संकल्प-त्यागसे कल्याण
संसार अपने लिये नहीं है। जो अपने लिये संसारकी जरूरत नहीं मानता, वह संसारके लिये उपयोगी हो जाता है; और जो अपने लिये संसारकी जरूरत मानता है, वह संसारके लिये अनुपयोगी हो जाता है, संसारके कामका नहीं रहता। अत: घरमें रहो तो घरवालोंके लिये रहो, आश्रममें रहो तो आश्रमवालोंके लिये रहो, किसी समुदायमें रहो तो समुदायवालोंके लिये रहो, अपने लिये नहीं। उनके लिये हम कब होंगे? जब अपना कोई संकल्प नहीं रखेंगे। अपना संकल्प रखेंगे तो हम पराधीन हो जायँगे और अपना संकल्प नहीं रखेंगे तो हम स्वाधीन हो जायँगे। अपना संकल्प क्या है? ऐसा तो होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है। परमात्माकी प्राप्ति होनी चाहिये—यह संकल्प नहीं है; यह तो आवश्यक तत्त्व है, मनुष्य-जन्मका असली प्रयोजन है। संसारकी घटना ऐसी होनी चाहिये, ऐसी नहीं होनी चाहिये; ऐसी परिस्थिति आनी चाहिये, ऐसी परिस्थिति नहीं आनी चाहिये—यह जो चीज है न, यह संकल्प है। हमें मनुष्य-शरीर मिला है, वह परिस्थितिके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत परिस्थितियोंसे अतीत तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये मिला है। परिस्थितियोंसे अतीत जो तत्त्व है, वह किसी परिस्थितिके अधीन नहीं है। वह तत्त्व किसी अवस्थाके अधीन नहीं है, किसी योग्यताके अधीन नहीं है, किसी विशेष व्यक्तिके अधीन नहीं है। वह स्वाधीन तत्त्व है। स्वाधीन तत्त्वकी प्राप्ति स्वाधीनतापूर्वक होती है। इसमें पराधीन नहीं रहना पड़ता। परन्तु संकल्प स्वाधीनतापूर्वक होता ही नहीं। हम भोग चाहते हैं, मान चाहते हैं, आदर चाहते हैं, आराम चाहते हैं, जीना चाहते हैं, लाभ चाहते हैं—ये परतन्त्र हैं, स्वतन्त्र नहीं हैं। इनकी पूर्तिमें परतन्त्रता रहेगी ही, स्वतन्त्रता हो ही नहीं सकती।
संकल्पोंका कायदा यह है कि कई संकल्प पूरे होते हैं और कई पूरे नहीं होते। यह सबका अनुभव है। संकल्पोंका पूरा होना अथवा न होना हमारे अधीन नहीं है, भगवान्के विधानके अधीन है। हम अभिमान कर लेते हैं कि हमने इतना धन कमा लिया, हमारे इतने बेटा-पोता हैं, हमारे इतने श्रोता हैं आदि। परन्तु ये हमारे अधीन नहीं हैं। अगर संकल्पोंकी पूर्ति हमारे अधीन हो, तो फिर कोई संकल्प अधूरा रहना ही नहीं चाहिये, सभी संकल्प पूरे होने चाहिये। भगवान्का एक विधान है, उस विधानसे ही ये पूरे होते हैं। मनुष्यका काम है उस विधानका आदर करना। वह भगवान्के विधानका आदर करेगा तो उसका कल्याण हो जायगा। उसने भगवान्के विधानको स्वीकार कर लिया तो अब उसके कल्याणमें बाधा देनेवाला कोई है ही नहीं। उसका कभी अहित होता ही नहीं, सदा हित-ही-हित होता है। अत: अपना संकल्प न रखे।
दूसरोंके लिये रहें, अपने लिये नहीं—इसमें परतन्त्रता दीखती है, पर वास्तवमें इसमें स्वतन्त्रता है। माँ-बापके लिये आदर्श बेटा बन जाओ, पत्नीके लिये आदर्श पति बन जाओ, पुत्रके लिये आदर्श पिता बन जाओ, भाईके लिये आदर्श भाई बन जाओ, बहनके लिये आदर्श भाई बन जाओ, समाजके लिये आदर्श सदस्य बन जाओ। परन्तु माँ-बाप हमारे लिये हैं, स्त्री हमारे लिये है, पुत्र हमारे लिये है, जनता हमारे लिये है—ऐसा होगा, तो यह संकल्प हो जायगा और इसमें आप फँस जाओगे। संकल्पसे ही कामना पैदा होती है—‘संकल्पप्रभवान्कामान्’ (गीता ६। २४)। कामनासे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिका नाश, बुद्धिके नाशसे मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २। ६२-६३)।
श्रोता—महाराज! इतनी कृपा करो कि यह बात काममें आ जाय।
स्वामीजी—मेरी दृष्टिसे तुम ध्यान नहीं देते हो। ध्यान दो तो आँख खुल जाय। यह संकल्प-त्यागकी बात मेरेको इतनी विचित्र दीखती है कि जैसे नींदमें पड़े हुए आदमीकी नींद खुल जाय, बेहोश आदमीको होश आ जाय! इस बातसे इतना फरक पड़ता है! जैसे दूध पीते हुए बालकके मुखसे स्तन हटा दे तो वह छटपटाता है, सह नहीं सकता, पर बल नहीं होनेसे बेचारा करे क्या! ऐसे ही इन बातोंकी आपमें रुचि लगेगी तो न हरेक कथामें ठहर सकोगे, न हरेक परिस्थितिमें ठहर सकोगे। जैसे रुपयोंके लिये आदमी चाहे जो कुछ कर लेता है; माँको छोड़ देता है, स्त्रीको छोड़ देता है, बच्चोंको छोड़ देता है और जगह चला जाता है कि रुपया मिलेगा। परन्तु यह चीज रुपयोंसे भी बढ़िया है। रुपये तो थोड़े दिनके हैं। या तो रुपये चले जायँगे, या आप रुपये छोड़कर मर जाओगे, परन्तु यह जन्म-जन्मान्तरोंतक साथ रहनेवाली चीज है। ऐसी बढ़िया चीज है कि आदमी निहाल हो जाय, जीवन सफल हो जाय, विलक्षण आनन्द हो जाय, स्वाधीन हो जाय, मुक्त हो जाय! अपना कोई संकल्प न रखे तो योगारूढ़ हो जाय। योगारूढ़ होनेपर एक शान्ति मिलेगी, एक स्वाधीनता मिलेगी, एक विलक्षणता मिलेगी, एक निर्विकल्पता मिलेगी। उसका भी रस नहीं भोगें तो मुक्ति हो जायगी। अगर रस भोगेंगे तो अटक जायँगे—‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता १४। ६)।
मेरा विचार यह होता है कि आप जो पूछें, वही कहूँ। इसका मतलब है कि आपका संकल्प पूरा हो। हमारी बात पूरी हो—ऐसा नहीं। आप कह देते हो कि जो तुम्हारे मनमें आये, वह कहो। तो फिर यह आपके मनकी ही हो गयी। इसमें बड़ा ही आनन्द है। हमें अपने लिये कुछ करना ही नहीं है, अपने लिये कुछ चाहिये ही नहीं, अपना कुछ है ही नहीं। कैसी मौजकी बात है! ‘सदा दीवाली सन्तकी, आठों पहर आनन्द।’ कोरा आनन्द-ही-आनन्द है!
ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है; परन्तु ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये—यह संकल्प नहीं है। करनेमें तो बिलकुल विचारपूर्वक करना है, समझ-समझकर करना है—‘सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम्।’ करनेमें सावधान रहना है और होनेमें प्रसन्न रहना है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २।४७)—कर्म करनेमें ही हमारा अधिकार है, फलमें नहीं। करनेका विचार संकल्प नहीं होता, फलका विचार संकल्प होता है। करनेका विचार तो कर्तव्य होता है। हमारे अनुकूल काम हो; जो हम न चाहें, वह नहीं हो—यह संकल्प है। जो आपके अनुकूल हो जायगा, उसकी पराधीनता आपको भोगनी ही पड़ेगी। मैं शब्द ज्यादा कहता हूँ, पर सच्ची बात है कि भगवान्को भी पराधीन होना पड़ता है, आप क्या चीज हो! ‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।’ (श्रीमद्भा० ९। ४। ६३)—मैं भक्तोंके पराधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं। भक्त भगवान्के संकल्पके अनुसार करता है, इसलिये भगवान्को उसका दास होना पड़ता है—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि।’ आपके मनके अनुसार चलनेवालेका गुलाम आपको बनना पड़ेगा, पड़ेगा, पड़ेगा! कोई बचा सकता नहीं! आपका अपना संकल्प ही नहीं होगा तो आप कभी पराधीन, गुलाम हो ही नहीं सकते।
जैसे बच्चेने कह दिया और आपने कर दिया, तो आपने कृपा करके उसका कहना मान लिया। ऐसे ही संत-महात्मा भी हमारेपर कृपा करके हमारा कहना मान लेते हैं। जिसमें हमारा अनिष्ट न हो, अहित न हो, ऐसी बात कर देते हैं। उनका अपना कोई संकल्प नहीं होता। इसलिये दूसरेके संकल्पके अनुसार काम करना है, अपना संकल्प नहीं रखना है। इसमें हमें बाधा किस बातकी? इसमें हम स्वतन्त्र हैं, पर दीखती है परतन्त्रता—‘सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी।’ (गीता १८। ३२)। हमारा संकल्प पूरा होता है, तो उसमें एक सुख मिलता है। वह सुख ही बाँधनेवाला है। उस सुखमें ही मनुष्य पराधीन होता है। जिससे सुख मिलता है, उसका गुलाम हो जाता है। रुपयोंसे सुख मिले तो रुपयोंका गुलाम, परिवारसे सुख मिले तो परिवारका गुलाम, नौकरसे सुख मिले तो नौकरका गुलाम, चेलेसे सुख मिले तो चेलेका गुलाम—जिससे सुख मिले, उसका गुलाम हो ही जायगा। आपने यह कहावत सुनी होगी कि‘गरज गधेको बाप करे।’ आप गरज रखोगे तो गधेको बाप बनाना पड़ेगा। गरज क्या है? कि हमारी बात पूरी होनी चाहिये, हमारे मनकी होनी चाहिये—यही गरज है। अगर मनुष्य गरजका त्याग कर दे तो वह सबका शिरोमणि हो जाय! परमात्माका स्वरूप हो जाय! परमात्मा सबकी चाहना पूरी करते हैं, उनकी चाहना कोई पूरी क्या करे? उनकी चाहना तो है ही नहीं। इतनी विलक्षण अवस्था हमारी सबकी हो सकती है। केवल अपने संकल्पका त्याग कर दें। त्याग नहीं करनेसे संकल्प तो पूरे होंगे नहीं। जो संकल्प पूरे होनेवाले हैं, वे त्याग करनेपर भी पूरे होंगे। वह तो भगवान्के विधानके अनुसार होगा ही—राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ (मानस १।१२८।१)। जो धन आनेवाला है, वह आयेगा; जो मान होनेवाला है, वह होगा। जो चीज आनेवाली है, वह आयेगी ही। हमें मिलनेवाली चीज दूसरेको कैसे मिलेगी?—‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।’ तो फिर हम उसकी गुलामी क्यों करें। जो नहीं आनेवाली है, उसकी कितनी ही गुलामी करो, वह नहीं आयेगी। फिर हम चिन्ता क्यों करें? चिन्ता भगवान् करें—‘चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा आनन्द।’ वे चिन्ता करें, न करें, उनकी मरजी, पर हम तो आनन्दमें रहें। अपना संकल्प रखनेसे ही सुखी-दु:खी होते हैं। अपना संकल्प न रखें तो क्यों सुखी-दु:खी हों? हमें तो भगवान्की आज्ञाका पालन करना है, जो हमारा कर्तव्य है।
श्रोता—संकल्पसे छूटनेका अत्यन्त सुगम उपाय क्या है?
स्वामीजी—अत्यन्त सुगम उपाय है कि दूसरा मेरा कहना माने—यह आग्रह छोड़ दे। ‘मेरा कल्याण हो जाय’—यह एक ही उद्देश्य बन जाय। जैसे मनुष्य रुपये कमानेमें लग जाता है तो उसका अपमान करो, निन्दा करो, किसी तरहसे तंग करो, वह सब सह लेता है। इन्सपेक्टर आ करके कई तरहसे तंग करता है , तो कुछ रुपये लेकर छुटकारा करता है। यह सब रुपयोंका लोभ कराता है। ऐसे ही कल्याणका लोभ हो जायगा तो यह बात सुगम हो जायगी। कल्याणका लोभ होनेपर फिर जिस जगह पारमार्थिक लाभ न हो, उस जगह टिक नहीं सकेंगे; जिस सत्संगमें पारमार्थिक लाभ न हो, उस सत्संगमें ठहर नहीं सकेंगे; जिस पुस्तकको पढ़नेसे पारमार्थिक लाभ न हो, वह पुस्तक पढ़ नहीं सकेंगे; जिस व्यक्तिके संगसे पारमार्थिक लाभ न हो, उस व्यक्तिका संग नहीं कर सकेंगे।