गीता गंगा
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अगस्त

१ अगस्त—निश्चय करो—मैं प्रभुकी दयासे सदा पूर्णकाम हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिये। मुझे चाहिये केवल श्रीभगवान्; सो भगवान् नित्य मेरे साथ हैं। आत्मारूपसे भगवान् ही मेरे अन्तरमें स्थित हैं। आत्मा भगवान‍्का ही स्वरूप है। मैं आत्मासे अभिन्न हूँ। फिर मुझे क्या चाहिये। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ, निर्लेप हूँ, निष्काम हूँ, पूर्णकाम हूँ।

२ अगस्त—निश्चय करो—जगत‍्की सारी स्त्रियाँ माता भगवती हैं, सभी मेरी पूजनीया हैं। मेरी स्त्री भी मेरी भोग्या नहीं है। केवल धर्मरक्षार्थ संतान-उत्पादन करनेके लिये ही स्त्रीके साथ मैं सहवास करता हूँ। स्त्रीमें मेरी भोग्यबुद्धि नहीं है। भगवान‍्में मेरी रति है इसलिये मुझमें काम-भावना कभी नहीं आ सकती। मैं कभी कामके वशमें नहीं हो सकता। मेरी इन्द्रियाँ मेरे मनके वशमें हैं, मन बुद्धिके वशमें है, बुद्धि आत्माके वशमें है, आत्मा मेरा स्वरूप ही है। मैं सबको आज्ञा देता हूँ—तुमलोग कामके वश मत होओ। बस, अब कामका मुझपर कोई असर नहीं हो सकता।

३ अगस्त—निश्चय करो—क्रोध तो दूसरेपर होता है, जगत‍्में दूसरा तो कोई है ही नहीं सभी अपने स्वरूप हैं। मुखमें जीभ भी है और दाँत भी। दोनों ही मेरे अंग हैं। कभी भूलसे यदि जीभ दाँतसे दबकर कट जाती है तो क्या मैं दाँतको तोड़ देना चाहता हूँ। जीभ कटी तो मुझको पीड़ा हुई और दाँतोंमें तकलीफ होगी तो भी मुझको ही पीड़ा होगी। फिर मैं किसपर कैसे क्रोध करूँ? दूसरे मैं तो क्षमाका भण्डार हूँ, मेरे अन्दर अपार शान्ति भरी है। क्रोध कभी मेरे मनमें आ ही नहीं सकता।

४ अगस्त—निश्चय करो—लोभकी वस्तु तो एक श्रीनारायण हैं। जगत‍्में नारायणको छोड़कर जो कुछ है सभी विनाशी है, सभी क्षणभंगुर है। फिर मैं किस चीजका लोभ करूँ और लोभ तो वहाँ होता है जहाँ अतृप्ति होती है। मैं तो नित्यतृप्त हूँ, मुझमें कभी असंतोष है ही नहीं, मुझे किसी वस्तुकी चाह या परवा है ही नहीं, फिर मुझमें लोभ कहाँसे आ सकता है?

५ अगस्त—निश्चय करो—मैं किससे ममता करूँ, दुनियामें मेरा कौन है? जिस शरीरको मैं बहुत मेरा-मेरा कहता हूँ, उसे भी तो आखिर छोड़ना ही पड़ेगा। मेरा होता तो मेरे साथ न चलता। जब शरीर ही मेरा नहीं तब शरीरका सम्बन्धी पदार्थ ‘मेरा’ कौन है? और आत्माकी दृष्टिसे देखता हूँ, तो सभी जगह मेरा आत्मा ही फैला हुआ है, फिर सबको छोड़कर थोड़ेसे व्यक्तियोंमें और पदार्थोंमें मेरापन कैसे करूँ। मेरा तो बस मैं ही हूँ—मैं हूँ आत्मा! जब दूसरा कोई है नहीं तब ममता किससे और कैसे करूँ?

६ अगस्त—निश्चय करो—अहंकार तो अज्ञानमें होता है। अज्ञान मुझको छू नहीं सकता। मैं कुछ भी नहीं हूँ, जो कुछ है सो आत्मा ही है—परमात्मा ही है। जब अलग मैं हूँ ही नहीं तब अमुक कर्म मैंने किया, मैं यह करूँगा, यह नहीं करूँगा— ऐसा कहने और सोचनेवाला मैं कौन?

७ अगस्त—निश्चय करो—मैं नित्य ही सौम्य हूँ। मुझमें कभी क्रूरता या निर्दयता आ ही नहीं सकती। निर्दय किसके साथ होऊँ? जब सभी मेरे परमात्माके स्वरूप हैं, पराया कोई है ही नहीं तब निर्दय व्यवहार करके किसे दु:ख पहुँचाऊँ? दूसरेको जो दु:ख होता है वह मुझको ही तो होता है, फिर दूसरेको दु:ख देनेकी भावना करके मैं कैसे सुखी हो सकता हूँ?

८ अगस्त—निश्चय करो—जो कुछ मेरे पास है सब श्रीभगवान‍्का है। न मैं साथ लाया, न साथ ले जाऊँगा। फिर उसे भगवान‍्की सेवामें क्यों न लगाऊँ? जहाँ कहीं दीन, दु:खी, अनाथ, असहाय हैं वहीं उनके रूपमें श्रीभगवान् ही अपनी चीजोंसे अपनी सेवा कराना चाहते हैं। मेरा तो सौभाग्य है जो श्रीभगवान् मुझको इस काममें नियुक्त करते हैं, फिर मैं क्यों न भगवान‍्की वस्तुसे भगवान‍्की सेवा करूँगा? क्यों न भगवान‍्की चीज भगवान‍्को देकर सुखी होऊँगा!

९ अगस्त—निश्चय करो—मैं तो नित्य आनन्दमय हूँ। आनन्दमें ही जन्मा हूँ, आनन्दमें ही रहता हूँ, आनन्दमें ही रहूँगा। आनन्द कभी मुझसे अलग हो ही नहीं सकता। दु:ख, शोक, विषाद मेरे पास आ ही नहीं सकते। उनको मेरे हृदयमें कभी स्थान मिल ही नहीं सकता।

१० अगस्त—निश्चय करो—कोई मुझे गाली देता है, मेरा अपमान करता है तो इससे वस्तुत: मेरा कुछ भी बिगड़ नहीं जाता। प्रशंसा करता है, सम्मान करता है तो मुझे कुछ मिल नहीं जाता, फिर मैं क्यों दु:खी-सुखी होऊँ?

११ अगस्त—किसी बीमारीसे मैं बीमार नहीं होता, मृत्युसे मैं मरता नहीं, अपमानसे मैं अपमानित नहीं होता, निन्दामें मेरी निन्दा नहीं होती। यह सब विकार तो नाम-रूपमें हैं। मैं तो इनका द्रष्टा निर्विकार आत्मा हूँ, फिर मैं इन विकारोंसे प्रभावित होकर क्यों दु:ख-सुख मानूँ? क्यों अपने आनन्दस्वरूपसे विचलित होऊँ?

१२ अगस्त—निश्चय करो—मुझे जो सुख-दु:ख मिलते हैं ये पूर्वकृत कर्मके भोगमात्र हैं। दूसरा तो कोई इनमें निमित्तमात्र बनता है। फिर यदि कोई मेरे दु:खमें निमित्त बनता है तो मैं उससे द्वेष क्यों करूँ, उसे अपना वैरी क्यों मानूँ? वह बेचारा तो निमित्तमात्र है!

१३ अगस्त—निश्चय करो—जीवन कर्ममय है। कर्म करनेके लिये ही मिला है। कर्ममें आलस्य और प्रमाद ही मृत्यु है। कर्म आत्माका स्वरूप नहीं है परंतु यदि ठीक रास्तेसे कर्ममार्गपर चला जाय तो आत्मापर जो अज्ञानका पर्दा पड़ा है वह जल्दी ही फट सकता है। कर्म बुरा नहीं है। बुरी है कर्मफलमें और कर्ममें आसक्ति।

१४ अगस्त—निश्चय करो—अपना न जीता हुआ मन ही असली वैरी है। इसी वैरीपर विजय प्राप्त करनी चाहिये।

१५ अगस्त—निश्चय करो—संसारमें घृणाका पात्र कोई नहीं है। यदि कोई घृणाका पात्र है तो बस वह केवल अपना कुविचार और कुकर्म ही है। अपने कुविचार और कुकर्मोंसे घृणा करनी चाहिये। सारे पाप कुविचारोंसे ही उत्पन्न होते हैं। दूसरेमें पाप हो तो भी वह घृणाका पात्र नहीं है क्योंकि जबतक अपनेमें पाप है तबतक हम उससे घृणा कर ही नहीं सकते और जब हम निष्पाप ही हो गये तो घृणावृत्ति ही नष्ट हो गयी; क्योंकि घृणा भी तो एक पाप है। हाँ, पापोंसे बचनेके लिये अपने या पराये पापोंसे घृणा करनेमें आपत्ति नहीं है परन्तु याद रखो, घृणा पापोंसे करनी है पापीसे नहीं।

१६ अगस्त—निश्चय करो—सारी असफलताका कारण है त्यागका अभाव। जहाँ वास्तविक त्याग है वहीं सच्ची सफलता है। सफलतामें देर होना असफलता नहीं है। सफलताके मार्गपर न चलना ही असफलता है। त्याग करो—सफलता मिलेगी।

१७ अगस्त—निश्चय करो—श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और इन्द्रियसंयम ही सिद्धिकी कुंजी है। जहाँ इन तीनोंका अभाव है वहाँ सदा असिद्धिके ही दर्शन होते हैं। इनमें भी श्रद्धा सबसे प्रधान है।

१८ अगस्त—निश्चय करो—किसीकी उन्नति देखकर जलना अपनेको विनाशके पथपर चढ़ाना है।

१९ अगस्त—निश्चय करो—किसीकी दु:खभरी हालत देखकर प्रसन्न होना अपनेको विनाशके पथपर चढ़ाना है।

२० अगस्त—निश्चय करो—किसीको पाप-पथमें जाते देखकर उसे उत्साह दिलाना अपनेको विनाशके पथपर चढ़ाना है।

२१ अगस्त—निश्चय करो—किसीको धर्मके पथपर चलते देखकर उसे निरुत्साहित करना अपनेको विनाशके पथपर चढ़ाना है।

२२ अगस्त—निश्चय करो—भगवान् तुम्हारे भारी-से-भारी दोषोंको भी क्षमा कर देंगे, यदि तुम उनके लिये पश्चात्ताप करोगे और भविष्यमें वैसे दोषोंको करना छोड़ दोगे।

२३ अगस्त—निश्चय करो—भगवान् सदा तुम्हारे साथ हैं, तुम्हारी अंदर-बाहरकी प्रत्येक क्रिया उनके सामने होती है, तुम उनसे छिपाकर कुछ भी नहीं कर सकते। अतएव वही करो जो भगवान‍्की प्रसन्नताका हेतु हो।

२४ अगस्त—निश्चय करो—भगवान‍्की दया सब जीवोंपर पूर्ण है। तुम भी उन्हीं जीवोंमेंसे एक जीव हो—अतएव तुम भगवान‍्की दयाके पूर्ण अधिकारी हो। अपने इस अधिकारका सदुपयोग करके लाभ उठाओ।

२५ अगस्त—निश्चय करो—भगवान‍्की कृपा उसीपर फलती है जो उस कृपाको मानता है। तुम भी विश्वास करोगे—मानोगे तो तुम्हें भी भगवत्कृपाका प्रभाव प्रत्यक्ष दीख पड़ेगा।

२६ अगस्त—निश्चय करो—किसी कारणसे भी घमंड करना बहुत बुरा है। भगवान् दर्पहारी हैं। वे मद चूर करते ही हैं।

२७ अगस्त—निश्चय करो—नम्रता और विनय भगवान‍्को बहुत प्यारी हैं।

२८ अगस्त—निश्चय करो—सरलता और दयासे भगवान् खिंचते हैं।

२९ अगस्त—निश्चय करो—प्रेम तो भगवान‍्को खींच ही लाता है।

३० अगस्त—निश्चय करो—प्रार्थनामें बड़ा बल है। भगवत्-प्रार्थनासे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।

३१ अगस्त—निश्चय करो—विषय-चिन्तनसे बढ़कर कोई हानि नहीं है और भगवान‍्के चिन्तनसे बढ़कर और कोई लाभ नहीं है!

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