कल्याणका सुगम उपाय—अपनी मनचाहीका त्याग
दूसरेके मनकी बात पूरी करनेकी कोशिश करें। दूसरा हमसे क्या चाहता है, जहाँतक हो सके उसके मनकी बात पूरी करनेकी चेष्टा करें। उसके मनकी बात दो तरहकी हो सकती है—एक शुद्ध और एक अशुद्ध। अशुद्ध बात पूरी करनेकी जरूरत नहीं है; क्योंकि उसमें उसका हित नहीं है। अगर उसकी चाहना शुद्ध है, उसकी रुचि बढ़िया है, तो उसको पूरा करना हमारा कर्तव्य होता है। दूसरी एक बात और है कि उसकी इच्छा तो शुद्ध है, पर उसको पूरा करना हमारी सामर्थ्यसे बाहरकी बात है, उसको हम पूरा नहीं कर सकते। अत: उसके लिये माफी माँग लें कि मैं आपका यह काम कर नहीं सकता; मेरी सामर्थ्य नहीं है। धनकी, बलकी, विद्याकी, योग्यताकी, अधिकारकी सामर्थ्य नहीं है मेरेमें। अगर सामर्थ्य हो तो जहाँतक बने, उसके मनकी बात पूरी कर दें।
गीतामें कामनाके त्यागकी बात आयी है। जैसे, हमें ऐसा धन मिले, हमारा ऐसा हुक्म चले, हमारी बात रहे—यह जो भीतरका भाव है, यही कामना है। आप विशेष ध्यान दें, इसलिये एक बात याद आ गयी। मैंने पढ़ाईकी, व्याख्यान सुने, पुस्तकें पढ़ीं, खूब विचार किया और व्याख्यान भी खूब देने लग गया। उस समय मैंने सोचा कि कामना क्या है, तो यह बात समझमें आयी कि रुपये-पैसेकी इच्छा, सुख भोगनेकी इच्छा, मान-बड़ाईकी इच्छा आदि—ये सब कामनाएँ हैं। फिर मैंने इन कामनाओंके त्यागकी बात सोची और इनके त्यागकी कुछ श्रेणियाँ बनायीं। परन्तु कई वर्षोंके बाद जो बात मेरी समझमें आयी, वह बात कहता हूँ आपको। यह इसलिये कहता हूँ कि आप ध्यान दो तो आज ही वह बात आपकी समझमें आ जाय। कई वर्षोंसे जो चीज मिली है, वह पहले ही बता दूँ तो उतना समय आपका बच जायगा! वह बात यह है कि ‘मेरे मनकी बात पूरी हो जाय’— यही कामना है। मेरे मनकी हो जाय—इसको आदमी जबतक नहीं छोड़ेगा, तबतक उसको शान्ति नहीं मिलेगी; वह जलता रहेगा, दु:खी रहेगा, पराधीन रहेगा।
बड़े भारी दु:खकी बात है कि आज उलटी बात हो रही है? मेरे मनकी बात हो जाय तो मैं स्वतन्त्र हो गया—ऐसा वहम पड़ा हुआ है। कोई हमारे मनकी बात पूरी करेगा तो हमें उसके अधीन होना ही पड़ेगा। हमारे मनकी बात कोई दूसरा पूरी कर दे—इसमें बड़ा आराम दीखता है, पर है महान् संकट! स्वतन्त्रता दीखती है, पर है महान् पराधीनता! यह विशेष खयाल करनेकी बात है। आपको इस वास्ते कही है कि व्याख्यान देते हुए वर्षोंतक यह मेरी समझमें नहीं आयी। आप घरमें यह चाहते हो कि स्त्री-पुत्र मेरे मनके अनुकूल चलें। भाई-बन्धु भी मेरे कहनेमें चलें। माता-पिता भी मेरी रुचिके अनुसार चलें। यह जो बात है न, यह आपके लिये महान् घातक है। यह परमात्माकी प्राप्ति तो नहीं होने देगी, और नरकोंमें जाओगे—इसमें सन्देह नहीं दीखता। इतनी हानिकारक बात है यह!
जब जेलमें व्याख्यान देनेका काम पड़ा, तो कैदियोंको मैंने कहा कि आपने जो काम किये हैं, वे स्वतन्त्रतासे, अपनी रुचिसे किये हैं, पर जेल पराधीनतासे, बिना रुचिके भोगते हैं। तो दुनियामें सब आदमी कैदी हैं। वे अपनी मरजीसे काम करते हैं और उसका फल पराधीन होकर भोगते हैं। नरक और चौरासी लाख योनियाँ—यह कैदखाना है। यह कैदखाना क्यों मिलता है? कि अपनी मनमानी चलाना चाहते हैं। मनमानी होगी कि नहीं होगी—इसमें तो सन्देह है, पर कैद होगी, दु:ख भोगना पड़ेगा—इसमें सन्देह नहीं है। इसलिये अगर आप कर सकें तो कुटुम्बियोंके मनकी बात करें। उनकी बात न्याययुक्त हो; शास्त्र, व्यवहार आदिकी दृष्टिसे अनुचित न हो और हमारी सामर्थ्यके अनुसार हो, तो उसे पूरी कर दो। इससे बहुत विशेष लाभ होगा। कल्याण हो जायगा, उद्धार हो जायगा! परन्तु उनके अन्यायकी बात पूरी नहीं करनी है; क्योंकि ऐसा करनेमें उनका नुकसान है, फायदा नहीं है। उसका हित भी साथमें चाहिये।
एक सुनी हुई बात है। सच्ची-झूठी रामजी जाने, सुनी हुई जरूर है। एक सन्त थे, चुपचाप रहते और उनसे कोई काम कराता तो वह कर देते। यहाँतक कि स्त्रियाँ गारा तैयार करके दे देतीं और कहतीं बाबाजी, आप लीप दो, तो वे लीप देते। उनका पानीका घड़ा उठवा देते, घर पहुँचा देते, झाड़ू लगा देते। जो कहतीं वह कर देते। दूसरा खिला दे तो खिला दे, नहीं तो उसकी मरजी। एक स्त्रीकी सन्तान नहीं थी। उसने बाबाजीकी बहुत सेवा की। उसने खिलाया तो अच्छी तरहसे खा लिया, कपड़ा पहनाया तो कपड़ा पहन लिया। वे आरामसे रहने लगे। कुछ दिनोंके बाद उसने अपनी शय्या बिछा दी और इच्छा प्रकट की कि मेरी सन्तान हो जाय। बाबाजीने कह दिया—‘ना’। वह बोली कि आप तो जैसा कहें, वैसा करते हो। बाबाजी बोलते नहीं थे, पर बोल दिये—‘बस, यहाँतक ही।’ मतलब यह कि यहाँतक ही करता हूँ, इससे आगे नहीं, व्यभिचारतक नहीं। ऐसा कहकर बाबाजी वहाँसे चल दिये। अत: वहींतक करना है, जहाँतक उचित होता है। जहाँ अनुचित होता है, वहाँ कह दिया कि नहीं, यहाँतक ही करता हूँ। जिसमें अपना सुख-भोग हो और दूसरेका अहित हो, वह काम नहीं करना है।
गीता कहती है—‘सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥’ (गीता ६। ४) अर्थात् अपने सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग करनेवाला योगी होता है। परन्तु अपने संकल्पोंका त्याग न करनेवाला ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, कर्मयोगी, हठयोगी, तपयोगी, राजयोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता—‘न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।’ (गीता ६।२)। अगर दूसरोंके संकल्पको पूरा करना सीख जायँ तो अपने संकल्पोंका त्याग सुगमतासे हो जायगा। मेरे मनमें तो यही आयी कि सुननेवालोंके मनकी बात कहनी चाहिये, जिससे उनका भी कल्याण हो, मेरा भी कल्याण हो और कोई तीसरा आदमी सुने तो उसका भी कल्याण हो। अत: सबके साथ अपना दिनभरका, रात्रिभरका व्यवहार ऐसा ही हो। इससे आप सिद्ध हो जाओगे, योगारूढ़ हो जाओगे। यह बात कठिन भी नहीं है। पहले अपनी बात रखनेकी आदतके कारण यह कुछ समय कठिन मालूम देती है, फिर सुगम हो जाती है। अपने अभिमानके कारण कठिन दीखती है, वास्तवमें कठिन नहीं है। इसे सब कर सकते हैं; गृहस्थ, साधु, भाई, बहन, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि कोई क्यों न हो।
हमारा मनचाहा होता है तो अभिमान आता है और मनचाहा नहीं होता है तो क्रोध आता है। अभिमान और क्रोध—दोनों ही आसुरी सम्पत्ति हैं। अत: अपना संकल्प रखनेवाला आसुरी सम्पत्तिसे बच नहीं सकता। आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली, जन्ममरणको देनेवाली है—‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६। ५)। अपना संकल्प नहीं रखे तो आसुरी सम्पत्ति आ ही नहीं सकती।
मुक्ति जितनी सीधी-सरल है, उतना सरल कोई काम है ही नहीं। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग—सभी सरल हैं। कठिनता अपनी रुचिकी पूर्ति करनेमें है। इसके सिवाय और क्या कठिनता है? बताओ। जितनी कठिनता आती है, वह इसीमें आती है कि हमारी मनचाही बात हो जाय।
अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है? तो भगवान्ने उत्तर दिया ‘काम एष’ (गीता ३। ३७) अर्थात् कामना। कामना क्या? मेरी मनचाही हो जाय—यही मूलमें कामना है। मेरेको व्याख्यान देते हुए भी वर्षोंके बाद यह बात मिली तो बड़ी प्रसन्नता हुई कि जड़ तो आज मिली है! मनकी बात पूरी होनेमें स्वतन्त्रता मानते हैं, पर है महान् परतन्त्रता; क्योंकि यह दूसरेके अधीन है। दूसरा हमारी बात पूरी करे—यह हमारे अधीन है क्या? मुफ्तमें कोरी पराधीनताको लेना है, और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’(मानस १।१०२।३)।
श्रोता—महाराजजी! अपनी बात सत्य प्रतीत हो, न्यायके अनुकूल प्रतीत हो, तो उसपर अडिग रहे या न रहे?
स्वामीजी—अगर वह दूसरोंके अधीन है तो उसमें अडिग मत रहो। हमारी बात सत्य है, न्याययुक्त है, कल्याणकारी है, वर्तमानमें और परिणाममें हित करनेवाली है, तो उस बातका हम अनुष्ठान करें। परंतु दूसरा भी वैसा ही करे—यह बिलकुल गलत है। इसमें हमारा अधिकार नहीं है।
श्रोता—पर परिवारमें सब एक-दूसरेसे जुड़े रहते हैं। हमारी बात दूसरा नहीं मानेगा तो उसका बुरा असर सबपर पड़ेगा।
स्वामीजी—वे न करें तो उनको दु:ख पाना पड़ेगा। परन्तु उसमें हमारेको दोष नहीं लगेगा। हम अपनी ठीक बात कह दें, वे मान लें तो खुशीकी बात, न मानें तो बहुत खुशीकी बात। ये दो बातें याद कर लो। न्याययुक्त, हितकी, कल्याणकी बात है और उसको स्त्री, पुत्र, पोता, भतीजा आदि मान लें तो अच्छी बात, न मानें तो बहुत अच्छी बात। बहुत अच्छी बात कैसे हुई? कि हम फँसेंगे नहीं। अगर वे हमारी बात मानते रहेंगे तो हम फँस जायँगे। मैंने तो यहाँ कलकत्तेमें कई वर्षों पहले कह दिया था कि आप मेरा कहना मानते तो मैं फँस जाता। यहाँसे बाहर जा ही नहीं सकता। पर आप कहना नहीं मानते हैं तो यह आपकी कृपा है, मैं खुला रहता हूँ। जो हमारा कहना मानता है, उसके वशमें होना ही पड़ेगा, पराधीनता भोगनी ही पड़ेगी। लोग घर छोड़कर साधु-संन्यासी होते हैं, आप घरमें रहते हुए ही साधु-संन्यासी हो गये; क्योंकि घरवाले आपकी बात मानते ही नहीं। फिर भी जिसमें हमारा, दूसरोंका, सबका हित हो, यह बात कहनी है, चाहे दूसरा माने या न माने।