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॥ श्रीहरि:॥

जनवरी

१ जनवरी—नित्य प्रेमपूर्वक श्रीभगवान‍्का स्मरण करो। इससे तुम्हें सदा शुभ शकुन होंगे, तुम्हारा सब प्रकारसे मंगल होगा और आदि, मध्य तथा परिणाममें सब समय कल्याण होगा।

तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीताराम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम॥

२ जनवरी—यह मनुष्यशरीररूपी सुन्दर खेत बड़े पुण्यसे मिला है, इसमें रामनामकी खेती करो; अर्थात् नामरूपी बीज बोकर उन्हें प्रेमाश्रुओंके जलसे निरन्तर सींचते रहो। ऐसा करनेसे रोमांचरूपी अंकुर प्रकट होंगे और बहुत जल्दी आनन्दकी खेती लहलहा उठेगी।

बीज राम गुन गन नयन जल अंकुर पुलकालि।
सुकृती सुतन सुखेत बर बिलसत तुलसी सालि॥

३ जनवरी—रामराज्य कहीं चला नहीं गया है, न श्रीराम ही कहीं चले गये हैं। आज भी सर्वत्र उन्हींका राज्य है, वे ही घट-घटमें रम रहे हैं। आवश्यकता है चित्तरूपी चकोरको उनके मुखचन्द्रकी ओर लगाये रखनेकी। फिर तुम सदा अपनेको उन्हींकी छत्रछायामें पाओगे, तुम्हारे सभी कार्य शुभ हो जायँगे और यह कलियुग भी तुम्हारे लिये अत्यन्त सुखदायी हो जायगा।

रामचंद्र मुख चंद्रमा चित चकोर जब होइ।
राम राज सब काज सुभ समय सुहावन सोइ॥

४ जनवरी—गंगातटपर रहकर गंगाजलका पान करो और भगवान‍्का नाम रटते रहो। कलियुगमें पाखण्ड और पापोंकी मात्रा बहुत अधिक बढ़ जानेके कारण मनुष्यके निस्तारके केवल ये दो ही उपाय रह गये हैं।

कलि पाषंड प्रचार प्रबल पाप पाँवर पतित।
तुलसी उभय अधार राम नाम सुरसरि सलिल॥

५ जनवरी—श्रीरामगुणगानरूपी अग्निको सदा प्रज्वलित रखो, फिर कलियुगरूपी जाड़ा तुम्हारा कुछ नहीं कर सकेगा। कुपथ, कुतर्क, कुचाल तथा कपट, दम्भ एवं पाखण्ड ये सब उस आगमें जलकर भस्म हो जायँगे।

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥

६ जनवरी—धर्मके चार चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। इनमेंसे कलियुगमें दान ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार दान देनेसे मनुष्यका कल्याण होता है। इसलिये अपनी शक्तिके अनुसार दान देते रहो।

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

७ जनवरी—निन्दा तथा सब प्रकारके कष्टोंको सहकर एवं अन्याय और अपमानको भी अंगीकार करके अपने धर्मको न छोड़ो। अच्छे पुरुष ऐसी बात केवल कह ही नहीं गये हैं, बल्कि करके भी दिखला गये हैं।

सहि कुबोल साँसति सकल अँगइ अनट अपमान।
तुलसी धरम न परिहरिअ कहि करि गये सुजान॥

८ जनवरी—जिनका हृदय युवतियोंके कटाक्षरूपी बाणसे न बिंधा हो और जो संसारके कठिन मोहपाशमें न बँधे हों, ऐसे महापुरुषोंको संसारके थपेड़ोंसे त्राण पानेके लिये अपना कवच बना लो। फिर देखोगे कि यह संसार तुम्हें भयभीत न कर सकेगा।

छिद्यो न तरुनि कटाच्छ सर करेउ न कठिन सनेहु।
तुलसी तिन की देह को जगत कवच करि लेहु॥

९ जनवरी—वचन सदा ऐसे बोलो जो सुननेमें मधुर और परिणाममें हितभरे हों। क्रोधसे भरे कटुवचन बोलनेकी अपेक्षा तो तलवारको म्यानसे बाहर निकालना कहीं अच्छा है।

रोष न रसना खोलिऐ बरु खोलिअ तरवारि।
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारि॥

१० जनवरी—यदि किसीके मनसे वैरको जड़से निकाल देना चाहते हो तो उसे हितभरे वचन कहो। यदि दूसरेका प्रेम प्राप्त करना चाहते हो तो उसकी सेवा करो और यदि अपना कल्याण चाहते हो तो सबसे विनयपूर्वक सम्भाषण करो।

बैर मूलहर हित बचन प्रेममूल उपकार।
दो हा सुभ संदोह सो तुलसी किएँ बिचार॥

११ जनवरी—याद रखो—परमार्थ-पथके पथिकके लिये झगड़ा करनेकी अपेक्षा समझौता—मेल कर लेना अच्छा है; दूसरेको जीतने—नीचा दिखानेकी अपेक्षा स्वयं हार जाना अच्छा है, दूसरेको धोखा देनेकी अपेक्षा स्वयं धोखा खाना अच्छा है।

जूझे तें भल बूझिबो भली जीत तें हार।
डहके तें डहकाइबो भलो जो करिअ बिचार॥

१२ जनवरी—किसीको कटुवचन कहकर दबानेकी चेष्टा न करो, उपकारके द्वारा उसे वशमें करो। वाग्युद्धमें दूसरेसे हार जाना ही हजार बार जीतनेके समान है और जीतनेमें ही हार है।

बोल न मोटे मारिऐ मोटी रोटी मारु।
जीति सहस सम हारिबो जीते हारि निहारु॥

१३ जनवरी—यदि अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश चाहते हो तो हृदयमें भगवद्भजनरूपी सूर्यको ला बिठाओ। बिना सूर्यका प्रकाश हुए जिस प्रकार रात्रिके अन्धकारका नाश किसी भी उपायसे नहीं होता, उसी प्रकार बिना भगवद्भजनके अज्ञानका नाश होना असम्भव है।

राकापति षोड़स उअहिं तारा गन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥

१४ जनवरी—ब्रह्माकी सृष्टिमें गुण और दोष दोनों भरे हैं। तुम्हारा काम है नीर-क्षीर-विवेकी हंसकी भाँति दोषोंका त्याग करके केवल गुणोंको ग्रहण करना। ऐसा करनेसे तुम दोषोंसे सर्वथा छूटकर भगवान‍्के परमपदके अधिकारी हो जाओगे।

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥

१५ जनवरी—सत्पुरुषोंका संग मोक्षकी ओर ले जानेवाला है और कामी पुरुषोंका संग आवागमनकी ओर। वेद-पुराण, साधु-संत, पण्डित-ज्ञानी—सभी एक स्वरसे ऐसा कहते हैं। अत: यदि मोक्षके मार्गपर अग्रसर होना चाहते हो तो विषयी पुरुषोंका संग त्यागकर सत्पुरुषोंका संग करो।

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं साधु कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥

१६ जनवरी—काम, क्रोध और लोभ—ये तीन मनुष्यके बड़े प्रबल शत्रु हैं। ये बड़े-बड़े ज्ञानी मुनियोंके भी मनको विचलित कर देते हैं। अत: इनसे सदा सावधान रहो। इनके साथ कभी रिआयत न करो। इन्हें कभी मनमें आश्रय न दो।

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महँ छोभ॥

१७ जनवरी—आशा ही परम दु:ख है और निराशा ही परम सुख है। अत: जगत‍्की ओरसे निराश होकर—भोगोंकी आशा छोड़कर एकमात्र भगवान‍्की ही आशा करो। फिर तुम्हारे लिये सब ओर सुख-ही-सुख है।

तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम।
सेयें सोक समर्पई बिमुख भए अभिराम॥

१८ जनवरी—विश्वास करो, भगवान‍्की कृपा समस्त मंगलोंकी खान है, उसने केवट, निशाचर तथा पशु-पक्षियोंतकको साधु एवं सम्मानका पात्र बना दिया। अत: तुम सब ओरसे दृष्टि हटाकर एकमात्र उस कृपापर ही निर्भर हो रहो; फिर तुम्हारे लिये मंगल-ही-मंगल है।

केवट निसिचर बिहग मृग साधु किए सनमानि।
तुलसी रघुबर की कृपा सकल सुमंगल खानि॥

१९ जनवरी—श्रीरामकी कृपासे शिला नारी बन गयी, पत्थर तैर गये और मरे हुए वानर जी उठे। फिर क्या तुम्हारा कल्याण न होगा? विश्वास करो, उनकी कृपासे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।

सिला सुतिय भइ गिरि तरे मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रहँ सगुन सुभ सुलभ सकल कल्यान॥

२० जनवरी—दीनोंकी रक्षा करना भगवान‍्का विरद है। उन्होंने दीन बने हुए सुग्रीवको मित्ररूपमें ग्रहण किया और महान् बलशाली बालिसे उसकी रक्षा की। अत: तुम भी दीन होकर उनकी कृपाके पात्र बन जाओ। वे कामादि प्रबल शत्रुओंसे सहज ही तुम्हें बचा लेंगे।

बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीबनिवाज॥

२१ जनवरी—जिस प्रकार सूर्यके दूर हट जानेपर छाया लम्बी हो जाती है और सूर्यके निकट आनेपर वह पैरों-तले आ जाती है, उसी प्रकार चित्त जब भगवान‍्से दूर हट जाता है तो संसारी माया उसे घेर लेती है और भगवान‍्को हृदयमें स्थिर देखकर वह छिप जाती है। अत: यदि मायाके आक्रमणसे बचना चाहते हो तो एक क्षणके लिये भी भगवान‍्को न भूलो। फिर माया तुम्हारी छायाको भी न छू सकेगी।

राम दूरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
दूरि होति रबि दूर लखि सिर पर पगतर छाँह॥

२२ जनवरी—याद रखो—राम-नामका आश्रय लिये बिना परम तत्त्वको पानेकी आशा करना उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार वर्षाकी बूँदोंको पकड़कर आकाशमें चढ़नेकी इच्छा करना।

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।
बरसत बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास॥

२३ जनवरी—विश्वास करो, प्रेम और विश्वासपूर्वक नाम-जपरूपी यज्ञ करनेसे विधाता अनुकूल हो जाते हैं और अभागा भी भाग्यवान् बन जाता है।

तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग॥

२४ जनवरी—सबसे प्रेम हटाकर एकमात्र श्रीरामसे ही प्रेम करो। अपने मनको बार-बार यही उपदेश देते रहो, इसीमें तुम्हारा भला है।

रे मन! सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि॥

२५ जनवरी—अपने मनको बार-बार समझाते रहो कि जब तुम्हारा स्वार्थ और परमार्थ दोनों एक भगवान‍्के द्वारा ही सिद्ध हो सकते हैं, तब तुम्हें दूसरी ओर ताकनेकी क्या आवश्यकता है।

स्वारथ सीता राम सों परमारथ सिय राम।
तुलसी तेरो दूसरे द्वार कहा कहु काम॥

२६ जनवरी—विश्वास करो—अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थोंका अन्तिम फल श्रीसीतारामके चरणोंमें स्वार्थ-परमार्थरहित अहैतुक प्रेम है। बड़े-बड़े संतोंका यही मत है।

स्वारथ परमारथ रहित सीता राम सनेह।
तुलसी सो फल चारि को फल हमार मत एह॥

२७ जनवरी—याद रखो—परमात्मा अंशी है और जीव उसका अंश है। अंशके अंशीसे विमुख हो जानेमें अंशकी हानि-ही-हानि है। गंगाजीका जल यदि गंगाजीके प्रवाहसे विच्छिन्न हो जाता है तो शास्त्र कहते हैं कि वह मदिराके समान हो जाता है।

तुलसी रामहिं परिहरें निपट हानि सुनु ओझ।
सुरसरि गत सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ॥

२८ जनवरी—याद रखो—सामर्थ्यवान् पुरुषोंको सुख पहुँचाने तथा उनसे प्रेम करनेवाले तो सभी होते हैं, परंतु असमर्थोंसे प्रेम करनेवाला और उनका हित चाहनेवाला श्रीरामको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। यह बात संतोंने विचारपूर्वक कही है।

सबइ समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारि।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि॥

२९ जनवरी—जो लोग काम, क्रोध, मद, लोभ आदिमें रत हैं और दु:खरूपी संसारमें आसक्त हैं, वे अँधेरे कूएँमें पड़े हुए मूढ़ श्रीरामके स्वरूपको नहीं जान सकते। अत: यदि श्रीरामके तत्त्वको जानना चाहते हो तो इन सब दुर्गुणोंको त्यागकर संसारसे ममता और आसक्तिको हटाओ। तभी तुम भगवान‍्के स्वरूपको ठीक तरह समझ सकोगे।

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ परे तम कूप॥

३० जनवरी—याद रखो—जिस प्रकार जलके बिना नाव नहीं चल सकती, चाहे कोई करोड़ उपाय क्यों न करे, उसी प्रकार संतोष किये बिना शान्ति और सुख नहीं मिल सकता।

कोउ विश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥

३१ जनवरी—एकांगी प्रेमका पाठ सीखना हो तो पपीहेसे सीखो। बादल चाहे ओले बरसावे, चाहे बिजली गिरावे, पपीहा उसे छोड़ दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकता।

उपल बरषि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर॥

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