Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवत्प्राप्ति की सुगमता > तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है

तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है

जो बात हमारी उन्नतिके लिये ठीक नहीं है, सच्ची नहीं है, हमारे लिये लाभदायक नहीं है, उसका त्याग कर दें—इतनी ही बात है, कोई लम्बी-चौड़ी बात नहीं है। त्यागसे तत्काल ही शान्ति मिलती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (१२। १२)। उसमें कोई बाधा लगती हो तो बतायें, जिससे उसपर आपसमें विचार करें। साफ-साफ, सरलतासे कह दें। इसमें मान होगा, अपमान होगा, स्तुति होगी, निन्दा होगी, लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे—इन सब बातोंको छोड़ दें। अगर अपना कल्याण करना हो तो लोग चाहे कुछ भी कहें, कुछ भी करें, उस तरफ ध्यान न दें।

तेरे भावै जो करौ, भलौ बुरौ संसार।
‘नारायन’ तू बैठके, अपनौ भवन बुहार॥

त्यागका, कल्याणका काम अभी करनेका है। यह काम धीरे-धीरे करनेका, कई दिनोंतक करनेका है—यह बात नहीं है। पर लोगोंके भीतर यह बात बैठी हुई है कि यह तो समय पाकर होगा। सज्जनो! मैंने खूब विचार किया है। यह बात भविष्यकी है ही नहीं। भविष्यकी बात वह होती है, जिसका निर्माण किया जाता है। निर्माण करनेमें समय लगता है। परन्तु जो वस्तु पहलेसे ही है, उसमें समय नहीं लगता। वह तत्काल सिद्ध होती है। अत: जो बात हमारी जानकारीमें झूठी है, असत्य है, ठीक नहीं है, लाभदायक नहीं है, उसका त्याग कर देना है, बस। जो त्याग होता है, वह तत्काल होता है। त्याग धीरे-धीरे नहीं होता और ग्रहण भी धीरे-धीरे नहीं होता।

भगवान‍्ने कहा है—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’ (गीता २। १६) ‘असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत् वस्तुका अभाव नहीं होता।’ फिर कहा है—‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥’ अर्थात् इन दोनोंके तत्त्वको तत्त्वदर्शी पुरुषोंने देखा है। देखा है—ऐसा कहा है, किया है—ऐसा नहीं कहा है। करनेमें देरी लगती है, देखनेमें देरी नहीं लगती। अगर देरी लगती है, समय लगता है, तो आपने देखना पसन्द नहीं किया है, करना पसन्द किया है। ज्ञान है, भक्ति है, योग है—ये तत्काल सिद्ध होते हैं। इनकी सिद्धि वर्तमानकी वस्तु है। अगर यह वर्तमानकी वस्तु न हो, अभी सिद्ध होनेवाली न हो, तो फिर सिद्ध कैसे होगी? इसका निर्माण करना नहीं है, कहींसे लाना नहीं है, कहीं ले जाना नहीं है, इसमें कोई परिवर्तन करना नहीं है, फिर इसमें समयकी क्या जरूरत है? इसपर विचार कर लें।

श्रोता—महाराजजी! हमलोगोंमें ऐसा भाव बैठा है कि महाराजजीमें तो त्याग-वैराग्य था, साधना थी, उससे अन्त:करण शुद्ध हो गया तो चटपट काम हो गया। हमलोगोंका अन्त:करण शुद्ध है नहीं, इसलिये यह बात हमारे भीतर बैठती नहीं!

स्वामीजी—आपकी यह बात बिलकुल असत्य है। देखो, मैं आपसे एक बात कहता हूँ। आपको विश्वास दिला दूँ—यह तो मेरी सामर्थ्य नहीं है। यह बात मेरे तो बैठी हुई है; आपके न बैठे, यह बात है ही नहीं। आपका अन्त:करण कितना ही अशुद्ध हो, गीताने कहा है—

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥
(४। ३६)

‘अगर तू सम्पूर्ण पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।’

‘पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:’ कहकर आखिरी हद कर दी! इतना संस्कृतका बोध तो बहुतोंको होगा कि ‘पापेभ्य:’ शब्द बहुवचन होनेसे सम्पूर्ण पापियोंका वाचक है, फिर भी इसके साथ ‘सर्वेभ्य:’ शब्द दिया। ‘सर्वेभ्य:’ शब्द भी सम्पूर्णका वाचक है! अब विचार करें कि ये दोनों शब्द देनेके बाद भी भगवान‍्ने ‘पापकृत्तम:’ शब्द और दिया है, जो अतिशयताबोधक है। पहले ‘पापकृत्’ होता है, फिर ‘पापकृत्तर’ होता है और फिर ‘पापकृत्तम’ होता है। यह आखिरी बात है। सम्पूर्ण संसारमें जितने भी पापी हो सकते हैं, उन सम्पूर्ण पापियोंसे भी अत्यधिक पापी! उसका अन्त:करण कितना अशुद्ध होगा, बताओ? क्या आपके यह जँचती है कि मैं भी ऐसा ही पापी हूँ? नहीं जँचती न? भगवान् बताते हैं कि ऐसा महान् पापी भी ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है। ऐसा कहकर फिर आगेके श्लोकमें कहते हैं—

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥
(४। ३७)

‘हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है।’

बहुत भभकती हुई जोरदार आग हो, मामूली आग नहीं, उसके लिये ‘समिद्ध: अग्नि:’ शब्द दिये। ‘अग्नि:’ शब्द एकवचन है। उसके साथ बहुवचन शब्द ‘एधांसि’ (ईंधन) दिया। भस्मके लिये ‘भस्मसात्’ शब्द कहा। ‘भस्मसात्’ का अर्थ होता है—सर्वथा भस्म कर दे, उसकी राख भी न बचे। इस तरह ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण पापोंको भस्मसात् कर देती है। पहले कहा कि ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे तर जायगा। दूसरा दृष्टान्त इसलिये दिया कि समुद्रसे तरनेपर समुद्रका अभाव नहीं होता, समुद्र रह जाता है। उस रह जानेके सन्देहको मिटानेके लिये दूसरा दृष्टान्त दिया कि ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है, कोई पाप बाकी नहीं रहता। यहाँ ‘कर्माणि’ कहनेसे भी काम चल जाता, फिर भी इसके साथ ‘सर्व’ शब्द दिया। तात्पर्य है कि संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध—सभी कर्मोंका नाश हो जाता है। अब इसमें देरीका क्या काम?

श्रोता—महाराजजी! आप जो बात कहते हैं, वह युक्तिसे ठीक जँचती है, पर अकसर अपने अन्त:करणकी स्थिति देखकर मन बिलकुल डाँवाडोल हो जाता है कि यहाँ तो पोल है सारी!

स्वामीजी—अब ध्यान देकर सुनना। अन्त:करण ‘करण’ है कि ‘कर्ता’ है? यह तो करण है और तत्त्व करणसाध्य (करणसे प्राप्त होनेवाला) नहीं है, वह तो करणनिरपेक्ष है। अगर वह करणसाध्य होता तो हम आपकी बात मान लेते कि हाँ, ठीक है। करणसाध्य वह होता है, जिसका निर्माण किया जाता है, जो कहींसे लाया जाता है, कहीं ले जाया जाता है, जिसमें परिवर्तन किया जाता है। इस तरह जिसमें क्रियाके द्वारा कुछ-न-कुछ विकृति आती है, वहाँ करण काम करता है। जिसमें विकृति नहीं आती, उसमें करण काम नहीं करता। तत्त्वप्राप्तिमें करणकी अपेक्षा नहीं है। करणसे तो सम्बन्ध-विच्छेद करना है। अरे भाई! जिसको छोड़ना है, उसको शुद्ध और अशुद्ध क्या करना? शुद्ध है तो छोड़ दिया, अशुद्ध है तो छोड़ दिया।

श्रोता—महाराजजी! ‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४। २४), ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ (गीता १२। १३) आदि लक्षण दीखें, तब मालूम दे कि अन्त:करण शुद्ध हुआ है। वैसे लक्षण दीखें नहीं तो यही दीखता है कि कुछ नहीं हुआ।

स्वामीजी—देखो, मैंने कल रात भी कहा था और अब भी कहता हूँ। यह तो आपको विश्वास है कि मैं आपको धोखा नहीं देता हूँ?

श्रोता—हाँ, विश्वास है।

स्वामीजी—तो मैं आपको कहता हूँ कि आप भले ही कितने ही पापी हों, बड़े भारी पापी हों, पर अभी बोध हो सकता है। यह बात केवल मेरे लिये नहीं है। मेरे लिये होती तो आपको क्यों कहता? आपके लिये, मेरे लिये—दोनोंके लिये यह बात है। हमारे पापोंका कितना ही बड़ा दर्जा हो, कितनी ही डिग्रीका पाप हो, इससे कोई मतलब नहीं। सभी पाप भस्मसात् हो जाते हैं।

श्रोता—पापकी वासना भी उठती जाती है महाराजजी!

स्वामीजी—पापकी वासना उठती है तो उठने दो। यह मेरी एक बात मान लो आप। पापकी मनमें आये तो आने दो, खराब संकल्प आये तो आने दो। आप इनसे डरो ही मत। इनकी कसौटी कसो ही मत। पाप टिक ही नहीं सकेंगे, भस्म हो जायँगे अपने-आप। पाप करणके ऊपर नहीं टिके हुए हैं। पाप कर्ताके ऊपर टिके हुए हैं। इसलिये करण शुद्ध नहीं है—इसकी क्यों चिन्ता करते हो आप। कर्ता शुद्ध हो जाय तो करण आप-से-आप शुद्ध हो जायगा। इसपर विचार करो कि कर्ता शुद्ध होनेपर करण अशुद्ध कैसे रहेगा? आप अगर ठीक हैं, तो क्या कलम गलत लिखेगी? कलम तो करण है और आप कर्ता हैं। गीताने ‘अपि चेदसि’ ‘अगर तू ऐसा है’—यह कहा है। ‘अगर करण ऐसा है’ यह नहीं कहा है।

आप इतने बैठे हैं। इनमें कोई भी ऐसा बिलकुल नहीं मान सकता कि मैं तो संसारके सम्पूर्ण पापियोंसे भी अधिक पापी हूँ। एक नम्रता-प्रदर्शनके लिये भले ही कह दो कि ऐसा पापी मैं हूँ, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’; परन्तु आपके हृदयमें जैसे ‘तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है’ यह बात नहीं जँचती, ऐसे ही हृदयमें यह बात भी नहीं जँचती होगी कि मैं सबसे अधिक पापी हूँ। कोई मान ही नहीं सकता कि महाराज सत्संग करते हैं, नाम-जप करते हैं, पाठ-पूजन करते हैं, सन्ध्या-गायत्री करते हैं; कुछ-न-कुछ करते ही हैं। फिर यह कैसे मान लें कि हम सबसे अधिक पापी हैं? अगर ऐसा हो, तो जलन पैदा हो जायगी। जलन पैदा होगी तो तत्काल कल्याण हो जायगा, देरी नहीं लगेगी। यह जो जलन है, इसमें पापोंका नाश करनेकी बहुत शक्ति है।

श्रोता—महाराजजी! संस्कार ऐसे बैठे हुए हैं कि साधनासे ही होगा; भजन, जप, कीर्तनसे ही होगा। बार-बार पुस्तकोंमें भी ऐसा ही पढ़ते हैं, जिससे यह बात भीतरमें कूट-कूटकर बैठी हुई है।

स्वामीजी—पुस्तकें मैंने भी पढ़ी हैं। मैंने पुस्तकें नहीं पढ़ी हों, ऐसी बात नहीं है। परन्तु मैं जो बात कहता हूँ, वह भी पुस्तकोंसे ही कहता हूँ। अभी मैंने जो दो श्लोक गीताके कहे हैं, इसमें समय लगनेकी बात कहाँ आती है? यह बात जैसे यहाँ ज्ञानमें कही गयी है, ऐसे ही भक्तिमें भी कही गयी है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।’

दोनों ही जगह (४। ३६ और ९। ३० में) ‘अपि चेत्’ पद आये हैं। तात्पर्य है कि ऐसा तू नहीं है; परन्तु अगर तू अथवा दूसरा कोई ऐसा हो भी जाय, तो भी कल्याण हो जाय। अगर ऐसा नहीं है, तो फिर बात ही क्या है! ‘साधुरेव स मन्तव्य:’ ‘उसे साधु ही मान लेना चाहिये’ ऐसा कहनेका क्या अर्थ है? तुम्हारेमें साधुपना नहीं दीखता, ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ नहीं दीखता, तो भी मान लो। ज्ञानमें तो जान लो और भक्तिमें मान लो। ये दोनों बातें तत्त्वसे जाननेके अन्तर्गत आती हैं।

तत्त्वसे मान लेनेका नाम ही जानना है। मान लेनेका जो प्रभाव है, वह जाननेसे कम नहीं है। जैसे, बालक मान लेता है कि यह मेरी माँ है। यह मानी हुई बात है, जानी हुई, अनुभव की हुई बात नहीं है। ‘यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।’ (गीता १०। ३) यहाँ ‘वेत्ति’ का अर्थ मानना है, जानना नहीं; क्योंकि मनुष्य भगवान‍्को अनादि जानेगा कैसे? इसे तो मानेगा ही। ऐसे ही ‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।’ (४। ९) इसमें भी माननेकी बात है; क्योंकि भगवान‍्के जन्म और कर्मको वही जान सकेगा, जो भगवान‍्के जन्म और कर्मसे पहले होगा। भगवान‍्के जन्म और कर्म (उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करने आदि)-से पहले कौन हुआ है? अत: यहाँ ‘तत्त्वत: वेत्ति’ का अर्थ दृढ़तापूर्वक मानना ही है। ‘भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा.....’ (५।२९) इसमें भी ‘ज्ञात्वा’ माननेके अर्थमें आया है।

श्रोता—इसमें महाराजजी, परोक्ष ज्ञान और अपरोक्ष ज्ञान....?

स्वामीजी—देखो, अभी आप पुस्तकोंकी कोई बात मत लाओ। पुस्तकोंका प्रमाण देकर मेरेको चुप करना चाहोगे, तो मैं चुप हो जाऊँगा। और क्या होगा? परन्तु नतीजा क्या निकलेगा? अपनी समस्या उलझेगी, सुलझेगी नहीं। मैं साफ कहता हूँ कि ज्ञान परोक्ष होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं। ज्ञान अपरोक्ष ही होता है। ज्ञान होगा तो वह परोक्ष कैसे होगा? और परोक्ष होगा तो वह ज्ञान कैसे होगा? अनुभूति दो कैसे होगी? जानना दो कैसे होगा? इसपर भी खूब विचार करो, मैंने किया है ऐसा। ग्रन्थोंसे लाभ होता है, पर नुकसान ज्यादा होता है। यह बात तो नास्तिकताकी दीखती है। परन्तु मेरा विचार ऐसा ही हुआ है। अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं तो अभी-अभी इन बातोंको छोड़ दो। अनुभूति परोक्ष होती ही नहीं।

श्रोता—किसी चीजको मान लिया, तो यह हुआ परोक्ष ज्ञान....।

स्वामीजी—यह मानी हुई बात है ही नहीं, यह तो सीखी हुई बात है। मानी हुई बात और होती है, सीखी हुई बात और होती है, जानी हुई बात और होती है। तोता ‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ कहना सीख लेता है तो वह परोक्ष-ज्ञानी हो गया! परोक्षज्ञान हो ही नहीं सकता। जो परोक्ष है, वह ज्ञान कैसे? अन्त:करण, इन्द्रियाँ ‘अक्ष’ हैं, इससे ‘पर’ होगा, वह ज्ञान कैसे होगा? यह तो एक प्रक्रिया है। प्रक्रियाके अनुसार चले तो यह भी ठीक है। इस प्रक्रियामें पहले विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षा—इस साधन-चतुष्टयसे सम्पन्न हो। फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन करे। फिर तत्त्वपदार्थ संशोधन करे। यह बहुत लम्बा रास्ता है। इसमें तत्काल सिद्धि नहीं होती।

श्रोता—महाराजजी! आपने कहा कि हम शरीर नहीं हैं; शरीर आत्मासे भिन्न है। आपके कहनेसे हमने इसको मान लिया।

स्वामीजी—यह मानना मानना नहीं है बाबा, यह सीखना है। मेरी बात याद रखो कि यह मानना है ही नहीं। अनुभूति चाहे न हो, पर मान्यता दृढ़ होनी चाहिये। जैसे पार्वतीजीकी नारदके उपदेशपर दृढ़ मान्यता थी—

जन्म कोटि लगि रगर हमारी।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू।
आपु कहहिं सत बार महेसू॥
(मानस १। ८१। ३)

भगवान् शंकर भी कहें, तो भी नारदजीके उपदेशको नहीं छोड़ूँगी। भगवान‍्से भूल हो सकती है, पर नारदजीसे भूल नहीं हो सकती। इसको कहते हैं मानना। शरीर और मैं दो हैं। ब्रह्माजी भी कह दें कि शरीर और तुम एक हो, तो उनकी भूल हो सकती है, पर हमारी नहीं हो सकती। हमारी समझमें न भी आये, तो भी बात तो ऐसी ही है। इस प्रकारकी दृढ़ मान्यता ज्ञानके समान उद्धार करनेवाली है। यह परोक्ष नहीं है। आपने विवाह किया तो स्त्रीको अपनी मान लिया। अब इसमें सन्देह होता है क्या? विपरीत धारणा होती है क्या? बताओ। माननेके सिवाय और इसमें क्या है? स्त्री सती हो जाती है, आगमें जल जाती है—केवल माननेके कारण। जलनेपर भी आग बुरी नहीं लगती।

हरदोई जिलेमें इकनोरा गाँव है। उस गाँवमें अभी एक सती हुई। करपात्रीजी महाराजने बताया कि मैंने खुद जाकर उस स्थानको देखा है और बात सुनी है। पति दूर था और लड़की अपने मामाके यहाँ थी। उसने पतिकी बीमारीका हाल सुना। फिर उसको मालूम हुआ कि वे मर गये, तो कहा कि मुझे जल्दी पहुँचा दो। फिर कहा कि अब मैं वहाँ पहुँच नहीं सकती; क्योंकि उनकी दाहक्रिया पहले ही हो जायगी। मैं तो यहीं सती हो जाऊँगी। सबने ऐसा करनेसे रोका। रात्रि थी। दीया जल रहा था। उसने दीयेपर अँगुली रख दी। वह अँगुली यों जलने लगी, जैसे मोम जलती हो। उसने कहा कि मेरेको यहाँ रखोगे तो तुम्हारा घर जल जायगा। इसलिये मुझे बाहर जाने दो। उन्होंने कहा कि अच्छा, तुम्हें जाने देंगे, तो उसने यों दीवारसे रगड़ करके अँगुली बुझाई। करपात्रीजीने कहा कि जहाँ अँगुली बुझाई, वह जगह मैं देख करके आया हूँ। दीवारपर उसके निशान थे। लड़कीको घरवाले बाहर ले गये, पर कहा कि हम न लकड़ी देंगे, न आग देंगे। नहीं तो आफत हो जाय कि आदमी जला दिया। उसने भगवान् सूर्यसे प्रार्थना की कि महाराज! आप मुझे आग दो। वह वहीं खड़ी-खड़ी जल गयी! पासमें पीपलका वृक्ष था, वह आधा जल गया। वहाँके मुसलमानोंने बताया कि हमने देखा है। अब उसमें कौन-सा ज्ञान था, बताओ? वे चले गये, अब मैं नहीं रह सकती। उन्हींकी अंश हूँ मैं। उनकी दाहक्रिया हो गयी, मेरी कैसे नहीं होगी? इसको मान्यता कहते हैं। सुन लिया और सीख लिया—इसका नाम मान्यता नहीं है। इसका नाम सीखना है। सीख करके व्याख्यान दे देते हैं, खूब पुस्तकें लिख देते हैं।

ज्ञान अपरोक्ष ही होता है, परोक्ष होता ही नहीं। मैंने इस बातपर विचार किया है, और इससे बढ़कर मैं क्या कहूँ? एकदम तत्काल सिद्धि हो जाती है, ऐसी बात है यह। एक दूसरी बात कहता हूँ। आपकी मान्यतासे आपको लाभ है या मेरी मान्यतासे आपको लाभ है? आपको लाभ किस बातमें है? आप अभी परोक्ष-अपरोक्ष लिये बैठे हो, ऐसी मान्यतासे लाभ है या मैं जो कहूँ, उस बातसे लाभ है? लाभकी बात भी नहीं समझते आप! अगर धोखा होगा तो आज दिनतक कौन-सा अच्छा काम हुआ है? धोखा ही हुआ है। एक मेरे कहनेसे और धोखा हो जायगा! परन्तु मैं कहूँ, उसमें धोखा होगा नहीं, हो सकता नहीं, होना सम्भव ही नहीं। एकदम सच्ची बात है।

पंढरपुरमें चातुर्मास किया, तो उसमें मैंने यह बात कह दी कि तत्काल सिद्धि हो जाती है। उन्होंने यही कहा कि ऐसा नहीं होता है। अभिमानकी बात है, मैंने जोर देकर कह दिया कि मराठी भाषा मेरेको आती नहीं और यहाँके सन्तोंकी वाणी मैंने पढ़ी नहीं। परन्तु मेरा विश्वास है कि यहाँ जो एकनाथजी महाराज, तुकारामजी महाराज, ज्ञानेश्वरजी महाराज आदि अनुभवी सन्त हुए हैं, उनकी वाणीमें तत्काल सिद्धिकी बात जरूर आयेगी। उनकी वाणीमें यह बात आये बिना रह सकती नहीं। इतनेमें एक आदमी बोला कि हाँ, अमुक-अमुक जगह तत्काल सिद्धिकी बात आती है।

गीता कह रही है—‘अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।’ इसको मान लो। इस बातकी उलझन मत रहने दो। अन्त:करण अशुद्ध होनेपर भी ज्ञान हो सकता है। अन्त:करण सर्वथा शुद्ध होनेपर बाकी क्या रहा? अन्त:करणको शुद्ध करना और अन्त:करणसे सम्बन्ध-विच्छेद करना—यह दो चीजें हैं। बड़े, जोरसे कहता हूँ कि अन्त:करणको अपना मानकर शुद्ध करोगे तो नहीं होगा शुद्ध। क्यों नहीं होगा? मेरा अन्त:करण है—यही अशुद्धि है। गोस्वामीजीने ममताको ही मल कहा है—‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७। ११७ क)। मल लगाकर धोते हो, शुद्ध करते हो, तो होगा शुद्ध ? ममता रखोगे तो अन्त:करण कभी शुद्ध नहीं होगा। गीताने भी ममता छोड़नेके लिये कहा है—‘निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति’ (२। ७१)।

अगला लेख  > अन्त:करणकी शुद्धिका उपाय