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अन्त:करणकी शुद्धिका उपाय

ये राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि उत्पन्न और नष्ट होते हैं, आते और जाते हैं। परन्तु आप उत्पन्न-नष्ट होते हो और आते-जाते हो क्या? नहीं। तो फिर ये (राग-द्वेषादि दोष) आपसे अलग हुए न? अलग होनेसे ये आपमें नहीं हैं—यह बात दृढ़ हुई। अत: दृढ़तासे यह विचार होना चाहिये कि ये मेरेमें नहीं हैं। अगर ये आपमें होते तो जबतक आप रहते, तबतक ये भी रहते और आप न रहते तो ये भी न रहते। परन्तु आप तो रहते हो और ये नहीं रहते। ये आगन्तुक हैं, आप आगन्तुक थोड़े ही हैं! आपका भाव (होनापन) तो निरन्तर रहता है। गाढ़ नींदमें ‘मैं हूँ’ ऐसा स्पष्टभाव नहीं होता, तो भी जगनेपर यह भाव होता ही है कि अभीतक मैं सोया था, अब जग गया हूँ। मैं सोया था, उस समय मेरा अभाव था, यह नहीं दीखता। अपना भाव तो निरन्तर अपने अनुभवमें आ रहा है, और इन दोषोंका आगन्तुकपना प्रत्यक्ष हमारे अनुभवमें आ रहा है। इसका भाव और अभाव—दोनों हमारी समझमें आते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ये राग-द्वेष आदि आपके स्वरूपमें नहीं हैं, प्रत्युत आपके मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें आते हैं। परन्तु शरीरको मैं-मेरा माननेसे इनके साथ अपने सम्बन्धका अभाव नहीं दीखता।

देखो, एक बात बतायें। आप ध्यान देकर सुनें। हमारेको संसारके जितने भी ज्ञान होते हैं, वे सब सांसारिक पदार्थ शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करणको साथ लेकर ही होते हैं। परन्तु स्वयंका बोध शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करणको साथ लेनेसे नहीं होता। अब यह जो बात है कि अन्त:करण शुद्ध होनेसे संसारका ज्ञान साफ होगा, पर स्वरूपका बोध कैसे होगा? इसपर शंका करो।

श्रोता—महाराजजी! अन्त:करण शुद्ध होनेसे अन्त:करणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा तो बोध अपने-आप हो जायगा।

स्वामीजी—जड़-चेतनका, सत्-असत् का, नित्य-अनित्यका जो विवेक है, उस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही बोध नहीं हो रहा है। विवेकको महत्त्व देनेसे अविवेक मिट जायगा और बोध हो जायगा। वह विवेक आपमें है और अभी है। उस विवेकको आपने प्रकाशित नहीं किया, उसको आपने उद‍्बुद्ध नहीं किया, उसको जाग्रत् नहीं किया, उसका आदर नहीं किया, उसको महत्त्व नहीं दिया—यह गलती हुई। अन्त:करण शुद्ध होनेसे क्या हो जायगा? शुद्ध होनेसे एक बात है कि इधर (पारमार्थिक) रुचि हो जायगी, और कुछ नहीं।

एक बड़ी मार्मिक बात है, जिस तरफ साधकका ध्यान नहीं जाता। परमात्मतत्त्वका अथवा स्वरूपका बोध करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है। इसलिये करण शुद्ध हो या अशुद्ध, उससे विमुख होनेसे वह बोध हो जायगा।

श्रोता—अन्त:करण शुद्ध हुए बिना उससे सम्बन्ध टूट सकता है क्या?

स्वामीजी—वास्तवमें तो सम्बन्ध है नहीं, पर सम्बन्ध मान लिया है। माना हुआ सम्बन्ध नहीं माननेसे मिट जायगा। इसमें शुद्धि-अशुद्धिसे क्या लेन-देन!

श्रोता—यह मान्यता बिना अन्त:करण शुद्ध हुए भी हो सकती है क्या?

स्वामीजी—बिलकुल हो सकती है। आपके भीतर यह भाव होना चाहिये कि मेरी मुक्ति हो जाय, मुझे बोध हो जाय। मेरा अन्त:करण शुद्ध हो जाय, उससे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय—यह बात वास्तवमें सम्बन्धको दृढ़ करनेवाली है। किसीको मिटाना चाहते हो तो मिटानेसे पहले उसकी सत्ता मानते हो। अगर सत्ता नहीं मानते तो फिर मिटाते किसको हो? सत्ता मानते हो, तभी तो आप सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहते हो। सम्बन्ध है—यह मान्यता होती है, तब उसको दूर करते हो। मैं कहता हूँ कि सम्बन्ध है ही नहीं! उस (शास्त्रीय) प्रणालीमें और इस प्रणालीमें यही खास फरक है। जैसे, वेदान्त-ग्रन्थोंमें आता है कि ‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्चयते’ अध्यारोप और अपवाद—इन दोनोंसे निष्प्रपंचका प्रपंच होता है अर्थात् परमात्माका विवेचन होता है। तो मैं कहता हूँ कि जब अपवाद ही करना है तो अध्यारोप करो ही क्यों?

श्रोता—मेरा प्रश्न यही उठ रहा है कि अन्त:करणकी शुद्धि हुए बिना मान्यता बनती नहीं।

स्वामीजी—मैं कहता हूँ कि बनती है। अन्त:करणको लेकर बनाओगे तो नहीं बनेगी। देखो, सनकादिकोंने जाकर ब्रह्माजीसे प्रश्न किया कि मन विषयोंमें फँसा हुआ है और विषय मनमें बसे हुए हैं, तो फिर मनको विषयोंसे अलग कैसे करें? तो उत्तर दिया कि इन दोनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद कर दो—‘मद्रूप उभयं त्यजेत्’ (श्रीमद्भा० ११। १३। २६)। यही तो मैं कहता हूँ। इस साधनको क्यों नहीं पकड़ते आप? यह शास्त्रकी बात है, मेरे घरकी नहीं है। मेरे घरकी इतनी ही बात है कि इसीको जोरसे पकड़ना चाहिये, दूसरेको नहीं। अध्यारोप करो, उसको रखो, फिर उसको दूर करो; क्यों आफतमें फँसते हो? है ही नहीं हमारेमें। इससे साधककी जल्दी सिद्धि होती है, इसलिये इसका आदर करो। यह प्रणाली मेरी नहीं है और न किसीका ठेका है इसपर। यह तो सामान्य बात है।

श्रोता—महाराजजी! जहाँ जिज्ञासा होती है, मान्यता होती है, वहींपर हमारी भोगोंमें रुचि पैदा होती है।

स्वामीजी—भोगोंकी रुचि है, सुखभोगकी इच्छा है—यही घातक है। इसका आप त्याग नहीं करते, इसीलिये सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कठिन दीखती है, नहीं तो यह बहुत सुगम और बहुत सरल है।

श्रोता—यह सुखभोगकी इच्छा ही खास बीमारी है महाराजजी।

स्वामीजी—खास बीमारी है तो इसको दूर करो। वास्तवमें जब आपकी समझमें आ गयी कि यह बीमारी है, तो बीमारी आपसे दूर हो गयी। आँखमें लगा हुआ अंजन आँखसे नहीं दीखता। अंजन आँखसे तब दीखता है, जब वह आँखसे दूर हो—अँगुलीपर लगा हो।

श्रोता—स्वामीजी! दोषको जानते हुए भी और इसको दूर करना चाहते हुए भी यह दूर क्यों नहीं होता?

स्वामीजी—जबतक सुखकी इच्छा है, तबतक वह दोष दूर नहीं होगा। जैसी सुखभोगकी इच्छा है, वैसी त्यागकी इच्छा नहीं है। सुखभोगकी इच्छा ज्यादा प्रबल है। उसकी अपेक्षा उसके त्यागकी इच्छा बहुत कमजोर है।

श्रोता—यह सही बात है महाराजजी, सुखभोगकी रुचि ज्यादा है।

स्वामीजी—तो सुखभोगकी रुचिको दूर करो, और उस रुचिको दूर करनेमें आपको अभ्यास करना पड़ेगा। अगर अभ्यास न करके ‘यह मेरेमें है नहीं’—इसको मान लो तो बहुत जल्दी काम हो जाय। वास्तवमें अन्त:करणकी शुद्धि करनेकी अपेक्षा अन्त:करणसे सम्बन्ध-विच्छेद करो तो यह बहुत जल्दी सिद्धि करनेवाली बात है। सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे जो शुद्धि होगी, वह शुद्धि करनेसे नहीं होगी। बच्चा माँकी गोदीमें रहता हुआ शुद्ध नहीं होता। माँके मोहपूर्वक स्नेहमें पला हुआ बालक निर्मोही नहीं हो सकता। बापका मोह कम होता है तो बापके पास रहनेवाला बालक सुधरेगा। अध्यापकका मोह और कम होता है तो उसके पास रहनेवाला बालक और ज्यादा सुधरेगा। तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्तका मोह होता ही नहीं, इसलिये उसके पास कोई रहेगा तो वह बहुत शुद्ध हो जायगा, सुधर जायगा। इस तरह आप अन्त:करणको अपना मानते रहोगे तो वह शुद्ध नहीं होगा। मेरापन-रूपी मल तो लगाते जाते हो और कहते हो कि शुद्ध कर लूँगा! कैसे शुद्ध कर लोगे? मेरा है ही नहीं—यह बात बहुत ही शुद्ध करनेवाली है और जल्दी शुद्ध करनेवाली है। इसी बातको लेकर मेरी प्रणाली और तरहकी दीखती है। वह (दूसरी) प्रणाली भी मेरी पढ़ी हुई है और देखी हुई है तथा यह प्रणाली भी देखी हुई है। उस प्रणालीमें देरी लगती है, जल्दी सिद्धि नहीं होती। आप ही देख लो कि इतने वर्षोंसे सत्संग करते हैं, साधन करते हैं, पर वास्तविक सिद्धि कितनोंको मिली? अशुद्धिको आदर देते हुए, अपनेमें मानते हुए उसको दूर करना चाहते हैं। इससे वह दूर होगी नहीं। वास्तवमें आपके स्वरूपमें यह है नहीं। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३। ३१) अर्थात् शरीरमें स्थित रहता हुआ भी आपका स्वरूप शरीरमें स्थित नहीं है, कर्ता और भोक्ता नहीं है। इस प्रकार सीधे स्वरूपको ही पकड़नेकी मेरी प्रणाली है। यह कोई नयी बात नहीं है।

श्रोता—पर स्वामीजी! रामायणमें तो ज्ञानको कठिन बताया गया है और आप कहते हैं कि सरल है?

स्वामीजी—आप प्रमाण दोगे तो मैं चुप हो जाऊँगा, पर मैं मानूँगा थोड़े ही इस बातको! आप रामायणकी बात कहोगे तो हृदयमें गोस्वामीजी महाराजका आदर होनेके कारण मैं चुप हो जाऊँगा। परन्तु जो सरल है, वह कठिन कैसे हो जायगा? गोस्वामीजी महाराजने इसको सरल कहा है—

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ॥
(७। ७३ ख)

यह और किसीकी वाणी है क्या? बोलो।

श्रोता—महाराजजी! बात समझमें आती तो है, पर आकर भी नहीं आती!

स्वामीजी—भाई, बात एक ही है। वह है—सुख-भोगकी इच्छा। इसको आप छोड़ते नहीं! सुख भोग लें और संग्रह कर लें—ये दो चीजें हैं। मेरे पास वस्तु हो जाय, रुपया हो जाय, इतना आधिपत्य हो जाय और इनसे मैं सुख भोग लूँ—यह खास बाधा है। न सुख बाधक है और न संग्रह बाधक है। सुख और संग्रहकी जो इच्छा है, यही महान् बाधक है। इस इच्छासे लाभ किसी तरहका नहीं है और नुकसान किसी तरहका बाकी नहीं है। नरक, चौरासी लाख योनियाँ, सन्ताप, जलन, चिन्ता, भय—ये सब इस इच्छामें हैं।

श्रोता—इस इच्छाको मिटानेके लिये क्या किया जाय?

स्वामीजी—दूसरेका हित कैसे हो? दूसरेको सुख कैसे हो? दूसरेका सम्मान कैसे हो? दूसरेको आराम कैसे मिले?—यह लगन लग जाय। जहाँ अपने सुखकी इच्छा है, उस जगह दूसरेके सुखकी इच्छा हो जाय, लगन लग जाय, तो अपने सुख और संग्रहकी इच्छा मिट जायगी। न मिटे तो कहना!

जो दूसरोंके हितमें रत हैं, उनको भगवान‍्ने सगुण और निर्गुण—दोनोंकी प्राप्ति बतायी है। सगुणकी प्राप्तिमें बताया—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥’ (गीता १२। ४) और निर्गुणकी प्राप्तिमें बताया—‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय:...सर्वभूतहिते रता:॥’ (गीता ५। २५)।

यह जो आप ज्ञानमार्ग समझकर इन बातोंको टाल देते हो, कृपानाथ! ऐसा न करो। ज्ञानमें, भक्तिमें, कर्मयोगमें—सबमें विवेक उपयोगी है। विवेकके बिना आपका साधन ठीक तरहसे चलता ही नहीं। विवेक तो उसके लिये भी उपयोगी है, जो स्वर्गकी प्राप्ति चाहता है, सकाम भावसे सिद्धि चाहता है। उसका शरीर तो यहीं रह जायगा, फिर स्वर्ग जायगा कौन? इसलिये जो बन्धनका कारण है, उसमें भी विवेक जरूरी है। जो अपना उद्धार चाहता है, उसके लिये तो विवेक बड़ा भारी उपयोगी है। जो इसकी उपेक्षा करते हैं, वे गलती करते हैं। भगवान‍्ने तो गीताका आरम्भ ही इसीसे किया है कि शरीर और शरीरी, देह और देही दो हैं, एक नहीं है। वास्तविकता यही है। इसी वास्तविकताका अनुभव करना है। वास्तविकताका अनुभव नहीं करोगे तो और क्या अनुभव करोगे?

श्रोता—विवेक परमात्माका स्वरूप है क्या?

स्वामीजी—हाँ, स्वरूप हो जाता है। विवेक नाम है दो चीजोंका और परमात्मा है एक चीज। विवेक परमात्मामें परिणत हो जाता है। विवेककी जगह परमात्मा ही रह जाता है।

श्रोता—विवेकको कैसे जाग्रत् करें?

स्वामीजी—यही तो मैं माथापच्ची कर रहा हूँ। आप और हम मिल करके अभी कर क्या रहे हैं? विवेकको जाग्रत् करनेकी बात ही कर रहे हैं। विवेकके लिये अभ्यास जरूरी नहीं है, विचार जरूरी है। अभ्याससे मुक्ति नहीं होती और विचारसे मुक्ति बाकी नहीं रहती।

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