साधनकी मुख्य बाधा
इन्द्रियों और विषयोंके सम्बन्धसे होनेवाला जो सुख है, उसकी जो आसक्ति है, यही खास बाधा है। संसारका जो सुख लेते हैं, अनुकूलतामें राजी होते हैं, यही वास्तवमें पारमार्थिक मार्गमें बाधा है। साधन करते हुए अगर साधनमें भी सुख लेते हैं, उसमें संतोष करते हैं, तो आगे ऊँचे चढ़नेमें बाधा लग जाती है। जैसे, रजोगुण-तमोगुण तो बाँधते ही हैं, पर सत्त्वगुण भी सुखकी आसक्तिसे बाँध देता है—‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता१४। ६)। सुखकी आसक्ति छूटनेसे दु:ख सर्वथा मिट जाते हैं, यह बिलकुल सच्ची बात है, ठोस बात है। सुखकी आसक्ति न रहे तो परम आनन्दकी प्राप्ति हो जाय, सम्पूर्ण दु:खोंकी निवृत्ति हो जाय। मान-सम्मानका सुख है, भोगोंका सुख है, अनुकूलताका सुख है—यह खास बाधक है। अगर कोई शूरवीरता करके सुखकी लोलुपतामें न फँसे तो बहुत जल्दी उन्नति हो जाय। सुख-लोलुपताका सर्वथा त्याग करते ही उन्नति स्वत: सिद्ध है— ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२। १२)। यह बहुत सार बात है।
बहुत वर्षोंतक मैं व्याख्यान देता रहा। सुनाता भी रहा, सुनता भी रहा, पढ़ता भी रहा; परन्तु यह मनमें थी कि बात क्या है? यह कहाँ अटकाव है और क्यों अटकाव है? कई वर्ष हो गये, तब हमें यह बात मिली। इसलिये आपको यह बात बतायी कि आप गफलतमें न रहें। सुखासक्तिका त्याग करना ही है हमें। इसके त्यागके बिना शान्ति नहीं मिलेगी। शान्तिमें भी रमण करोगे तो परमशान्ति नहीं मिलेगी। कल्याण चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं, तो सुख-लोलुपताका त्याग करना पड़ेगा, सुखकी आशाका त्याग करना पड़ेगा, सुखके भोगका त्याग करना पड़ेगा। बिना छोड़े शान्ति मिलेगी नहीं, बिलकुल पक्की, ठोस बात है।
भगवान्ने कह दिया कि ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।’ (गीता ५। २२) जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं, वे दु:खोंके ही कारण हैं। इनका नाम तो सुख है, पर है महान् दु:ख, जो महान् आनन्दकी प्राप्तिमें बाधा देता है, परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित करता है। भोगोंका सुख है, मानका सुख है, बड़ाईका सुख है, शरीरके आरामका सुख है, संग्रह करनेका सुख है, मेरे पास रुपया है, विद्या है, मैं समझदार हूँ—ऐसा अभिमानजन्य सुख है, यह सब बाधक है। सुखका अनुभव होना, ज्ञान होना बाधक नहीं है। मेरेको सुख मिलता रहे, मैं सुखी रहूँ—यह जो भीतरमें सुखभोगकी इच्छा है, यह बाधक है। इससे बड़ा भारी अनर्थ पैदा होता है। कोई हमारे सुखमें बाधा देता है; मान, सत्कार, बड़ाई, आराम, भोगमें बाधा देता है, तो वह हमें बुरा लगता है। इसमें एक मार्मिक बात है सज्जनो! दूसरा हमें बुरा लगता है—यही खास बुराई है।
सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।
अहं करोमीति वृथाभिमान:
स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोक:॥
(अध्यात्मरामायण २।६।६)
‘सुख या दु:खको देनेवाला कोई और नहीं है। कोई दूसरा सुख-दु:ख देता है—यह समझना कुबुद्धि है। मैं करता हूँ—यह वृथा अभिमान है; क्योंकि लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं।’
इसने हमारा सम्मान नहीं किया, इसने हमारे विरुद्ध बात कर दी, इसने हमारे घाटा लगा दिया, इसने हमारे व्यापारमें बाधा लगा दी, इसने हमारी उन्नतिमें बाधा लगा दी—यह जो दूसरेको निमित्त मानना है, यह बहुत बड़ी भूल है। इस भूलसे महान् अनर्थ होता है, अपनी तरफ दृष्टि नहीं जाती, जबकि केवल अपनी तरफ दृष्टि जानी चाहिये। हमारेमें मानकी, बड़ाईकी, सुखकी इच्छा है, इस कारणसे दु:ख होता है। दूसरा दु:ख नहीं दे सकता। दूसरेसे दु:ख तभी होता है, जब हम भीतरसे सुख चाहते हैं। अत: दु:खके कारण हम खुद ही हुए। ऐसा जिस दिन हमने समझ लिया, उस दिनसे हमारी उन्नति शुरू हो ही जायगी। बिलकुल पक्की बात है। जबतक यह दृष्टि रहेगी कि उसने ऐसा नहीं किया, उसने ऐसा नहीं किया, तबतक कभी उन्नति नहीं होगी; क्योंकि रास्ता शुरूसे ही गलत ले लिया। गलत रास्तेपर कितना ही चलो, ठेठ (सिद्धितक) कैसे पहुँचोगे? जो यह कहते हैं कि मेरा क्या दोष है इसमें, मेरा दोष है ही नहीं—यही मेरा दोष है। अपने दोष नहीं दीखते—यही वास्तवमें दोषोंको स्थिर रखनेवाली चीज है—‘परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।’ मैं अनुकूल परिस्थिति बना लेता हूँ, यह वृथाभिमान है—‘अहं करोमीति वृथाभिमान:।’ यह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो आती-जाती रहती है। जैसे रातके बाद दिन और दिनके बाद रात आते-जाते रहते हैं, ऐसे ही सुखके बाद दु:ख और दु:खके बाद सुख आते-जाते रहते हैं। अगर हम सुखी-दु:खी होते रहेंगे तो पारमार्थिक बातसे वंचित रहेंगे। जिसको परम आनन्दकी प्राप्ति, दु:खोंकी अत्यन्त निवृत्ति कहते हैं, वह नहीं होगी। केवल सुखकी लोलुपताका, सुखकी आशाका, सुखके भोगका त्याग करें तो दु:ख मिट जायँगे और महान् सुख मिल जायगा।
आप गहरा उतरकर सोचें कि दु:ख किसका नाम है? सुखकी इच्छाका नाम ही दु:ख है, और कोई दु:ख है ही नहीं। दु:ख नामकी कोई वस्तु नहीं है। जो सुखकी इच्छा रखता है, उसको दु:ख भोगना ही पड़ेगा—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।’ सुख तो आने-जानेवाला है, पैदा होता है और समाप्त हो जाता है— ‘आद्यन्तवन्त:’ (गीता ५। २२)। सुख तो रहता नहीं, पर उसकी इच्छा, आशा बनी रहती है। सुखभोगके संस्कार भीतर रहते हैं। अगर सुखकी इच्छाका त्याग कर दें तो बहुत भारी लाभकी बात है। वह लाभ क्या है?—
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २२)
‘जिस लाभकी प्राप्तिके बाद फिर दूसरा कोई लाभ माननेमें ही नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।’ अर्थात् उस लाभमें, उस सुखमें कभी कमी आती ही नहीं, दु:खका स्पर्श होता ही नहीं। इसलिये संयोगजन्य सुखमें लोलुपता नहीं रखनी है, उसकी आशा नहीं करनी है, उसका चिन्तन नहीं करना है, उसके लिये उद्योग नहीं करना है। हाँ, जीवन-निर्वाहके लिये उद्योग करो। पर सुखभोगका उद्देश्य रखोगे, उसके लिये उद्योग करोगे तो फँस जाओगे। इसमें कोई शंका हो तो पूछो, और बात ठीक समझमें आ गयी तो आजसे ही मान लो। सावधान हो जाओ कि संयोगजन्य सुख नहीं लेंगे। कभी इस सुखसे मोहित भी हो जायँ, राजी भी हो जायँ, तो चेत करना चाहिये कि राम....राम.... गजब हो गया! आज तो हम इसके वशमें हो गये! ऐसा होते ही इसकी लोलुपता छूट जायगी; क्योंकि इसमें खुदमें ताकत नहीं है, इसके नीचे बुनियाद नहीं है, जड़ नहीं है। पारमार्थिक सुखकी बुनियाद, जड़ परमात्मा है। इसलिये यह पारमार्थिक सुख कभी मिटता नहीं।
जितने भी सुख हैं, वे सब-के-सब आदि-अन्तवाले हैं। अत: संसारका सुख और दु:ख सदैव आपके साथ नहीं रह सकता। आपके साथ सदैव परमात्मा ही रहते हैं। वे परमात्मा दीखते नहीं। न दीखनेपर भी उनको अपना मानना है और संसारको अपना नहीं मानना है।
जो जंगलमें रह करके, कन्द, मूल, फल खा करके अपना जीवन बितानेवाले हैं, ऐसे-ऐसे ऋषि-मुनियोंको भी विषयासक्ति बाधा पहुँचाती है। इसलिये जो सांसारिक पदार्थोंसे सुख मानते हैं, सांसारिक पदार्थोंकी गरज करते हैं, वे बड़ी भारी गलती करते हैं।