स्वाभाविकता क्या है?
२८-३-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर
बहुत बढ़िया बात है। उधर खयाल किया जाय तो बहुत ही लाभकी बात है, बड़े भारी लाभकी बात है। एक होती है स्वाभाविक बात और एक होती है अस्वाभाविक। स्वाभाविक उसे कहते हैं, जो स्वत:सिद्ध है और अस्वाभाविक वह है, जो स्वत:सिद्ध नहीं है, किन्तु बनायी हुई है। परमात्मतत्त्व और संसार—इन दोमें देखा जाय, तो परमात्मतत्त्व (चेतनतत्त्व)-का अंश यह जीव है और प्रकृतिका अंश यह शरीर है। परमात्माके साथ जीवका सम्बन्ध स्वाभाविक है, स्वत:सिद्ध है और इसने जो शरीर और संसारके साथ सम्बन्ध माना है यह सम्बन्ध अस्वाभाविक है। इसकी पहचान क्या है? यह पहले नहीं और पीछे नहीं रहेगा, बीचमें यह माना हुआ सम्बन्ध है जो कि अस्वाभाविक है तथा परमात्मा और इसका खुदका सम्बन्ध स्वाभाविक है। वह अस्वाभाविक नहीं है, स्वत: है।
‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।’(गीता१५।७) परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक है और संसारके साथ हमारा सम्बन्ध कृत्रिम है अर्थात् बनावटी है। परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध असली है, बनाया हुआ नहीं है। वह तो स्वत:सिद्ध है, स्वाभाविक है। संसारका सम्बन्ध हमने बनाया है और संसारको हम अपना मानते हैं—यह कृत्रिम है अर्थात् अस्वाभाविक है; परन्तु अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव हो गया।
जैसे, यह शरीर ‘मैं’ हूँ और कुटुम्ब, धन, सम्पत्ति आदि मेरी है। मैं और मेरा—दोनों ही अस्वाभाविक हैं; परन्तु इन्हें स्वाभाविक मान लिया है कि यह तो बात ऐसी ही है। अब अभ्यासद्वारा इसको मिटाया कैसे जायगा? मैं-मेरेका भाव मिटानेके लिये हम अभ्यास करते हैं। जो अभ्यासजन्य बात होगी, वह अस्वाभाविक ही होगी। जो अस्वाभाविक है उसको मिटानेके लिये अस्वाभाविक उद्योग किया जाता है। इससे अस्वाभाविकता मिटती नहीं, क्योंकि अस्वाभाविकताका ही आदर किया जा रहा है। इस वास्ते अस्वाभाविकताको अस्वाभाविक मान लें कि संसारमें जो मैं और मेरापन कर रखा है, यह है नहीं; क्योंकि यह पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तो बीचमें कहाँ है? बीचमें जो अपना मानते हैं, उस अपनेपनका भी प्रतिक्षण सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, मानो वियोग हो रहा है। जितने दिन आप और हम जी लिये, शरीर जी लिया, उतने दिन तो यह मर ही गया। उतने दिन तो शरीरका वियोग हो गया। अब जितने दिन साथमें रहना है, उतने दिन रहेगा, फिर वियोग हो ही जायगा।
शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं था और स्वाभाविक नहीं रहेगा और अस्वाभाविक माना हुआ सम्बन्ध भी अस्वाभाविकमें पड़ा मिट रहा है। स्वाभाविकपना स्वत: हो रहा है, मानो अलगपना हो रहा है। अगर इस बातको अभीसे मान लें, संयोगकालमें ही वियोगका अनुभव कर लें। अस्वाभाविकके समय ही स्वाभाविकको दृढ़तासे मान लें कि यह मैं और मेरा नहीं है, क्योंकि पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा, अभी भी मिट रहा है। इसके साथ सम्बन्ध नहीं होनेसे हम ‘निर्ममो निरहंकार’ हो जायँगे। और ‘निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति।’ सब शान्ति चाहते हैं। शान्ति कैसे मिले? स्वाभाविक शान्ति आपके साथमें है, वह आपकी है, बिलकुल अपनी खुदकी है, इस वास्ते वह अच्छी लगती है। अशान्ति अपनी नहीं है और अपनेको बुरी लगती है, अच्छी नहीं लगती। इससे सिद्ध हुआ कि अशान्ति आपकी नहीं है।
अशान्ति तो आपके अस्वाभाविकतामें स्वाभाविक भाव कर लेनेसे पैदा हुई थी। अस्वाभाविकताको छोड़कर अब अगर जो वास्तविकता है, मानो स्वाभाविकता है, उसको आप अपना लें तो शान्ति हो ही जायगी। अशान्ति है ही नहीं, स्वत: ही शान्ति है। अशान्ति तो पैदा होती है और मिटती है, शान्ति न ही पैदा होती है और न ही मिटती है। शान्ति तो रहती है, अशान्तिको पैदा करके शान्तिको उद्योग-साध्य मानते हैं। यह गलती करते हैं।
प्रकृति-पुरुषका अलगपना, जड़ और चेतनका अलगपना यह स्वाभाविक है और इसके साथ एकता मानना यह अस्वाभाविक है। अब अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लिया तो इसको दूर करनेके लिये ज्ञान करो, श्रवण करो, मनन करो, निदिध्यासन करो, शास्त्रका अभ्यास करो, सत्संग आदि करो, पर ऐसा करनेसे यह दूर होगा—यह बिलकुल गलती है। यह अलगपना तो स्वत:सिद्ध है। आप मूलमें अगर ठीक तरहसे स्वाभाविकताको स्वीकार कर लें तो इसके लिये उद्योगकी क्या जरूरत है? और उद्योग करनेसे अस्वाभाविकता होगी; क्योंकि जो अभ्यास-साध्य चीज होगी, वो अस्वाभाविक होगी। इस वास्ते वर्षोंतक उद्योग करते हैं, पर ठीक तरहसे स्थिति नहीं होती। क्यों नहीं होती? कि अस्वाभाविकताका आदर कर रहे हैं। अस्वाभाविकताको स्वाभाविकता मानकर उद्योगके द्वारा अस्वाभाविकताको मिटाना चाहते हैं। और उद्योगद्वारा करेंगे तो अस्वाभाविकको स्वाभाविक मानकर ही करेंगे। करते तो हैं सम्बन्ध-विच्छेद, पर हो रहा है दृढ़। ज्यों-ज्यों सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, त्यों-ही-त्यों दृढ़ हो रहा है। स्वाभाविकता आप स्वीकार कर लें कि वास्तवमें इनके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है भाई! ये तो बनाया हुआ है।
आप अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र समझते हैं। यह तो शरीर-धारण करनेके बाद आप समझते हैं, इस शरीरमें नहीं आये तो क्या पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र थे आप? बिलकुल नहीं थे। ये जो अपनेको वर्ण और आश्रमका मानना है, यह अस्वाभाविक है। स्वाभाविक नहीं है। बनावटी है, कृत्रिम है और इनकी क्या इज्जत है। जन्म हो गया तो हम ब्राह्मण हो गये साहब, हम क्षत्रिय हो गये, हम वैश्य हो गये, शूद्र हो गये। क्या हो गये? आपने एक चोला पहन लिया। माँ-बापसे एक शरीर मिल गया। शरीर तो माँ-बापसे ही मिला हुआ है। आपका नहीं है फिर आप ब्राह्मण कैसे हुए?
एक जरा कड़ी बात है, आपने पेशाबका इतना आदर कर दिया, पेशाबको इतना महत्त्व दे दिया। थोड़ा विचार करो आप! अन्तमें यह है तो रज-वीर्य ही। यह अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव है कि हम तो ब्राह्मण हैं। अरे भाई! कबसे हो तुम ब्राह्मण? हम तो बड़े हैं, छोटे हैं, हम तो मेहतर हैं। अरे, तुम मेहतर कबसे हो गये! न कोई छोटा है, न बड़ा है, हम स्वाभाविक ही परमात्माके अंश हैं और शरीर स्वाभाविक ही संसारका अंश है।
अब इसमें दुरुपयोग करेंगे। अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकता कैसे लायेंगे? कि सबके साथ खाओ-पीओ। अरे, इस प्रकार तो धर्म-भ्रष्ट होनेसे बुद्धि और भ्रष्ट हो जायगी! स्वाभाविकतासे बहुत दूर चले जाओगे; परन्तु इसीको आज उन्नति मानते हैं। सबके साथ खाना-पीना कर लो, सबके साथ ब्याह कर लो; क्योंकि फर्क है ही नहीं। अब फर्क कैसे नहीं है? पेशाबमें तो फर्क है ही। अलग-अलग पेशाब है। रोगीका अलग होता है, निरोगका अलग होता है। ऐसे अलग-अलग होता है। उसे अलग-अलग मानना ही पड़ेगा। और अगर मिला दो तो सब रोगी बनेंगे कि सब निरोग बन जायँगे? शुद्ध और अशुद्धको मिलानेसे अशुद्ध शुद्ध बनेगा कि शुद्ध अशुद्ध बनेगा? आप थोड़ा विचार करो। अपवित्र और पवित्र दोनों चीजोंको मिलाया जाय तो पवित्र अपवित्र हो जायगा कि अपवित्र पवित्र हो जायगा। अब उलटा चलेंगे, क्योंकि कलियुग आ गया, इस वास्ते उलटी बात ठीक लगती है।
स्वाभाविकताको पहचान करके उसमें स्थित हो जाओ और व्यवहार ठीक तरहसे मर्यादामें करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कुलमें जन्म हुआ है तो जन्मके अनुसार ब्याह ठीक मर्यादामें करो। मर्यादाका पालन करो अच्छी तरहसे। जैसे खेलमें स्वाँग लेते हैं, मर्यादाका ठीक तरहसे पालन करते हैं। वैसे ही कोई ब्राह्मण बना है, कोई क्षत्रिय बना है, कोई वैश्य बना है, कोई शूद्र बना है। बाप मेहतर बन गया, बेटा राजा बन गया खेलमें। वहाँपर बेटा उसको बाप कहे तो गलती हो जायगी न! खेल बिगड़ जायगा। इस वास्ते स्वाँगमें तो मेहतर ही कहो। ‘ओ, वहाँ जाओ, वहाँ जाओ!’ कि अन्नदाता! ठीक है, जाता हूँ, स्वाँग तो बिगाड़ना नहीं है, पर कृत्रिमतामें फँसना भी नहीं है।
यह रुपया मेरा है, यह कुटुम्ब मेरा है, यह शरीर मेरा है। कितने दिनोंसे? यह ज्यादा हो गया तो हम बड़े आदमी हो गये, रुपये थोड़े हैं तो हम छोटे हो गये। यह बड़ी पार्टी है, यह छोटी पार्टी है। अभिमान अपनेमें करने लग गये। भाई! व्यवहार करो। छोटी पार्टीका, बड़ी पार्टीका व्यवहार करो। बड़ी पार्टी वही है, जो दूजेको बड़ा बनावे। दूजेको जो छोटा बनावे, वह बड़ी पार्टी कैसे हुई? वह तो छोटी पार्टी हुई न! और छोटी पार्टी दूजोंको बड़ी पार्टी बनावे तो बड़ी पार्टी तो छोटी हुई और छोटी पार्टी बड़ी हुई; क्योंकि बड़ी पार्टीको बड़प्पन छोटीने दिया। छोटेके बिना ही वह बड़ा कैसे हो गया? इस वास्ते छोटी पार्टी तो बड़ी पार्टीकी जनक है। छोटी पार्टी तो बाप है और बड़ी पार्टी बेटा है; क्योंकि वह छोटी पार्टीका बड़ा बनाया हुआ है।
धनवत्ता निर्धनोंके द्वारा होती है या कि धनियोंके द्वारा होती है? एक गाँवमें सब साधारण आदमी और एक लखपती हो तो वह बहुत धनी माना जाता है और जिस शहरमें सब करोड़पति हों उसमें क्या इज्जत है उसकी? लाख रुपया होनेसे इज्जत है अथवा दूसरे लखपति नहीं होनेसे इज्जत है? बनावटी चीजको भाई! बनावटी मानो। असलीको असली मानो। मूलमें असली परमात्माका अंश है, यह वास्तविकता है और यह संसार सब उत्पत्ति-विनाशशील है। यह कोई वास्तवमें स्थिर नहीं है। जो स्थिर नहीं है, उसको तो स्थिर मानते हैं कि वे स्थिर रहेंगे और वास्तवमें जो स्थिर है, उस तरफ खयाल ही नहीं करते। स्वाभाविकता क्या है कि ‘अपनापन परमात्माके साथ है’ और संसारके साथ अपनापन मैं और मेरापन अस्वाभाविक है।
उसके साथ मैं और मेरेपनका व्यवहार कैसे करें? नाटकमें करें ज्यों करो बड़ी शुद्धिसे। बड़े सतर्क होकर, सावधानीके साथ करो। इसको सच्चा मान लिया, यह बिलकुल गलतीकी बात है। यह तो स्वाँग पहना हुआ है खेलनेके लिये। इसे ही वास्तविक मान लिया। जैसे हरिश्चन्द्र बना, शैव्या बनी, रोहिताश्व बना और वह खेल समाप्त हुआ। जो शैव्या बना, उसको वह कहे कि तू तो मेरी रानी है, चल मेरे साथमें। ‘अरे, मैं रानी तो क्या मैं तो स्त्री भी नहीं हूँ। मैं तो पुरुष हूँ।’ ‘गवाह हैं हजारों आदमी। तू तो मेरी रानी है।’ हजारों देखते हैं तो खेलनेवाला क्या रानी हो गयी? अब पुरुष भी स्त्री कैसे हो गयी! ‘मैं राजा हूँ, तू रानी है। मेरा बेटा है यह।’ अरे भाई! यह तो बना है, खेल है, अवास्तविकता है। अब इसको ही वास्तविकता मान लिया। ‘मेरी रानी है, मेरा बेटा है’ गलती कर दी न! यह तो खेल है वास्तवमें। इस तरहसे संसार भी खेल है। वो खेल भी बिगाड़ना नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, साधु, गृहस्थ, स्त्री, पुरुष सबको ठीक ढंगसे व्यवहार कर बराबर शास्त्रकी आज्ञामें चलना है। खेल होता है, उसकी पुस्तकें होती हैं कि इस तरहसे खेलो। ऐसे ही हमारी पुस्तकें हैं कि ऐसे व्यवहार करो। क्षत्रियका यह कर्तव्य है, वैश्यका यह कर्तव्य है, शूद्रका यह कर्तव्य है, स्त्रियोंका यह धर्म है, पुरुषोंका यह धर्म है, साधुओंका यह धर्म है, गृहस्थोंका यह धर्म है उन पुस्तकोंके अनुसार खेल खेलें बढ़िया रीतिसे। पर हैं क्या?
हैं तो परमात्माके, परमात्मा हमारे हैं। संसारका यह शरीर है, शरीरका संसार है। कुटुम्ब, धन सब संसारका है संसारके काम आ जाय, तो अच्छी बात; क्योंकि यह आपका नहीं है तो आपके पास रहेगा कैसे? रहेगा नहीं। कोरी अपनी बेइज्जती हो जायगी। लोभ हो जायगा। लोभ, क्रोध और कामके कारण नरकोंमें जाना हो जायगा; क्योंकि अस्वाभाविकमें स्वाभाविक स्थिति कर ली। जो चीज स्वाभाविक होगी, वह ही रहेगी। अस्वाभाविक रहेगी कैसे? अस्वाभाविकको स्वाभाविक मानकर जो गलती की है, उसका दण्ड जरूर भोगना पड़ेगा। वह टलेगा नहीं। इस वास्ते अस्वाभाविकको स्वाभाविक माने कि स्वाभाविकको स्वाभाविक माने? बोलो। इसमें शंका हो तो बोलो?
प्रश्न—संयोग-कालमें वियोगको स्वीकार करना भी तो अभ्यास है? ना! अभ्यास नहीं है, बिलकुल नहीं है। संयोग-कालमें वियोग-काल स्वीकार करना है, स्वीकार करना अभ्यास नहीं होता। अभ्याससे भूल नहीं मिटती, भूलको भूल समझा कि मिट जायगी। उसके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ेगा। किसी आदमीको नहीं पहचाना तो पूछते हैं कि ‘भाई! कौन है? हम जानते नहीं।’ कहता है ‘अमुक हूँ, अमुक हूँ।’ ‘अच्छा, अब पहचान लिया।’ इसमें अभ्यास करना पड़ा क्या?
उत्तर— छोरी कन्याकी सगाई करते हो तो अभ्यास करते हो क्या कि मैंने छोरी दी या छोरी अभ्यास करती है? एक माला भी जपती है कि ‘हमारी सगाई हो गयी, हमारी सगाई हो गयी।’ अच्छा, आप ब्याहे हुए इतने बैठे हो, ब्याहकी एक माला भी फेरी है क्या? अभ्यास किया है क्या? बोलो। अभ्यासकी साधना दूजी होती है। स्वीकृति अस्वीकृतिकी साधना दूजी होती है। स्वीकृति होती है, वह तत्काल होती है, सदा रहती है। अभ्यास किया हुआ बिगड़ जाता है। अब उसको अभ्यासजन्य मान लिया आपने। इस वास्ते कभी होता है और कभी नहीं होता है। मूलमें गलती हो गयी। थोड़ा सोचो! गहरा विचार करो, यह साधु हो गया तो उसने अभ्यास किया क्या साधु होनेका? बताओ! अब मानने लग गये कि हमारे गुरुजी हैं तो गुरुजी माननेके लिये अभ्यास किया क्या? यह साधना और है अभ्यासकी साधना दूजी है। और बोधकी साधना, ज्ञानकी साधना दूजी है। दोनों साधना अलग-अलग हैं, पर यह मानते ही नहीं।
यह जो मेरी बातें आपको अच्छी लगती हैं, उनमें क्या बात है? कि मैं वास्तविकताकी बात बताता हूँ जो स्वीकार करनेमात्रसे हो जाय। यह सुगमता आपको अच्छी तो लगती है, पर आपके मनमें यह जँची हुई है कि अभ्यास करनेसे ही होगा, ऐसे नहीं होगा। अब आपने यह पकड़ लिया, हम क्या करें? अभ्यास होनेसे दूजी अवस्था बनती है। ध्यान देना एक मार्मिक बात है।
अभ्यास करो जो तो दूजी अवस्था बनेगी, अवस्था छोटी-बड़ी भले ही हो, पर बोध नहीं होगा। अभ्याससे बोध हुआ ही नहीं, कभी होगा ही नहीं। बोध हो सकता ही नहीं कभी। अभ्यास करते-करते अन्तमें वास्तविकताको स्वीकार करनेसे ही बोध होगा और स्वीकार करोगे तभी संसारका सम्बन्ध-विच्छेद होगा, अभ्याससे नहीं होगा। अभ्यासमें तो संसारका सहारा लेना पड़ेगा शरीरका, इन्द्रियोंका, मनका, बुद्धिका, इनका सहारा लेना पड़ेगा और जड़ताके सहारेसे जड़ताका सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा, दृढ़ होगा। अवस्था दूजी बन जायगी। नट रस्सेपर चलता है तो अभ्यास करते-करते रस्सेपर चलने लग गया अवस्था दूजी हो गयी। ऐसे अभ्याससे अवस्था दूजी होती है, बोध नहीं होता। बोध कभी होगा तो विवेकसे होगा। विवेक दोनोंको ठीक अलग-अलग माननेसे होगा। और अलग-अलग ठीक माननेसे बोध हो जायगा, पर वह अभ्यासजन्य थोड़े ही होगा। जो बोध अभ्यासजन्य होगा वह मिट जायगा। जन्य होगा वह रहेगा कैसे? जन्य तो उत्पत्तिवाला होता है तो नाश होगा ही उसका। मन-बुद्धि हमारे हैं नहीं, प्रकृतिके हैं।
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा:॥
(गीता १३।५ )
‘इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति:। एतत्क्षेत्रम्’ (गी०१३। ६) यह क्षेत्र है और ‘एतद् यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ:’ क्षेत्रज्ञका सम्बन्ध क्षेत्रसे है। मैं अलग हूँ आपसे, इसमें अभ्यास करना पड़ा क्या? आपका कोई मत हुआ, उससे मेरा मत नहीं मिला, मैं अलग हूँ, यह अभ्यास करना पड़ता है क्या? बताओ? ये दोनों साधना है। कम-से-कम इतनी बात आप समझो कि एक अभ्यासकी साधना है और एक विवेककी सम्बन्ध-विच्छेदकी साधना है। और विवेक है वो तत्काल सिद्ध होता है और सदा रहता है। और अभ्यास किया हुआ कभी दृढ़ हो जाता है, कभी अदृढ़ हो जाता है—ऐसी बातें अभ्यासमें होती हैं। बड़ा गहरा विषय है। मनन करो। इन बातोंका, फिर शंका करो।
प्रश्न—महाराजजी! यह संयोगमें वियोग मानना और संयोगमें वियोगकी अनुभूति करना—ये अलग हैं क्या?
उत्तर—मानना और अनुभूति अलग-अलग हैं। मान करके अनुभव करो। मानना केवल याद करना नहीं है तोतेकी तरह। तोतेकी तरह याद कर लेना है न, वो मानना है। अनुभव है कि न मैं शरीर हूँ, न मेरा शरीर है। यह वास्तवमें ठीक बात है, इससे शरीरके विकारको अपना नहीं मानोगे। नहीं तो शरीरके विकारोंको अपनेमें मानोगे तो शरीर रोगी हो गया तो मानो मैं रोगी हो गया। शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया। तू कैसे कमजोर हो गया? शरीर मर जाय तो मैं मर गया तू कैसे मर गया? तो क्या अभीतक हमने इस बातको स्वीकार नहीं किया? नहीं किया है, इस वास्ते दु:ख पा रहे हैं। नहीं तो दु:ख हो ही नहीं सकता। यह आप जानते हो कि आपको संयोग-वियोगसे दु:ख होता है कि नहीं होता, बताओ? होता है तो स्वीकार करनेपर कैसे होगा, बताओ? दूसरे शरीरमें और इस शरीरमें क्या फर्क है?
‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा॥’ संसारसे शरीरको अलग निकाल सकते हो? दिखा सकते हो? कह सकते हो कि संसारसे शरीर अलग है, यह बता सकते हो क्या? बोलो! शरीर संसारके साथ एक है कि आपके साथ एक है? संसारके साथ है तो इसका विकार आपमें क्यों होता है? स्वीकार कहाँ किया? बातें सुनी हैं, सीख ली हैं, याद कर ली हैं। ये ठीक अनुभव हो जानेके बाद दु:ख नहीं होगा, जलन नहीं होगी, संताप नहीं होगा। आप विचार करो, फिर होगा क्या?
प्रश्न—इस स्वीकृतिका स्वरूप क्या है?
उत्तर—स्वरूप यही है कि फिर सुख-दु:ख नहीं होगा। संयोग-वियोगका असर नहीं पड़ेगा। ज्ञान होगा। ज्ञान होना और चीज है, असर पड़ना और चीज है। एक प्रभाव पड़ता है, वह असर है जो और है। ज्ञान कुछ और है। ज्ञान है, वह विकारोंको मिटाता है। ज्ञान नयी स्थिति पैदा नहीं करता।
प्रश्न—यह ज्ञान कैसे हो?
उत्तर—ज्ञान कैसे हो, यह लगन लग जाय, बस हो जायगा। इसके बिना न भोजन भावे, न प्यास लगे, न नींद आवे, न बात सुहावे। यह कैसे हो? हो जायगा। है वो तो वास्तवमें, हो क्या जायगा? उसकी जगह अज्ञानको लेकर उसके साथ रस ले रहे हो, इस वास्ते नहीं मिट रहा है। यहीं फेल हो जाते हैं। यह मत होने दो साहब। यह जँचती है कि नहीं मेरी बात! युक्ति-संगत बात है, अनुभवसिद्ध बात है, शास्त्र-सम्मत बात है। शास्त्र-सम्मत, युक्ति-संगत, अनुभव-सिद्ध तीनों बातें हैं। फिर भी खयाल ही नहीं होता कि स्वाभाविकता क्या है और अस्वाभाविकता क्या है?
नारायण! नारायण!! नारायण!!!