अप्रैल
१ अप्रैल—याद रखो—कलियुगमें राम-नाम ही मनचाहा फल देने-वाला कल्पवृक्ष है, राम-भक्ति ही मुँहमाँगी वस्तु देनेवाली कामधेनु है और श्रीगुरुके चरणकमलकी धूलि ही संसारमें सब प्रकारके सुन्दर मंगलोंकी जड़ है।
राम-नाम कलि कामतरु रामभगति सुरधेनु।
सकल सुमंगल-मूल जग गुरुपदपंकज-रेनु॥
२ अप्रैल—जैसे सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रोंसे पूर्ण है, वैसे ही राम-नाम सर्व-धर्ममय है।
जथा भूमि सब बीजमै नखत निवास अकास।
रामनाम सब धरममै जानत तुलसीदास॥
३ अप्रैल—जो श्रीहरिका नाम नहीं जपते, उनकी जीभ साँपिनीके समान केवल विषयचर्चारूपी विष उगलनेवाली है और उनका मुख उस साँपिनीके रहनेके बिलके समान है। जिसका रामसे प्रेम नहीं है उसका भाग्य फूटा ही है।
रसना साँपिनि बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम।
तुलसी प्रेम न रामसों ताहि बिधाता बाम॥
४ अप्रैल—ऐसी कामना करो कि जो हृदय श्रीरामका स्मरण करके पिघल नहीं जाते वे फट जायँ, जिन आँखोंसे राम-प्रेमके आँसू नहीं बहते, वे फूट जायँ और जिस शरीरमें उनकी स्मृतिसे रोमांच नहीं होता वह जल जाय।
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं स्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम॥
५ अप्रैल—भगवान्को वे ही पुरुष प्यारे हैं जो विषय-रससे विरक्त हैं और राम-प्रेमके रसिक हैं, फिर वे चाहे वनवासी हों या गृहस्थी।
जे जन रूखे बिषयरस चिकने राम सनेह।
तुलसी ते प्रिय रामको कानन बसहिं कि गेह॥
६ अप्रैल—यदि भगवान्से सहज प्रेम नहीं हुआ तो मूँड़ मुड़ाकर साधु होना और घर छोड़ना व्यर्थ ही है।
तुलसी जौं पै रामसों नाहिंन सहज सनेह।
मूँड़ मुड़ायो बादिही भाँड भयो तजि गेह॥
७ अप्रैल—यह अनुभव करो कि यदि तुम भगवान्से विमुख हो जाओगे तो बरसातके गोबरकी तरह तुम्हें न कोई चाहेगा, न तुमसे प्रेम ही करेगा। बरसातका गोबर न लीपने-पोतनेके काममें आता है, न उसके गोइँठे ही बनते हैं, इसलिये उसे कोई नहीं लेता।
बरसा को गोबर भयो को चह को कर प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब रामबिमुख की रीति॥
८ अप्रैल—जबतक तुम्हें विषयोंकी झूठी मिठास मीठी लगती है तबतक हजार अमृतके समान अत्यन्त मधुर होनेपर भी राम-भक्ति बिलकुल फीकी लगेगी।
तुलसी जौ लौं बिषय की मुधा माधुरी मीठि।
तौ लौं सुधा सहस्र सम रामभगति सुठि सीठि॥
९ अप्रैल—भक्तिकी रीति है भगवान्से अविचल प्रेम करना और राग या आसक्ति-कामनाको तथा क्रोधको जीतकर धर्मकी नीतिके मार्गपर चलना। यही संतोंका मत है।
प्रीति रामसों नीति पथ चलिय राग-रस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति॥
१० अप्रैल—भगवान्के ऐसे भक्तोंपर कलियुगकी कोई धोखेबाजी नहीं चलती, जो सत्य बोलते हैं, मनको निर्मल रखते हैं और कपटरहित कर्म करते हैं।
सत्यबचन मानस बिमल कपटरहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि सकै न कलिजुग धूति॥
११ अप्रैल—सब साधनोंका यही एकमात्र फल है कि जिस किसी प्रकारसे भी हो भगवान् हमारे मन-मन्दिरमें आकर बस जायँ। जिसने इस रहस्यको जान लिया वही यथार्थ जाननेवाला है।
सब साधन को एक फल जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं राम धरे धनु बान॥
१२ अप्रैल—भगवान्के भक्तका सहज स्वभाव ऐसा होना चाहिये कि भगवान्में उसका प्रेम हो, मित्रोंसे मैत्री हो, वैरियोंमें वैरका त्याग हो, किसीके प्रति पक्षपात न हो और सबसे सरल व्यवहार हो।
हितसों हित रति रामसों रिपुसों बैर बिहाउ।
उदासीन सबसों सरल तुलसी सहज सुभाउ॥
१३ अप्रैल—संसारसागरके पार पहुँचे हुए हरिदासोंके लक्षण ये हैं कि उनकी एकमात्र भगवान्में ममता है, सारे संसारमें समता है और किसीसे राग, द्वेष, दोष और दु:खका भाव नहीं है।
तुलसी ममता रामसों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार॥
१४ अप्रैल—श्रीरामका कपटरहित सेवक हो रहनेपर हारनेमें भी जीत ही है, इसलिये श्रीरामसे डरो और श्रीराममें ही ममता, प्रेम तथा विश्वास करो।
रामहि डरु करु रामसों ममता प्रीति प्रतीति।
तुलसी निरुपधि राम को भये हारेहू जीति॥
१५ अप्रैल—कृपालु भगवान्को अपने सब गुण-दोष दिल खोलकर सुना दो। इससे तुम्हारी दीनता नष्ट होने लगेगी और संतोष परम पुष्ट हो जायगा।
तुलसी राम कृपालुसों कहि सुनाउ गुन-दोष।
होय दूबरी दीनता परम पीन संतोष॥
१६ अप्रैल—दीन होकर प्रार्थना करो—हे परमानन्दस्वरूप, कृपाके धाम, मनकी सारी कामनाओंके पूर्ण करनेवाले भगवान् श्रीराम! तुम मुझे अपनी अविचल प्रेम-भक्ति दो।
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेमभगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥
१७ अप्रैल—याद रखो—जो चेतनको जड कर देते हैं और जडको चेतन, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको भजनेवाले जीव ही धन्य हैं।
जो चेतन कहँ जड करइ जडहि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥
१८ अप्रैल—मनसे कहो, रे मन! काल जिनका धनुष है और लव, निमेष, परमाणु, युग, वर्ष और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं, तू उन भगवान्को क्यों नहीं भजता।
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजहि न मन तेहि राम कहँ काल जासु कोदंड॥
१९ अप्रैल—जबतक यह जीव शोकके घर काम (कामना)-को त्यागकर भगवान् श्रीरामजीको नहीं भजता, तबतक उसके लिये न तो कुशल है और न स्वप्नमें भी कभी उसके मनको शान्ति मिलती है।
तब लगि कुसल न जीव कहँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहँ सोकधाम तजि काम॥
२० अप्रैल—बिना सत्संगके अन्धकारका नाश करनेवाली भगवान्की रहस्यमयी कथाएँ सुननेको नहीं मिलतीं, उनके सुने बिना मोह दूर नहीं होता और मोहका नाश हुए बिना भगवान्के चरणोंमें दृढ़ प्रेम नहीं होता।
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग॥
२१ अप्रैल—बिना श्रद्धा-विश्वासके भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना भगवान् द्रवित नहीं होते और भगवान्की कृपाके बिना जीव स्वप्नमें भी कभी शान्ति नहीं पा सकता।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न राम।
रामकृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्राम॥
२२ अप्रैल—ऐसा विचारकर धीरज-भरे मनसे सारे कुतर्कों और संदेहोंको छोड़कर दयाकी खानि सुन्दर सुख देनेवाले भगवान् श्रीरामजीका भजन करो।
अस बिचारि मति धीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु सदा रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥
२३ अप्रैल—याद रखो—जिसका मन सरल है, जिसकी वाणी सरल है और जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिये भगवान् श्रीरामजीके प्रेमको उत्पन्न करनेवाली सभी विधियाँ सरल हैं। निष्कपट पुरुषको भगवान्का प्रेम सहज ही मिल जाता है।
सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति॥
२४ अप्रैल—ऊपरका स्वाँग साधुओंका-सा हो और बोली भी बड़ी मीठी हो, परंतु मन कठोर हो और कर्म गंदे हों। इस प्रकार विषय-रूपी जलकी मछली बने रहनेसे श्रीरामजीकी प्राप्ति कभी नहीं होती।
बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइए भए बिषय-जल मीन॥
२५ अप्रैल—याद रखो—नकली वेष और बनावटी वचनोंसे जो काम बनता है, वह दम्भ खुलते ही अन्तमें बिगड़ जाता है; परंतु जो काम सरल—शुद्ध मनसे बनता है, वह तो श्रीरामजीकी कृपासे बना-बनाया ही है।
बचन बेष तें जो बनै सो बिगरै परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनै बनी बनाई राम॥
२६ अप्रैल—जो मनुष्य दूसरोंसे वैर रखते हैं, जिनकी परायी स्त्रीमें पराये धनमें और परनिन्दामें आसक्ति है, वे पामर पापमय जीव मनुष्यदेह धारण किये हुए राक्षस ही हैं।
परद्रोही परदार रत परधन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरे मनुजाद॥
२७ अप्रैल—याद रखो—दुष्ट वही है, जो कपटरूपी लोहेकी हजारों सुइयोंको सुन्दर वचनरूपी कपड़ेमें चतुराईसे बाँधकर छिपाना चाहता है।
कपट सार-सूची सहस बाँधि बचन बर बास।
कियो दुराउ चह चातुरी सो सठ तुलसीदास॥
२८ अप्रैल—जिसके वचनोंमें, विचारमें, आचरणमें, शरीरमें, मनमें और कर्मोंमें छलकी छूत लगी हुई है, इस प्रकार अन्तर्यामी परमात्माको ठगकर सुख चाहनेवाला कपटी कैसे सुखी हो सकता है!
बचन बिचार अचार तन मन करतब छल-छूति।
तुलसी क्यों सुख पाइए अंतरजामिहि धूति॥
२९ अप्रैल—याद रखो—धीरज, धर्म, विवेक, सत्-साहित्य, साहस और सत्यका व्रत तथा एकमात्र भगवान्का भरोसा—विपत्तिकालके यही मित्र हैं।
तुलसी असमय के सखा धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत राम भरोसो एक॥
३० अप्रैल—भगवान्से प्रार्थना करो—हे रघुनाथजी! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और तुम्हारे समान कोई दीनबन्धु नहीं है। ऐसा विचारकर हे भगवन्! मेरे जन्म-मरणके महान् भयका नाश कीजिये।
मो सम दीन न दीनहित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंसमनि हरहु बिषम भवभीर॥*
* दोहे श्रीतुलसीदासजीकी दोहावलीसे संकलित हैं।