संसार जा रहा है !
भगवान् स्वयं कहते हैं—‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।’ (गीता ९। ४)। भगवान् सब जगह हैं—इस बातको आप मान लें। भगवान् सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सबमें हैं तो अपनेमें भी हैं, और सबके हैं तो मेरे भी हैं। केवल इस बातको आप मान लें। एक बात और है सज्जनो! जो सबको मिल सकता है, वही हमें मिल सकता है। किसीको मिले और किसीको न मिले, वह हमारेको नहीं मिल सकता। सांसारिक चीजें सबको समानरूपसे नहीं मिल सकतीं, पर परमात्मा सबको समानरूपसे मिल सकते हैं। पहले वेदव्यासजी, शुकदेवजी, सनकादिक आदि बड़े-बड़े महापुरुषोंको जो परमात्मतत्त्व मिला है, वही परमात्मतत्त्व आज भी मिलेगा। अभी वर्तमानमें किसी महापुरुषको जो तत्त्व मिला है, वही तत्त्व हमारेको भी मिलेगा। कारण कि परमात्मा सब जगह हैं, सब समयमें हैं, सबमें हैं, सबके हैं। वे परम दयालु हैं और सर्वसमर्थ हैं। इस प्रकार उनको मानकर उनके नामका जप करें और साथ-साथ यह कहें कि हे नाथ! प्रकट हो जाओ। जैसे बालक अपनी माँके लिये व्याकुल हो जाता है कि माँ कब मिलेगी, ऐसे ही हम उनके लिये व्याकुल हो जायँ कि हे नाथ! आप कब प्रकट होंगे! आप कब मिलोगे! आप यहाँ हैं, मेरेमें हैं, मेरे हैं, और फिर मैं दु:ख पा रहा हूँ!
हमने संतोंसे सुना है कि जो परमात्माकी सत्ताको दृढ़तासे स्वीकार कर लेता है कि परमात्मा हैं, तो उसको परमात्मा मिल जाते हैं। परन्तु साथ-साथ संसारकी सत्ताको मानते रहनेसे परमात्माकी प्राप्तिमें देरी लगती है। वास्तवमें संसार है नहीं, मिट रहा है—यह बात विशेष ध्यान देनेकी है। यह बात मैं बहुत बार कहता हूँ। बहुत बार कहनेका मतलब है कि आप इसको पक्की मान लें। यह संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है, हरदम नष्ट हो रहा है। जितने भी प्राणी जी रहे हैं, वे सब-के-सब मौतकी तरफ जा रहे हैं, मर रहे हैं। हम कल जितने जीते थे, उतने आज जीते हुए नहीं हैं। आठ पहर हमारा मर गया अर्थात् मरना नजदीक आ गया। हमारे जीनेका समय चौबीस घण्टा बीत गया। मात्र संसारमें स्थावर-जंगम, जड़-चेतन जितनी चीजें दीखती हैं, वे सब-की-सब अभावमें जा रही हैं और एक दिन उनका पूरा अभाव हो जायगा। वास्तवमें तो उनका प्रतिक्षण ही अभाव हो रहा है। जैसे, आगमें लकड़ी जल रही हो तो वह सब-की-सब लकड़ी जल जायगी। जितना धुआँ निकलता है, वह ज्वाला हो जायगा, ज्वालामें जलते-जलते लकड़ी अंगार बन जायगी, अंगारके कोयले बन जायँगे, कोयलोंकी राख हो जायगी। ऐसे ही यह सब-का-सब संसार कालकी अग्निमें जल रहा है, अभावमें जा रहा है।
संसार नहीं है और परमात्मा है। जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया, इसीलिये जो ‘है’, वह परमात्मा नहीं दीखता। परमात्मा न दीखनेपर भी ‘यह संसार नाशकी तरफ जा रहा है’—क्या यह भी नहीं दीखता? थोड़ा-सा विचार करो तो यह प्रत्यक्ष दीखता है कि हमारा बालकपन कहाँ गया? कलवाला दिन कहाँ गया? बताओ। वह तो चला गया। कलवाला दिन चला गया तो आजवाला दिन नहीं जायगा क्या? महीना नहीं जायगा क्या? वर्ष नहीं जायगा क्या? उम्र नहीं जायगी क्या? यह तो जा ही रही है, प्रत्यक्ष बात है। इस बातको दृढ़तासे मान लो। किसीके देखनेमें, सुननेमें, समझनेमें यह बात नहीं आती हो तो बोलो!
श्रोता—आपने कहा कि परमात्माकी सत्ताको मान लो तो परमात्मा मिल जायँगे, प्रकट हो जायँगे। ऐसा हम मान ही रहे हैं; फिर हमारे माननेमें कहाँ भूल है?
स्वामीजी—याद रखनेमें भूल होती है, माननेमें भूल नहीं होती। दो बातें हैं—एक याद रखना, स्मरण करना और एक उस बातको स्वीकार करना, मान लेना। जैसे, यह गोविन्दभवन है, यह कलकत्ता है—ऐसा मान लिया तो इस माने हुएमें भूल नहीं होती। माने हुएकी भूल तब मानी जायगी कि यह गोविन्दभवन नहीं है, यह तो कोई सरकारी आफिस है—ऐसा मान लें। यह कलकत्ता नहीं है, यह तो बम्बई है—ऐसा मान लिया तो भूल गये। याद न रहनेसे भूल नहीं होती। जैसे, भगवान्के नामका जप करते हैं और वह छूट जाय तो यह करनेकी भूल है, माननेकी भूल नहीं है।
श्रोता—तो फिर दीखते क्यों नहीं?
स्वामीजी—न दीखनेमें मुख्य आड़ यह है कि हम जानते हैं कि संसारका प्रतिक्षण नाश हो रहा है, फिर भी इसको स्थायी मान लेते हैं।
एक सन्त खड़े थे नदीके पास, तो किसीने कहा कि देखो महाराज! नदी बह रही है। सन्त बोले कि जैसे नदी बह रही है, ऐसे ही इस पुलपर आदमी भी बह रहे हैं और यह पुल भी बह रहा है। कैसे? जिस दिन पुल बना था, उतना नया आज है क्या? उसका नयापन बह गया न? नयापन बह गया और पुरानापन आ गया। जब सर्वथा पुराना हो जायगा तो गिर जायगा। वास्तवमें वह जबसे बना, तभीसे उसका गिरना, नष्ट होना शुरू हो गया। ऐसे ही मनुष्य भी बह रहे हैं। जितनी उम्र बीत गयी, उतने तो वे मर ही गये और अब भी प्रतिक्षण मर रहे हैं। इस प्रकार यह जो संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है, इसको ‘है’ मान लेते हैं। यही कारण है कि वे जो प्रभु हैं, वे दीखते नहीं। ‘नहीं’ को ‘है’ मान लिया, यह उस प्रभुके दीखनेमें आड़ लगा दी।
इस बातको बड़ी दृढ़तासे मान लो कि संसार निरन्तर बह रहा है। दृढ़तासे न मान सको तो बार-बार याद करो कि भाई, संसार तो बह रहा है। एक सिद्धान्त है कि जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता। जो आदि और अन्तमें होता है, वह वर्तमानमें भी होता है। जब यह संसार नहीं बना था, तब भी परमात्मा थे और जब यह संसार मिट जायगा, तब भी परमात्मा रहेंगे। अत: इस संसारके रहते हुए भी परमात्मा हैं। संसार पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा, तो बीचमें दीखते हुए भी संसार नहीं है। कारण कि बीचमें दीखते हुए भी वह प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है। हमारी बाल्यावस्था जैसे ‘नहीं’ में चली गयी, ऐसे ही जवानी भी ‘नहीं’ में चली जायगी, वृद्धावस्था भी ‘नहीं’ में चली जायगी, जीवन भी ‘नहीं’ में चला जायगा। इसमें असावधानी यह होती है कि संसारको ‘नहीं’ जानते हुए भी उसको ‘है’ मान लेते हैं। अज्ञानी किसका नाम है? जो जानते हुए भी न माने, उसका नाम अज्ञानी है। भीत-(दीवार-) को कोई अज्ञानी नहीं कहता; क्योंकि वह तो कुछ भी नहीं जानती। जो जानता है, उसको मानता है, उसका नाम ज्ञानी है।
श्रोता—महाराजजी! रामका नाम लेनेसे प्रारब्ध कट जाता है? जान-अनजानमें हुए पाप कट जाते हैं?
स्वामीजी—कट जाते हैं। मैंने जो बात कही है न, उससे सब-के-सब पाप कट जायँगे। परमात्मा है और संसार नहीं है—इस बातको दृढ़तासे मानते हुए नाम-जप करो तो जल्दी काम होगा। संसारको ‘है’ मानते रहोगे तो वर्षोंतक नाम-जप करनेपर भी सिद्धि नहीं होगी। नाम-जप निरर्थक नहीं जायगा; परन्तु प्रत्यक्ष उसका फल नहीं दीखेगा।
परमात्मा है—यह तो हम शास्त्रोंसे, सन्तोंसे सुन करके मानते हैं। परन्तु संसार प्रतिक्षण नाशकी तरफ जा रहा है—यह तो प्रत्यक्ष दीखता है। अगर इस बातको मान लें कि जो दीखता है, वह संसार है नहीं, तो संसारका ज्ञान हो जायगा। अगर संसारको ‘है’ मानते हैं, तो संसारका ज्ञान नहीं हुआ है। संसारका ज्ञान होनेसे परमात्माका ज्ञान हो जायगा और परमात्माका ज्ञान होनेसे संसारका ज्ञान हो जायगा।
संसार अभावकी तरफ जा रहा है, नष्ट हो रहा है—यह जागृति हरदम रहनी चाहिये। यह बहुत बढ़िया साधन है। यह सब तो जा रहा है—ऐसी सावधानी रखते हुए नामजप करो। ये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि, यह जबान, यह जप, सब जा रहा है, पर जिसके नामका जप कर रहे हैं, वह जाता ही नहीं कभी। वह तो रहेगा ही। उसीका जप कर रहे हैं, उसीको याद कर रहे हैं।
श्रोता—यह जा रहा है—ऐसा कहनेसे जागृति हो जायगी?
स्वामीजी—ऐसा कहनेसे जागृति नहीं होगी, भीतर माननेसे जागृति होगी। अगर परमात्माको और संसारको जाननेकी सच्ची नीयत है तो ऐसा कहनेसे भी वह बात माननेमें आ जायगी। परमात्मा अविनाशी है और संसार नाशवान् है—इसको जाननेके उद्देश्यसे आप बार-बार कहोगे तो भी जागृति हो जायगी। परन्तु जो बात वर्तमानमें काम न आये, उससे क्या लाभ? यह जो बात मैं कह रहा हूँ, इस बातको आप दृढ़तासे मान लो तो यह वर्तमानमें काम आयेगी। आज एक दिन मानकर देख लो। इसको सजग होना, जाग्रत् होना कहते हैं। एक दिन आप सजग रहकर देखो। सन्तोंकी वाणीमें आता है—‘दिलमें जाग्रत रहिये बन्दा’। और ‘जाग्रत नगरीमें चोर न लागे, झख मारेला जमदूता। जाग्या गोरखनाथ जग सूता॥’ जाग्रत् रहनेवालेको यमदूत नहीं मार सकेगा। वह शरीरको मारेगा, तो शरीर पहलेसे ही मर रहा है! अब यमदूत क्या करेगा? बताओ।
‘इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।’
(गीता ५। १९)
समरूप परमात्मामें जिनका मन स्थिर हो गया है, उन्होंने मात्र संसारको जीत लिया। वे विजयी हो गये। उनके सामने सब संसार हार गया। जो मर रहा है, वह संसार हमारा क्या बिगाड़ सकता है? आप कृपा करके इस बातको मान लें।
मेरे रुपये हैं, मेरा घर है, मेरा परिवार है, मैं ऐसा हूँ, मैं यों कर दूँगा। अरे, तू तो मर रहा है, कर क्या देगा? शरीर तो मर रहा है, इसमें जो रहनेवाला है, वह परमात्माका स्वरूप है। इस जागृतिको आप रखो तो सच्ची, निहाल हो जाओगे। इसमें सन्देह नहीं है। बड़ी सीधी-सरल और सुगम बात है। बताओ, इसमें कठिनता क्या है? आपका-हमारा जो शरीर है, यह शरीर पहले ऐसा नहीं था—यह सबका अनुभव है। जितना जी गये, उतना तो मर गये। भाई, बुरा न मानना। सच्ची बात है यह। मरना शब्द बुरा लगता है। बुरा लगे, चाहे भला लगे, सच्ची बात है कि जितना हम जी गये, उतने दिन तो हम मर ही गये। मर गये ही नहीं, मर रहे हैं। कल जितनी उम्र थी, आज उतनी उम्र नहीं है। इसकी जागृति रखो।
श्रोता—महाराजजी! क्या अभी-अभी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है?
स्वामीजी—अभी-अभी, इसी क्षण हो सकती है। देखो, परमात्माकी प्राप्तिमें देरी नहीं लगती। अपनी जो पकायी हुई धारणा है, उसको दूर करनेमें देरी लगती है अर्थात् यह मेरा शरीर है, मेरा धन है, मेरा घर है, मेरा कुटुम्ब है—इस तरह जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लिया—इसको दूर करनेमें देरी लगती है।
संसार नहीं है—इसकी याद न आना दोष नहीं है, संसारको सच्चा मान लेना दोष है। जैसे याद न करनेपर भी ‘हम कलकत्तामें हैं’ यह बात भीतर पक्की बैठी हुई है, ऐसे ही, स्त्री, पुत्र आदि अपने हैं, यह बात भीतर बैठी हुई है। वही परमात्मप्राप्तिमें आड़ लगा रही है। परमात्मा तो मौजूद है, फिर उसके मिलनेमें देरी क्या है? जो मौजूद नहीं है, उसको मौजूद मानकर मनसे पकड़ रखा है—यही देरीका कारण है।
श्रोता—जो दीखता नहीं है, उसको अपना कैसे मानें?
स्वामीजी—भाई, मैंने पहले ही बात कह दी कि आप परमात्माको भले ही मत मानो, पर संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है—यह दीखता है कि नहीं? दीखनेपर परमात्माको मान लेंगे—यह बड़ी भारी गलती है, मामूली गलती नहीं। जो दीखता है, उसको मानते हैं—यही गलती है। जो दीखता है, वह तो टिकता ही नहीं। वह तो प्रतिक्षण जा रहा है, मिट रहा है। आज इसी बातको दृढ़तासे मान लो। आज यही पाठ पढ़ लो।
जो दीखता नहीं, उसको कैसे मानें—यह समझदार आदमीका प्रश्न नहीं है। समझदार आदमीका प्रश्न तो यह होता है कि जो दीखता है, उसको हम कैसे मानें, क्योंकि वह तो एक क्षण भी ठहरता नहीं। संसार नेत्रोंसे रहता हुआ दीखता है और अक्लसे बहता हुआ दीखता है। अत: अक्लसे खुदा पहचानो। यह आज अक्ल ले लो कि जो दीखता है, वह सच्चा नहीं है।