भगवान् की न्यायकारिता एवं दयालुता
किसी भाईने पूछा भगवान् दयालु हैं या न्यायकारी हैं। हम तो यह मानते हैं कि वे दयालु भी हैं, न्यायकारी भी हैं। दो बात एक जगह कैसे रह सकती है? मनुष्यमें भी रह सकती है, फिर भगवान् में रहनी कौन कठिन बात है।
जब न्याय ही करते हैं, कर्मोंके अनुसार ही फल देते हैं तब दया क्या रही? भक्ति करनेवालोंको दर्शन देते हैं यह तो खुशामद करवाना है, दया क्या रही। दया तो उसका नाम है भक्ति चाहे कोई करे चाहे न करे, मुक्ति दे ही दें। न्याय उसका नाम है खुशामद नहीं कराना। काम कराकर देना यह दया भी नहीं है। थोड़ा विचारना चाहिये। भगवान् की दया तो अहैतुकी है, वहाँ खुशामदका काम नहीं है। जैसे गंगाका जल बह रहा है वे खुशामद नहीं करातीं। ऐसे ही भगवान् की दयाकी धारा रात-दिन बहती है। गंगा तो परमिति है, किन्तु उनकी दया अपरिमित है। गंगा एक देशमें बहती है एवं भगवान् की दया सारे देशोंमें बहती है।
फिर उद्धार क्यों नहीं हो जाता? लोग चाहते नहीं, गंगामें जो स्नान करेगा उसका ही कल्याण होगा, इसी प्रकार दयाको जानना ही स्नान करना है। आप कहें कि प्रभुकी दया है यह तो हम जानते हैं। फिर भी चिन्ता, भय, शोक होता है? इसका उत्तर है कि तुम जानते नहीं, जब तुम जान जाओगे तो इतनी शान्ति मिलेगी, जिसका पार नहीं रहेगा।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)
मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।
जाननेमात्रसे कल्याण है, करना कराना कुछ नहीं है। जानना भी यह कि प्रभुकी हमपर कृपा है। प्रभुकी दयाको याद करनेसे कितनी प्रसन्नता होती है। प्रभु सुहृद् हैं, हेतुरहित दया करनेवाले हैं। उनकी दया, उनका प्रेम हेतुरहित है। प्रभुने कानून रखते हुए इतनी दया भर दी। कानून क्या रखा?
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भावसे भावित रहा है।
जिस जिस भावको याद करता हुआ जाता है, वही-वही बन जाता है, यह कानून है। अन्त समयमें जो भाव होता है उसीके अनुसार भावी शरीर हो जाता है। फोटो उतारनेवाला फोटो उतारता है। एक, दो, तीन कहा फोटो उतर गया, उतारकर ला दिया। फोटो खराब था, मैंने पूछा यह क्या हुआ? याद किया तो याद आया एक मक्खी बैठ गयी थी, उसे उड़ानेके लिये हमने हाथ मुुँहपर कर दिया। दस रुपये लगे, दूसरा फोटो उतार लिया, किन्तु तुम्हारा यह जो फोटो बिगड़ जायगा, लाख रुपये खर्च करनेपर भी दूसरा नहीं बन पायेगा। मरनेके समयके शेष क्षण मूल्यवान् हैं, उसमें जिस भावको याद करोगे उस भावकी प्राप्ति होगी। जो गधेको याद करता हुआ जाता है, वह गधा बनता है, प्रभुको याद करता हुआ जाय तो प्रभुको प्राप्त हो जाय। इसमें भगवान् ने क्या अन्याय कर दिया? खुशामद भी नहीं है, कैसी भारी छूट है। किस रूपमें छूट लाकर रखी, जिसमें न्याय भी कायम रह गया एवं दया भी कायम रह गयी।
राजाके यहाँ भी अन्तकालमें दयाकी छूट मिलती है, किन्तु इतनी नहीं। फाँसी पानेवाला जो चीज माँगता है वह लाकर दी जा सकती है। भगवान्ने यह कानून बना दिया जो माँगे वही मिलेगा। जिसको याद करोगे वही मिलेगा। तुम्हारी इच्छा है तुम्हें जो चाहिये सो ले लो। जानवरकी आवश्यकता है तो जानवर, पहाड़की आवश्यकता है तो पहाड़, भगवान् की आवश्यकता है तो भगवान्, जो चाहे ले लो। इसमें न्याय भरा हुआ है, दया भरी है।
दया तो यह है कि महान् पापीसे पापी भी अन्तकालमें भगवान् को याद कर ले तो बेड़ा पार है। आप कहें अन्तकालमें भगवान् का स्मरण तो कठिन है। इसे आप सुगम कर लें, भगवान् कहते हैं—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)
जो पुरुष अनन्यचित्तसे निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उसके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ, इसलिये वे कहते हैं—
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता ८। ७)
तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरेमें अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ नि:सन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा। तुम खतरेमें जाओ ही क्यों, निरन्तर उनका स्मरण करो।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥
(गीता १२। ९)
यदि तू मनको मुझमें अचल स्थापन करनेके लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योगके द्वारा मुझको प्राप्त होनेके लिये इच्छा कर।
भगवान् कहते हैं तुम मेरेको प्राप्त होओगे इसमें शंका नहीं है।
सुगम बताकर निरन्तर भजन तो ले ही आये, यह बात क्यों है? माताका वात्सल्य भाव रहता है। वह अपने लड़केको दु:खी देखना नहीं चाहती। माँ रसोई बनाती है लड़का लालटेनके पास जाता है तो उसे जाकर उठा लेती है।
साँप, बिच्छू होता है तो भगा देती है। हठ करनेपर माता बालकको भुलाकर मेवा-मिष्टान्न देती है, उसे हृष्ट-पुष्ट करती है। भगवान् का भजन-ध्यान असली मेवा मिष्टान्न है। यह पैदा होता है भगवान् की भक्तिसे।
भगवान् खुशामद नहीं कराते। माँ जिस प्रकार बालकको मेवा-मिष्टान्न खिलाती है, इसी प्रकार भगवान् भजन-ध्यानरूपी मेवा खिलाना चाहते हैं। माँ लड़केको लड्डू देती है लड़का गिरा देता है। तब माँ नाराज नहीं होती। कहती है बेटा खाओ मीठा है। भगवान् भी इसी प्रकार साँप, बिच्छूसे अलग करके भजन, ध्यानरूपी मेवा-मिष्टान्न खिलाते हैं। तुम लड्डू छोड़ते हो बिच्छू पकड़नेके लिये। तुम्हारी दशा तो ऐसी है जैसे पतिंगा आगमें जाकर स्वाहा हो जाता है, इसी प्रकार स्त्री, पुत्र, संसारमें कूदकर स्वाहा हो रहे हो। पतिंगेको नेत्रोंमें आनन्द मिलता है, उसे पता नहीं रहता कि वह जलकर भस्म हो जायगा। इसी प्रकार पुरुष स्त्रीको सुन्दर जानकर उनके निकट जाते हैं और स्वाहा हो जाते हैं, बल, वीर्यका नाश हो जाता है। इस जन्ममें बीमारीसे मरते हैं तथा मरकर नरकमें जाते हैं। पतिंगा तड़प-तड़पकर मरता है। इसी प्रकार मनुष्य तड़प-तड़पकर मरता है।
माँ देखती है मेरे लड़केको बिच्छू न काट ले, इसी प्रकार भगवान् विषयरूपी बिच्छूसे बचाते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
मनुष्य-शरीरको पाकर जो भोगोंमें मन लगाता है वह मूर्ख है।
भगवान् ने गीतामें बताया है इन्द्रियजन्य सुख आरम्भमें तो अमृतके समान प्रतीत होता है,किन्तु परिणाममें विषके समान है।
भगवान् का दर्शन, भाषण अमृतके समान है। माँ विष कैसे खाने दे। इसी प्रकार भगवान्रूपी माँ विष कैसे खाने दे। वे मधुर रस पिलाते हैं। भगवान् का भजन ही असली रस है। विषय कुरस है।