्म देगा, दु:ख देगा—

‘मायामें रह जाय बासना अजगर देह धरासी।’

रुपये-पैसोंमें वासना रह गयी तो साँप बनना पड़ेगा। धन साथमें नहीं चलेगा और यदि भगवद्भजन कर लोगे तो वह साथमें चलेगा। वह असली पूँजी है—

‘राम नाम धन पायो प्यारा,
जनम जनमके मिटत बिकारा।’
‘पायो री मैंने राम रतन धन पायो।’

सन्तोंकी वाणीमें जहाँ गुरु महाराजकी महिमा गायी है, उसमें कहा है—‘गुरुजी महाराज बड़े दाता मिले। उन्होंने हमारेको भगवान‍्का नाम देकर धनवान् बना दिया—‘धिन-धिन धनवंत कर दिया गुरु मिलिया दातार।’ सज्जनो! इसकी कीमत समझनेपर फिर महिमा समझमें आती है कि नाम कितना विलक्षण है। सन्त-महात्माओंसे जिनको नाम प्राप्त हुआ है, वे लोग गुण गाते हैं। जो अच्छे-अच्छे महापुरुष हो गये हैं, वे भी गुरुकी महिमा गाते हैं। किस बातको लेकर? कि महाराजने हमारेको भगवान‍्का नाम दे दिया।

उस नामसे क्या-क्या आनन्द होता है, उसका कोई पारावार नहीं। नाम महाराजकी अपार महिमा है, असीम महिमा है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सीतारामजीको इष्ट मानते हैं और वे उनके अनन्य भक्त हैं; परन्तु नामकी महिमा गाते हुए वे कहते हैं—‘कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥’ नामकी महिमा मैं कहाँतक कहूँ, भगवान् राम भी नामकी महिमा कह सकते नहीं। अपने इष्टको भी असमर्थ बता देते हैं अर्थात् इस नामकी महिमाके विषयमें हमारे श्रीरघुनाथजी भी असमर्थ हैं। भाई, नामकी महिमा यहाँतक है, यहाँतक है, ऐसा कहनेमें भगवान् भी असमर्थ हैं। अपने इष्टको भी असमर्थ बता देना क्या तिरस्कार नहीं है? नहीं, नहीं, आदर है। कैसे? इस नामकी इयत्ता (सीमा) है ही नहीं कि भाई, इसकी इतनी-इतनी महिमा है। नामकी तो अपार असीम महिमा है। वह नाम हर समय लिया जा सकता है। काम-धन्धा करते हुए, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते आदि हर समयमें भगवान‍्का नाम लिया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं—भगवान‍्ने नाममें अपनी पूरी-की-पूरी शक्ति (महिमा) रख दी है और इसमें विलक्षणता यह है कि इसके लेनेमें कोई समय नहीं बाँधा गया है कि अमुक समयमें नाम ले सकते हो, उसके सिवाय नहीं, प्रत्युत भगवान‍्ने तो नाम लेनेमें सब समय छूट दे रखी है। नामको तो सुबह, शाम, दोपहर, रात्रि—हर समय ले सकते हैं—

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पितानियमित: स्मरणे न काल:।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:॥

कई लोग कहते हैं कि क्या करें, हमारे नाम लेना लिखा नहीं है। सज्जनो! अभी नाम-जप करके नाम लिखा लो, इसमें देरीका काम नहीं है। इसका दफ्तर हर समय खुला है, कभी करो। दिनमें, रातमें, सुबहमें, शाममें, सम्पत्तिमें, विपत्तिमें, सुखमें, दु:खमें आप भगवान‍्का नाम लें तो अभी लिखा जायगा और नामकी पूँजी हो जायगी। अब नामको भूल न जायँ, इसका खयाल रखना है। उसके लिये एक उपाय बतायें। आपलोग ध्यान देकर सुनें। आपलोग मन-ही-मन भगवान‍्को प्रणाम करके उनसे यह प्रार्थना करें—‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं, हे प्रभो! आपको मैं भूलूँ नहीं’—ऐसा मिनट-मिनट, आधे-आधे मिनटमें आप कहते रहो। नींद खुले तबसे लेकर गाढ़ी नींद न आ जाय तबतक ‘हे प्रभो! आपको मैं भूलूँ नहीं।’ ऐसा कहते रहो। राम-राम-राम कहते हुए साथमें कह दें—‘हे नाथ! मैं भूलूँ नहीं।’

जब आप राम-राम-राम कह रहे हैं, राम-राम-राम कहते हुए भी मनसे दूसरी बात याद आ जाती है, उस समय हम भगवान‍्को भूल जाते हैं तो भगवान‍्से कहो—‘हे नाथ! मैं भूलूँ नहीं, हे प्रभो! भूलूँ नहीं। हे नाथ! मैं आपका नाम लेता रहूँ और आपको भूलूँ नहीं।’ भगवान‍्से ऐसी प्रार्थना करते रहो तो भगवान‍्की कृपासे यह भूल मिट जायगी। भजन होने लगेगा। फिर अखण्ड भजन होगा, अखण्ड! ‘ताली लागी नामसे और पडॺो समँदसे सीर’ भगवान‍्के नामकी धुन लग जायगी। फिर आपको भीतर स्मरण करनेका उद्योग नहीं करना पड़ेगा। स्वत: ही भगवान‍्की कृपासे भजन चलेगा। परन्तु पहले आप नाम लेनेकी चेष्टा करो और भगवान‍्से प्रार्थना करो।

कोई १९६०—६५ विक्रम संवत् की बात होगी, हमें मिती ठीक याद नहीं है। मैंने एक सन्तका पत्र पढ़ा था, जो कि उन्होंने अपने प्रेमीके प्रति दिया हुआ था। छोटा कार्ड था। पहले छोटा कार्ड हुआ करता था। एक-दो पैसेके कार्डमें मैंने समाचार पढ़ा था। अपने सेवकके प्रति लिखा था—‘एक नाम छूट जाय, इतना काल—समय अगर खाली चला जाय, तो ब्याहा हुआ बड़ा बेटा मरे, उससे भी ज्यादा शोक होना चाहिये।’ राम! राम! राम! गजब हो गया! यह लिखा था उसमें। ब्याहा हुआ लड़का मर जाय तो हृदयमें एक चोट पहुँचती है कि ऐसा कमानेवाला सुपुत्र बेटा मर गया तो उससे भी ज्यादा दु:ख होना चाहिये एक नाम उच्चारण करें इतना खाली समय जानेपर। क्योंकि जो लड़के छोटे हैं वे बड़े हो जायँगे। गृहस्थोंके और फिर पैदा भी हो जायँगे। परन्तु समय थोड़े ही पैदा हो जायगा। जो समय खाली गया, वह जो घाटा पड़ा, वह तो पड़ ही गया। इस वास्ते हमें सावधानी रखनी चाहिये कि हमारा समय बरबाद न हो जाय—‘जो दिन जाय भजनके लेखे, सो दिन आसी गिणतीमें’ वह दिन गिनतीमें आवेगा। बिना भजनके जो समय गया, उसकी कोई कीमत नहीं, वह तो बरबाद हो गया। बड़ा भारी नुकसान हो गया, घाटा लग गया बड़ा भारी!

अबतक जो समय संसारमें लग गया, वह तो लग ही गया। अब सावधान हो जायँ। सज्जनो! भाइयो-बहिनो! दिनमें थोड़ी-थोड़ी देरीमें देखो कि नाम याद है कि नहीं। घरमें जगह-जगह भगवान‍्का नाम लिख दो और याद करो। भगवान‍्की तस्वीर इस भावसे सामने रख दो कि वे हमें याद आते रहें। हमें भगवान‍्को याद करना है। घरमें भगवान‍्का चित्र रखो पर इस भावनासे रखो कि तस्वीरपर हमारी दृष्टि पड़ते ही हमें भगवान् याद आयें। ऐसे भावसे रखकर सुन्दर-सुन्दर नाम लिख दो। जहाँ ज्यादा दृष्टि पड़ती हो, वहाँ नाम लिख दो।

ऐसे गृहस्थके घरको मैंने देखा है। सीढ़ीसे उतरते हैं, तो वहाँ नाम लिखा हुआ। सीढ़ीसे ऊपर चढ़ते हैं तो सामने नाम लिखा हुआ। जहाँ घूमते-फिरते हैं, वहाँ नाम लिखा हुआ। वे नाम इस वास्ते लिखे कि मैं भूल न जाऊँ, प्रभुके नामकी भूल न हो जाय। ऐसी सावधानी रखो सज्जनो! यह असली काम है असली! बड़ा भारी लाभ है इसमें—‘भक्ति कठिन करूरी जाण। इसमें नफा घणा नहीं हाण॥’ इसमें नुकसान है ही नहीं। केवल नफा-ही-नफा है। बस, फायदा-ही-फायदा है। इस प्रकार अपना सब समय सार्थक बन जाय—‘एक भी श्वास खाली खोय ना खलक बीच।’

संसारके भीतर जो समय खाली चला गया तो बड़ा भारी नुकसान हो गया। श्रीदादूजी महाराज फरमाते हैं—‘दादू जैसा नाम था तैसा लीन्हा नाय।’ इस नामकी जितनी महिमा है, वैसा नाम नहीं लिया, जब कि उन्होंने उम्रभरमें क्या किया? नाम ही तो जपा। परन्तु उनको लगता है कि नाम जैसा जपना चाहिये था वैसा नहीं जपा अर्थात् मुखसे जितना नाम लेना था, उतना नहीं लिया। अब ‘देह हलावा हो रहा’ देहमेंसे बस, प्राण गये..... गये..... ऐसी उनकी दशा हो रही है, पर वे कहते हैं—‘हुंस रही मन माय’ भगवान‍्का नाम और लेते, और लेते। जैसे, धन कमानेवालेका लोभ जाग्रत् होता है तो उसके पास लाखों, करोड़ों रुपये हो जानेपर भी फिर नये-नये कारखाने खोलकर और धन ले लूँ—ऐसा लोभ बढ़ता ही रहता है। यह धन तो यहीं रह जायगा और हमारा समय बरबाद हो जायगा। यदि भगवान‍्में लग जाओगे तो नामका वैसे लोभ लगेगा जैसे सन्तोंने प्रार्थना की है कि हे भगवान्! हमारी एक जिह्वासे नाम लेते-लेते तृप्ति नहीं हो रही है, इस वास्ते हमारी हजारों जिह्वा हो जायँ, जिनसे मैं नाम लेता ही चला जाऊँ। उनकी ऐसी नामकी लालसा बढ़ती ही चली जाती है।

मेरेको एक सज्जन मिले थे। वे कहते थे कि मैं राम-राम करता हूँ तो राम-नामका चारों तरफ चक्‍कर दीखता है। ऊपर आकाशमें और सब जगह ही राम-राम दीखता है। पासमें, चारों तरफ, दसों दिशाओंमें नाम दीखता है। पृथ्वी देखता हूँ तो कण-कणमें नाम दीखता है, राम-राम लिखा हुआ दीखता है। कोई जमीन खोदता है तो उसके कण-कणमें नाम लिखा हुआ दीखता है। ऐसी मेरी वृत्ति हो रही है कि सब समय, सब जगह, सब देश, सब काल, सब वस्तु और सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें राम-नाम परिपूर्ण ही रहा है। यह कितनी विलक्षण बात है! कितनी अलौकिक बात है!

भगवान् रामजीने लंकापर विजय कर ली। अयोध्यामें आ करके गद्दीपर विराजमान हुए तो उस समय राजाओंने रामजीको कई तरहकी भेंट दी। विभीषणने रावणके इकट्ठे किये हुए बहुत कीमती-कीमती रत्नोंकी माला बनायी थी। माला बनानेमें यही उद्देश्य था कि जब महाराजका राज्यतिलक होगा, तब मैं भेंट करूँगा। इस तरहसे विभीषण वह माला लाया और समय पाकर उसने महाराजके गलेमें माला पहना दी। महाराजने देखा कि भाई, गहनोंकी शौक स्त्रियोंके ज्यादा होती है, ऐसे विचारसे रामजीने वह माला सीताजीको दे दी। सीताजीको जब माला मिली तो उनके मनमें विचार आया कि मैं यह माला किसको दूँ! महाराजने तो मेरेको दे दी। अब मेरा प्यारा कौन है? हनुमान‍्जी पासमें बैठे हुए थे। हनुमान‍्जी महाराजपर सीता माताका बहुत स्नेह था, बड़ा वात्सल्य था और हनुमान‍्जी महाराज भी माँके चरणोंमें बड़ी भारी भक्ति रखते थे। माँने हनुमान‍्जीको इशारा किया तो चट पासमें चले गये। माँने हनुमान‍्जीको माला पहना दी। हनुमान‍्जी बड़े खुश हुए, प्रसन्न हुए। वे रत्नोंकी ओर देखने लगे। जब माँने चीज दी है तो इसमें कोई विशेष बात है—ऐसा विचार करके एक मणिको दाँतोंसे तोड़ दिया, पर उसमें भगवान‍्का नाम नहीं था तो उसे फेंक दिया। फिर दूसरी मणि तोड़ने लगे तो वहाँपर बड़े-बड़े जौहरी बैठे थे। उन्होंने कहा—‘बन्दरको तो अमरूद देना चाहिये! यह इन रत्नोंका क्या करेगा? रत्नोंको तो यह दाँतोंसे फोड़कर फेंक रहा है।’ किसीने उनसे पूछा—‘क्यों फोड़ते हो? क्या बात है? क्या देखते हो?’ हनुमान‍्जीने कहा—‘मैं तो यह देखता हूँ कि इनमें भगवान‍्का नाम है कि नहीं। इनमें नाम नहीं है तो ये मेरे क्या कामके? इस वास्ते इनको फोड़कर देख लेता हूँ और नाम नहीं निकलता तो फेंक देता हूँ।’

उनसे फिर पूछा गया—‘बिना नामके क्या तुम कुछ रखते ही नहीं?’ हनुमान‍्जीने कहा—‘न, बिना नामके कैसे रखूँगा?’ फिर पूछा गया—‘तो तुम शरीरको कैसे रखते हो?’ तब हनुमान‍्जीने नखोंसे शरीरकी त्वचाको चीर करके दिखाया। सम्पूर्ण त्वचामें जगह-जगह, रोम-रोममें राम, राम, राम, राम लिखा हुआ था—‘चीरके दिखाई त्वचा अंकित तमाम, देखी चाम राम नामकी।’ तो जो नाम जपनेवाले सज्जन हैं, वे नाममय बन जाते हैं।

दक्षिणमें पण्ढरपुर है। वहाँ नामदेवजी महाराज, ज्ञानदेवजी महाराज, सोपानदेवजी आदि कई नामी सन्त हुए हैं। बड़ी विचित्र उनकी वाणी है। वहाँ दक्षिणमें चोखामेला नामका एक चमार था। विट्ठल-विट्ठल-विट्ठल—ऐसे भगवान‍्का नाम जपता था। पण्ढरपुरके पास ही एक मंगलबेड़ा गाँव है। उसी गाँवमें वह रहता था। वहाँ एक मकान बन रहा था। उस मकानमें चोखामेला काम कर रहा था। मजदूरी करके वह अपनी जीविका चलाता था। अचानक वह मकान गिर पड़ा। मकान बहुत बड़ा था, गिर गया और उसमें चोखामेला दब गया। उसके साथ कई आदमी दबकर मर गये। उनको उसमेंसे निकालने लगे तो निकालते-निकालते कई महीने लग गये। उन सबको निकाला तो उनकी केवल हड्डियाँ पड़ी मिलीं। अब किसकी कौन-सी हड्डियाँ हैं, इसकी पहचान नहीं हो सकती। थोड़े दिनमें तो शरीरकी पहचान भी हो जाय। अब चोखामेलाकी हड्डियोंकी पहचान कैसे हो? तो शायद नामदेवजीने कहा हो कि भाई, उनकी हड्डियोंको कानमें लगाकर देखो। जिसमें विट्ठल-विट्ठल नामकी ध्वनि होती हो, वह हड्डी चोखामेलाकी, यह पहचान है। कितने आश्चर्यकी बात है कि मरनेके बाद भी हड्डीसे नाम निकलता है! भगवान‍्का नाम लेते-लेते भक्त नाममय ही हो जाते हैं—‘चंगा राख तन, मन, प्राण, रहीये नाममें गलतान।’ बस, सब लोग इसमें गलतान हो जाओ, इस नाममें तल्लीन हो जाओ। तत्परतासे नाम लेनेवाले ऐसे सन्त हुए हैं।

अर्जुनके भी शरीरमेंसे भगवान‍्का नाम निकलता था। एक दिन अर्जुन सो रहे थे और नींदमें ही नाम-जप हो रहा था। शरीरके रोम-रोममेंसे कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण नामका जप हो रहा था। नामको सुन करके भगवान् श्रीकृष्ण आ गये, उनकी स्त्रियाँ भी आ गयीं। नारदजी आ गये, शंकरजी आ गये, ब्रह्माजी आ गये, देवता आ गये। भगवान् शंकर नाम सुन-सुन करके नाचने लगे, नृत्य करने लगे। अर्जुनके तो बेहोशीमें—गाढ़ नींदमें भी रोम-रोमसे कृष्ण-कृष्ण निकलता है। इसमें कारण यह है कि जिसका जो इष्ट होता है, वह उसीका नाम जपता है, तो वह नाम भीतर बैठ करके रग-रगमें होने लगता है। हरिरामदासजी महाराजकी वाणीमें आता है—‘रग-रग आरम्भा, भये अचम्भा छुछुमभेद भणन्दा है।’ सन्तोंकी वाणी आपलोग पढ़ते ही हो। उसमें आपलोग देखो। ऐसा उनका भजन होने लगता है, क्यों? उनकी वह लगन है। वे उसीमें ही तल्लीन हो गये। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ नाममें लग गयीं, प्राण उसमें लग गये। शरीरमात्रमें नाम-जप होने लगा। कितने महान्, पवित्र, दिव्य उनके शरीर थे कि उनको याद करनेमात्रसे जीवका कल्याण हो जाय। वे तो नाम-रूप ही बन गये, भगवत्स्वरूप बन गये। नारदजी महाराज अपने भक्तिसूत्रमें लिखते हैं कि भगवान् और भगवान‍्के जनोंमें भेद नहीं होता—‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’, क्योंकि वे उनके हैं, उस परमात्माके अर्पित हो गये हैं—‘यतस्तदीया:।’

जैसे आगमें काठ रखो तो अंगार बनकर चमकने लगेगा। काला-से-काला कोयला आगमें रख दो तो वह भी चमकने लगेगा। पत्थरका टुकड़ा आगमें रख दो, वह भी चमकने लगेगा। कुछ भी कंकर, ठीकरी रख दो, वे सब-के-सब चमकने लगेंगे। यह क्या है? यह आगका प्रभाव है। जब एक भौतिक वस्तुमें भी इतनी सामर्थ्य है कि वह काठ, पत्थर आदिको चमका दे तो फिर यह तो भगवान‍्का नाम है। यह भौतिक नहीं है, यह तो दिव्य है। यह नाम महाराज चेतनाको चेत करा देते हैं कि तू इधर खयाल कर—‘नाम चेतन कूं, चेत भाई नाम ते चित्त चौथे मिलाई।’

आपलोगोंमें भी कोई नाम लेनेवाला हो तो मैं मानता हूँ कि आपके ऐसा होता होगा। आप सोते रहते हैं, गाढ़ नींदमें तो राम.....ऐसी आवाज आती है, आपको जगा देती है कि अरे! नाम लो, कैसे सोता है? इस प्रकार नाम महाराज खुद जगाते हैं। नाम महाराज खुद चेत कराते हैं। स्वयं भगवान् चेत कराते हैं।

एक बड़े विरक्त सन्त थे। वे नाम जपते थे। कौड़ी-पैसा लेते नहीं थे, रखते नहीं थे, छूते ही नहीं थे। वे कहते थे कि बहुत बार ऐसा होता है, जब मैं सोता हूँ तो मुझे ऐसे प्यारसे उठाते हैं, जैसे कोई माँ उठाती हो। गरदनके नीचे हाथ देकर चट उठा देते हैं। मेरेको पता ही नहीं लगता कि न जाने किसने मेरेको बैठा दिया। तो नाम महाराज भगवान‍्की याद दिलाते हैं। मैं खुद अनुमान करता हूँ, आपमें भी कोई नाम-प्रेमी है, उसके भी ऐसा होता होगा। इसमें कोई गृहस्थका कारण नहीं है, कोई साधुका कारण नहीं है, कोई भाईका कारण नहीं, कोई बहिनका कारण नहीं। कोई भी भाई-बहिन इसका जप करेंगे, उसके भी यह बात हो जायगी। कभी भगवान‍्की आवाज आ जाती है। आप कभी पाठ, जप करते हैं। भगवान‍्के भजनमें लगे हैं, मनमें जपनेकी लगन है और आपको कहीं नींद आने लगेगी तो किवाड़ जोरसे पड़ाकसे पटकेगा, जैसे कोई हवा आ गयी हो अथवा कोई हल्ला करेगा तो आपकी नींद खुल जायगी। कोई अचानक ऐसा शब्द होगा तो चट नींद खुल जायगी। यह तो नाम महाराज चेताते हैं, भगवान् चेत कराते हैं कि सोते कैसे हो? नाम जपते हो कि नींद ले रहे हो? भगवान् बड़ी भारी मेहनत करके, आपके ऊपर कृपा करके आपकी निगरानी रखते हैं, आप शरण हो तो जाओ।

तुलसीदासजी महाराज कहते हैं—‘बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु’ अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई बात, आज सुधर जाय और आज भी अभी-अभी इसी क्षण, देरीका काम नहीं, क्योंकि ‘होहि राम को नाम जपु’ तुम रामजीके हो करके अर्थात् मैं रामजीका हूँ और रामजी मेरे हैं—ऐसा सम्बन्ध जोड़ करके नाम जपो। पर इसमें एक शर्त है—‘एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥’ संसारमें जितने कुटुम्बी हैं, उनमें मेरा कोई नहीं है। न धन-सम्पत्ति मेरी है और न कुटुम्ब-परिवार ही मेरा है अर्थात् इनका सहारा न हो। ‘अनन्यचेता: सततम्’, ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ केवल भगवान् ही मेरे हैं। मैं औरोंका नहीं हूँ तथा मेरा और कोई नहीं है—ऐसा अपनापन करके साथमें फिर नाम जपो तो उस नामका भगवान् पर असर होता है। परन्तु कइयोंसे सम्बन्ध रखते हैं, धन-परिवारसे सम्बन्ध रखते हैं और नाम लेते हैं तो नाम न लेनेकी अपेक्षा लेना तो श्रेष्ठ है ही और जितना नाम लेता है, उतना तो लाभ होगा ही; परन्तु वह लाभ नहीं होगा, जो लाभ सच्चे हृदयसे अपना सम्बन्ध परमात्माके साथ जोड़कर फिर नाम लेनेवालेको होता है।

‘तुलसी तजि कुसमाजु’ कुसंगका त्याग करो। कुसंग क्या है? यह धन हमारा है, सम्पत्ति हमारी है—यह कुसंग है। जो धनके लोभी हैं, भोगोंके कामी हैं, उनका संग कुसंग है। जो परमात्मासे विमुख हैं, उनका संग महान् कुसंग है। वह कुसमाज है, उनसे बचो। नहीं तो महाराज! थोड़ा-सा कुसंग भी आपकी वृत्तियोंको बदल देगा, एकदम भगवान‍्से विमुख कर देगा। लोग कहते हैं कि भगवद्भजनमें इतनी ताकत नहीं, जो कुसंग इतना असर कर जाय। वह ताकत कुसंगमें नहीं है भाई, प्रत्युत अपने भीतरमें अनेक तरहके जो विरुद्ध संस्कार पड़े हुए हैं, भगवद्भजनके विरुद्ध संस्कार पड़े हैं। वे संस्कार कुसंगसे उभर जाते हैं, जग जाते हैं। इस वास्ते कुसंगका बड़ा असर पड़ता है। आप भजन करोगे तो वे सब संस्कार नष्ट हो जायँगे, फिर—‘बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥’ कभी किसी कारणसे कोई सज्जन कुसंगमें पड़ भी जायँ तो जैसे साँपकी मणि होती है, उसको जहर नहीं लगता। वह तो जहरके ऊपर रखनेसे जहरका शोषण कर लेती है, पर वह खुद जहरीली नहीं होगी। इसी तरहसे आप भजनमें तल्लीन हो जाओगे, तदाकार हो जाओगे तो फिर आपका मन नहीं बदलेगा, आपके ऊपर कुसंगका असर नहीं पड़ेगा। कारण कि आपके अन्त:करणमें भगवत्-सम्बन्धी संस्कार दृढ़ हो गये, प्रत्युत कुसंगपर आपका असर पड़ेगा, भजनका असर पड़ेगा। परन्तु इतनी शक्ति होनेसे पहले सावधान रहो। कुसंगका त्याग करके और भगवान‍्के होकर मस्तीसे भगवान‍्के नामका जप करो। चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय करो। इसमें जब मन लग जाता है, फिर छूटता नहीं।

मैंने एक सज्जन देखे हैं। उनके सफेद ही कपड़े थे, पर वे ‘राम-राम-राम’ करते रहते थे। जैसे चलते-चलते कोई पीछे रह जाता है और फिर दौड़कर आ जाता है, इसी तरहसे वे पहले धीरे-धीरे ‘राम-राम-राम’ करते थे, फिर बड़ी तेजीसे जल्दी-जल्दी करते थे। रातमें भी उनके पास रहनेका मेरा काम पड़ा है तो वे रातमें भी और दिनमें भी नाम जपते। थोड़ी देर नींद आती, नींद खुलनेपर फिर ‘राम-राम-राम’। हर समय ही ‘राम-राम-राम’। भोजन करते हैं तो ‘राम-राम-राम’। ग्रास लेते हैं तो ‘राम-राम-राम’। किसी समय जाकर देखें तो वे भगवान‍्का नाम लेते हुए ही मिलते थे। ऐसी लौ लग जायगी तो फिर नहीं छूटेगी। फिर हाथकी बात नहीं है कि आप छोड़ दें। वह एक ऐसा विलक्षण रस है कि एक बार जो लग जाता है तो फिर वह लग ही जायगा। परमात्मतत्त्व-सम्बन्धी बातें हों, परमात्म-सम्बन्धी नाम हो, भगवान‍्की लीला हो, गुण हो, प्रभाव हो, रहस्य हो—भगवान‍्का जो कुछ भी समझ आ जायगा, उसको आप छोड़ सकोगे नहीं।

कारण क्या है? आपका सम्बन्ध पहलेसे भगवान‍्के साथ है और संसारके साथ आपका सम्बन्ध है नहीं। अभी भी बचपन, जवानी और वृद्धावस्था—इनका आपके साथ निरन्तर सम्बन्ध कहाँ है? ये निरन्तर बदलते हैं और निरन्तर रहते हैं तो इनका आपसे साथ नहीं है। बहुत-से लोग मर गये। बहुत-से मर रहे हैं। सभी जा रहे हैं। कोई भी अपने साथमें रहनेवाला नहीं है। पर प्रभु हरदम साथमें रहते हैैं। प्रभु कभी हमसे वियुक्त हुए नहीं और हो नहीं सकते। यह जीव ही भगवान‍्से विमुख हुआ है। सभी जीव भगवान‍्को प्यारे हैं, सब भगवान‍्के पैदा किये हुए हैं। इस वास्ते भगवान् जीवको कभी भूलते नहीं हैं—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए।’

संसारकी कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती। जो आप रखते हो, नहीं रहता। अनुकूल परिस्थिति रखना चाहते हो, नहीं रहती। धन रखते हो, नहीं रहता। कुटुम्ब रखते हो, नहीं रहता। आप उनका भरोसा करते हो तो विश्वासघात होता है; क्योंकि वे साथ रह सकते ही नहीं। यह क्या है? यह भगवान‍्का निमन्त्रण है, भगवान‍्का आह्वान है, भगवान‍्की बुलाहट है। भगवान् आपको बुला रहे हैं कि तुम कहाँ फँस गये हो? वे तुम्हारे नहीं हैं। तुम देख लो कि ये बेटा-पोता, पड़पोता, माँ, बाप, भाई, सम्बन्धी, मित्र, कुटुम्बी तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करते हैं? ये तुम्हारा साथ देनेवाले नहीं हैं—

संसार साथी सब स्वार्थके हैं,
पक्‍के विरोधी परमार्थ के हैं।
देगा न कोई दु:ख में सहारा,
सुन तू किसी की मत बड़ा प्यारा॥

और बात तू मत सुन, एक नाम ही ले।

उपनिषदोंमें आता है—‘श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य:’ बहुत-से आदमियोंको तो भगवत्सम्बन्धी बातें सुननेके लिये भी नहीं मिलतीं। उम्र बीत जाती है, पर सुननेके लिये नहीं मिलतीं। सज्जनो! आपलोगोंको तो मौका मिल गया है। आपलोगोंपर भगवान‍्की कितनी कृपा है कि आप वाणी पढ़ते हैं, सन्तोंके प्रति श्रद्धा है, भावना है—यह कोई मामूली गुण नहीं है। आज आपको इसमें कुछ विशेषता नहीं दीखती, पर है यह बहुत विशेष बात, क्योंकि—

वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च।
अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते॥

भगवान‍्के प्यारे भक्त, भगवद्भक्ति आदिमें थोड़े पुण्यवालोंकी श्रद्धा नहीं होती। जब बहुत अन्त:करण निर्मल होता है, तब सन्तोंमें, भगवान‍्की भक्तिमें, प्रसादमें और भगवान‍्के नाममें श्रद्धा होती है। जिनमें कुछ भी श्रद्धा-भक्ति होती है, यह उनके बड़े भारी पुण्यकी बात है। वे पवित्रात्मा हैं। नहीं तो, उनमें श्रद्धा नहीं बैठती। वह तर्क करेगा, कुतर्क करेगा। वह उनके पास ठहर नहीं सकता।

तुलसी पूरब पाप तें हरि चर्चा न सुहाय।
कै ऊँघे कै उठ चले कै दे बात चलाय॥

सत्संगमें जायगा तो नींद आ जायगी, दूसरी बात कहना शुरू कर देगा अथवा बैठकर चल देगा; परन्तु यदि वह कुछ दिन सत्संगमें ठहर जाय तो उसके भी सत्संग लग जायगा। वह भी भजन करने लग जायगा। फिर वह सत्संग छोड़ेगा नहीं।

एक बात मैंने सुनी है। एक आदमी यों ही हँसी-दिल्लगी उड़ानेवाला था। वह दिल्लगीमें ही कहता है कि ये देखो ये साधु! ‘राम, राम, राम, राम, राम’ करते हैं तो दूसरे लोग कहते हैं—हाँ भाई! कैसे करते हैं? तो वह फिर कहता है—‘राम-राम-राम’ ऐसे करते हैं। वह उठकर कहीं भी जाता तो लोग कहते हैं—हाँ बताओ, कैसे करते हैं? तो वह फिर कहता ‘राम-राम-राम’ ऐसे करते हैं। ऐसे कहते-कहते महाराज, उसकी लौ लग गयी। वह नाम जपने लगा। इस वास्ते—‘भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥’ किसी तरहसे आप नाम ले तो लो। फिर देखो, इसकी विलक्षणता, अलौकिकता। परन्तु सज्जनो! बिना लिये इसका पता नहीं लगता। जैसे मिठाई जबतक मुखसे बाहर रहे, तबतक उसके मिठासको नहीं जान सकते। मिठाई खानेवाला ही मिठाईके रसको जानता है।

शास्त्रोंसे, सन्तोंसे नाम-महिमा सुन करके हम नाममें यत्किंचित् रुचि कर सकते हैं। परन्तु उसका असली रस तब आयेगा, जब आप स्वयं लग जाओगे, और लग जाओगे भीतरसे, हृदयसे; दिखावटीपनसे नहीं अर्थात् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं। लोगोंको दिखानेके लिये भजन करता है, वह तो लोगोंका भक्त है, भगवान‍्का नहीं। लोग मेरेको भजनानन्दी समझें, इस वास्ते दिखाता है तो वह भगवान‍्का भक्त कहाँ? भगवान‍्का भक्त होगा तो वह भीतरसे कैसे नाम छोड़ सकेगा। एकान्तमें अथवा जनसमुदायमें, वह नामको कैसे छोड़ सकता है? असली लोभको वह कैसे छोड़ सकता है? आपके सामने पैसे आ जायँ, रुपये आ जायँ अथवा आपके सामने पड़े हों तो छोड़ सकते हो क्या? कैसे छोड़ सकते हैं? ले लोगे! कूड़े-करकटमें पड़े हुएको भी चट उठा लोगे तो जो नामका प्रेमी है, वह नाम छोड़ देगा, यह कैसे हो सकता है? वह एक क्षणभर भी नामका वियोग कैसे सह सकता है?

नारदजी महाराजने भक्ति-सूत्रमें लिखा है—‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति।’ अपना सब कुछ भगवान‍्के अर्पण तो कर देता है, पर भगवान् की, उनके नामकी थोड़ी-सी भूल हो जाय तो वह व्याकुल हो जाता है। जैसे, मछलीको जलसे दूर करनेपर वह छटपटाने लगती है और कुछ देर रखो, तो वह मर जाय, वह आरामसे नहीं रह सकती। ऐसे ही ‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ नामकी—भगवान‍्की विस्मृति होनेपर परम व्याकुलता हो जायगी। उसको छोड़ नहीं सकते। भगवान‍्की स्मृतिका त्याग नहीं कर सकते।

भागवतके एकादश स्कन्धमें नव योगेश्वरोंके प्रसंगमें आता है कि कोई भक्तसे कहे कि आधे क्षणके लिये भी तू भगवान‍्की स्मृति छोड़ दे तो तेरेको त्रिलोकीका राज्य दे देंगे तो वह कहता है—तेरे किसी वैभवके लिये भी आधे क्षणके लिये मैं भगवान‍्को छोड़ नहीं सकता। उसके सामने वैभव कुछ नहीं है। यह है क्या चीज? यह तो क्षणभंगुर है और भगवान् हैं निरन्तर रहनेवाले। इस वास्ते किसी लोभमें आकर भी वह भगवान‍्के नामको कैसे छोड़ सकता है। अगर नाम छूट जाता है तो नामकी कीमत नहीं समझी है। नामका महत्त्व उसके ध्यानमें नहीं आया। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान‍्की भूल होती नहीं। भूल कैसे हो? ‘भूले नाय बने दयानिधि भूले नाय बने।’ भूले बनता नहीं। कैसे भूल जाय, भूल सकता नहीं।

जिसको यह रस लग गया तो लग ही गया। जैसे, मक्खी हर एक जगह बैठ जाती है और उड़ जाती है। मक्खी पहले तो अंगारपर बैठती ही नहीं और कभी बैठ जाय तो फिर उठती नहीं कभी। फिर धुआँ ही उठेगा, वह नहीं उठेगी। ऐसे ही यह मन जबतक भगवान् में, भगवान‍्के नाममें नहीं लगा है, तबतक यह जगह-जगह भटकता रहता है, परन्तु जब यह भगवान‍्में लग जायगा तो फिर जय रामजीकी.....! फिर तो बस, खतम! फिर उठ नहीं सकता। जबतक मन उठता है, तबतक मन नहीं लगा है, भजन नहीं हुआ है। लोग कहते हैं—‘हमने बहुत भजन किया, नाम-जप किया।’ बहुत किया क्या? अभी नाम शुरू ही नहीं हुआ। असली भजन शुरू नहीं हुआ है। शुरू होनेपर छूट जाय, यह आपके हाथकी बात नहीं। आप विचार करो, मरनेके बाद हड्डियोंमें भगवान‍्का नाम आता है तो नाम कैसे छूट सकता है।

मारवाड़में एक फूली बाई जाटणी हुई है। वह भगवान‍्का नाम लेती थी। उसका काम था थेपड़ी थापनेका। वह गोबरकी थेपड़ी थापती थी। किसीने उसकी थेपड़ी ले ली तो वह उसके यहाँ गयी और कही—तूने मेरी थेपड़ी ले ली। उसने कहा—मैंने नहीं ली। अगर मैंने ली है तो उसकी क्या पहचान है तेरे पास? फूली बाईने कहा—थेपड़ी लगाओ कानसे। उसने कानसे लगाया तो उसमें ‘राम-राम-राम’ की ध्वनि निकल रही थी। थेपड़ीमें नाम-जप हो रहा था। उसने आश्चर्यसे कहा—इसमें तो ‘राम-राम-राम’ हो रहा है। फूली बाईने कहा—यही तो है हमारी पहचान! ऐसी थी फूली बाई! तो जो सच्चे हृदयसे नाम ले, उसकी कितनी महिमा है।

‘यह डोकरी (बुढ़िया) भगवान‍्की भक्ता है’—ऐसा सुन करके एक बार जोधपुर दरबार वहाँ चले गये, जहाँ फूली बाई रहती थी। वहाँ जाकर देखा तो अपने प्रत्येक फौजीके सामने फूली बाई खड़ी है और फौजीको वही बाजरेका सोगरा, गँवार फलियोंका साग भोजन करा रही है। यह देखकर राजा बड़े खुश हुए और उसको बुलाकर रनिवासमें इस वास्ते भेजा कि रानियोंको सत्संग नहीं मिलता। अत: यह बाई वहाँ चली जाये तो कुछ सत्संग हो जाय। बेचारी फूली बाईका ऊँचा-ऊँचा तो वह घाघरिया, अपना वह ग्रामीण वेश था। वह वैसे ही रनिवासमें चली गयी। उसको देखकर सब रानियाँ हँस पड़ीं कि क्या तमाशा आयी है। तो फूली बाई अपनी सीधी-सादी भाषामें बोली—

‘ए गहणो गांठो तन की शोभा,
काया काचो भांडो।’
फूली कहे थे बैठी कँाई
राम भजो ए रांडो॥’

ये सुन्दर गहने पहन करके थे (तुम) बैठी हो, ‘राम-राम’ क्यों नहीं करो। क्या करोगी? ‘काया काचो भांडो’, न जाने कब फूट जाय। ऐसेमें बैठकर थे भजन नहीं करो तो थे क्या करो राँडो, बैठी ‘राम-राम’ करो न? फूली बाईको यह संकोच नहीं है कि मैं कैसे बोलती हूँ? क्या कहती हूँ? उसकी तो यह सीधी-सादी वाणी है। वह भगवान‍्के भजनमें रात-दिन लगी हुई है तो उसको याद करनेसे शान्ति मिलती है। महाराज! हृदयका पाप दूर हो जाय याद करनेसे।

कारण क्या है? भगवान‍्का नाम लिया है। भगवान‍्के चरणोंकी शरण हो गयी है।

‘बडे़ सेयां बड़ होत है, ज्यूं बामन भुज दण्ड।’
तुलसी बडे़ प्रताप ते दण्ड गयउ ब्रह्माण्ड॥’

वामनभगवान् छोटे-से बनकर बलिसे पृथ्वी माँगने गये और कहे—‘मैं तो मेरे पैरोंसे तीन कदम पृथ्वी लूँगा।’ बलि कहता है—‘अरे ब्राह्मण! मेरे पास आकरके थोड़ा क्या लेता है? और ले ले।’ वामनभगवान‍्ने कहा—‘ना, मैं तीन कदम ही लूँगा।’ अब वे तीन कदम नापने लगे महाराज! तो सबसे बड़ा लम्बा अवतार हुआ यह! ब्रह्मचारीके हाथमें दण्ड होता है पलाशका। वामनभगवान् जितने ऊँचे थे, तो उनका दण्ड भी उतना ही ऊँचा था। बड़ी-से-बड़ी लाठी कानतक होती है। अब वह इतनी छोटी लाठी हाथमें हो और स्वयं इतने बड़े हो गये कि वह दण्ड तो वामनभगवान‍्के दाँत कुचरनेमें भी काम आता। इतने छोटे घोचेका क्या करेंगे? तो कहते हैं ‘सन्तदास लकड़ी बढ़ी बिन कूंपल बिन पात।’ न कोंपल निकली, न पत्ता निकला और लकड़ी बढ़ गयी। क्यों बढ़ गयी। ‘बड़ सेयां बड़ होत है’ वह थी सूखी लकड़ी ही, पर हाथमें किसके थी? ऐसे ही सज्जनो! आप और हम हैं साधारण; परन्तु भगवान‍्के चरणोंमें लग जायँ, नाममें लग जायँ, भगवान‍्के चिन्तनमें लग जायँ तो गुजराती भाषामें एक पद आता है—‘छोटा साउथी, सबथी मोटा थाय, थाय छे हरि भजन किए।’ भगवान‍्का भजन करनेवाला ‘छोटा साउथी’ सबसे छोटा ‘सबथी मोटा थाय छे’, सबसे बड़ा हो जाता है; क्यों हो जाता है? उसने भगवान‍्का सहारा ले लिया है। भगवान‍्का नाम ले लिया है। भगवान‍्में लग गया है। इस वास्ते वह छोटा नहीं है, साधारण नहीं है।

हमने एक सन्तकी बात सुनी है। इससे पहले जमानेमें सेकेंड क्लासका रिजर्व होता था। एक सन्तको कहीं जाना था तो गृहस्थ भाइयोंने उनको सेकेंड क्लासमें बैठा दिया। एक सीटपर वे बैठ गये। उनके सामने एक मुसलमान बैठा हुआ था। उसका जब नमाजका समय हुआ तो वह अपना अँगोछा बिछाकर नमाज पढ़ने लगा तो सामने सीटपर बैठे हुए सन्त उठकर खड़े हो गये। जबतक वह नमाज पढ़ता रहा, तबतक बाबाजी खड़े रहे और जब वह मुसलमान बैठ गया, तब बाबाजी भी बैठ गये। मुसलमानने पूछा—‘महाराज! आप खड़े क्यों हुए?’ तो बाबाजीने मुसलमानसे पूछा—‘तुम खड़े क्यों हुए?’ मुसलमानने कहा—‘मैं परवरदिगारकी बन्दगीमें था’ तो सन्तने कहा—‘मैं तुम्हारी बन्दगीमें था।’ जिस वक्त कोई प्रभुको याद करता है, उस समय उस मनुष्यको मामूली नहीं समझना चाहिये; क्योंकि वह उस समय भगवान‍्के साथ है! तुम उस प्रभुको याद कर रहे थे तो मैं तुम्हारी हाजिरीमें खड़ा था।

कोई जब भगवान‍्से प्रार्थना करता है, भगवान‍्का भजन करता है तो मनुष्य चाहे किसी भाषामें प्रार्थना करे; क्योंकि अपनी-अपनी भाषामें अपने-अपने इष्टका नाम अलग-अलग है। परमात्मा तो एक ही है। उसके साथ जिसका सम्बन्ध जुड़ा है तो क्या वह साधारण मनुष्य है? जैसे, दूसरे मनुष्य होते हैं, वैसे ही वह रहा? नहीं।

जैसे, लोगोंमें यह देखा जाता है कि राजकीय कोई बड़ा अधिकारी होता है तो लोगोंपर उसका असर पड़ता है कि ये बड़े अफसर आ गये, ये बड़े मिनिस्टर आ गये। ऐसे ही जो भगवान‍्में लगे हैं, वे बड़े राजाके हैं, जिससे बड़ा कोई है ही नहीं—‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥’ (गीता ११। ४३) वह उस भगवान‍्का प्यारा है, जिसके लिये स्वयं भगवान् कहते हैं—‘भगत मेरे मुकुटमणि।’ भगवान् स्वयं जिनके लिये इतना आदर देते हैं, उस सन्तके अगर हमको दर्शन हो जायँ तो कितना अहोभाग्य है हमारा! परन्तु मनुष्य उसको पहचानता नहीं। सन्तोंका पता नहीं लगता। सच्ची बात है। सन्तोंका क्या पता लगे?

महाराज, क्या बतावें? विचित्र, विलक्षण-विलक्षण सन्त होते हैं और साधारण व्यक्ति-जैसे पड़े रहते हैं। पता ही नहीं लगता उनका कि ये क्या हैं; क्योंकि बाहरसे तो वे मामूली दीखते हैं—

‘सन्तोंकी गत रामदास जगसे लखी न जाय।’
‘बाहर तो संसार-सा भीतर उलटा थाय॥’

‘ऐसे निराले सेठको वैसा ही बिरला जानता’ वह इतना मालदार है, उसको तो वैसा ही कोई बिरला जानता है, हर एक नहीं जानता। हर एकको उनकी पहचान नहीं होती। इस प्रकार सज्जनो! जो नाम हम सबके लिये सुलभ हैं, ‘सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥’ सुमिरन करनेमें सबको सुलभ है, चाहे वह किसी वर्णका हो, किसी जातिका हो, किसी आश्रमका हो, किसी देशका हो, किसी वेशमें हो, कोई भी क्यों न हो। वह भी अगर भगवान‍्के नाममें लग जाय, तो नाम सभीको सुख देनेवाला है—‘सुखद सब काहू’, ‘लोक लाहु परलोक निबाहू’ लोक-परलोकमें लाभ देनेवाला है, सब तरहसे निर्वाह करानेवाला है।

गोस्वामीजी कहते हैं—‘भरोसो जाहि दूसरो सो करो’ किसीको दूसरे किसीका भरोसा हो तो वह किया करे। मेरे तो—‘मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो’ रामजीका नामरूपी कल्पतरु कलियुगमें कल्याणरूपसे फलीभूत हो गया। इस कल्पतरुसे जो चाहे, सो ले लो। ‘मेरे तो माय-बाप दोउ आख रहौं, सिसु-अरनि अरो’ मैं बच्चा हूँ, अड़ जाऊँगा तो वह चीज लेकर ही छोड़ूँगा। जैसे माँ-बापके सामने बच्चा अड़ जाय, रोने लग जाय तो जो खिलौना चाहे, वह ले ही लेगा। ऐसे ही मैं शिशु हूँ, अड़ जाता हूँ तो राम-नामसे सब ले लेता हूँ। ऐसा कहते-कहते गोस्वामीजी महाराज हद कर देते हैं ‘संकर साखि जो राखि कहौं’ मनमें बात तो दूजी हो और बनाकर दूजी कहता हूँ तो भगवान् शंकर साक्षी हैं। शंकर भगवान् हमारे गवाह हैं। ‘तौ जरि जीह गरो’ जीभ जल जाओ, गल जाओ भले ही परन्तु ‘अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो।’

शंकर भगवान‍्की गवाही क्यों दी? एक तो शंकर राम-नाम लेनेवाले हैं। दूसरी बात, जिसको गवाही दिया जाय, उसको पूछते हैं—देखो भाई! सच्ची-सच्ची गवाही देना, तो वह कहता है—हाँ सच्ची कहता हूँ। पूछनेवाला पूछता है—बिलकुल सच्ची? हाँ, बिलकुल सच्ची? अगर सच्ची! तो उठाओ गंगाजली। ऐसे गोस्वामीजी शंकर भगवान‍्से कहते हैं—‘महाराज! सच्ची गवाही देना, आपके सिरपर गंगाजी हैं।’

सगरामदासजी कवि कहते हैं—

(१)

नरतन दीन्हो रामजी सतगुरु दीन्हो ज्ञान।
ये घोड़ा हाको अबे ओ आयो मैदान॥
ओ आयो मैदान बाग करडी कर सावो।
हिरदे राखो ध्यान राम रसनासों गावो॥
कुण देखाँ सगराम कहे आगे काढ़े कान।
नरतन दीन्हो रामजी सतगुरु दीन्हो ज्ञान॥

(२)

कहे दास सगराम बड़गड़े घालो घोड़ा।
भजन करो भरपूर रह्या दिन बाकी थोड़ा॥
थोड़ा दिन बाकी रह्या कद पोंछोला ठेट।
अध बीचमें बासो बसो तो पड़सो किणरे पेट॥
पड़सो किणरे पेट पड़ेगा भारी फोड़ा।
कहे दास सगराम बड़गड़े घालो घोड़ा॥

तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य-शरीर पा करके खूब भजन कर लो; नहीं तो कुत्तीके, गधीके पेटमें जाना पड़ेगा। इन माताओंका दूध पीकर क्या कुत्तीका दूध पीओगे? क्या गधीका दूध पीओगे? इस वास्ते भाइयो! बहिनो! हमलोगोंपर सन्तोंने कितनी कृपा करके हमको भगवान‍्का नाम बता दिया है। अब तो चेत करके रात और दिन ‘राम-राम-राम-राम-राम’ करो। रात-दिन भजनमें लग जाओ।

भाइयो! जबानकी सावधानी रखो। जबानसे सत्य बोलो, झूठ मत बोलो। सावधानीके साथ इसका हरदम खयाल रखो और हरदम भगवान‍्का नाम लो। झूठ बोलनेसे जिह्वामें शक्ति नहीं होती। जबानमें शक्ति न होनेपर नाम लेनेपर भी जल्दी सिद्धि नहीं होती।

‘जिह्वा दग्धा परान्नेन’ पराया हक खानेसे जीभ जल गयी। ‘हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात्’ दूसरोंकी चीज लेनेसे हाथ जल गये। ‘परस्त्रीभिर्मनो दग्धम्’ पर-स्त्रियोंमें मन जानेसे मन जल गया। ‘कथं सिद्धिर्वरानने।’ तो सिद्धि कैसे हो? ताकत न जीभमें रही, न हाथमें रही और न मनमें रही। इस वास्ते भाइयो! बहिनो! बड़ी सावधानीसे बर्ताव करो और भगवान‍्का नाम लो।

लोग बड़े-बड़े दु:ख पाते हैं और कहते हैं—‘क्या करें चिन्ता नहीं मिटती, हमारा काम नहीं बनता।’ अरे भाई, राम-नाम लो न? मैंने सन्तोंसे सुना है कि राम-नाम है तोपका गोला—‘जैसे गोला तोप का करत जात मैदान’ जैसे तोपका गोला जहाँ जाता है, वहाँ मैदान हो जाता है, ऐसे ही यह राम-नाम है। यह तो प्रत्यक्ष बात है कि जब मनमें चिन्ता आये तो आधा घंटा, एक घंटा नाम जपो, चिन्ता मिट जायगी।

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