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सत्संगसे लाभ कैसे लें?

श्रोता—सत्संगमें जैसी स्थिति रहती है, वैसी हर समय नहीं रहती, और सत्संग हर समय मिलता नहीं!

स्वामीजी—सत्संग न मिले तो पारमार्थिक पुस्तकें पढ़ो।

श्रोता—पुस्तकें पढ़नेको भी सदा समय नहीं मिलता।

स्वामीजी—देखो, सब समय तो कोई बात रहती नहीं। संसारका सम्बन्ध भी सदा नहीं रहता। सत्संगमें जैसी स्थिति, जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, वैसी हर समय नहीं रहतीं—ऐसी बात नहीं है। स्थूल दृष्टिसे तो वैसा दीखता है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो भीतर सत्संगके जो संस्कार रहते हैं, वे स्थायी रहते हैं। उनके स्थायी रहनेसे ही आपकी सत्संगमें रुचि रहती है। वे संस्कार जितने अधिक स्थायी होंगे, उतनी ही रुचि अधिक होगी और जितनी रुचि अधिक होगी, उतना ही साधन बढ़ेगा। अत: तात्कालिक चीज (सत्संग) मिले तो उससे अपनी रुचिको बढ़ाना चाहिये। भीतर सत्संगका महत्त्व अंकित रहना चाहिये कि यह बहुत लाभदायक है, इसकी बड़ी भारी आवश्यकता है। ऐसा होनेसे कहीं भी सत्संग हो तो आपकी रुचि होगी कि हम सत्संग करें।

दूसरी बात, अभी जो सत्संग सुननेसे रुचि होती है, वह बुद्धिमें, मनमें, अन्त:करणमें होती है। वह रुचि वास्तवमें आपके खुदकी होनी चाहिये। खुदकी रुचि होगी तो वह मिटेगी नहीं; क्योंकि खुद मिटता नहीं। अन्त:करण तो प्रकृतिका कार्य होनेसे बदलता रहता है। तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी सिद्ध पुरुषोंमें सात्त्विक, राजस, तामस वृत्तियाँ आती हैं (गीता १४। २२)। सिद्ध पुरुषोंमें और हमलोगोंमें फरक क्या रहता है? उन वृत्तियोंके आनेपर सिद्ध पुरुष तो स्वाभाविक तटस्थ रहते हैं, पर हम उन वृत्तियोंके साथ मिल जाते हैं। सत्संगके समय जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, और समयमें वैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं—इसका कारण है अन्त:करणकी अनित्यता, अन्त:करणका एक रूप न रहना। बदलनेवाली चीजको जाननेवाले आप नहीं बदलते हो। रुचि और अरुचि—दोनोंका जिसको अनुभव होता है, उसके साथ रुचि-अरुचि दोनोंका सम्बन्ध नहीं है।

सात्त्विक, राजस, तामस वृत्तियोंके साथ मिल जाना अस्वाभाविक है, और इनके साथ न मिलना स्वाभाविक है। स्वाभाविकताको जबतक नहीं पकड़ते, तबतक यह दशा रहती है। स्वयं (स्वरूप) अच्छे-मन्दे दोनोंको जाननेवाला है, दोनोंका प्रकाशक है, दोनोंका आश्रय है। उसके आश्रित ही अच्छी-मन्दी दोनों क्रियाएँ होती हैं। हमारी स्थिति उस स्वरूपमें होनी चाहिये—‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४। २४)। वह सम्पूर्ण वृत्तियोंका, संयोग-वियोगका आधार है, उनका निर्लिप्त प्रकाशक है। जैसे, दीपक जल रहा है। अब आपलोग आयें तो दीपक वैसा ही है, आपलोग थोड़े आयें तो दीपक वैसा ही है। और कोई भी नहीं आये तो दीपक वैसा ही है। ऐसे ही आपका स्वरूप वृत्तियों आदिको प्रकाशित करनेवाला है, उनके साथ चिपकनेवाला नहीं है। अगर स्वरूप चिपकनेवाला होता तो एकके साथ ही रहता, दूसरेके साथ नहीं जाता। अगर आप सत्त्वगुणमें चिपक जाते तो रजोगुण-तमोगुणमें कौन जाता? रजोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-तमोगुणमें कौन जाता? और तमोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-रजोगुणमें कौन जाता? आपका चिपकनेका स्वभाव नहीं है। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ आपके सामने आती हैं, पर आप किसी भी अवस्थाके साथ हरदम नहीं रहते। अवस्थाएँ बदलती हैं, आप नहीं बदलते। आप आने-जानेवाली वृत्तियोंके साथ, अवस्थाओंके साथ मिल जाते हो, इसीसे गलती होती है। इससे आप तटस्थ रहो—‘देखो निरपख होय तमाशा।’ कभी नफा हुआ, कभी नुकसान हुआ, किसीका जन्मना हुआ, किसीका मरना हुआ, किसीका संयोग हुआ, किसीका वियोग हुआ—यह तो होता ही रहता है, पर हम इसके साथ नहीं हैं और यह हमारे साथ नहीं है। ये बदलनेवाले हैं, हम बदलनेवाले नहीं हैं।

सत्संगके समय ‘हम बदलनेवाले नहीं हैं’—इसमें अपनी स्थिति करनी चाहिये। सत्संगके समय सत्संगका रस नहीं लेना है। सत्संगका सुख नहीं लेना है। सत्संगका तत्त्व समझना है, उसको धारण करना है, उसमें तल्लीन हो जाना है। उस तत्त्वके साथ आपका स्वयंका सम्बन्ध होना चाहिये। स्वयंका सम्बन्ध होनेसे जब अनुकूल साधन नहीं होगा, अनुकूल संग नहीं मिलेगा, अनुकूल पुस्तक नहीं मिलेगी, तो उस समय आपको अच्छा नहीं लगेगा, बुरा लगेगा। फिर आप भजन-चिन्तनमें आप-से-आप लग जाओगे। हमारा सम्बन्ध तो भगवान‍्के साथ है। तात्कालिक सुखकी अपेक्षा भगवान‍्के सम्बन्धको भीतरमें ज्यादा महत्त्व देना चाहिये। जैसे, मनुष्योंका रुपयोंमें एक आकर्षण है। रुपये कमानेमें चाहे सुख होवे, चाहे दु:ख होवे, पर रुपयोंका आकर्षण वैसे ही रहता है। घाटा लगे तो भी आकर्षण रहता है और मुनाफा हो तो भी आकर्षण रहता है। इस प्रकार जिस जगह रुपयोंका महत्त्व बैठा हुआ है, उस जगह भगवान‍्का महत्त्व बैठाना चाहिये। भीतरमें रुपयोंका महत्त्व होनेसे जैसे रुपयोंकी बातें अच्छी लगती हैं, ऐसे ही भगवान‍्का महत्त्व होनेसे भगवत्सम्बन्धी बातें अच्छी लगेंगी।

सत्संगी आदमीको पहले कम-से-कम यह सोच लेना चाहिये कि हमारा कौन है और हमारा कौन नहीं है। ध्यान देना, बड़ी मार्मिक बात है। जो हमारे साथ निरन्तर रहता है और हम जिसके साथ निरन्तर रहते हैं, वह हमारा है। हम जिसके साथ निरन्तर नहीं रह सकते और जो हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकता, वह हमारा नहीं है। अब जो हमारा है, उसको हम पहचानते क्यों नहीं? जो हमारा नहीं है, सदा उसकी तरफ आकर्षण क्यों होता है? कारण यह है कि जो हमारा है, सदा हमारे साथ रहता है, उसको अपना मानना छोड़ दिया और जो हमारा नहीं है, कभी हमें मिलता है कभी नहीं मिलता, उसको अपना मानना शुरू कर दिया। यहाँ गलती हुई है। धन, सम्पत्ति, वैभव, पुत्र, परिवार, मान, बड़ाई आदि कभी होते हैं और कभी नहीं होते, घटते-बढ़ते हैं, सदा साथमें नहीं रहते, पर उनको अपना मान लिया। जो अपना है, उससे विमुख हो गये, उसकी उपेक्षा कर दी! मीराबाईने कहा कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।’ हमने ‘दूसरो न कोई’—इस बातको नहीं पकड़ा, इसीलिये ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’—इसका अनुभव नहीं हुआ। वे भगवान् सबके हैं। वे प्राणिमात्रके हृदयमें रहते हैं—‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ (गीता १८। ६१)। उनकी तरफ हमें देखना चाहिये। मैं बहुत बार कहा करता हूँ कि भगवान् सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सब व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण वृत्तियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें रहते हैं। ऐसा कहनेका तात्पर्य क्या है? वे सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सबमें हैं तो हमारेमें भी हैं, सबके हैं तो हमारे भी हैं। इसलिये किसीको भी उनकी प्राप्तिसे निराश होनेकी जरूरत नहीं है। जो किसी देशमें हो, किसी देशमें न हो; किसी कालमें हो, किसी कालमें न हो; उसके साथ हमें सम्बन्ध नहीं जोड़ना है। उसका काम कर देना है, उसकी सेवा कर देनी है। उसके साथ सम्बन्ध जोड़ोगे तो दु:ख पाओगे; क्योंकि वह सदा तो रहेगा नहीं।

सत्संगके द्वारा जो सुख मिलता है, उसको मत लो। जिससे वह सुख मिलता है, उस भगवान‍्को पकड़ो। वह सुख भगवान‍्के यहाँसे आता है। वे भगवान् हमारे हैं। ये शरीर-संसार हमारे नहीं हैं। अगर शूरवीरतासे आप इस बातको स्वीकार कर लो, तो बहुत ही लाभकी बात है।

परमात्मा कभी हमारेसे अलग नहीं होते। उनको हम जानें तो हमारे साथ हैं, हम न जानें तो हमारे साथ हैं; हम उनके सम्मुख हो जायँ तो हमारे साथ हैं, उनसे विमुख रहें तो हमारे साथ हैं। जहाँ मैं हूँ, वहाँ भी परमात्मा हैं। जो ‘हूँ’ है, वह ‘है’—(परमात्मा-) के साथ है। इस ‘हूँ’ को शरीरके साथ मान लेते हैं—यह गलती है। परमात्मा यहाँ हैं, अभी हैं, मेरेमें हैं, मेरे हैं—इस बातको पकड़ लो। ये बातें सीखनेके लिये और सुनने-सुनानेके लिये नहीं हैं। ये पकड़नेकी, स्वीकार करनेकी बातें हैं। संसारकी बातें रहनेवाली नहीं हैं। ये सब मिटनेवाली हैं। संसारकी बातोंमें उलझ करके उनमें भी दो बातें कर लेते हो अर्थात् सुख और दु:ख, अनुकूल और प्रतिकूल—ये दो मान्यताएँ कर लेते हो, इससे बड़ा भारी बन्धन होता है। इन दो चीजोंसे अर्थात् द्वन्द्वोंसे रहित होनेसे मनुष्य सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्त हो जाता है—‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५।३)। इसलिये द्वन्द्वोंमें नहीं फँसना चाहिये।

संसारकी किसी समाज-सम्बन्धी बातको लेकर कोई कहता है कि यह ठीक है और कोई कहता है कि यह बेठीक है, तो वास्तवमें वे दोनों ही बेठीक हैं; क्योंकि दोनोंसे मुक्ति तो होती नहीं! केवल संसारमें फँसनेका तरीका है। संसारकी दो बातोंको लेकर उनमेंसे किसी एक बातको पकड़ लेते हैं तो बड़ी भारी हानि होती है। इससे कल्याण नहीं होता। व्यवहारमें जो बात ठीक है, उसको कर लें, पर उसको पकड़ें नहीं। वह बात ठहरेगी नहीं, रहेगी नहीं और परमात्मा रहेंगे। परमात्माका सम्बन्ध कभी छूटेगा नहीं। संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं। उस संसारमें अच्छा और मन्दा क्या, ठीक और बेठीक क्या, पूरा-का-पूरा ही बेठीक है। अब ये कहते हैं कि हम तो गृहस्थी हैं। अगर गृहस्थी हो तो अच्छा काम करो, फँसते क्यों हो? काम गृहस्थीको भी करना है और साधुको भी करना है, पर फँसना नहीं है। मान और अपमान—दोनोंको बराबर समझना है। ये दोनों ही तुल्य हैं—‘मानापमानयोस्तुल्य:’ (गीता १४।२५)। जिस जातिका मान है, उसी जातिका अपमान है। ये दोनों ही त्याज्य हैं। न मान ग्राह्य है और न अपमान ग्राह्य है। इसमें क्या राजी और क्या नाराज होवें? ‘किं भद्रं किमभद्रं वा’ (श्रीमद्भा० ११। २८। ४)—क्या ठीक और क्या बेठीक?

गीतामें आया है—‘सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।’ (गीता २। ३८), तो ‘समे कृत्वा’ का अर्थ क्या हुआ? कि जय हो गयी तो क्या और पराजय हो गयी तो क्या? लाभ हो जाय तो क्या और हानि हो जाय तो क्या? सुख हो तो क्या और दु:ख हो तो क्या? ये तो मिटनेवाले हैं। रहनेवाली न जय है, न पराजय है, न लाभ है, न हानि है, न सुख है, न दु:ख है। वक्तपर जो काम आया, उसे निर्लेप होकर कर दिया, बस। अत: संसारके संयोग-वियोगको महत्त्व मत दो। फिर यह सत्संगवाली स्थिति स्थायी हो जायगी। परन्तु संसारके संयोग-वियोगको महत्त्व दोगे तो सत्संगकी बात स्थायी होनेके लिये आपको वक्त ही नहीं मिलेगा!

भगवान‍्ने आरम्भमें ही कह दिया—‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’ (गीता० २।१४) अर्थात् ये सांसारिक चीजें आने-जानेवाली और अनित्य हैं, इनको तुम सह लो। सहनेका अर्थ है कि तुम विकृत मत होओ, राजी-नाराज मत होओ। ये सांसारिक पदार्थ जिसको व्यथा नहीं पहुँचाते, वह मुक्तिका पात्र होता है—‘यं हि न व्यथयन्त्येते....सोऽमृतत्वाय कल्पते’ (गीता २।१५); और जिसको ये व्यथा पहुँचाते हैं, उसकी मुक्ति नहीं होती। मान अच्छा है, अपमान खराब है—इसको पकड़ लिया तो मुक्तिसे वंचित रह गये। ये मान-अपमान आदि आपको धोखा देनेवाले हैं। ये तो रहेंगे नहीं, पर आपको मुक्तिसे वंचित कर देंगे। इसलिये ठीक-बेठीक सब त्याज्य है, छोड़नेकी चीज है। हम इनसे छूटें कैसे? कि हम सम रहें। आप अपनी तरफ खयाल करें। मानके समय आप दूसरे और अपमानके समय आप दूसरे होते हो क्या? इसलिये इनको न देखकर अपनेमें स्थित रहो, ‘स्व’ में स्थित रहो—‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४।२४)। इस ‘स्व’ में स्थितिको ही सत्संगके द्वारा पकड़ना है। सत्संगकी बातोंका सुख नहीं लेना है।

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