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मई

१ मई—सगुण-साकार भगवान‍्में प्रेम न होनेपर उनके ध्यानमें मन लगता नहीं और भगवान‍्के निर्गुण-निराकार स्वरूपतक मनकी पहुँच नहीं है। ऐसी दशामें भगवन्नामको ही एकमात्र आधार समझकर उसीके परायण हो रहो।

सगुन ध्यान रुचि सरस नहिं निर्गुन मन ते दूरि।
तुलसी सुमिरहु राम को नाम सजीवन मूरि॥

२ मई—कलियुगमें भगवान‍्का नाम ही एकमात्र साधन है; और सब साधन कठिन होनेके साथ-साथ स्वल्प फल देनेवाले, अतएव नहींके बराबर हैं। भगवन्नामको छोड़कर दूसरे साधनोंमें समय बितानेसे कुछ भी हाथ नहीं लगेगा; किंतु यदि भगवन्नामका आश्रय पकड़े रहोगे तो और सब साधन भी कई गुने अधिक फलदायक हो जायँगे।

रामनाम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥

३ मई—नामस्मरणसे मनुष्यकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो सकती हैं और नाम जपनेवालेका कल्याण निश्चित है। नामस्मरणके प्रभावसे निकृष्ट-से-निकृष्ट जीव अतिशय पवित्र एवं जगत्पूज्य बन सकता है।

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥

४ मई—भगवान‍्के नामका जीभसे भी उच्चारण करके लोग महान् पुण्यात्मा एवं सुखी हो जाते हैं। किन्तु जो लोग इतना भी नहीं कर पाते उनका विनाश निश्चित है। ऐसी दशामें जिस किसी प्रकारसे हो, नाम-जप सदा करते रहो।

रामनाम जपि जीहँ जन भए सुकृत सुखसालि।
तुलसी यहाँ जो आलसी गयो आजु की कालि॥

५ मई—काशीमें विधिपूर्वक रहकर शरीर छोड़नेसे तथा प्रयागमें हठपूर्वक प्राणत्याग करनेसे जो फल मिलता है वह नाममें अनुराग करनेसे सहजमें ही प्राप्त हो जाता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर केवल नाममें प्रीति करो।

कासीं बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ रामनाम अनुराग॥

६ मई—चाहे तुमने पिछले जन्मोंमें कितने ही पाप क्यों न किये हों, यदि तुम भगवान‍्की शरणमें चले जाओ और कुसंग छोड़कर उनके नामस्मरणमें लग जाओ तो तुम्हारे जन्म-जन्मान्तरके पाप आज, अभी नष्ट हो सकते हैं।

बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥

७ मई—यदि कहो कि कलिकाल हमें बहुत सताता है भजन करने नहीं देता तो ऐसी हालतमें भी तुम्हें घबरानेकी—निराश होनेकी आवश्यकता नहीं है। विश्वास रखो कि भगवान‍्का नाम कलिके दोषोंको नष्ट कर तुम्हारी वैसे ही रक्षा करेगा जैसे भगवान् नृसिंहने दुष्ट हिरण्यकशिपुको मारकर अपने भक्त प्रह्लादकी रक्षा की थी।

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥

८ मई—यह जीभ तुम्हें भगवान‍्के नाम-गुण-गानके लिये ही मिली है। भगवान‍्के नाम-गुण-गानके अतिरिक्त और सब चर्चा मेढककी टर्र-टर्रके समान है। अत: जिह्वाको सदा भगवद्भजनमें ही लगाये रखो।

हृदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम॥

९ मई—तुम्हारे स्वार्थ और परमार्थ—दोनों ही श्रीरामके द्वारा सध सकते हैं। फिर तुम्हें इनमेंसे किसीके लिये भी द्वार-द्वार भटकनेकी क्या आवश्यकता है?

स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एक ही ओर।
द्वार दूसरें दीनता उचित न तुलसी तोर॥

१० मई—जैसे जलको छोड़कर अपनेसहित सारा संसार मछलीके लिये वैरीके समान है, उसी प्रकार भगवान‍्को छोड़कर अपने-सहित सारे संसारको अपना वैरी समझो; क्योंकि वह तुम्हारे लिये फँसावटका ही कारण होगा।

ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि॥

११ मई—जगत‍्में जीना उसीका सफल है जिसके श्रीराम ही स्नेही हैं, राम ही एकमात्र गति हैं और जिसकी श्रीरामके चरणोंमें ही प्रीति है। अत: ऐसा ही बननेकी चेष्टा करो।

राम सनेही राम गति राम चरन रति जाहि।
तुलसी फल जग जनम को दियो बिधाता ताहि॥

१२ मई—जो लोग भगवान‍्को छोड़कर किसी दूसरेका अथवा विषयोंका भरोसा करते हैं, उन्हें इस लोकमें तो सुख-सम्पत्ति मिलती ही नहीं, मरनेपर भी उनकी बड़ी बुरी गति होती है। अत: और सबका भरोसा छोड़कर एकमात्र भगवान‍्का ही भरोसा करो। भगवान‍्को छोड़कर और सभी सहारे बालूकी भीतके समान हैं।

तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और।
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर॥

१३ मई—अपने अवगुणोंको और भगवान‍्के दीनवत्सलता, सुहृदता आदि गुणोंको देखते और समझते रहो। केवल इतनेसे ही तुम्हारा इस लोकमें तथा परलोकमें सहज ही कल्याण हो जायगा।

निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकालहूँ उभय लोक अनयास॥

१४ मई—ममता करो तो एक श्रीरामसे ही करो, अन्यथा ममताका सर्वथा परित्याग कर दो। इसीमें तुम्हारा भला है। परंतु इसमें कहीं भी बनावट अथवा छल न हो।

तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाड़ि छल खेलु।
कै करु ममता राम सों कै ममता परहेलु॥

१५ मई—जो भगवान् वेदोंके लिये भी अगम्य हैं, वे सच्ची चाह होनेपर उतने ही सुगम एवं सुलभ हो जाते हैं जितना जल सबके लिये सुगम है; इसलिये यदि उन्हें प्राप्त करना चाहते हो तो सच्चे हृदयसे उनके लिये छटपटाओ। उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा होना ही कठिन है, उनकी प्राप्ति उतनी कठिन नहीं है।

निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह॥

१६ मई—विषयोंकी ओरसे दृष्टि हटा लेनेपर ही तुम भगवत्प्रेमके मार्गको देख सकोगे। केंचुलीका परित्याग कर देनेपर ही साँपको दृष्टि प्राप्त होती है।

राम प्रेम पथ पेखिऐ दिएँ बिषय तनु पीठि।
तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि॥

१७ मई—तुम कैसे भी क्यों न हो, तुम्हारे स्वामी अत्यन्त दयालु एवं सर्वसमर्थ हैं; पतितपावन उनका विरद है। ऐसी दशामें तुम्हें घबरानेकी आवश्यकता नहीं है। तुम केवल अपनेको उनका मानते रहो। फिर कोई भय अथवा चिन्ताकी बात नहीं है वे सब सँभाल लेंगे।

जैसो तैसो रावरो केवल कोसलपाल।
तौ तुलसी को है भलो तिहूँ लोक तिहुँ काल॥

१८ मई—भगवान‍्के भक्तोंको भगवान‍्से भी बड़ा समझो; क्योंकि भगवान् भक्तोंके प्रेमवश उनके अधीन बन जाते हैं।

तुलसी रामहुँ तें अधिक रामभक्त जियँ जानु।
रिनियाँ राजा राम भे धनिक भए हनुमानु॥

१९ मई—यह निश्चय समझो कि चाहे जलके मथनेसे घी निकल आवे और बालूके पेरनेसे तेल निकल आवे किंतु बिना भगवान‍्का भजन किये इस संसाररूपी समुद्रके पार जाना कठिन है।

बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल।
बिनु हरिभजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल॥

२० मई—मायासे उत्पन्न दोष-गुण बिना हरिभजनके नहीं जा सकते। इसलिये सब काम छोड़कर केवल श्रीहरिका भजन ही करो।

हरिमाया कृत दोष गुन बिनु हरिभजन न जाहिं।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं॥

२१ मई—श्रीरामकी कृपासे जब पत्थर भी समुद्रपर तैर गये, तब क्या तुम इस भवसागरके पार नहीं जा सकोगे? क्या तुम पत्थरसे भी अधिक जड हो? इसलिये और सबका आश्रय छोड़कर एकमात्र श्रीरामका ही आश्रय ग्रहण करो। उसीसे तुम्हारा कल्याण हो जायगा।

श्रीरघुबीर प्रताप तें सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥

२२ मई—भगवान् भावके वश में हैं, सुखकी खान हैं और करुणाके सागर हैं। अत: संसारकी ममता, बड़प्पनके अभिमान तथा विद्या, बल, धन तथा रूप आदिके मदको त्यागकर उन्हींका निरन्तर भजन करो।

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीतारवन॥

२३ मई—संसारके दु:खोंसे मनुष्य तभी छूटता है जब भगवान् उसपर कृपा करते हैं। यही वेद, शास्त्र, पुराण तथा संतोंका मत है। अत: उन्हींकी कृपाकी प्रतीक्षा करते हुए निष्कामभावसे उनका भजन करते रहो। कभी-न-कभी उनकी कृपा होगी ही और तब तुम सदाके लिये निहाल हो जाओगे।

कहहिं बिमलमति संत बेद पुरान बिचारि अस।
द्रवहिं जानकी कंत तब छूटै संसार दुख॥

२४ मई—साधुओं और गुरुकी सेवा करनेसे तथा उनके बताये हुए मार्गको समझकर उसके अनुसार चलनेसे भक्ति स्थिर हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे कि लड़कपनमें सीखा हुआ तैरना फिर कभी नहीं भूलता। इसलिये साधु-संतों तथा अपने गुरुकी भलीभाँति सेवा करो और उनके उपदेशके अनुसार अपने जीवनको बनाओ।

सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो तुलसी बिसरि न जाइ॥

२५ मई—यदि भूलसे बालक साँपको खिलौना समझकर पकड़ने दौड़ता है अथवा अग्निमें हाथ डालता है तो माता-पिता उसे तुरंत बचा लेते हैं, साँप अथवा अग्निका स्पर्श नहीं करने देते; क्योंकि उनकी दृष्टि सदा उस अबोध बालकपर रहती है। इसी तरह जो भक्त अपनेको अबोध शिशुकी भाँति भगवान‍्के ऊपर छोड़ देता है उसकी सँभाल भगवान् स्वयं करते हैं, उसे कभी गड्ढेमें गिरने नहीं देते, भूलसे वह गड्ढेकी ओर जाता भी है तो उसे खींचकर बचा लेते हैं। इसलिये अबोध शिशु जिस प्रकार माताके परायण होता है उसी प्रकार तुम भगवान‍्के परायण हो जाओ। फिर तुम्हें किसी प्रकारका भय नहीं रहेगा।

खेलत बालक ब्याल सँग मेलत पावक हाथ।
तुलसी सिसु पितु मातु ज्यों राखत सिय रघुनाथ॥

२६ मई—भगवान‍्की कृपासे असम्भव भी सम्भव हो जाता है; यह मत समझो कि हमारे पाप-ताप भगवान‍्की कृपासे कैसे नष्ट होंगे।

बिनु ही रितु तरुबर फरत सिला द्रवति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा जब चितवत जेहि ओर॥

२७ मई—भगवान् श्रीरामके चरणोंका स्मरण करते रहो, फिर तुम्हें चिन्ता अथवा शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान‍्की कृपासे तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायँगे और तुम्हारी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायँगी।

सिला साप मोचन चरन सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटिहिं पूजिहि मन की आस॥

२८ मई—जैसे कोई राजा सपनेमें भिखारी हो जाय और दरिद्र इन्द्र बन जाय तो जागनेपर उसे लाभ-हानि कुछ भी नहीं होती, उसी प्रकार इस संसारमें भी यदि तुम सुखी-दु:खी होते हो तो इससे वास्तवमें तुम्हारी कोई लाभ-हानि नहीं होती। आत्मा सुख-दु:ख दोनोंके परे निर्लेप है।

सपनें होइ भिखारि नृपु, रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥

२९ मई—तुम्हारी यह जीभ परमार्थका कथन करनेके लिये ही बनायी गयी है, ये कान परमार्थ सुननेके लिये ही रचे गये हैं और तुम्हारा चित्त प्रेमसहित परमार्थको धारण करनेके लिये ही बनाया गया है। इसलिये इन सबको इन्हीं सब कामोंमें लगाये रखो।

कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किए कान।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान॥

३० मई—सम्पत्तिको छायाके समान समझो। यह पीठ देनेसे पीछे लग जाती है और सम्मुख होनेसे भागती है, हाथ नहीं आती। इसलिये धनके चक्‍करमें न पड़कर जो कुछ भी प्राप्त हो जाय उसीमें संतोष किये रहो और भगवान‍्का भजन करते जाओ।

दिएँ पीठि पाछें लगइ सनमुख होत पराइ।
तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गवाँइ॥

३१ मई—स्त्रीका रूप दीपककी ज्वालाके समान है, उसके आकर्षणमें न फँसो, नहीं तो पतिंगेकी तरह उसमें जलकर भस्म हो जाओगे। काम और मदको छोड़कर भगवान‍्का भजन करो, और उनके भक्तोंका—सत्पुरुषोंका संग करो, इसीमें तुम्हारा कल्याण है।

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद, करहि सदा सतसंग॥

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