मनुष्य-जन्म ही अन्तिम जन्म है
१६-३-८३ / गोविन्द-भवन, कलकत्ता
श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
इसका तात्पर्य है कि यह मनुष्य-जन्म अन्तिम जन्म है। यह खुद अगाड़ी जन्मको निमन्त्रण देगा तो जन्म होगा, नहीं तो भगवान्की तरफसे यह अन्तिम जन्म है। अगर यह अगाड़ी जन्मको निमन्त्रण नहीं देगा तो इसका जन्म नहीं होगा; क्योंकि यह जन्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है। भगवान् कृपा करके मानव-शरीर देते हैं—इसका तात्पर्य क्या है? कि भाई, तुम अपना कल्याण कर लो। सदाके लिये मुक्त हो जाओ। भगवान्की कृपा कोई मामूली नहीं होती, यह सर्वोपरि है। इस प्राणीके लिये मुक्तिका अवसर दे दिया। अगर यह इस अन्तिम जन्ममें मुक्ति कर ले तो भगवान् इसको अगाड़ी जन्म नहीं देंगे। अब जन्म होता है तो केवल इसके खुदके स्वीकार करनेसे होता है।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।
ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका संग है। इस मनुष्य-जन्ममें भगवान्ने एक बहुत विलक्षण शक्ति दी है, उसका नाम है विवेक। विवेकका मतलब इसके सामने उत्पन्न और नष्ट होनेवाली सृष्टि रखी। यह इस बदलनेवाली सृष्टिको प्रत्यक्ष देखता है। सब प्राणी उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, आते हैं और जाते हैं। दिन होता है और रात होती है, जाग्रत् होता है, स्वप्न होता है और सुषुप्ति होती है। इससे संसारकी अनित्यता साफ दीखती है। आप इतने बैठे हो, विचार करके देखो! इस संसारकी अनित्यता दीखती है कि नहीं! एकरूपसे नित्य रहता ही नहीं। न दिन रहता है, न रात रहती है। न शीतकाल रहता है, न ग्रीष्मकाल रहता है, न वर्षाकाल रहता है। न जाग्रत् रहता है, न स्वप्न रहता है और न सुषुप्ति रहती है। न भूतकाल रहता है, न वर्तमान रहता है और न भविष्य रहता है। मात्र सृष्टि बदल रही है। जो बदल रही है, वह नहीं है; किन्तु जिसके प्रकाशसे यह बदलना दीखता है, जिसके आश्रित, अधीन यह बदलना होता है, वह परमात्मा है। उसका होनापन है। इस सृष्टिका होनापन नहीं है। यह तो केवल परिवर्तनशील है।
जैसे, इस शरीरके बदलनेपर, अवस्थाओंके बदलनेपर ‘मैं’ रहता हूँ, यह अनुभव है। इसी तरहसे सम्पूर्ण संसारके बदलते रहनेपर परमात्मा रहते हैं, यह अनुभव है। ‘रहनेवाले’ परमात्मा और अपने स्वयं हुए। ‘बदलनेवाला’ संसार और शरीर हुआ। इस अनुभवके लिये नया ज्ञान सम्पादन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। चाहे जितना दूसरा ज्ञान कर लो, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष है। भगवान्ने जीवमात्रको विवेक दिया है, पर मनुष्यको विशेषतासे दिया है। मात्र जीवको खाने-पीने आदिका ही विवेक है, पर इस मनुष्यको उत्पत्ति-विनाशशीलका ज्ञान है। स्वयं अलग रहता हुआ इस उत्पत्ति-विनाशशीलमें फँस जाता है। यह इसकी बड़ी भारी भूल है। इसीसे जन्म-मरण होता है, नहीं तो यह अन्तिम जन्म है, अब अगाड़ी जन्म नहीं है। यह स्वयं ही अपना जन्म पैदा करता है, अगर यह भगवदाज्ञासे विरुद्ध न चले और ठीक मर्यादासे चले तो फिर जन्म नहीं होगा। इसमें यह मनुष्य समर्थ है, इसमें यह स्वतन्त्र है, इसमें यह बलवान् है, इसमें यह निर्बल नहीं है, अयोग्य नहीं है। ऐसे यह ठीक चले तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है, क्योंकि अनेक जन्मोंसे जो बना हुआ प्रारब्ध है, उसका फल तो स्वत: आकर मिलेगा और वह प्रारब्ध नष्ट हो जायगा। फल भोगमें आया और नष्ट हुआ। संचित बेचारे कुछ काम नहीं करते, वे चुपचाप हैं। फुरणाएँ आती हैं तो उनके वशमें न रहे।
‘तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥’
शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार करता रहे तो स्वत:स्वाभाविक ही मुक्ति है और संसारका ‘नहीं’ पना दीखता है। तात्पर्य है तो एक परमात्मा ही; दूजे हैं कहाँ? ये सब तो नहींमें बदल रहे हैं, प्रत्यक्ष बात है—‘अदर्शनादापतिता पुनश्चादर्शनं गता।’ अदर्शनसे पैदा हुआ और फिर अदर्शनमें ही लीन हो रहा है। ये जितने शरीर हैं सौ वर्ष पहले नहीं थे और सौ वर्ष बाद नहीं रहेंगे। जितनी यह सृष्टि है, सर्गसे पहले नहीं थी, प्रलयके बाद नहीं रहेगी। पहले नहीं थी और पीछे नहीं रहती, बीचमें नहीं होती हुई भी दीखती है; क्योंकि नहींसे पैदा होकर ‘नहीं’ में लीन हो गयी तो इसमें ‘नहीं’ पना सत्य रहा। इसका ‘है’ पना सत्य कैसे रहा? परमात्मा पहले थे और अन्तमें परमात्मा रहेंगे, बीचमें परमात्मा कहाँ चले गये? सत्य तत्त्व सम्पूर्ण अवस्थाओंमें ‘है’ ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। इसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता। सृष्टि किंचिन्मात्र भी पैदा नहीं हुई थी, तब वह परमात्मा थे और सम्पूर्ण सृष्टिका अत्यन्त अभाव हो जाय तो भी परमात्मा रहेंगे। सृष्टिके रहते हुए भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं।
केवल उत्पत्ति-विनाशकी तरफ दृष्टि रहनेसे परमात्माकी तरफ दृष्टि जाती नहीं। उत्पत्ति-विनाशवाली वस्तुओंमें ही उलझ जाते हैं। उत्पत्ति-विनाशका जो आधार है, इनका जो आश्रय है, इनका जो प्रकाशक है, जो उत्पत्ति और विनाशरहित है, उधर दृष्टि जाती नहीं—यह बात सच्ची है। इसमें भी एक मार्मिक बात है कि दृष्टि उधर जाती तो है, पर हम उसको आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते। साधारण-से-साधारण, ग्रामीण-से-ग्रामीण, अपढ़-से-अपढ़ आदमीके भी ऐसा होता है कि भाई, ये सदा रखनेवाला नहीं है, पैदा हुआ है तो नष्ट हो जायगा। यह ज्ञान उसको भी है, पर उस ज्ञानको महत्त्व नहीं देता है। उसका आदर नहीं करता है। इसीसे यह दुर्दशा हो रही है। केवल उसका आदर करें तो दूजी पढ़ाईकी जरूरत ही नहीं है। ग्रन्थोंकी जरूरत ही नहीं है। गुरुकी जरूरत ही नहीं है। शिक्षाकी जरूरत ही नहीं है।
ठीक तरहसे विचार करें कि ये तो विनाशी हैं भाई। हम इसमें कैसे उलझे हैं! थोड़ा-सा विचार करें तो साफ दीखता है। आप कहते भी हो कि रुपया क्या है! रुपयो तो हाथरो मैल है। मानो रुपयोंको आप पैदा करते हो, आपको रुपये पैदा नहीं करते। आपके सामने वस्तुएँ आती हैं और जाती हैं। वस्तुओंके सामने आप नहीं आते-जाते हो। आप तो रहते हो। शरीरोंके भी आने-जानेसे आप आते-जाते नहीं हो, आप रहते हो। शरीरको कपड़ेका दृष्टान्त देकर बताया कि जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर मनुष्य नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर यह जीव नये शरीर धारण कर लेता है। शरीरोंका आना-जाना है और आपका सदा रहना है, यह ज्ञान है। यह ज्ञान सबको है। अब इस ज्ञानको आदर नहीं देते, आदरकी दृष्टिसे नहीं देखते। आप बताओ, सच्ची बात रहनेवाली है कि जानेवाली?
आने-जानेवाली सच्ची कहाँ है? वह तो कच्ची है। उसमें उलझ जाना गलतीकी बात है। आपने ध्यान दिया कि नहीं? यह ज्ञान प्रत्यक्ष है। आपको-हमारेको साफ दीखता है कि यह जितना संसार है, उथल-पुथल हो रहा है, कोई भी नित्य नहीं है। हरदम रहनेवाला नहीं है, पर अनित्य भी नित्य दीखता है; क्योंकि इसमें रहनेवाला नित्य तत्त्व है। अगर वह न हो तो यह दीखे ही नहीं। ऐसे संसारका जो एक क्षण भी स्थिर नहीं, ऐसा क्षणभंगुर भाव है, वह भी ‘है’ रूपसे दीखता है, उसमें ‘है’ रूपी झलक उस ‘है’ (परमात्मा)-की है, जो इसमें परिपूर्ण है और वास्तवमें ‘वह’ ही है। इस वास्ते कहा—‘वासुदेव: सर्वम्’ ‘सब कुछ परमात्मा ही है।’ ये सब कुछ परमात्मा ही है। इसमें ‘यह’ सब कुछ नहीं है; किन्तु उस जगह वही है, जो वासुदेव है। पहले वही था और अन्तमें वही रहेगा तो मध्यमें दूजा कहाँसे आवे? विवेक-दृष्टिसे जो रहनेवाला है, उस तत्त्वपर दृष्टि डाल दें। मनुष्यमात्रका स्वत:सिद्ध यह धन है। इस वास्ते बहुत-से जन्मोंका यह अन्तिम जन्म हुआ।
मानो यह विवेक स्वत: है। इस विवेकको पैदा करना नहीं पड़ेगा। यह ज्ञान पैदा नहीं होता है। इस ‘है’ की तरफ केवल दृष्टि डालना है। गलती यह होती है कि जो नहीं है, उस तरफ दृष्टि डालकर उसका ‘है-पना’ देखते हैं। नहींको सत्ता देते हैं, यह गलती होती है। ‘नहीं’ को सत्ता न दें। जो ‘है’ उस ‘है’ को सत्ता दें। जो एक क्षण भी स्थिर नहीं, वह ‘सर्वम्’ हुआ और नित्य रहनेवाला तत्त्व ‘वासुदेव’ हुआ। उसको जान लिया तो अब बस आगे जन्मका कोई कारण नहीं है, क्योंकि गुणोंका संग होनेपर जन्म होता है और गुणोंका संग नहीं करे तो मुक्ति तो स्वत:सिद्ध है ही। सबसे अतीत तत्त्व स्वत: है और सम्पूर्ण जिस ज्ञानमें प्रकाशित होता है, वह ज्ञान भी स्वत: है।
बहुत वर्ष पहलेकी बात है। हम नीमाज रामद्वारेमें बाहर बगीचेसे आये और रामद्वारे दरवाजेमें चढ़कर भीतर आ रहे थे तो उस समय यह बात याद आयी कि ‘आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।’ ब्रह्मलोकतकके लोग लौटकर आते हैं। इसमें ब्रह्माजी भी सान्त हो जाते हैं। ब्रह्माजीका कितना बड़ा दिन! कितनी बड़ी रात! और इन रात-दिनोंसे उनकी उम्र कितनी बड़ी है! वे ब्रह्माजी भी ऐसे उत्पन्न और नष्ट होते हैं। यह ज्ञान हमारेको होता है। यह ज्ञान कितना बड़ा है! अनन्त ब्रह्मा होकर चले गये तो भी वह ज्ञान ज्यों-का-त्यों है। उस ज्ञानमें स्थित रहनेसे जन्म-मरण कहाँ है? ज्ञानमें जन्म-मरण नहीं है। उस ज्ञानको महत्त्व देना है। उसे महत्त्व देनेके लिये ही मानव-शरीर मिला है और मनुष्य-शरीरमें ही यह ज्ञान हो सकता है।
खाना-पीना, ऐश-आराम तो हरेक शरीरमें हो सकता है। लड़ाई-झगड़ा, आपसमें व्यवहार करना तो हरेक योनिमें हो जाता है; परन्तु यह सब परिवर्तनशील है, रहेगा नहीं, रहनेवाला वह एक तत्त्व है। यह ज्ञान तो मानव-शरीरमें ही है। भगवान्ने कृपा करके यह मानव-शरीर दिया है। यह ज्ञान हो जाय तो अन्त हो जाय कि नहीं अगाड़ी जन्मोंका? यह जन्म स्वत: अन्तिम जन्म है। अब यह जिसमें उलझ जायगा, राग कर लेगा। ‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्’ जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ अन्तमें शरीर छोड़ता है, उसी भावको वह प्राप्त हो जाता है। आपकी प्राप्ति कैसे हो? तो कहते हैं कि मेरा स्मरण करता हुआ जावे तो मेरी प्राप्ति हो जाती है। जो ‘है’ (भगवान्) मौजूद, उन्हींका स्मरण करें। ‘नहीं है’ उसका क्या स्मरण करें? ‘है’ का स्मरण करता हुआ जायगा तो उस ‘है’ की प्राप्ति हो जायगी। अब आपकी मर्जी। चाहो तो अगाड़ी जन्मकी तैयारी करो, स्वतन्त्रता है। अगाड़ी जन्म न लेनेके लिये तो यह मनुष्य-शरीर है ही। कैसी बढ़िया बात है।
आपके सामने भूत, भविष्य, वर्तमान बदलता है। ठीक-बे-ठीक, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती रहती है। अब उनमें उलझ जाओ तो आपकी मर्जी, जन्मो और मरो। ये तो ऐसे ही बदलते हैं, इनमें क्या उलझना? इनमें क्या तो राग करें? क्या द्वेष करें? क्या हर्ष करें? क्या शोक करें? ये तो यों ही चलता रहता है। हर्ष-शोक, राग-द्वेष, अनुकूल-प्रतिकूल बदलता है कि नहीं सभी! मैं, तूँ, यह, वह, सब बदलता है। न बदलनेवालेसे ही बदलना दीखता है। बदलनेवालेसे बदलनेवाला थोड़े ही दीखता है! आप जानकार हो! उस जानकारीमें इन सबकी जानकारी होती है। किसीके साथ चिपके नहीं तो स्वत: मुक्ति है। मुक्ति स्वत:सिद्ध है। बाल्यावस्था मिटानेके लिये कुछ उद्योग किया था क्या? ऐसे संसारमात्रको मिटानेके लिये कोई उद्योग करनेकी जरूरत नहीं है आपको। स्वत: मुक्ति हो रही है। स्वयं नया-नया पकड़ता है छूटता तो आप-से-आप है। बन्धन आपका बनाया हुआ है। आपकी मर्जी हो तो रखो, चाहे छोड़ दो।
प्रश्न—आपने बताया अभी कि ‘गुरुकी’, ‘ग्रन्थकी’ किसीकी जरूरत नहीं है। गुरु बिना ज्ञानकी प्राप्ति.........?
उत्तर—ज्ञानकी प्राप्ति होती है, पैदा नहीं होता। वह ‘है’, जरूरत उसीकी है। इस संसारको आपने ‘है’ मान लिया, इस वास्ते जरूरत हो गयी। गुरुकी, ग्रन्थोंकी, सन्तकी जरूरत नहीं है। भगवान्की कृपासे बढ़कर और कौन चाहिये? गुरु और शास्त्रको तो आप मानेंगे, तब काम करेंगे, नहीं तो वे क्या काम करेंगे? भगवान् सब जगह परिपूर्ण मौजूद हैं फिर भी लोग जन्मते-मरते हैं, सब जीव दु:ख पा रहे हैं। भगवान् कण-कणमें हैं, पर होना क्या काम आया? आप स्वीकार कर लो तो काम आ गया। इस वास्ते और किसीकी जरूरत नहीं है।
नारायण! नारायण!! नारायण!!!