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मुक्ति स्वत:सिद्ध है

लोगोंने प्राय: ऐसा मान रखा है कि हम उद्योग करके विशेष स्थिति प्राप्त कर लेंगे, तब हमारा कल्याण होगा। यह बात अच्छी है, पर पूरी अच्छी नहीं। वास्तवमें कल्याण, मुक्ति स्वत:सिद्ध है। वह करनेसे नहीं होती। परन्तु आज यह बात कहनेवाला आदमी अपराधी होता है! लोग उसका विरोध करते हैं कि यह ठीक नहीं कहता है, गलत कहता है। परन्तु वास्तवमें बात ऐसी ही है। हम कुछ भी करेंगे तो वह प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ सम्बन्ध जोड़े बिना हो ही नहीं सकेगा। पदार्थोंसे सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। हम कुछ भी करेंगे तो शरीरकी सहायता लेंगे, इन्द्रियोंकी सहायता लेंगे, बुद्धिकी सहायता लेंगे, कम-से-कम एक देशमें ‘अहम्’ को पकड़कर ही कुछ करेंगे। अगर अपनेको एक देशमें नहीं पकड़ेंगे, किसीमें ममता नहीं करेंगे, तो हमारेसे करना कैसे बनेगा? अत: करनेसे मुक्ति नहीं होती। करनेसे जो चीज होती है, वह नाशवान् होती है। कारण कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है। क्रियासे जो फल मिलता है, उसका भी संयोग और वियोग होता है। जो की जाती है, वह चीज नित्य नहीं होती।

मुक्ति त्यागसे होती है। पदार्थ और क्रियारूपसे जो प्रकृति है, उसके साथ हमारी ममता और अहंता न हो तो हमारी स्वत: मुक्ति है। हमने ही ममता और अहंता करके बन्धन कर रखा है। वह हम छोड़ेंगे तो छूटेगा, नहीं तो न गुरु छुड़ा सकते हैं, न संत छुड़ा सकते हैं और न भगवान् ही छुड़ा सकते हैं। भगवान् तभी छुड़ा सकते हैं, जब आप अपनेको भगवान‍्के सुपुर्द कर दोगे, अन्यथा भगवान् स्वत: किसीको भी नहीं छुड़ाते। जितने भी अच्छे पुरुष होते हैं, वे किसीपर भी अपना मत नहीं लादते कि तुम ऐसा ही करो। पूछो तो समाधान कर देंगे, हितकी बात कह देंगे; परन्तु जबर्दस्ती नहीं करेंगे। भगवान् भी जबर्दस्ती नहीं करते। हम यह तो कह देते हैं कि भगवान‍्को हमारा उद्धार कर देना चाहिये, पर अगर हम भगवान‍्के शरण हुए ही नहीं तो वे हमारा उद्धार कैसे कर देंगे? किसीकी स्वतन्त्रताको भगवान् छीनते नहीं। आप सब तरहसे भगवान‍्को स्वतन्त्रता दे दो, तो भगवान् सब काम कर देंगे।

आपकी अहंता और ममता ही पतन करनेवाली चीज है। इनको आप किसी तरहसे छोड़ दो, तो उद्धार हो जायगा। बात इतनी विलक्षण है कि जिसकी मैं महिमा नहीं कह सकता! अगर हम शरीरकी ममता सर्वथा छोड़ दें तो शरीर प्राय: बीमार नहीं होगा। इन्द्रियोंकी ममता छोड़ दें तो इन्द्रियोंमें बुराई नहीं रहेगी। मनकी ममता छोड़ दें तो मनमें बुराई नहीं रहेगी। बुद्धिकी ममता छोड़ दें तो बुद्धिमें बुराई नहीं रहेगी। ऐसे ही मैं-पनके साथ जो ममता (अपनापन) है, उसका त्याग कर दें तो कोई बुराई नहीं रहेगी। मूल बात यह है कि बुराई केवल हमारे सम्बन्ध जोड़नेसे आयी है। हम जितना सम्बन्ध जोड़ करके आग्रह करते हैं, ममता करते हैं, उतनी उसमें बुराई आती है, अशुद्धि आती है। अगर सर्वथा ममता और अहंता छोड़ दें तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है। यह बात समझमें आनी कठिन है। ध्यान दें तो समझमें आ जायगी। परन्तु इस तरफ भाई लोग ध्यान देते ही नहीं!

अब एक प्रश्न है कि मुक्ति होनेसे जीवोंका जन्म-मरण मिट जायगा तो संसार ही मिट जायगा! क्योंकि जितने जीवोंकी मुक्ति होगी, उतने जीव संसारमें कम हो जायँगे और इस प्रकार कम होते-होते सर्वथा मिट जायँगे। इसलिये मुक्ति होनेके बाद फिर जन्म नहीं होता—यह बात नहीं है। जीव महाप्रलयतक जन्म नहीं लेते; पर महासर्गमें पुन: जन्म ले लेते हैं—ऐसा लोगोंने सिद्धान्त बना लिया है। इसका कारण क्या है? कि उन्होंने ऐसा मान रखा है कि मुक्ति कृत्रिम है, हमारे करनेसे होती है, इसलिये सदा कैसे रह सकती है? परन्तु वास्तवमें मुक्ति स्वत:सिद्ध है, स्वाभाविक है, कृत्रिम नहीं है। करना अस्वाभाविक है। अस्वाभाविकताको मिटा दोगे तो स्वाभाविकता ज्यों-की-त्यों रह जायगी। इस विषयको गहरे उतरकर समझो।

आप थोड़ा विचार करो कि जिन रुपयोंको आपने अपना मान रखा है, उन्हीं रुपयोंकी चिन्ता आपको होती है। रुपये तो दुनियामें अनगिनतीके पड़े हैं, पर उनकी चिन्ता आपको नहीं होती। अत: चिन्ता होनेमें रुपया कारण नहीं है, अपनापन कारण है। जिन व्यक्तियोंको आपने अपना मान लिया है, उनको लाभ होता है तो आपको सुख होता है और उनको हानि होती है तो आपको दु:ख होता है। परन्तु जिनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, उनको लाभ हो या हानि, वे मर जायँ या रह जायँ, हमें कोई सुख-दु:ख नहीं होता। जिनसे ममता कर रखी है, उनका ही बन्धन है। जिनमें ममता नहीं है, उनका बन्धन हमारेको नहीं है।

विचार करके आप देखें तो ममताका त्याग बहुत सुगम है। जिसको हमने ‘मेरा है’ मान रखा है, उसको ‘मेरा नहीं है’ माननेमें हम स्वतन्त्र हैं, पराधीन नहीं हैं। परन्तु उससे सुख लेना चाहते हैं, इसलिये पराधीन बन जाते हैं। संयोगजन्य सुखमें फँसोगे तो पराधीनतासे बच नहीं सकोगे। भगवान् साफ कहते हैं—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५। २२)

सम्बन्धजन्य जो सुख हैं, वे दु:खोंके ही कारण हैं और आदि-अन्तवाले हैं, इसलिये विवेकी पुरुष उनमें रमण नहीं करता। जो उनमें रमण नहीं करता, उसका कल्याण हो जाता है।

संयोगजन्य सुखकी लोलुपता ही संसारमें बाँधनेवाली चीज है। मैंने पहले भी कहा था, आज भी कह दूँ। मैंने पढ़ाई की, सत्संग किया, व्याख्यान दिये, इतनेपर भी मेरा समाधान नहीं हुआ कि बात क्या है? यह बन्धन कहाँ है? फिर संतोंकी कृपासे यह बात मेरी समझमें आयी कि जो सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छा है, यही मूल बन्धन है। सुखकी इच्छा समाधितक रहती है। यह सुखकी इच्छा ही बाँधनेवाली है। इस बातपर आप पूरा विश्वास करो।

श्रोता—मालूम पड़ता है कि यह सही बात है।

स्वामीजी—सही बात है—ऐसा मालूम पड़ता है तो फिर खटपट मिटती क्यों नहीं? कहीं-न-कहीं दोष है। जिस बातसे खटपट मिटती है, उस बातका ज्यादा आदर करो। खटपट मचती है तो उसके मूलमें क्या है—उसकी निगाह करो। जहाँ कहीं मनमें खलबली मचे तो स्वयं विचार करो कि मूलमें कहाँ दोष हुआ? क्या दोष हुआ? तो कहीं-न-कहीं ममता की है, पक्षपात किया है, सुखभोगकी इच्छा की है, किसी लाभकी इच्छा की है, कुछ-न-कुछ लेनेकी इच्छा की है, नहीं तो खलबली हो ही नहीं सकती।

श्रोता—परमात्माके लिये व्याकुलता होती है तो उसमें कोई सांसारिक सुख आनेसे हम उस सुखकी तरफ चले जाते हैं, व्याकुलताकी तरफ नहीं आते; ऐसे समय क्या करें?

स्वामीजी—व्याकुलतामें रहो, भोगमें मत जाओ। भोगको मत पकड़ो, भोगके कारणको अर्थात् रागको पकड़ो और उसको मिटाओ।

अपनी यह बात हुई है न, इससे बड़ा लाभ होता है। आप-से-आप सोचोगे तो यह बाधा नहीं मिटेगी, और आपसमें खुल करके बात करते ही इसको मिटानेमें आपको मदद मिलेगी। यह मैंने देखा है। मेरेको कोई समझा देता है तो वह काम मेरे लिये बहुत सुगम होता है। स्वयं मैं सोचता हूँ, समझता हूँ, तो भी फरक पड़ता है। परन्तु दूसरेके समझानेसे बहुत जल्दी फरक पड़ता है। मेरी प्रकृति ऐसी है तो मैं समझता हूँ कि दूसरोंकी प्रकृति भी ऐसी होगी। मेरी जो यह समझानेकी प्रवृत्ति होती है, इसको मैं बढ़िया नहीं मानता हूँ। दूसरोंको उपदेश देना, दूसरोंको समझाना अपनी मूर्खताको स्वीकार करना है, अपने अभिमानको स्वीकार करना है, दूसरोंको बेसमझ मानना है। दूसरोंको बेसमझ मानना और अपनेको समझदार मानना गुण नहीं है, दोष है, पतनकी चीज है। ऐसा मानते हुए भी मेरी समझानेकी प्रवृत्ति होती है। क्यों होती है? इसमें कई कारण हो सकते हैं। विचारपूर्वक देखता हूँ तो मेरेको कोई समझाये तो मुझे लाभ होता है; अत: दूसरोंको कोई समझाये तो उनको भी लाभ होता होगा, इसलिये मेरी समझानेकी प्रवृत्ति होती है। आपसमें बात होनेसे विषय बहुत साफ हो जाता है और वैसा अनुष्ठान करनेमें बड़ी मदद मिलती है। अत: आपसमें विचार-विनिमय हो, विचारोंका आदान-प्रदान हो। केवल उपदेश देकर गुरु बन जानेसे लाभ नहीं होता। आपसमें दोनों समान समझकर विचार करें। किसी विषयमें मैं जानता हूँ और किसी विषयमें आप जानते हैं, तो टोटलमें बराबर ही हुए न? ऐसे बराबर हो करके विचार करें। आपका कहना मैं मानूँ और मेरा कहना आप मानो। इससे अपने दोनोंको ही लाभ होगा। परन्तु यह कब होगा? जब कहनेवाला अपनेमें अभिमान न करे कि मैं तो जानकार हूँ और ये अनजान हैं। हमें भी जानकारी करनी है और आपको भी जानकारी करनी है—ऐसा समझकर विचार करें तो हमारी जानकारी बढ़ेगी और ज्ञान होगा।

श्रोता—पुराना लिया हुआ सुख बराबर याद आता रहता है!

स्वामीजी—तो फिर सुखभोगका नतीजा अच्छा नहीं निकला है न? अभीतक उस पुराने सुखभोगके संस्कार पड़े हुए हैं। अभीतक उन संस्कारोंसे हमारा छुटकारा नहीं हुआ है। अत: अब इस सुखभोगकी आसक्तिको छोड़ना चाहिये—यह सिद्ध होता है।

सुखकी लोलुपता कैसे छूटे? यह प्रश्न है। सुखकी लोलुपतामें आकर हम फँस जाते हैं। जानते हुए, कहते हुए, समझते हुए, पढ़ते हुए भी उसमें फँस जाते हैं। अत: उससे छूटनेके लिये बड़ा सीधा सरल उपाय है कि दूसरेको सुख कैसे पहुँचे? यह भाव बना लें। घरमें माँ-बापको सुख कैसे हो? स्त्रीको सुख कैसे हो? बच्चोंको सुख कैसे हो? भाई-भौजाईको सुख कैसे हो? पड़ोसियोंको सुख कैसे हो? दुनियाको सुख कैसे हो? मित्रोंको सुख कैसे हो? मेरे द्वारा क्या सेवा की जाय, जिससे इनको सुख हो जाय, इनका हित हो जाय, इनका कल्याण हो जाय? इनकी बात कैसे रहे? इनका आदर कैसे रहे? इनकी प्रशंसा कैसे हो?—यह वृत्ति अगर आपकी जोरदार हो जायगी, तो सुखभोगकी रुचि मिट जायगी।

‘बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।’
(विनयपत्रिका १५८)

पुजानेकी तो ज्यादा प्रीति है और पूजनेकी थोड़ी है। सुख लेनेकी तो ज्यादा इच्छा है और सुख देनेकी थोड़ी है। अगर देनेकी ही इच्छा हो जाय तो काम ठीक हो जायगा।

श्रोता—सुख लेनेमें तो तत्काल सुख मिलता है, पर सुख देनेमें तत्काल सुख मिलता नहीं।

स्वामीजी—पढ़ाई करते समय बालकको पढ़ाईमें सुख नहीं दीखता, खेलमें सुख दीखता है। परन्तु गुरुजनोंके पढ़ानेसे पढ़ना शुरू कर देता है और कुछ परीक्षाएँ पास कर लेता है तो पढ़ाईमें लगन लग जाती है। अत: पहले यह सूखी शिलाकी तरह है। सूखी शिलामें न नमक है, न चीनी है, कोई स्वाद नहीं, तो सूखी शिला कैसे चाटी जाय? परन्तु कोई कह दे कि चाटो, ठीक हो जायगा तो उसके कहनेसे चाटने लग जाओ। ऐसे ही ये कहते हैं, इसलिये इस सुखको छोड़ दो और दूसरोंको सुख दो। इतना विश्वास तो है कि ये हमारे हितके लिये कहते हैं। भगवान‍्के वचन हमारे कल्याणके लिये हैं, इसलिये उनके कहनेसे शुरू कर दो। भगवान‍्ने कहा कि सात्त्विक सुख आरम्भमें जहरकी तरह है और परिणाममें अमृतकी तरह है—‘यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्’ (गीता १८। ३७)। आरम्भमें जहरकी तरह है—यह बात पहले मेरी समझमें नहीं आयी। सात्त्विकतामें तो आरम्भमें ही आनन्द है, सुख है और भगवान् आरम्भमें जहरकी तरह कहते हैं—यह कैसे? विचार करनेपर समझमें आया कि राजस-तामस सुखका त्याग करनेमें कठिनता आती है, इसलिये सात्त्विक सुख पहले जहरकी तरह दीखता है।

आप इस बातपर विचार करो कि दूसरोंको सुख कैसे हो। दूसरेकी बात कैसे रहे? दूसरेका कल्याण कैसे हो? भगवान् कहते हैं कि जिनकी प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होती है, वे मेरेको प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।’ (गीता १२। ४)। जो हमें दु:ख देते हैं, उनको भी सुख कैसे हो?—‘उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥’ (मानस ५। ४१। ४)। फिर सन्तपना आ जायगा।

दूसरोंका हित करनेमें ही हमारा हित है। जैसे, हम दर्पणमें अपना मुख देखते हैं तो अगर हमारा मुख पूर्वकी तरफ होगा तो दर्पणमें हमारा मुख पश्चिमकी तरफ होगा। हमारा दायाँ उसमें बायाँ और हमारा बायाँ उसमें दायाँ दीखेगा। अब दर्पणमें जैसा दीखता है, उसके अनुसार हम चलेंगे तो उलटे चले जायँगे। संसाररूपी दर्पणमें सुख लेना अच्छा दीखता है और सुख देना बुरा दीखता है। अब उसीके अनुसार चलेंगे तो दशा बुरी होगी; क्योंकि ज्ञान आरम्भमें ही उलटा हो गया! ‘धुर बिगड़े सुधरे नहीं, कोटिक करो उपाय।’ आरम्भमें ही काम बिगड़ गया! दीखता ऐसा है कि हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जायगा, हमें सुख मिल जायगा, पर परिणाममें दु:ख ही मिलेगा। इसलिये अगर अपना कल्याण चाहते हो तो इस चालको बदलना होगा, नहीं तो आफत-ही-आफत आयेगी। दूसरेको सुख देनेसे अपने सुख-भोगकी इच्छा मिटती है—यह बात एकदम सबके अनुभवकी है।

श्रोता—सेवा करनेसे तत्काल सुख तो नहीं मिलता, पर तत्काल अभिमान जरूर आता है!

स्वामीजी—अभिमानमें भी तो एक सुख मिलता है कि मैं ऐसा हूँ! हमें इस अभिमानके सुखको भी छोड़ना है—ऐसा विचार करो तो वह छूट जायगा। जैसे अपनी लड़कीका ब्याह करना है—यह विचार रहनेसे अपने लड़केमें जितनी ममता होती है, उतनी अपनी लड़कीमें ममता नहीं होती। इसी तरह अभिमानके सुखको छोड़ना है—यह पक्‍का विचार हो जायगा तो अभिमानजन्य सुखमें ममता नहीं रहेगी।

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