॥ श्रीहरि:॥
तत्काल सिद्धिका मार्ग
साधन-प्रणाली दो तरहकी है—एक तो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिको साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़ देना।
गीतामें योगकी महिमा कही है। योग नाम है समताका। तो पहले ही समताको पकड़ ले, चाहे वह अभी धारण नहीं हो। ऐसे ही भक्तिमें स्वयं भगवान्के शरण हो जाय, चाहे अभी शरणागतिका अनुभव न हो। ऐसे ही ज्ञानमार्गमें मेरा स्वरूप नित्य सत्यस्वरूप है—इसका अनुभव करनेकी आवश्यकता है। कर्मयोग और भक्तियोगमें केवल आपके निश्चयकी आवश्यकता है और ज्ञानयोगमें अनुभवकी आवश्यकता है। यह इन दोनोंमें फर्क है। परन्तु अनुभव करें, चाहे एक निश्चय करें—इसका फल एक ही होगा, इसमें सन्देह नहीं। ज्ञानमार्गमें—‘वास्तवमें मेरे स्वरूपमें कोई विकार नहीं है’—इसमें स्थित रहनेसे जितनी जल्दी सिद्धि होती है, उतनी क्रमसे श्रवण, मनन, निदिध्यासन करनेसे नहीं होती। इसमें बहुत दूरतक जड़ताका साथ रहता है। जो ध्यानयोगसे परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, उनको प्राप्ति तो होगी, पर ध्यानयोगमें बहुत दूरतक जड़ता साथ रहेगी। परन्तु गीताके कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगके साथ जड़ताकी आवश्यकता नहीं है।
कर्मयोग और भक्तियोगमें अपनी बुद्धिके एक निश्चयकी महिमा है। इस वास्ते भगवान्ने कर्मयोगमें कहा—‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (२। ४१) और भक्तियोगमें कहा—‘सम्यग्व्यवसितो हि स:(९। ३०)।’ ज्ञानयोगमें कहा—‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।’(२। ३९) अर्थात् यह समबुद्धि पहले सांख्ययोगमें कह दी, अब इसको योगके विषयमें सुन। वह समबुद्धि है—‘सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ (२। ३८)। सांख्यमें स्वरूपके अनुभवके बाद समबुद्धि होती है और योग (कर्मयोग)-में समबुद्धि होनेके बाद स्वरूपमें स्थिति होती है—यह मार्मिक बात है।
वास्तवमें स्वरूपमें जड़ता नहीं है—ऐसा विचारके द्वारा ठीक अनुभव हो गया, तो अब इसमें स्थित रहनेसे जितनी जल्दी सिद्धि होगी, उतनी जल्दी सिद्धि दोषोंको दूर करने, श्रवण, निदिध्यासन, ध्यान करनेसे नहीं होगी। ऐसे ही भक्तिमें ‘मैं भगवान्का हूँ’—यह मान्यता करनेसे ही सिद्धि हो जाय। मान्यता कैसी होनी चाहिये? जिसको कोई हटा न सके, ऐसी दृढ़ मान्यता। जैसे पार्वतीजीने कह दिया—जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥ तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥ (मानस १। ८१। ३) भगवान् शंकर स्वयं सौ दफा कह दें कि मैं तेरेको स्वीकार नहीं करता, तो भी मैं छोड़ूँगी नहीं। यह मतलब है माननेका। जब आपने दृढ़ निश्चय कर लिया, तो उसकी प्राप्तिके लिये आपके द्वारा स्वत: साधन होगा, आपकी स्वाभाविक वृत्ति होगी। कारण उसमें यह है कि आपकी अहंता बदल जायगी। इसमें अभ्यास नहीं है।
अभ्यासका वर्णन गीतामें थोड़ा आता है; जैसे—‘यतो यतो निश्चरति....’(६। २६),‘अभ्यासयोगयुक्तेन....’(८। ८); ‘अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि’ (१२। १०)‘अभ्यासाद्रमते’(१८। ३६)। जहाँ अभ्यासके द्वारा काम होगा, वहाँ जड़ताकी सहायता लेनी ही पड़ेगी। बिना मन, बुद्धिके अभ्यास नहीं होगा। परन्तु जहाँ स्वयंसे काम होता है, वहाँ अभ्यासकी जरूरत नहीं है। आपका विवाह होता है तो उसका अभ्यास करना पड़ता है क्या? मैं विवाहित हूँ—इसके लिये कोई माला जपनी पड़ती है क्या? मान्यतामें अभ्यास नहीं करना पड़ता। उसकी सिद्धि तत्काल होती है।
मैं जो यह कहता हूँ कि तत्काल सिद्धि होती है, इसको समझनेके लिये आपलोग मेरे पीछे नहीं पड़ते कि यह कैसे होगा? मेरे कहनेसे पीछे पड़ जाओ, यह पीछे पड़ना नहीं है। हृदयमें लाग (धुन) लग जाय। कोई गृहस्थ छोड़कर सच्चे हृदयसे साधु हो गया, तो हो ही गया, बस! इसमें अभ्यास नहीं है। क्या वह साधु होनेका अभ्यास करता है? आपकी बेटी क्या अभ्यास करती है कि मैं बहू बन गयी? ‘आप अभी गोरखपुरमें हैं’ तो क्या ‘हम गोरखपुरमें हैं’ इसका अभ्यास करते हो? नींद खुले तो भी मालूम होता है कि मैं गोरखपुरमें हूँ। कोई पूछे तो चट यही बात याद आती है कि मैं गोरखपुरमें हूँ। इसकी एक माला भी जपी है क्या? इसमें देरी नहीं लगती; क्योंकि इसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। अभ्यास करनेमें देरी लगती है।
आपको कर्मयोग और ध्यानयोग—दोनोंकी बात बताऊँ। गीताकी बात है, मेरी मनगढ़न्त बात नहीं।
भगवान् कहते हैं—
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
(२।५५)
‘हे अर्जुन! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।’
कामनाओंको मनोगत कहनेका तात्पर्य है कि मन कामनारूप नहीं है। कामना आगन्तुक है, मनमें आती है। अत: कामना मनमें हरदम नहीं रहती। आप कहते हो कि कामना मिटती नहीं, और मैं कहता हूँ कि कामना टिकती नहीं! दस-पन्द्रह-बीस मिनट भी आपमें निरन्तर कामना नहीं रहती। वह तो छूट जाती है और आप दूसरी कामना पकड़ लेते हो। इसका खूब अध्ययन करना, फिर प्रश्नोत्तर करना, ऐसी कामनाओंका त्याग करना है। किन-किन कामनाओंका त्याग करें? तो कहा ‘सर्वान्’ अर्थात् सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करें। कोई भी कामना न रहे। यह बात आपको जरा भारी लगेगी कि ‘भगवान् मिलें; भगवान्के दर्शन हों’—यह कामना भी न रहे! यद्यपि भगवान्के मिलनेकी उनके दर्शनकी कामना कामना नहीं मानी गयी है। कामना जड़की होती है। चेतनकी कामना नहीं होती, आवश्यकता होती है। परन्तु यह भी न हो।
अब ध्यानयोगकी बात बतायें आपको। भगवान् कहते हैं—
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥
(६। १८)
‘वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे नि:स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी कहा जाता है।’
अब कर्मयोगके (२। ५५) और ध्यानयोगके (६। १८) श्लोकोंका मिलान करके देखें। कर्मयोगमें कामनाओंके त्यागके बाद परमात्मामें स्थिति है और ध्यानयोगमें परमात्मामें मन लगानेके बाद कामनाओंका त्याग है—यह दोनोंमें फर्क है। अब ध्यानयोगमें कामनाओंका त्याग होनेके बाद क्या होगा? ‘यथा दीपो निवातस्थो....’ (६। १९)—जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, हिलती-डुलती नहीं, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसे ही उपमा कही गयी है। ऐसा होनेके बाद चित्त निरुद्ध हो जाता है। जब इस निरुद्ध अवस्थासे भी चित्त उपराम हो जाता है, तब (चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर) ध्यानयोगी अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है—
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥
(६। २०)
चित्त उपराम कैसे होगा? संसारका कोई आदर न होनेसे, निरुद्ध अवस्था (समाधि) होनेसे चित्त संसारमें तो जा नहीं सकता और परमात्मतत्त्वको पकड़ नहीं सकता, इसलिये वह उपराम हो जाता है। उपराम होनेसे अपने-आपमें स्थिति होती है। परन्तु कर्मयोगमें कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल स्वरूपमें स्थिति है।
ध्यानयोगका फल बताया है—‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।’ (६। २३) अर्थात् जिसमें दु:खोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको ‘योग’ नामसे जानना चाहिये। इसीको पहले ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा है। यह योग ध्यानयोगका फल है। ध्यानयोगको, चित्तवृत्तियोंके निरोधको गीताने योग नहीं माना है। गीताने दु:खसंयोगवियोगको अर्थात् जड़तासे सर्वथा वियोगको ही योग माना है। पातंजलयोगदर्शन चित्तवृत्तिनिरोधको योग मानता है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:,’ और उसका फल स्वरूपमें स्थिति बताता है—‘तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्।’ परन्तु गीता आरम्भमें ही स्वरूपमें स्थितिको योग बताती है। पातंजलयोगदर्शनका योग साधनयोग है और गीताका योग सिद्धयोग है। ये कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग सिद्धयोग हैं। तात्पर्य यह है कि ध्यानयोगसे स्वरूपमें स्थिति जल्दी नहीं होती, देरी लगती है, और कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोगसे यह बहुत जल्दी होती है।
गीताके ज्ञानयोगसे सीधी स्वरूपमें स्थिति होती है। उसमें श्रवण-मनन-निदिध्यासन, सविकल्प-निर्विकल्प समाधि, सबीज-निर्बीज समाधि आदि नहीं हैं। समाधि होगी तो दो अवस्थाएँ होंगी—समाधि और व्युत्थान। परन्तु गीताके योगमें व्युत्थान है ही नहीं, क्योंकि यह सहजावस्था है—‘उत्तमा सहजावस्था’ इसमें व्युत्थान होता ही नहीं। यह तत्काल होता है। इसमें देरी कब लगती है? जबतक अन्त:करणमें जड़ पदार्थोंका महत्त्व है, तबतक तत्काल सिद्धि नहीं होती। आपमें जड़ पदार्थोंका महत्त्व नहीं हटा तो इसमें एक मार्मिक बात बताता हूँ। नहीं हटा तो भले ही न हटे, आप संयोगजन्य सुख न लें, इतना खयाल रखें। सुख लोगे तो नया संस्कार पड़ेगा। तो कहते हैं कि एक बार सुख लेनेसे क्या होता है? अरे भाई, नया सुख लेकर नया संस्कार भीतरमें डाल रहे हो। एक ही उद्देश्य बन जाय कि हमें तो परमात्माकी प्राप्ति करनी है, नया सुख नहीं लेना है। सुख आ जाय तो उससे हानि नहीं है। इसमें भी एक मार्मिक बात है। सुख आ गया, हो गया सुख, पर सुख लेना नहीं है। जैसे, भोजन किया तो जीभपर मीठा रखनेसे मिठास आयेगी, मिर्ची रखो तो चरकास आयेगी, नमक रखो तो नमकीनपना आयेगा। इस प्रकार विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे ज्ञान होगा। यह ज्ञान दोषी नहीं है। विकार होना, उससे सुखी-दु:खी होना दोषी है। यह विकार आ भी जाय तो विकारके साथ आप मत होओ। विकारको छोड़ दो। सुख-दु:ख भोगो ही मत। उदासीन हो जाओ। फिर सब ठीक हो जायगा। अगर सुख-दु:ख भोगते रहोगे, राजी-नाराज होते रहोगे, तो इसका संस्कार भीतर बैठ जायगा। फिर वह संस्कार दूर होनेमें देरी लगेगी। इसमें भी थोड़ी छूट बताऊँ कि किसी वक्त व्यवहारमें विकार हो भी जाय तो परवाह मत करो। परन्तु जब विचार करने बैठें, उस समय ‘मेरेमें विकार बिलकुल है ही नहीं’—इसको दृढ़तासे मानो।
‘क्षणपरिणामिनो भावा ऋते चितिशक्ते:।’
एक चितिशक्ति-(चेतन-) के सिवा सब-का-सब क्षण-परिणामी है। अत: वह मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा नहीं है, मेरे लिये नहीं है। इस प्रकार चितिशक्तिमें दृढ़तासे स्थित रहो कि मेरेमें विकार है ही नहीं। उस चितिशक्तिमें जितने दृढ़ रहोगे, उतनी ही आपमें विलक्षणता आयेगी। जिन मन, बुद्धि, इन्द्रियोंको आप वशमें नहीं कर सकते हो, अपनेमें एक कमजोरीका अनुभव होता है, वह कमजोरी नहीं रहेगी। आपको आश्चर्य आये, ऐसा बल आ जायगा। कामको जीतनेकी, क्रोधको जीतनेकी, लोभको जीतनेकी, मोहको जीतनेकी, मात्सर्य-दोषको दूर करनेकी ताकत स्वत: आ जायगी। परन्तु ताकत लेनेके लिये स्थित नहीं होना है। इसका विचार ही नहीं करना है कि हमें ताकत लेनी है। केवल चितिशक्तिमें, अपने स्वरूपमें स्थित होना है कि मेरेमें कोई विकार नहीं है। दिनमें दस बार, पन्द्रह बार, बीस बार, पचास बार, सौ बार, दो-दो, तीन-तीन सेकेण्डके लिये भी इसमें स्थित हो जाओ कि हमारेमें दोष नहीं है। अपने स्वरूपको सँभाल लो—‘संकर सहज सरूपु सम्हारा।’ (मानस १। ५८। ४)। यह तत्काल सिद्धि देनेवाला योग है। इसमें देरीका काम नहीं है। उन ऋषियों आदिको इतना समय लगा, इतने वर्ष लगे—ऐसा देखकर इस बातको रद्दी कर दो तो आपकी मरजी। मेरी प्रार्थना तो यह है कि आप इस बातको मान लो, करके देख लो। अगर देरीमें सिद्धि हो तो देरीवाला साधन तैयार है, उसमें तो हानि होगी ही नहीं; उसे कर लेना। परन्तु मैंने जो बताया है, वह सीधा मार्ग है। उसमें मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिकी कोई जरूरत नहीं है। अन्तमें तत्त्वकी प्राप्ति होगी तो वह वास्तवमें बुद्धिके द्वारा नहीं होगी, बुद्धिके त्यागसे होगी। अहंतापूर्वक नहीं होगी, अहंताके त्यागसे होगी। स्वरूपमें स्थित होनेपर अहंताका त्याग स्वत:स्वाभाविक हो जायगा, और इसका त्याग होनेपर वृत्तियोंको रोकना, मनको लगाना आदि कुछ करना नहीं पड़ेगा आपको। आपको विश्वास नहीं होता तो करके देखो। मैं कहता हूँ बहुत जल्दी होता है। जल्दी होता है ऐसी रीति है। यही रीति है ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (२। ४१) और ‘सम्यग्व्यवसितो हि स:।’ (९। ३०)। भगवान्ने कहा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(९।३०)
अगर कोई सुष्ठु दुराचारी हो, सांगोपांग दुराचारी हो, वह भी अनन्यभावसे भगवान्का भजन करता है तो उसको साधु मान लो। अनन्यभावसे भजन करनेका अर्थ है—कभी किंचिन्मात्र भी अन्यका आश्रय न हो। ‘जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥’(मानस २। १३१)। जहाँ किसीकी भी कामना, किसीका भी आश्रय नहीं है, वह भगवान्का खास अपना घर है। जहाँ जड़ताका आश्रय है, वह भगवान्का अपना घर नहीं है। उसमें भगवान् नहीं बैठे हैं। आपने कामनाओंको घर दे रखा है तो कामनाएँ बैठेंगी वहाँ। किसी भी अवस्थामें, मृत्युकी अवस्थामें, महान् संकटकी अवस्थामें भी कोई चाहना न हो।
ध्यान देना, एक मार्मिक बात बताऊँ। ‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते’ में ‘भजते’ क्रियाका कर्ता है ‘सुदुराचार:’। तात्पर्य है कि वह पहले सुदुराचारी था, यह बात नहीं। जिस समय वह भजन करता है, उस समय वह सुदुराचारी है। अभी दुराचार छूटा नहीं है। परन्तु भीतरमें दुराचारका आदर नहीं है, आश्रय नहीं है। भगवान् कहते हैं कि उसको साधु मान लो—‘साधुरेव स मन्तव्य:’ यह विधि है, आज्ञा है, हुक्म है। हुक्म इसलिये दिया कि ऐसा दीखता नहीं। उसको हम साधु कैसे मानें? आप खुद उसे सुदुराचारी कहते हैं। इसलिये कहते हैं कि उसको साधु ही मान लेना चाहिये—यह हुक्म है हमारा। किस कारण मानें? कि उसने निश्चय पक्का कर लिया— ‘सम्यग्व्यवसितो हि स:’—अपने निश्चयसे कभी डिगता नहीं। कारण क्या है? कि यह स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश है। इसने संसारका, पदार्थोंका निश्चय कर लिया—यही तो गलती है। संसारसे विमुख होकर एक भगवान्का निश्चय कर ले, तो फिर देरी नहीं लगती—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।’(९। ३१) अर्थात् वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो जाता है। उस भक्तका कभी विनाश नहीं होता—‘न मे भक्त: प्रणश्यति’ (९। ३१)। मनुष्य भक्ति करते-करते भी भक्त होता है और अहंताको बदलनेसे भी भक्त होता है। मैं भगवान्का हूँ—इस प्रकार अपनी अहंताको बदल दे तो उसी क्षण भक्त हो जाता है। जैसे, किसी गुरुका चेला हो गया, तो हो ही गया, बस। अब आगे गुरु महाराज जानें। गीताके अन्तमें यही अर्जुनने कहा है—‘करिष्ये वचनं तव॥’ (१८। ७३)। यही शरणागति है, जो तत्काल सिद्धि देनेवाली है।