धर्मका सार
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्॥
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
(पद्मपुराण, सृष्टि० १९। ३५७-३५८)
—धर्मसर्वस्व अर्थात् पूरा-का-पूरा धर्म थोड़ेमें कह दिया जाय, तो वह इतना ही है कि जो बात अपने प्रतिकूल हो, वह दूसरोंके प्रति मत करो। इसमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार आ जाता है। जैसे, आपका यह भाव रहता है कि हरेक आदमी मेरी सहायता करे, मेरी रक्षा करे, मेरेपर विश्वास करे, मेरे अनुकूल बने और दूसरा कोई भी मेरे प्रतिकूल न रहे, मेरेको कोई ठगे नहीं, मेरा कोई नुकसान न करे, मेरा कोई निरादर न करे, तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं दूसरेकी सहायता करूँ, दूसरेकी रक्षा करूँ, दूसरेपर विश्वास करूँ, दूसरेके अनुकूल बनूँ और किसीके भी प्रतिकूल न रहूँ, किसीको ठगूँ नहीं, किसीका कोई नुकसान न करूँ, आदि-आदि। इस प्रकार आप खुदके अनुभवका आदर करें तो आप पूरे धर्मात्मा बन जायँगे।
मेरा कोई नुकसान न करे—यह हाथकी बात नहीं है, पर मैं किसीका नुकसान न करूँ—यह हाथकी बात है। सब-के-सब मेरी सहायता करें—यह मेरे हाथकी बात नहीं है, पर इस बातसे यह सिद्ध होता है कि मैं सबकी सहायता करूँ। मेरे साथ जिन-जिनका काम पड़े उनकी सहायता करनेवाला मैं बन जाऊँ। मेरेको कोई बुरा न समझे—इससे यह शिक्षा लेनी चाहिये कि मैं किसीको बुरा न समझूँ। यह अनुभवसिद्ध बात है। कोई भी मेरेको बुरा न समझे—यह हाथकी बात नहीं है, पर मैं किसीको बुरा न समझूँ—यह हाथकी बात है। जो हाथकी बात है, उसको करना ही धर्मका अनुष्ठान है। ऐसा करनेवाला पूरा धर्मात्मा बन जाता है। जो धर्मात्मा होता है, उसको सब चाहते हैं, उसकी सबको गरज रहती है। आदमी किसको नहीं चाहता? जो स्वार्थी होता है, मतलबी होता है, दूसरोंका नुकसान करता है, उसको कोई नहीं चाहता। परन्तु जो तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे दूसरोंका भला करता है, जिसके हृदयमें सबकी सहायता करनेका, सबको सुख पहुँचानेका भाव है, उसको सब लोग चाहने लगते हैं। जिसको सब लोग चाहते हैं, वह ज्यादा सुखी रहता है। कारण कि अभी अपने सुखके लिये अकेले हम ही उद्योग कर रहे हैं तो उसमें सुख थोड़ा होगा, पर दूसरे सब-के-सब हमारे सुखके लिये उद्योग करेंगे तो हम सुखी भी ज्यादा होंगे और हमारेको लाभ भी ज्यादा होगा।
सब-के-सब हमारे अनुकूल कैसे बनें? कि हम किसीके भी प्रतिकूल न बनें, किसीके भी विरुद्ध काम न करें। अपने स्वार्थ और अभिमानमें आकर दूसरेका निरादर कर दें, तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें और दूसरेको बुरा समझें कि यह आदमी बुरा है, तो फिर दूसरा हमारा आदर-सम्मान करे, हमें अच्छा समझे इसके लायक हम नहीं हैं। जबतक हम किसीको बुरा आदमी समझते हैं, तबतक हमें कोई बुरा आदमी न समझे—इस बातके हम हकदार नहीं होते। इसके हकदार हम तभी होते हैं, जब हम किसीको बुरा न समझें। अब कहते हैं कि बुरा कैसे न समझें? उसने हमारा बिगाड़ किया है, हमारे धनका नुकसान किया है, हमारा अपमान किया है, हमारी निन्दा की है! तो इसपर आप थोड़ी गम्भीरतासे विचार करें। उसने हमारा जो नुकसान किया है, वह हमारा नुकसान होनेवाला था। हमारा नुकसान न होनेवाला हो और दूसरा हमारा नुकसान कर दे—यह हो ही नहीं सकता। परमात्माके राज्यमें हमारा जो नुकसान होनेवाला नहीं था, उस परमात्माके रहते हुए दूसरा हमारा वह नुकसान कैसे कर देगा? हमारा तो वही नुकसान हुआ, जो अवश्यम्भावी था। दूसरा उसमें निमित्त बनकर पापका भागी बन गया; अत: उसपर दया आनी चाहिये। अगर वह निमित्त न बनता, तो भी हमारा नुकसान होता, हमारा अपमान होता। वह खुद हमारा नुकसान करके, हमारा अपमान करके पापका भागी बन गया, तो वह भूला हुआ है। भूले हुएको रास्ता दिखाना हमारा काम है या धक्का देना? कोई खड्ढेमें गिरता हो, तो उसको बचाना हमारा काम है या उसको धक्का देना? अत: उस बेचारेको बचाओ कि उसने जैसे मेरा नुकसान किया है, वैसे किसी औरका नुकसान न कर दे। ऐसा भाव जिसके भीतर होता है, वह धर्मात्मा होता है, महात्मा होता है, श्रेष्ठ पुरुष होता है।
‘गीत-गोविन्द’ की रचना करनेवाले पण्डित जयदेव एक बड़े अच्छे सन्त हुए हैं। एक राजा उनपर बहुत भक्ति रखता था और उनका सब प्रबन्ध अपनी तरफसे ही किया करता था। वे ब्राह्मण देवता (जयदेव) त्यागी थे और गृहस्थ होते हुए भी ‘मेरेको कुछ मिल जाय, कोई धन दे दे’—ऐसा चाहते नहीं थे। उनकी स्त्री भी बड़ी विलक्षण पतिव्रता थी; क्योंकि उनका विवाह भगवान्ने करवाया था, वे विवाह करना नहीं चाहते थे। एक दिनकी बात है, राजाने उनको बहुत-सा धन दिया, लाखों रुपयोंके रत्न दिये। उनको लेकर वे वहाँसे रवाना हुए और घरकी तरफ चले। रास्तेमें जंगल था। डाकुओंको इस बातका पता लग गया। उन्होंने जंगलमें जयदेवको घेर लिया और उनके पास जो धन था, वह सब छीन लिया। डाकुओंके मनमें आया कि यह राजाका गुरु है, कहीं जीता रह जायगा तो हमारेको पकड़वा देगा। अत: उन्होंने जयदेवके दोनों हाथ काट लिये और उनको एक सूखे हुए कुएँमें गिरा दिया। जयदेव कुएँके भीतर पड़े रहे। एक-दो दिनमें राजा जंगलमें आया। उसके आदमियोंने पानी लेनेके लिये कुएँमें लोटा डाला तो वे कुएँमेंसे बोले कि ‘भाई, ध्यान रखना, मेरेको लग न जाय। इसमें जल नहीं है, क्या करते हो!’ उन लोगोंने आवाज सुनी तो बोले कि यह आवाज तो पण्डितजीकी है! पण्डितजी यहाँ कैसे आये! उन्होंने राजाको कहा कि महाराज! पण्डितजी तो कुएँमेंसे बोल रहे हैं। राजा वहाँ गया। रस्सा डालकर उनको कुएँमेंसे निकाला, तो देखा कि उनके दोनों हाथ कटे हुए हैं। उनसे पूछा गया कि यह कैसे हुआ? तो वे बोले कि भाई देखो, जैसा हमारा प्रारब्ध था, वैसा हो गया। उनसे बहुत कहा गया कि बताओ तो सही, कौन है, कैसा है। परन्तु उन्होंने कुछ नहीं बताया, यही कहा कि हमारे कर्मोंका फल है। राजा उनको घरपर ले गये। उनकी मलहम-पट्टी की, इलाज किया और खिलाने-पिलाने आदि सब तरहसे उनकी सेवा की।
एक दिनकी बात है। जिन्होंने जयदेवके हाथ काटे थे, वे चारों डाकू साधुके वेशमें कहीं जा रहे थे। उनको राजाने भी देखा और जयदेवने भी। जयदेवने उनको पहचान लिया कि ये वही डाकू हैं। उन्होंने राजासे कहा कि देखो राजन्! तुम धन लेनेके लिये बहुत आग्रह किया करते हो। अगर धन देना हो तो वे जो चारों जा रहे हैं, वे मेरे मित्र हैं, उनको धन दे दो। मेरेको धन दो या मेरे मित्रोंको दो, एक ही बात है। राजाको आश्चर्य हुआ कि पण्डितजीने कभी उम्रभरमें किसीके प्रति ‘आप दे दो’ ऐसा नहीं कहा, पर आज इन्होंने कह दिया है! राजाने उन चारोंको बुलवाया। वे आये और उन्होंने देखा कि हाथ कटे हुए पण्डितजी वहाँ बैठे हैं, तो उनके प्राण सूखने लगे कि अब कोई आफत आयेगी! अब ये हमें मरवा देंगे। राजाने उनके साथ बड़े आदरका बर्ताव किया और उनको खजानेमें ले गया। उनको सोना, चाँदी, मुहरें आदि खूब दिये। लेनेमें तो उन्होंने खूब धन ले लिया, पर पासमें बोझ ज्यादा हो गया। अब क्या करें? कैसे ले जायँ? तो राजाने अपने आदमियोंसे कहा कि इनको पहुँचा दो। धनको सवारीमें रखवाया और सिपाहियोंको साथमें भेज दिया। वे जा रहे थे। रास्तेमें उन सिपाहियोंमें जो बड़ा अफसर था, उसके मनमें आया कि पण्डितजी किसीको कभी देनेके लिये कहते ही नहीं और आज देनेके लिये कह दिया, तो बात क्या है! उसने उनसे पूछा कि महाराज, आप बताओ कि आपने पण्डितजीका क्या उपकार किया है? पण्डितजीके साथ आपका क्या सम्बन्ध है? आज हमने पण्डितजीके स्वभावसे विरुद्ध बात देखी है। बहुत वर्षोंसे देखता हूँ कि पण्डितजी किसीको ऐसा नहीं कहते कि तुम इसको दे दो, पर आपके लिये ऐसा कहा, तो बात क्या है? वे चारों आपसमें एक-दूसरेको देखने लगे, फिर बोले कि ‘ये एक दिन मौतके मुँहमें जा रहे थे तो हमने इनको मौतसे बचाया। इनके हाथ ही कटे, नहीं तो गला कट जाता! उस दिनका ये बदला चुका रहे हैं।’ उनकी इतनी बात पृथ्वी सह नहीं सकी। पृथ्वी फट गयी और वे चारों पृथ्वीमें समा गये! सिपाहीलोगोंको बड़ी मुश्किल हो गयी कि अब धन कहाँ ले जायँ! वे तो पृथ्वीमें समा गये! अब वे वहाँसे लौट पड़े और आकर सब बात बतायी। उनकी बात सुनकर पण्डितजी जोर-जोरसे रोने लग गये! रोते-रोते आँसू पोंछने लगे तो उनके हाथ साबुत हो गये। यह देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या तमाशा है! हाथ कैसे आ गये? राजाने सोचा कि वे इनके कोई घनिष्ठ-मित्र थे, इसलिये उनके मरनेसे पण्डितजी रोते हैं। उनसे पूछा कि महाराज, बताओ तो सही, बात क्या है? हमारेको तो आप उपदेश देते हैं कि शोक नहीं करना चाहिये, चिन्ता नहीं करनी चाहिये, फिर मित्रोंका नाश होनेसे आप क्यों रोते हैं? शोक क्यों करते हैं? तो वे बोले कि ये जो चार आदमी थे, इन्होंने ही मेरेसे धन छीन लिया और हाथ काट दिये। राजाने बड़ा आश्चर्य किया और कहा कि महाराज, हाथ काटनेवालोंको आपने मित्र कैसे कहा? जयदेव बोले कि देखो राजन्! एक जबानसे उपदेश देता है और एक क्रियासे उपदेश देता है। क्रियासे उपदेश देनेवाला ऊँचा होता है। मैंने जिन हाथोंसे आपसे धन लिया, रत्न लिये, वे हाथ काट देने चाहिये। यह काम उन्होंने कर दिया और धन भी ले गये। अत: उन्होंने मेरा उपकार किया, मेरेपर कृपा की, जिससे मेरा पाप कट गया। इसलिये वे मेरे मित्र हुए। रोया मैं इस बातके लिये कि लोग मेरेको सन्त कहते हैं, अच्छा पुरुष कहते हैं, पण्डित कहते हैं, धर्मात्मा कहते हैं और मेरे कारणसे उन बेचारोंके प्राण चले गये! अत: मैंने भगवान्से रो करके प्रार्थना की कि हे नाथ! मेरेको लोग अच्छा आदमी कहते हैं तो बड़ी गलती करते हैं! मेरे कारणसे आज चार आदमी मर गये, तो मैं अच्छा कैसे हुआ? मैं बड़ा दुष्ट हूँ। हे नाथ! मेरा कसूर माफ करो। अब मैं क्या करूँ? मेरे हाथकी बात कुछ रही नहीं; अत: प्रार्थनाके सिवा और मैं क्या कर सकता हूँ। राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ और बोला कि महाराज, आप अपनेको अपराधी मानते हो कि चार आदमी मेरे कारण मर गये, तो फिर आपके हाथ कैसे आ गये? वे बोले कि भगवान् अपने जनके अपराधोंको, पापोंको, अवगुणोंको देखते ही नहीं! उन्होंने कृपा की तो हाथ आ गये! राजाने कहा कि महाराज, उन्होंने आपको इतना दु:ख दिया तो आपने उनको धन क्यों दिलवाया? वे बोले कि देखो राजन्! उनको धनका लोभ था और लोभ होनेसे वे और किसीके हाथ काटेंगे; अत: विचार किया कि आप धन देना ही चाहते हैं तो उनको इतना धन दे दिया जाय कि जिससे बेचारोंको कभी किसी निर्दोषकी हत्या न करनी पड़े। मैं तो सदोष था, इसलिये मुझे दु:ख दे दिया। परन्तु वे किसी निर्दोषको दु:ख न दे दें, इसलिये मैंने उनको भरपेट धन दिलवा दिया। राजाको बड़ा आश्चर्य आया! उसने कहा कि आपने मेरेको पहले क्यों नहीं बताया? वे बोले कि महाराज! अगर पहले बताता तो आप उनको दण्ड देते। मैं उनको दण्ड नहीं दिलाना चाहता था। मैं तो उनकी सहायता करना चाहता था; क्योंकि उन्होंने मेरे पापोंका नाश किया, मेरेको क्रियात्मक उपदेश दिया। मैंने तो अपने पापोंका फल भोगा, इसलिये मेरे हाथ कट गये। नहीं तो भगवान्के दरबारमें, भगवान्के रहते हुए कोई किसीको अनुचित दण्ड दे सकता है? कोई नहीं दे सकता। यह तो उनका उपकार है कि मेरे पापोंका फल भुगताकर मेरेको शुद्ध कर दिया।
इस कथासे सिद्ध होता है, सुख या दु:खको देनेवाला कोई दूसरा नहीं है; कोई दूसरा सुख-दु:ख देता है—यह समझना कुबुद्धि है— ‘सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा’ (अध्यात्म० २। ६। ६)। दु:ख तो हमारे प्रारब्धसे मिलता है, पर उसमें कोई निमित्त बन जाता है तो उसपर दया आनी चाहिये कि बेचारा मुफ्तमें ही पापका भागी बन गया! रामायणमें आता है कि वनवासके लिये जाते समय रात्रिको रामजी निषादराज गुहके यहाँ ठहरे। निषादराजने कहा—कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह। जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥’ (मानस २। ९१)। तब लक्ष्मणजीने कहा—‘काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥’ (मानस २। ९२। २)। अत: दूसरा मेरेको दु:ख देता है, मेरा अपमान करता है, मेरी निन्दा करता है, मेरेको कष्ट पहुँचाता है, मेरा नुकसान करता है—ऐसा जो विचार आता है, यह कुबुद्धि है, नीची बुद्धि है। वास्तवमें दोष उसका नहीं है, दोष है हमारे पापोंका, हमारे कर्मोंका। इसलिये परमात्माके राज्यमें कोई हमारेको दु:ख दे ही नहीं सकता। हमारेको जो दु:ख मिलता है, वह हमारे पापोंका ही फल है। पापका फल भोगनेसे पाप कट जायगा और हम शुद्ध हो जायँगे। अत: कोई हमारा नुकसान करता है, अपमान करता है, निन्दा करता है, तिरस्कार करता है, वह हमारे पापोंका नाश कर रहा है—ऐसा समझकर उसका उपकार मानना चाहिये, प्रसन्न होना चाहिये।
किसीके द्वारा हमारेको दु:ख हुआ तो वह हमारे प्रारब्धका फल है; परन्तु अगर हम उस आदमीको खराब समझेंगे, गैर समझेंगे, उसकी निन्दा करेंगे, तिरस्कार करेंगे, दु:ख देंगे, दु:ख देनेकी भावना करेंगे, तो अपना अन्त:करण मैला हो जायगा, हमारा नुकसान हो जायगा! इसलिये संतोंका यह स्वभाव होता है कि दूसरा उनकी बुराई करता है, तो भी वे उसकी भलाई करते हैं‘उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥’ (मानस ५। ४१। ४)। ऐसा संत-स्वभाव हमें बनाना चाहिये। अत: कोई दु:ख देता है तो उसके प्रति सद्भावना रखो, उसको सुख कैसे मिले—यह भाव रखो। उसमें दुर्भावना करके मनको मैला कर लेना मनुष्यता नहीं है। इसलिये तनसे, मनसे, वचनसे सबका हित करो, किसीको दु:ख न दो। जो तन-मन-वचनसे किसीको दु:ख नहीं देता, वह इतना शुद्ध हो जाता है कि उसका दर्शन करनेसे पाप नष्ट होते हैं!
तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुक्ख।
तुलसी पातक हरत है, देखत उसको मुक्ख॥