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कर्म, सेवा और पूजा

११-४-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर

परतन्त्रता दीखती है तो अभिमानके कारण दीखती है। अभिमान नहीं रखना है। अपनेको कोई कहे, वैसा करनेमें बहुत आनन्द है। कहे जैसा करनेमें अपनेपर कुछ जिम्मेवारी नहीं रहती किंचिन्मात्र भी अपनेपर आफत नहीं रहती। कहे ज्यों कर दें बोलो! इसमें तनिक भी परतन्त्रता मालूम देती है? परतन्त्रता है ही नहीं इसमें। अभिमानके कारण परतन्त्रता प्रतीत होती है। बड़ी स्वतन्त्रता, बड़ी आजादी है इसमें। कह दिया, वैसा कर दिया, बस। अपनेपर कोई जिम्मेवारी नहीं किंचिन्मात्र जिम्मेवारी नहीं। न पहले, न उस समय, न पीछे। ‘तूने ऐसा कैसे कर दिया?’ कि ‘कह दिया, इसलिये कर दिया।’ अभिमानके कारण यह बात समझमें नहीं आती। मौज बहुत है इसमें बोलो! इसमें शंका करो अरे भाई! सीधी-सी बात है। कौन-सी गूढ़ पंक्ति है?

करना पड़ता है अभिमानीको। अभिमान आया है न भीतर, वह चुभता है, वह करने नहीं देता, बुरा लगता है। साइकिलको घुमा लें गोल-गोल तो घूम जावे, सीधी चलावे, खड़ी कर दो तो खड़ी हो जाय, उतर जाओ तो उतर जाओ, चढ़ जाओ तो चढ़ जाओ। आगे चलाकर पीछे चलाई फिर आगे चलाई और फिर पीछे चलाई। साइकिल कहती है क्या कि बार-बार ऐसा क्यों चलाते हो? कहती है क्या? मर्जी है मालिककी चलाओ, मत चलाओ, गोल चलाओ, खड़ी कर दो। जँचे जैसे चलाओ, हमें क्या मतलब है? देखो,भारी तब लगता है, जब आज्ञा देनेवाला है, उसमें आदर-बुद्धि नहीं है, पूज्य-बुद्धि नहीं है और पूज्य-बुद्धि होती तो वह कुछ कह दे तो इतनी खुशी होती है कि कह नहीं सकते। कभी कहते नहीं, मेरेको कह दिया, कितने आनन्दकी बात है! आप-से-आप यदि करते तो इतने फायदेकी नहीं होती। उन्होंने आज्ञा दे दी। मेरेको कह दिया ओ हो! मैं तो बड़ा भागी हूँ ऐसे बहुत आनन्द आता है; परन्तु आज्ञा देनेवालेमें पूज्यबुद्धि आदरभाव होना चाहिये।

तीन तरहका काम है—एक काम करना है, एक सेवा करना है, एक पूजा करना है। काम तो नौकर भी कर देगा। जिसमें सेवकपनका भाव रहता है, वो सेवा करता है जबकि काम वह-का-वह ही है। उस समय वह सेवा हो जाती है और वह ही जब जिसकी आज्ञाका पालन करता है, उसपर बहुत पूज्य भाव रखता है, जैसे भगवद‍्बुद्धि है, भगवान् हैं साक्षात् , वे कहें कि तू ऐसा कर दे तो कितना आनन्द आवे इसमें! वह पूजा होती है। वह ही काम पूजा हो जायगा। पिताकी सेवा करनेमें भीतरमें पूज्य भाव रहे कि मेरा अहोभाग्य है। जीवन सफल हो गया, समय सफल हो गया, वस्तु सफल हो गयी कि इनकी सेवामें लग गयी। तब वह पूजा हो जाती है। आदर ज्यादा होनेसे पूजा, कम आदर होनेसे सेवा और स्वार्थके लिये, तनख्वाहके लिये काम करता हो तो वह है काम—ये तीन भेद हो जाते हैं भावके कारणसे। जितना ही भाव त्यागका होता है, उतना ही श्रेष्ठ होता है। अपने द्वारा कामनाका त्याग और उसमें पूज्य-बुद्धि—ये दो चीजें हैं खास।

हमें तो गीतामें सातवें और नवें अध्यायमें दो बातें ही खास दीखती हैं। सातवेंमें तो ‘कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:’ कामनाके कारण और नवेंमें ‘न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते’ (गीता ९।२४) मेरेको जानते नहीं, इस वास्ते पतन होता है। तो भगवद‍्बुद्धि हो और इधर स्वार्थका त्याग हो तो उसकी मुक्ति हो गयी, बन्धन रहा ही नहीं। बन्धन दो ही हैं—एक है पदार्थ और एक है क्रिया। एक तो काम करना और एक धन चाहना। इन दोमें जिनकी आसक्ति होती है, जिनकी प्रियता होती है, वह पारमार्थिक रुचि नहीं कर सकता।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥
(गीता २।४ ४)

भोग और ऐश्वर्यमें जिसकी आसक्ति है। भोगना और पदार्थोंका संग्रह करना दो ही बात बतायी। ‘यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते’ तो क्रियाओंमें और पदार्थोंमें नहीं फँसना। भोग जितना होता है, वह क्रियाजन्य होता है। भोग होता है, क्रिया होती है उसमें क्रियाजन्य सुख है और संग्रह है, वह पदार्थजन्य। पदार्थोंका संग्रह कर लूँ। इस वास्ते भगवान‍्ने कहा—‘पत्रं पुष्पं फलं तोयम्’ ये वस्तु अर्पण कर दो। और अगाड़ी ‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ’। क्रिया अर्पण कर दो। तो ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।’ दोनों बन्धनोंसे छूट जायगा। क्रिया और पदार्थ, ये दो रूप ही हैं प्रकृतिके। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा। क्रिया और पदार्थोंके वशमें रहेगा, वो प्रकृतिके वशमें रहेगा, जन्मेगा और मरेगा। ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता १३।२१) गुण सात्त्विक, राजस और तामस होते हैं। पदार्थ भी सात्त्विक, राजस और तामस होते हैं।

जो पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्त है, वो फँस जायगा। तो इसमें न फँसे—इसका उपाय है आज्ञा-पालन।‘आग्या सम न सुसाहिब सेवा’ आज्ञा-पालनके समान कोई सेवा है ही नहीं। तो कहे ज्यों ही करें, अपने कुछ करना है ही नहीं। कृतकृत्य हैं अपने। कुछ करना नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ लेना नहीं, कुछ सम्बन्ध ही नहीं अपने। लाठी है उसे जँचे वैसे चला दो। मालाको घुमाओ, वैसे घुमा दो। माला, लाठी कुछ कहती नहीं कि यूँ घूमाओ, यूँ करो। तुम्हारी मर्जी है, जैसे करो। ऐसे बड़ा आनन्द है, शिष्यके लिये, पुत्रके लिये, स्त्रीके लिये, नौकरके लिये, प्रजाके लिये। बहुत आनन्द है! अपना कुछ है ही नहीं। मालिक कहे, जैसे कर दिया। हरदम मस्त रहे, दु:ख और संताप कुछ है ही नहीं। न अपनी कोई चीज है, न कोई क्रिया है, न अपने कुछ लेना है, न कुछ करना है। शास्त्रोंने पतिव्रताकी बड़ी महिमा गायी है। पतिव्रताकी महिमा क्यों है?

पति कहे ज्यों करे, उसकी राजीमें राजी रहे। अपना कुछ नहीं। अपने-आप भी अपनी नहीं। वो तो पतिकी है बस उसके हाथका खिलौना है। खिलाओ, पिलाओ, मर्जी आवे ज्यों चलाओ। ऐसे ही पुत्र होता है। पुत्रका, शिष्यका, पत्नीका बहुत जल्दी होता है अपनी हेकड़ी छोड़ी कि हुआ कल्याण। अपनेपर काम आ जाय तो उसको तो यह विचार करना पड़ता है कि यह करें कि नहीं करें। यह ठीक है कि बेठीक है। पर उन्होंने कह दिया, अपने कर दिया, क्यों कर दिया कि उन्होंने कह दिया इस वास्ते कर दिया। अपने क्या मतलब? बोलो, इसमें शंका क्या है? अरे! अभिमान भरा है भीतरमें भाई! अभिमान भरा है अभिमान! अभिमान, आलस्य, प्रमाद-ऐसे वृत्तियाँ भरी हैं। तामसी वृत्तियाँ कम होते ही सुगमतासे कल्याण हो जाता है और ज्यादा होती है तो देरी लगती है शास्त्रविहित ही करना है, निषिद्ध थोड़े ही करना है।

प्रश्न—प्राणिसेवा ही प्रभु-पूजा है, सेवा और पूजामें अन्तर क्या है?

उत्तर—हाँ जी। काम कर देना सेवा है। पूजन होता है चन्दनसे, अगरबत्तीसे, दीपक दिखानेसे, आरती करनेसे, फूल चढ़ानेसे। यह पूजा होती है। इसको भी सेवा कह देते हैं, पर पूजा है यह। तो पूजा करनेमें जिसका हम पूजन करते हैं, उसको ऐसा कोई लाभ नहीं होता। पुष्प चढ़ा दिया तो क्या हुआ, चन्दन चढ़ा दिया तो क्या हुआ? धूप-दीप कर दिया तो क्या मिल गया उसको? उसको सुख ज्यादा होता है सेवा करनेसे। पग-चाँपी कर दी, स्नान करा दिया, कपड़े धो दिये। ऐसे यदि वह उनकी सेवा करे तो सुख ज्यादा होता है, पर सेवा-बुद्धिसे भी विशेष अगर पूजा-बुद्धिसे करता है तो स्वयं गद‍्गद हो जाता है। मस्त हो जाता है वह कहीं सेवाका काम मिले तो! सेवामें पूजा-बुद्धि हो जाती है तो निहाल हो जाता है। चरण-चाँपी करता है एक तो और एक चरण छूता है। चरण छूनेमें, जिसके चरण छूता है, उसको कुछ नहीं मिलता। स्वयं अभिमान भले ही कर ले। और चरण-चाँपी करता है तो थकावट दूर होती है।

भाव जिसका चरण-छूनेका है और पूजा-बुद्धि है तो चरण छूनेमात्रसे जैसे बिजलीका करंट आता है, ऐसे ही उसके आनन्दका एक करंट आता है। ऐसे चरण-चाँपी करना सेवा है और चरण छूना पूजा है। यह पूजाका और सेवाका भेद है। जितना अपने अभिमानका त्याग होता है, उसको सुख कैसे पहुँचे? उसको आराम कैसे पहुँचे? यह सेवाभाव होता है। वह पूजनीय, आदरणीय है, वह हमारा भोजन भी स्वीकार कर ले, चन्दन भी स्वीकार ले, हमारा नमस्कार भी स्वीकार कर ले तो मैं निहाल हो जाऊँ! यह पूजाका भाव है।

जहाँ पूज्यभाव होता है, वहाँ भारी कैसे लगे? वो तो त्याग करता रहता है, हरदम ही विचार करता रहता है। किस तरहसे मेरेको सेवा मिल जाय। सेवा मिल जाय तो अपना अहोभाग्य समझता है कि बस निहाल हो गया आज तो! और ऐसा मालूम पड़ता है कि इनकी कृपासे ही यह हो रहा है। मेरेमें यह भाव है न, यह इनकी कृपा है। काम भी इनकी कृपासे होता है। वह तो जीवन्मुक्त हो गया महाराज! इतना मस्त हो गया। उसकी तो सेवा-पूजा देखकर दूसरे आदमियोंका कल्याण हो जाय। अगर उसका भाव यह है तो ऐसी बात है और भारी लगता है तो आलस्य है, प्रमाद है, अभिमान आदि दोष है।

यह बात है भैया! जितना ही दु:ख होता है, आनन्द नहीं आता है, उसमें अपने दोष है भीतर। अपने दोष न रहनेसे बहुत ही मौज होती है। जितना निर्दोष जीवन है, उतना उसके आनन्द रहता है। इस बातको समझते नहीं, इस वास्ते लोग चोरी करते हैं, चालाकी कर लेते हैं, ठग लेते हैं, उससे खुदको दु:ख होगा, शान्ति नहीं रह सकती, उसके प्रसन्नता नहीं रह सकती। परंतु पदार्थोंमें ज्यादा आसक्ति है, पदार्थोंको मूल्यवान समझता है। इस वास्ते झूठ-कपट कर, धोखा दे राजी होता है। यह महान् पतनका रास्ता है। बहुत नुकसान कर लिया अपना! और जितना निर्दोष जीवन होता है, अपना शुद्ध जीवन होता है; आलस्य, प्रमाद, झूठ, धोखेबाजी, लोभ, क्रोध, कामना कुछ नहीं होती, उतना अन्त:करण निर्मल होता है, हलका होता है, मस्ती रहती है, आनन्द हरदम रहता है—‘कंचन खान खुली घट माहीं। रामदास के टोटो नाहीं॥’ भीतरसे आनन्द उमड़ता है। जैसे शीत-ज्वर चढ़े तो भीतरसे ही ठंड लगती है। ऐसे भीतरसे आनन्द उठता है उसके, बाह्य-पदार्थोंसे सुख लेनेकी इच्छा नहीं होती। बाह्य-पदार्थोंका सुख तो पराधीनताका है। पराधीनता तो पराधीनता ही है—‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’। और भीतरमें आवे जब—

गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान॥

भीतरसे संतोष आवे। ‘सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्त चेतसाम्’ बहुत आनन्द हो रहा है। कुछ चाहिये नहीं। हमारे कुछ नहीं चाहिये। जीयेंगे कैसे? जीना भी क्यों चाहिये। भगवान‍्को जिलानेकी लाख गरज हो तो दे दो, तो जी जावेंगे। नहीं दे तो चलने दो, हमें जीनेसे मतलब नहीं, शरीरसे मतलब नहीं, प्राणोंसे मतलब नहीं, जीनेसे मतलब नहीं। भगवान्, संत, महात्मा, संसार, सब उसकी सब गरज करें, उसको किसीकी गरज नहीं। भगवान‍्की भी नहीं। भगवान‍्को गरज होती है ऐसे पुरुषोंकी। ‘मैं हूँ भगतन को दास भगत मेरे मुकुट मणि’ भक्त-भक्तिमान् है भगवान्, भगतके भगत हैं भगवान्। भगवान‍्को आनन्द बहुत आता है इसमें। और माँको आनन्द आता है न बच्चेका पालन करनेमें, नहीं तो आप हम इतने बड़े हो जावें क्या? वह प्रसन्नतासे पालती है। आनन्द आता है माँको, बच्चे टट्टी-पेशाब फिर देते है माँपर।

एक सज्जन कह रहे थे। काशीके मदन मोहनजी महाराज थे ब्याह करानेको गये कहीं। तो ब्याहमें बढ़िया-बढ़िया साड़ियाँ पहनकर बहनें आयीं। एक बहनके गोदमें बालक था, दूसरी बहन पासमें बैठी थी। तो गोदीमें जो बालक था, वहीं टट्टी फिरने लगा। टट्टीकी आवाज आयी तो पासवाली बहनने कहा, ‘देख यह टट्टी जाता है।’ तो वह कहती है ‘हल्ला मत कर, इसके हाथ लगा देंगे, इसको पता लग जायगा तो टट्टी रुक जायगी इसकी, चुप रह।’

इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या इसकी? उसने कहा—‘चुप रह।’ रेशमी साड़ीमें टट्टी फिर रहा है और कहती है कि ‘बोल मत, टट्टी रुक जायगी बालककी।’ बोलो! इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या? वो रोगी न हो जाय, यह चिन्ता है।

माँ यशोदा धमकाती है कन्हैयाको। ‘क्यों लाला तूने माटी खायी बता? यशोदा समझा रही है हाथमें लाठी लेकर। क्यों माटी खायी? ‘दूध-दहीने कबहुँ न नाटी।’ दूध-दहीकी तेरेको ना कही क्या कभी मैंने? तो माटी क्यों खाता है? धमकाती है। मतलब क्या है? मिट्टी खा लेगा तो पेट खराब हो जायगा। भीतरसे रोग लग जायगा। ये दु:ख पायेगा। माँके चिन्ता हो रही है। कन्हैया तो परवाह नहीं करता। ‘नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन:’। ये झूठ बोलते हैं सब। सच्चा तो मैं ही हूँ एक। कन्हैयाने कहा, ‘मैया! व्रजमें मेरे समान भला आदमी कोई नहीं है।’ माँ हँसती है कि मैं जानती हूँ, तू है बड़ा! ठाकुरजी सच्ची कहते हैं, व्रजमें उनके समान भला कौन है! माँको विश्वास ही नहीं होवे। माँ कहती है कि मैं जानती हूँ तेरेको! माँका स्नेह बहुत है, अत्यधिक ज्यादा और लालाको इतनी मस्ती आती है महराज! पूतनाने मारनेके लिये जहर पिलाया और उसको मुक्ति दे दी। दूध पिलानेवाली माताको क्या देंगे? जहर पिलानेवालीको मुक्ति दे दी। दूध पिलानेवाली माँको अपने-आपको दे देते हैं और क्या देवें? वो चाहे रस्सीसे बाँध देवे, तो बँध जाते हैं। वहाँ दामोदर नाम हो जाता है। अब बाँध दे, छोड़ दे—मर्जी आवे जैसे करे मैया। माँ है, अपनी खुशी है जैसे वह करे। ऐसी बात है वो भी भीतरमें भाव होता है न! भावसे भगवान् वशमें हो जाते हैं। ‘भावग्राही जनार्दन:’ तो जहाँ वो पूज्यभाव होता है, वहाँ भारी लगता है क्या? बोलो! अपने भावकी कमी है।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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