सितम्बर
१ सितम्बर—यदि अबतक जीवनका उद्देश्य निश्चित न किया हो तो आज ही, इसी समय कर लो। उद्देश्यहीन जीवन व्यर्थ है। एक ओर चलो—केवल परमात्माकी ओर बढ़ो। जीवनकी प्रत्येक क्रिया और प्रत्येक संकल्प केवल इसीके लिये हो।
२ सितम्बर—याद रखो—तुम परमात्माकी ओर चल रहे हो। रास्तेकी चट्टियोंपर ही कहीं न लुभा जाना। बीहड़ रास्तेसे घबराकर लौटना नहीं। तुम्हारे साथ एक महान् शक्ति है—वह तुम्हारी सतत रक्षा कर रही है।
३ सितम्बर—अनुभव करो, तुम्हें एक महान् प्रकाश घेरे हुए है। तुम्हारे भीतर-बाहर, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे और नस-नसमें वह व्याप्त हो रहा है। अपने ज्ञान, शक्ति और सत्ताको उसमें डुबा दो—डूब जाने दो। फिर जब तुम व्यवहारमें उतरोगे तो तुम्हारे जीवनमें एक नवीन स्फूर्ति और उल्लासका अनुभव होगा। तुम देखोगे कि तुम्हारा जीवन प्रत्येक क्षण परमात्माकी अधिकाधिक सन्निधिमें जा रहा है।
४ सितम्बर—यह बात जान लो और सिद्धान्तरूपसे मान लो कि ऐसा एक भी क्षण नहीं हो सकता जिसमें तुम परमात्मामें स्थित न रह सको। चाहे तुम जिस परिस्थितिमें हो, भगवान् तुम्हारे साथ हैं और मुसकराते हुए तुम्हारी सहिष्णुता एवं धैर्यको देख रहे हैं। क्या उनके सामने तुम क्षुब्ध अथवा विचलित हो सकते हो?
५ सितम्बर—जिस परिस्थितिमें इस समय तुम हो वह उन्हीं प्रभुका मंगलमय वरदान है। इसमें उनके सुकोमल करस्पर्शका अनुभव करो। देखो, इस समय भी उनके कर-कमलोंकी छत्रछाया तुम्हारे सिरपर है।
६ सितम्बर—जो बीत गया उसे भूल जाओ। जो आनेवाला है वह तुम्हारे वर्तमानका परिणाम होगा। अत: तुम केवल वर्तमानको सुधारो, कहीं यह क्षण व्यर्थ न बीत जाय। अनुभव करो आज तुम्हारा दिन सार्थक बीत रहा है। तुम भगवान्की ओर बढ़ रहे हो।
७ सितम्बर—जो परम सत्य है—काल जिसका स्पर्श नहीं कर सकता, जो परम पवित्र है—किसी प्रकारकी मलिनतासे जो अछूता है, जो परम ज्ञानमय है—अज्ञानका लेश भी जिसमें नहीं है वह तत्त्व जो ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ है, चारों ओर फैला हुआ है—जीवके रूपमें, जगत्के रूपमें वही प्रकट हो रहा है, तुम उसीमें डूब-उतरा रहे हो।
८ सितम्बर—जो विषमताएँ तुम्हारे सामने हैं—जिनमें तुम उलझ रहे हो, जिनके बारेमें तुम अनुभव करते हो कि इनकी जटिलता असीम है—वे कुछ नहीं हैं। तुम परमात्माके सनातन अंश हो, उनके स्वरूप हो। ऐसी कोई शक्ति नहीं जो तुम्हें बाँध सके। तुम स्वतन्त्रतासे—परमात्माकी शक्तिका आश्रय लेकर आगे बढ़ो। सफलता अवश्यम्भावी है।
९ सितम्बर—ध्यान रहे—जो कुछ तुम देख रहे हो यह परमात्माका ही स्वरूप है। तुम्हारे हृदयकी मलिनता, अभक्ति अथवा भ्रान्तिसे ही यह भिन्नरूपमें भास रहा है। इसलिये क्रियाकी तो बात ही क्या, संकल्पसे भी किसीका तिरस्कार मत करो—जो तुम्हारे सामने आवे उससे इस प्रकारका व्यवहार करो मानो परमात्मा ही तुम्हारे सामने भेष बदलकर आये हों।
१० सितम्बर—शान्त रहो, अत्यधिक शान्त रहो। विचार करो कि प्रलयमें भी मेरा चित्त अक्षुब्ध रहेगा; क्योंकि वह परमात्मासे युक्त है।
११ सितम्बर—जो कुछ परमात्माकी ओरसे आवे प्रेमसे उसका स्वागत करो। चित्तमें अपनी ओरसे विचारोंको न ठूँसकर—चित्तके उद्गममेंसे उन्हें उभरने दो। तुम्हारा एक-एक विचार परमात्माका संदेश लायेगा। देखो तो सही, तुम्हारे हृद्देशस्थित परमात्मा क्या कहते हैं।
१२ सितम्बर—ऐसा समय आता है जब चित्तवृत्तियाँ अन्तर्मुख हो जाती हैं, बाहरकी स्फुरणाएँ बंद और श्वासकी गति धीमी। बड़ी सावधानीके साथ उस समय परमात्माकी ओर देखो। तुम उनका प्रेम-संगीत सुन सकोगे।
१३ सितम्बर—अनुभव करो—मेरा जीवन रहस्यका जीवन है और उसका स्वरूप है प्रेम। मेरा हृदय अनन्त प्रेमकी क्रीड़ास्थली है। मैं विशुद्ध प्रेम हूँ। मेरे जीवनमें प्रेम विकसित हो रहा है। प्रेम—विशुद्ध प्रेम जो कि आत्मिक है जिसमें शारीरिक मोहकी गन्ध भी नहीं।
१४ सितम्बर—मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ। शरीर—अपवित्रशरीर लेकर परमात्माके राज्यमें प्रवेश कैसे होगा? मैंने शरीरका मोह छोड़ दिया है तभी तो परमात्माकी संनिधिका अनुभव कर रहा हूँ।
१५ सितम्बर—दृढ़ निश्चय करो—मेरा मन पवित्र हो रहा है। दुर्विचार, दुर्भाव, दुर्गुण, दुराचार आदिकी वृत्तियाँ अब उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकतीं। तभी तो उसके सामने एक अलौकिक दिव्यता प्रकट हो रही है।
१६ सितम्बर—निश्चलभावसे विश्वासके साथ मनको आज्ञा दो—रे मन! तू मेरा सेवक है। मेरी सत्ता और चेतनासे तेरा जीवन है। तू मेरी एक स्वीकृतिमात्र है। मेरी आज्ञा मान और जैसे मैं चाहूँ वैसे रह। इधर-उधर किया तो मैं तुझे नष्ट कर दूँगा।
१७ सितम्बर—स्थिर शरीर और अचंचल मनसे दृढ़ताके साथ बैठो। निश्चय करो कि अब एक क्षणके लिये भी परमात्माके अतिरिक्त और किसी वस्तुको चित्तमें स्थान नहीं दूँगा। मेरा सम्पूर्ण जीवन परमात्माके लिये है।
१८ सितम्बर—ढूँढ़ निकालो कि जगत्की कौन-सी वस्तु इतनी आकर्षक है कि वह तुम्हें परमात्माकी ओर न जाने देकर जगत्में खींच लाती है। एक बार उसे उलट-पुलटकर देखो। वह इतनी तुच्छ है कि एक बार विवेककी दृष्टिसे पूर्णत: देख लेनेपर फिर उसका प्रलोभन नहीं रहेगा।
१९ सितम्बर—विचार करके देख लो—संसारके लोग जिसे बड़े महत्त्वकी वस्तु समझते हैं वह सर्वथा सारहीन है। जिसके प्रति जिसकी वासनाओंका झुकाव रहता है वह उसीको बड़ा मान लेता है। जब तुम मोहका परदा फाड़कर देखोगे तब जान सकोगे कि वह तो बच्चोंके खिलौनेसे अधिक महत्त्व नहीं रखता। तुमने निश्चयपूर्वक वह परदा फाड़ दिया है, ऐसा अनुभव करो।
२० सितम्बर—यदि सचमुच तुमने अपने जीवनको महान् बनानेका निश्चय कर लिया है तो तुम्हारी महत्तामें कोई संदेह नहीं। परंतु उसके लिये अपेक्षित साधन-सामग्री एकत्र कर ली है क्या? एक बार अपने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और निर्भीकताकी परीक्षा कर लो। साधन जुट जानेपर साध्य स्वयं तुम्हारे सामने आ जायगा।
२१ सितम्बर—तुम जो चाहते हो उसके एकमात्र केन्द्रपर दृष्टि जमाओ और देखो कि उस अनन्त गुणोंके भाण्डारमेंसे जो कुछ तुम चाहते हो उसकी असीम धारा प्रवाहित होकर तुम्हें आप्यायित कर रही है।
२२ सितम्बर—तुम जिसकी श्रेष्ठताका निश्चय किये हुए हो उसका बार-बार स्मरण करो। उसकी श्रेष्ठताका स्मरण ही प्रार्थना है। अवश्य ही वह तुम्हारे अन्दर निवास करेगा। प्रार्थनाकी ऐसी ही शक्ति है।
२३ सितम्बर—तुम जो अबतक अपने लक्ष्यसे दूर रहे हो इसका एकमात्र कारण यही है कि तुम अपने लक्ष्यको पहचानते नहीं हो। यदि तुम उसे पहचान सको तो अभी वह दूरी समाप्त हो जाय। इस दिशामें और आगे बढ़ो।
२४ सितम्बर—यदि तुम यह सोचते हो कि अभी तो प्रतिकूल स्थिति है, अनुकूल स्थिति आनेपर सब कर लूँगा तो तुम भूल रहे हो। क्या पता आगे प्रतिकूलता बढ़ जाय! जो अनुकूल स्थितिकी प्रतीक्षामें बैठा रहता है वह घर आयी लक्ष्मी खो देता है।
२५ सितम्बर—यह स्मरण रखनेकी बात है कि अनन्तशक्ति हमारे पीछे है—हमारी सहायक है, छोटी-मोटी परिस्थितियाँ तो यों ही आती-जाती रहती हैं। तुम केवल अपने एक-एक क्षणको परमात्माके साथ जोड़ते रहो।
२६ सितम्बर—जिसमें आत्मविश्वास है वही ईश्वरपर भी विश्वास कर सकता है। तुम यह निश्चय करो कि बाघके मुँहमें और साँपसे डँसे जानेपर भी मैं भगवत्प्रेम और कृपाका एकरस अनुभव करूँगा।
२७ सितम्बर—भगवान् प्रेमपरवश हैं—उनकी मूर्ति कृपामयी है। वे मातासे भी अधिक दयालु हैं। अनादिकालसे अपनी गोदमें रखकर उन्होंने सारे जगत् को, जीवोंको और मुझे खिलाया है। एक क्षणके लिये भी उन्होंने मुझे अपनेसे अलग नहीं किया। बार-बार मैंने अपराध किये हैं, उनके सामने ही और उनके देखते-देखते ही। परंतु उन्होंने उनपर ध्यान न देकर अपनी कृपाकी पराकाष्ठा कर दी है—मैं तो डूबा जा रहा हूँ उनकी कृपाके समुद्रमें।
२८ सितम्बर—हे प्रभो! तुम कैसे हो—यह मैं नहीं जानता। तुम जैसे हो, वैसे ही रहो। ये मेरे शरीर, इन्द्रिय, मन आदि, जिन्हें मैं अपना मान रहा था; अब तुम्हें समर्पित करता हूँ। इन्हें अपनाओ और ये मेरे हैं ऐसी भावना चित्तमें कभी न आने दो।
२९ सितम्बर—प्रभो! मैं समर्पण करनेवाला ही कौन हूँ। जैसा मैं कभी था, अब हूँ या आगे होऊँगा—सब रूपोंमें तुम्हारा ही तो हूँ। मैं अपनेको कुछ मान बैठा था—अब इस अपराधकी पुनरावृत्ति न हो प्रभो!
३० सितम्बर—शरीर प्रभुकी सेवामें, वाणी उनके नाम, गुण और लीलाके गानमें, मन उनके स्मरणमें संलग्न रहे। आँखें जहाँ जायँ उनकी रूप-माधुरीका पान करके छक जायँ। निश्चय करो दृढ़ चित्तसे कि सब कुछ भगवान् ही हैं उनके अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं! उससे एकत्वका अनुभव करना ही जीवनकी पूर्णता है।