गरीबका कल्याण कैसे हो?
प्रवचन—दिनांक १५-७-१९४२, प्रात:काल, गोरखपुर
यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि पैसेवाले लोग ही कर सकते हैं, फिर गरीबका कल्याण कैसे हो। गरीबका उद्धार पैसेसे भी हो सकता है, बिना पैसेके भी हो सकता है।
पूजनका नाम भी यज्ञ है, भजन करना और पूजन करना दोनों ही यज्ञ हैं। देवता भावके भूखे हैं न कि यज्ञके। पितर लोग वाणीकी शुद्धि चाहते हैं। भगवान् तो भावके भूखे हैं।
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणै:
भक्तिप्रियो माधव:।
रामहि केवल प्रेमु पियारा।
जानि लेउ जो जाननिहारा॥
भगवान् को क्रिया, पदार्थ, विधि प्यारी नहीं है, प्रेम प्यारा है। विदुरकी स्त्री केलेका छिलका खिला रही थी, भगवान् को प्रेमके कारण छिलका अच्छा लगता है। देवता लोग भाव प्रिय हैं। भगवान् कहते हैं—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता ९। २६)
जो कोई मेरे लिये प्रेमसे पत्र, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।
बिना प्रेम भगवान् नहीं रीझते। पत्र, पुष्प, जलमें तो पैसाका काम नहीं, फलमें लग सकता है। फल न मिले तो जलसे ही प्रसन्न हो जाते हैं। तुलसीके पत्रसे प्रसन्न हो जाते हैं। सारी दुनियाकी जिससे तृप्ति हो, वह महायज्ञ है। ऐसे पाँच महायज्ञ हैं। एक पैसेमें पाँच महायज्ञ हो जाते हैं। अश्वमेध-यज्ञ करनेसे इन्द्र बने, परन्तु इन पाँच महायज्ञसे तो इन्द्रसे बढ़ जाय। राजसूयसे इन्द्रकी पदवी मिलती है। यह पंच महायज्ञ यदि सकामभावसे करें तो ब्रह्मलोकतक जा सकता है, जो इन्द्रलोकसे ऊपर है और निष्कामभावसे करे तो परमधाममें चला जाय।
घरमें जितनी रोटी बनायी, दो रोटी निकाल दी, इससे घरभरका पंचमहायज्ञ हो गया। विस्तारसे करे तो चार पैसे लगे। एक पैसेमें करे, सूक्ष्ममें ही हो, सारे संसारको भोजन कराकर भोजन करे, वह बलिवैश्वदेव है। उसमें पाँच महायज्ञ हैं—१.देवयज्ञ, २.ऋषियज्ञ, ३.पितृयज्ञ, ४.अतिथियज्ञ, ५.भूतयज्ञ। नमकरहित एक मुट्ठी चावल लेकर पाँच आहुति अग्निमें बलिवैश्वदेवका मंत्र पढ़कर डाल दे। एक छदाममें देवयज्ञ हो गया। परमात्माको अर्पणसे सबकी तृप्ति हो गयी, क्योंकि भगवान् के तृप्त होनेसे सारे विश्वकी तृप्ति हो गयी। ब्रह्मकी तृप्तिसे सबकी तृप्ति हो गयी। इस प्रकार बलिवैश्वदेव करनेसे सबकी तृप्ति हो गयी।
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(गीता ३। १३)
यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीरपोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पापको ही खाते हैं।
भोजन बनाकर सबको अर्पण करके भोजन करे तो वह अमृत है। ऐसा करनेवाले सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। घरमें भोजन बना वह सबको अर्पण करके खानेसे सबकी तृप्ति हो जाती है। जो अपने लिये ही खाता है, वह पुरुष पापको खाता है। वह चोर है, उसका जीना व्यर्थ है। इसमें बहुत मामूली खर्च है। बलिवैश्वदेव करनेसे मनुष्य और पितरोंकी तृप्ति हो जाती है। इस प्रकार सारे संसारकी तृप्ति हो जाती है। भोजनके बाद जल चाहिये इसके लिये पितृयज्ञ है। पहले ब्रह्मासे शुरू करते हैं फिर ऋषियोंको पुन: मनुष्यको तृप्त करते हैं, पुन: पितरोंको, कीट-पतंगादि भूतोंको—इस प्रकार यावन्मात्र चराचर भूतोंकी तृप्ति होती है। भगवान् सूर्यको अर्घ्य दिया जाता है। सूर्यको दिया हुआ जल सूर्यकी किरणोंको प्राप्त होकर वर्षाके द्वारा सारे संसारकी तृप्ति हो जाती है। सूर्यभगवान् निमित्त बनकर वह जल सारे संसारके लिये दे देते हैं। एक पैसेके तिलसे एक महीनेका काम चल जाय। पितृयज्ञमें भी पाँचों यज्ञ हैं। देव, ऋषि, मनुष्य, पितृ, भूत आदि पाँचों यज्ञ हर एक यज्ञमें है। यह महायज्ञ है। यह गरीबसे भी गरीब कर सकते हैं। आठ आदमी खानेवाले हैं। आठ या चार तोला अन्न बचा लो। जलमें तो पैसा भी नहीं लगता।
तीसरा यज्ञ स्वाध्याय यज्ञ है इसमें जलका भी काम नहीं है। गीतामें कहा है। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च। यह भी महायज्ञ है। इसमें भी सब यज्ञ आ गये। गायत्री मन्त्र स्वाध्याय, उपस्थानमें जो सूर्यका मन्त्र है वह भी स्वाध्याय है। इसमें प्राणिमात्रके कल्याणकी भावना है। गायत्रीमें भी धियो यो न: प्रचोदयात् इसका भी यही तात्पर्य है कि सबका कल्याण हो जाय। मेरे द्वारा सबका कल्याण हो तो हमारा बाकी नहीं रह सकता। एक जीवका भी मेरे द्वारा कल्याण हो जाय तो भी मैं बाकी नहीं रह सकता। यह पाँच महायज्ञ सब लोग कर सकते हैं। स्वाध्यायके लिये पैसेवाले अधिक पुस्तक मँगा लें और जिसके पास पैसा नहीं उसके लिये एक गीतासे ही काम बन जाय, इससे ऋषिलोग प्रसन्न होते हैं।
देवयज्ञ—विशेष रूपसे देवयज्ञ करना है। काठकी लकड़ी नौ टुकड़ा प्रात:, नौ सायंकाल, डेढ़ तोला दही सायं, डेढ़ तोला प्रात: दहीकी ही आहुति करें। छ: मासा दही एक बारमें करें। लकड़ी जंगलसे आमकी ले आवें। एक पैसेमें दो सेर लकड़ी आमकी मिल जाय, एक पैसेमें एक महीनेका काम चल जायगा। एक सेर दहीमें महीनों चलेगा। इसमें जो आहुति दी जाती है, वह सूर्यको प्राप्त हो जाती है। वह सारे दुनियामें जलरूपसे वर्षा कर देते हैं। सबके लिये स्वर्गकी आकांक्षा करे तो स्वर्ग मिले, वर्षाके लिये करे तो वर्षा हो। हम शुद्ध भावसे जल बरसनेके लिये करें तो जल बरस जाय। इस प्रकार यज्ञ करके सबके लिये स्वर्गकी कामनासे या वैकुण्ठके लिये करें तो सबका कल्याण हो जाय। सबके कल्याणके लिये करना महायज्ञ है।
पाँचवाँ अतिथि यज्ञ है। गृहस्थके यहाँ अतिथि आये उसे अपनी सामर्थ्यके अनुसार एक मुट्ठी अन्न ही दे दे। यह भी नहीं दे सके तो मीठे वचनसे, स्वच्छ भूमि और जलसे सत्कार करे। खूब मीठे वचन, बैठनेके लिये भूमि, आसन और जल इससे ही काम बन जाय। अन्न न हो तो जलका गिलास लाकर दे दो। अपनेको गरीब बताकर मीठे वचनसे सेवा करे। यह मनुष्य-यज्ञ है। इसमें मनुष्यका सत्कार है। यज्ञ एक पैसेसे ही हो जाय और बिना पैसे भी यज्ञ हो जाय। धर्मपालन सब कर सकते हैं। यदि पैसेवाले ही कर सकें तो गरीब क्या करे। गरीबके लिये यही यज्ञ है कि मीठा वचन, जल आदिसे काम बन जाता है। आसनके लिये जंगलसे कुशा काट लाओ और बना लो। यज्ञ, दान, तप, सेवा गरीब-से-गरीब भी कर सकता है। यह यज्ञ ऐसा ही है। युधिष्ठिरके यज्ञसे भी बढ़कर है।
नारायण नारायण नारायण।