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विश्वास और जिज्ञासा

मनुष्य अपनी तरफ नहीं देखता कि मेरा जन्म क्यों हुआ है, मेरेको क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूँ! जबतक वह ऐसा खयाल नहीं करता, तबतक उस मनुष्यका दर्जा, आप क्षमा करेंगे, पशुसे भी नीचा है! पशु, पक्षी, वृक्ष आदिसे भी उसका जीवन नीचा है! मनुष्य हो करके भी सावधानी नहीं है तो क्या मनुष्य हुआ? मनुष्यमें तो यह सावधानी, यह विचार होना ही चाहिये कि हमारा जन्म क्यों हुआ है और क्या करना चाहिये तथा क्या नहीं करना चाहिये। खुदसे इसका समाधान न हो तो न सही, पर सन्तोंकी वाणीसे, शास्त्रोंसे इसका पूरा समाधान हो जायगा कि यह मनुष्यजन्म केवल अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है। भगवान‍्ने अपनी तरफसे यह अन्तिम जन्म दे दिया है, जिससे यह मेरेको प्राप्त कर ले।

ब्रह्माजीने यज्ञोंके सहित प्रजाकी उत्पत्ति की—‘सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:’ (गीता ३। १०) अर्थात् कर्तव्य और कर्ता—ये दोनों एक साथ पैदा हुए। जो कर्तव्य है, वह सहज है। आज जो हमें कर्तव्य-कर्म करनेमें परिश्रम मालूम देता है, उसका कारण यह है कि हम संसारसे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, नहीं तो यह स्वयं भी सहज है और इसका जो कर्तव्य है, वह भी सहज है, स्वाभाविक है। अस्वाभाविकता यह खुद बना लेता है। इसको यह विचार नहीं होता कि अस्वाभाविकता कहाँ बना ली? कैसे बना ली? अगर विचार करे तो यह निहाल हो जाय!

अब एक बात बताते हैं। दो मार्ग हैं—एक विश्वासका मार्ग और एक जिज्ञासाका मार्ग। विश्वास वहाँ होता है, जहाँ सन्देह नहीं होता, सन्देह पैदा ही नहीं होता। जो सन्देहयुक्त विश्वास होता है, वह विश्वास-रूपसे प्रकट नहीं होता। परन्तु जिज्ञासा वहाँ होती है, जहाँ सन्देह होता है। भक्तिमार्गमें विश्वास, नि:संदिग्धता मुख्य है और ज्ञानमार्गमें जिज्ञासा, सन्देह मुख्य है। विश्वास और जिज्ञासा—इन दोनोंको मिलानेसे साधकका जीवन शुद्ध नहीं रहता, अशुद्ध हो जाता है।

विश्वास किसमें होता है? कि जिसमें हम इन्द्रियोंसे, अन्त:करणसे कुछ नहीं जानते, उसमें विश्वास होता है अथवा विश्वास नहीं होता। जैसे, ‘भगवान् हैं’—यह विश्वास होता है अथवा विश्वास नहीं होता—ये दो ही बातें होती हैं। भगवान् हैं कि नहीं यह बात वास्तवमें विश्वासीकी नहीं है, जिज्ञासुकी है। है कि नहीं—यह सन्देह जीवात्मापर होता है अथवा संसारपर होता है। कारण कि ‘मैं हूँ’ इसमें तो सन्देह नहीं है पर ‘मैं क्या हूँ’ इसमें सन्देह होता है। अत: सन्देहसहित जो सत्ता है, उसमें जिज्ञासा पैदा होती है। स्वयंका और संसारका ज्ञान जिज्ञासासे होता है। परमात्माको मानना अथवा न मानना—इसमें आप बिलकुल स्वतन्त्र हैं। कारण कि परमात्माके विषयमें हम कुछ नहीं जानते और जिस विषयमें कुछ नहीं जानते, उसमें केवल विश्वास चलता है। जिसमें विश्वास होता है, उसमें सन्देह नहीं रहता—इतनी विचित्र बात है यह! जैसे, स्त्री, पुत्र आदिको अपना मान लेनेसे फिर उसमें यह सन्देह नहीं रहता कि यह स्त्री मेरी है कि नहीं? बेटा मेरा है कि नहीं? यह लौकिक मान्यता टिकती नहीं; क्योंकि यह मान्यता जिसकी है, वह नाशवान् है। परन्तु परमात्मा अविनाशी है; अत: उनकी मान्यता टिक जाती है, दृढ़ हो जाती है तो उसकी प्राप्ति हो जाती है। हमने सन्तोंसे यह बात सुनी है कि जो भगवान‍्को मान लेता है, उसको अपना स्वरूप जना देनेकी जिम्मेवारी भगवान् पर आ जाती है! कितनी विलक्षण बात है। भगवान् कैसे हैं, कैसे नहीं—इसका ज्ञान उसको खुदको नहीं करना पड़ता। वह तो केवल मान लेता है कि ‘भगवान् हैं’ वे कैसे हैं, कैसे नहीं—यह सन्देह उसको होता ही नहीं।

पहले केवल भगवान‍्की सत्ता स्वीकार हो जाय कि ‘भगवान् हैं’, फिर भगवान‍्में विश्वास हो जाता है। संसारका विश्वास टिकता नहीं; क्योंकि हमें इस बातका ज्ञान है कि वस्तु, व्यक्ति आदि पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और अब भी निरन्तर नाशकी तरफ जा रहे हैं। परन्तु भगवान‍्के विषयमें ऐसा नहीं होता; क्योंकि शास्त्रोंसे, सन्तोंसे, आस्तिकोंसे हम सुनते हैं कि भगवान् पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे और अब भी हैं। भगवान् पर विश्वास बैठनेपर फिर उनमें अपनत्व हो जाता है कि ‘भगवान् हमारे हैं।’ जीवात्मा भगवान‍्का अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७); अत: भगवान् हमारे हुए। इसलिये आस्तिकभाववालोंको यह दृढ़तासे मान लेना चाहिये कि भगवान् हैं और हमारे हैं। ऐसी दृढ़ मान्यता होनेपर फिर भगवान‍्से मिले बिना रहा नहीं जा सकता। जैसे, बालक दु:ख पाता है तो उसके मनमें माँसे मिलनेकी आती है कि माँ मेरेको गोदीमें क्यों नहीं लेती? उसके मनमें यह बात पैदा ही नहीं होती कि मैं योग्य हूँ कि अयोग्य हूँ, पात्र हूँ कि अपात्र हूँ।

जैसे भगवान् पर विश्वास होता है, ऐसे ही भगवान‍्के सम्बन्धपर भी विश्वास होता है कि भगवान् हमारे हैं। भगवान् कैसे हैं, मैं कैसा हूँ—यह बात वहाँ नहीं होती। भगवान् मेरे हैं; अत: मेरेको अवश्य मिलेंगे—ऐसा दृढ़ विश्वास कर ले। यह ‘मेरा’-पन बड़े-बड़े साधनोंसे ऊँचा है। त्याग, तपस्या, व्रत, उपवास, तितिक्षा आदि जितने भी साधन हैं, उन सबसे ऊँचा साधन है—भगवान‍्में अपनापन। अपनेपनमें कोई विकल्प नहीं होता। करनेवाले तो करनेके अनुसार फलको प्राप्त करेंगे, पर भगवान‍्को अपना माननेवाले मुफ्तमें पूर्ण भगवान‍्को प्राप्त करेंगे। करनेवाले जितना-जितना करेंगे, उनको उतना-उतना ही फल मिलेगा, परन्तु भगवान‍्में अपनापन होनेसे भगवान् पर पूर्ण अधिकार मिलेगा। जैसे, बालक माँ पर अपना पूरा अधिकार मानता है कि माँ मेरी है, मैं माँसे चाहे जो काम करा लूँगा, उससे चाहे जो चीज ले लूँगा। बालकके पास बल क्या है? रो देना—यही बल है। निर्बल-से-निर्बल आदमीके पास रोना ही बल है। रोनेमें क्या जोर लगाना पड़े? बच्चा रोने लग जाय तो माँको उसका कहना मानना पड़ता है। इसी तरह रोने लग जाय कि भगवान् मेरे हैं तो फिर दर्शन क्यों नहीं देते? मेरेसे मिलते क्यों नहीं? भीतरमें ऐसी जलन पैदा हो जाय, ऐसी उत्कण्ठा हो जाय कि भगवान् मिलते क्यों नहीं! इस जलनमें, उत्कण्ठामें इतनी शक्ति है कि अनन्त जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं; कोई भी दोष नहीं रहता, निर्दोषता हो जाती है। जो भगवान‍्के लिये व्याकुल हो जाता है, उसकी निर्दोषता स्वत: हो जाती है। व्याकुलताकी अग्निमें पाप-ताप जितने जल्दी नष्ट होते हैं, उतने जल्दी जिज्ञासामें नहीं होते। जिज्ञासा बढ़ते-बढ़ते जब वह जिज्ञासुरूपसे हो जाती है अर्थात् जिज्ञासु नहीं रहता, केवल जिज्ञासा रह जाती है तब उसकी सर्वथा निर्दोषता हो जाती है और वह तत्त्वको प्राप्त हो जाता है।

जबतक ‘मैं जिज्ञासु हूँ’—यह मैं-पन रहता है, तबतक जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट नहीं होता। जब यह मैं-पन नहीं रहता, तब जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट हो जाता है। चाहे जिज्ञासा हो, चाहे विश्वास हो, दोनोंमेंसे कोई एक भी दृढ़ हो जायगा तो तत्त्व प्रकट हो जायगा। कर्तव्यका पालन स्वत: हो जायगा; जिज्ञासुसे भी कर्तव्यका पालन होगा और विश्वासीसे भी कर्तव्यका पालन होगा। दोनों ही अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करेंगे।

विश्वासी मनुष्य कर्तव्यकी दृष्टिसे कर्तव्यका पालन नहीं करता; परन्तु भगवान‍्के वियोगमें रोता है। रोनेमें ही उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। उसमें केवल भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा रहती है। केवल भगवान्-ही-भगवान् याद रहते हैं। भगवान‍्के सिवा और कोई चीज सुहाती नहीं—‘अब कुछ भी नहीं सुहावे, एक तू ही मन भावे।’ दिनमें भूख नहीं लगती, रातमें नींद नहीं आती, बार-बार व्याकुलता होती है—‘दिन नहिं भूख रैन नहिं निद्रा, छिन-छिन व्याकुल होत हिया।’ व्याकुलतामें बहुत विलक्षण शक्ति है। यह जो भजन-स्मरण करना है, त्याग-तपस्या करना है, तीर्थ-उपवास आदि करना है, ये सभी अच्छे हैं, परन्तु ये धीरे-धीरे पापोंका नाश करते हैं; और व्याकुलता होनेपर आग लग जाती है, जिसमें सब पाप भस्म हो जाते हैं।

श्रोता—ऐसी व्याकुलता कैसे पैदा हो?

स्वामीजी—संसारके संयोगका सुख न ले। जैसे प्राण चलता रहता है तो चलनेमें परिश्रम होनेसे भूख-प्यास स्वत: पैदा होती हैं। परन्तु दिनभर तरह-तरहकी चीजें खाते रहोगे तो असली भूख नहीं लगेगी। दूसरा खाना बन्द करो, केवल भोजनके सिवा कुछ नहीं खाओ तो भूख लग जायगी, तेज हो जायगी। ऐसे ही केवल भगवान‍्को चाहें, उनके सिवा और कुछ न चाहें। सुख, मान, बड़ाई, आदर, आराम, आलस्य आदि किसी प्रकारकी इच्छा न हो। किसी भी चीजसे सुख न लें, भूख लगे तो रोटी खा लेनी है, नींद आये तो सो जाना है, पर उसमें सुख नहीं लेना है। ऐसा परहेज रखें तो व्याकुलता पैदा हो जायगी।

जीव कुछ-न-कुछ असत् का आधार बना लेता है, जिससे वह सत् से विमुख हो जाता है। अत: असत् का उपयोग कर लो; भोजन कर लो, जल पी लो, सो जाओ, सब काम कर लो, पर भीतरमें इनका आधार विश्वास, आश्रय मत रखो, फिर व्याकुलता पैदा हो जायगी।

हम सबको इस बातका प्रत्यक्ष ज्ञान है कि शरीर रहनेवाला नहीं है, सम्पत्ति रहनेवाली नहीं है, कुटुम्ब रहनेवाला नहीं है, यह जो कुछ दीखता है, यह सब रहनेवाला नहीं है। ऐसा जानते हुए भी इस ज्ञानका निरादर करते हैं—यह बड़ा भारी अवगुण है, बड़ी भारी गलती है। अगर इस ज्ञानका आदर करें तो संसारकी इच्छा मिट जायगी; क्योंकि जो वस्तु स्थिर है ही नहीं, उसकी क्या इच्छा करें?‘का मागूँ कछु थिर न रहाई, देखत नैन चल्यो जग जाई।’ संसारकी इच्छा मिटते ही भगवान‍्का विरह आ जाता है। संसारकी इच्छा, आशा ही भगवान‍्के विरहको रोकनेवाली चीज है।

मनुष्य जिसको नाशवान् जानता है, फिर भी उसकी आशा रखता है तो यह बहुत बड़ा अपराध करता है। झूठ-कपट करके जालसाजी, बेईमानी करके अपनी असत् भावनाको दृढ़ करता है, तो इससे बढ़कर अनर्थ क्या होगा? धन है, बेटा-पोता है, बल है, विद्या है, योग्यता है, पद है, अधिकार है, ये कितने दिनसे हैं? कितने दिन रहेंगे? इनसे कितने दिन काम चलाओगे? इनके साथ जितने दिन संयोग है, उसका वियोग होनेवाला है, वह वियोग जल्दी हो, देरीसे हो, कब हो, कब नहीं हो—इसका पता नहीं; पर संयोगका वियोग होगा—इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिनका वियोग हो जायगा, उसपर विश्वास कैसे? जो प्रतिक्षण बिछुड़ रहा है, उसको कबतक निभाओगे? वह कबतक सहारा देगा? वह कबतक आपके काम आयेगा? फिर भी उसपर विश्वास करना अपनी जानकारीका स्वयं निरादर करना है। अपनी जानकारीका अनादर करना बहुत बड़ा अपराध है। अपराध पापोंसे भी तेज होता है। जो ‘परमात्मा है’—इसको मानता नहीं और ‘संसार है’—इसको मानता है, वह महान् हत्यारा है, पापी है।

आप जानते हैं कि संसार नहीं रहेगा, शरीर नहीं रहेगा, फिर भी चाहते हैं कि इतना सुख ले लें, इतना लाभ ले लें, इस वस्तुको ले लें अर्थात् जानते हुए भी मानते नहीं! इसमें अनजानपनेका दोष नहीं है, न माननेका दोष है, जो आपको खुद दूर करना पड़ेगा। जानकारीकी कमी होगी तो जानकारलोग बता देंगे, शास्त्र बता देंगे, सन्त-महात्मा बता देंगे, भगवान् बता देंगे, पर जाने हुएको आप नहीं मानेंगे तो इसमें दूसरा कुछ नहीं कर सकेगा। मानना तो आपको ही पड़ेगा, इतना काम आपका खुदका है।

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