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जुलाई

१ जुलाई—तुम संसारमें किसीसे राग और किसीसे द्वेष मत करो। सबसे समान प्रेम करो; क्योंकि इस समतामें ही भगवत्प्रेमका उदय होता है।

२ जुलाई—सूक्ष्म दृष्टिसे अपने हृदयकी ओर देखो। कहीं उसमें ईर्ष्या, द्वेष आदि दुर्गुण तो नहीं छिपे हैं? समझ लो कि संसारके किसी भी प्राणीसे जिसका ईर्ष्या-द्वेष है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती। तुम पूरी शक्तिसे उन्हें निकाल फेंको।

३ जुलाई—तुम जब किसीके दोषोंका चिन्तन करते हो तो उसकी अपेक्षा अपनी ही हानि अधिक करते हो; क्योंकि चिन्तन ही तो चित्त है। तुम्हारा चित्त यदि दोषोंका चिन्तन करेगा तो दोषमय हो जायगा। इसलिये दूसरोंकी तो क्या बात, अपने दोषोंका चिन्तन भी खतरेसे खाली नहीं है। तुम अपने दोषोंका चिन्तन न करके उन्हें तत्क्षण छोड़ दो।

४ जुलाई—आत्मनिरीक्षणका यह एक बहुत सरल मार्ग है। तुम देखो कि तुम्हारा चित्त अधिक दोषोंपर जाता है या गुणोंपर? सभी वस्तुएँ अपने केन्द्रकी ओर आकर्षित होती हैं। यदि तुम्हारा चित्त दोषोंकी ओर आकर्षित होता है तो यह इस बातका स्पष्ट प्रमाण है कि तुम्हारे चित्तमें अभी दोष-ही-दोष भरे हुए हैं। तुम्हारा चित्त गुण-ही-गुण देखे, यह कितना उत्तम है।

५ जुलाई—जब तुम दूसरेके सम्बन्धमें कोई धारणा बनाते हो तब कितने अन्धकारमें रहते हो—इसका तुम्हें बिलकुल पता नहीं रहता; क्योंकि अभी तो तुमने अपने मनको ही कभी प्रत्यक्षरूपसे नहीं देखा है—जो कि तुम्हारा मापदण्ड है। इस अज्ञात मनके जालमें फँसकर कोई धारणा बनाओगे तो व्यर्थ ही राग-द्वेषके शिकार हो जाओगे। सावधान रहो, यह कहीं तुम्हें उलझा न दे।

६ जुलाई—यदि केवल परमात्माके या उनके गुणोंके चिन्तनमें ही तुम्हारा चित्त नहीं लगता तो तुम्हारी दृष्टिमें जो आदर्श पुरुष हो उसका और उसके गुणोंका चिन्तन करो। भावना करो—कितना मस्त हो रहा है उसका चित्त! जहाँ जाता है—घास-पातमें, तिनकेमें, सर्वत्र भगवान‍्का दर्शन करके मुग्ध हो जाता है। तुम भी मुग्ध हो जाओ!

७ जुलाई—जो व्यक्ति तुम्हारे सामने खड़ा है—अभी जिससे तुम व्यवहार कर रहे हो उसके हृदयमें नारायण हैं। कहीं वे ही यह वेश धारण करके न आये हों! खूब सावधान रहो—कहीं प्रमाद न हो जाय।

८ जुलाई—जो काम इस समय तुम कर रहे हो उसकी पवित्रता और उत्तमताके सम्बन्धमें तुम्हारी क्या धारणा है? यह सचमुच पवित्र और उत्तम तो तब है यदि तुम इसे भगवान‍्के लिये, उनकी प्रसन्नताके लिये कर रहे हो।

९ जुलाई—कर्म यदि भगवान‍्के उद्देश्यसे हो तब तो भगवान‍्के स्मरणमें कोई बाधा पड़ ही नहीं सकती। यदि कर्मके साथ तुम इतने आसक्त हो कि उसके लिये भगवान‍्का स्मरणतक छोड़ बैठते हो तो अवश्य कहीं-न-कहीं तुम्हारा स्वार्थ है। इस स्वार्थको ढूँढ़कर तुम यदि प्रभुके श्रीचरणोंमें समर्पित कर सको तो आज ही तुम्हारा जीवन धन्य हो जाय!

१० जुलाई—मनपर निगाह न रखनेके कारण ही तुम्हारे मार्गमें बहुत-सी कठिनाइयाँ आती हैं। मनके बारेमें तुम्हारा ज्ञान और ध्यान कम है। वह तुम्हारा सेवक है। तुम्हारी आज्ञा और अनुमतिके बिना वह कुछ नहीं कर सकता। एक बार तुम उसपर अपना अधिकार कर लो, फिर तो वह निरन्तर तुम्हारे सामने सेवकके रूपमें हाथ जोड़े खड़ा रहेगा।

११ जुलाई—यह जो मनकी चंचलताकी कठिनाई है—वह साधन प्रारम्भ होनेके पूर्वकी ही है। जिस समय तुम साधन प्रारम्भ करोगे उसी समय यह तुम्हारे वशमें हो जायगा; क्योंकि अन्तर्मुख होना ही साधन है।

१२ जुलाई—बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धमें तुम्हारा ज्ञान चाहे जितना बड़ा हो वह पर्याप्त नहीं है। परंतु भीतरके सम्बन्धमें तुम्हारा थोड़ा-सा ज्ञान भी अत्यन्त महान् है; क्योंकि उसका बिना किसी बाह्य उपकरणके तुम अनुभव कर सकते हो।

१३ जुलाई—आकाशकी विशालता और गम्भीरताको एक बार अपने हृदयमें स्थापित करो; फिर देखो कि यह ब्रह्माण्ड, यह पृथिवी, ये घटनाएँ और विचित्रताएँ तुम्हारे लिये कितनी हलकी हैं। उस समय तुम्हारा हृदय भगवान‍्का सिंहासन हो जायगा। तुम उन्हें देख सकोगे।

१४ जुलाई—भगवान‍्की इच्छापर सर्वथा निर्भर हो जाना अथवा उनके लिये व्याकुल हो जाना—भगवत्प्राप्तिके बस दो ही उपाय हैं। तुम विचार करो—दोनोंमेंसे कौन-सा उपाय तुमने अपनाया है?

१५ जुलाई—व्याकुलताका मार्ग निरापद है, यदि सच्ची व्याकुलता हो। निर्भरताके मार्गमें कोई विघ्न नहीं है, यदि स्वार्थ-परमार्थ सबके लिये समान निर्भरता हो। तुम दोनोंकी परीक्षा करके देख लो। यदि इनमेंसे कोई भी एक तुम्हारे जीवनमें उतर रहा है तो तुम्हें कोई भय नहीं है।

१६ जुलाई—तुम्हारे चित्तमें किन-किन बातोंका भय है? धनहानि, मानहानि, विपत्ति, रोग, शोक आदिका भय तभीतक तुम्हारे चित्तमें है जबतक तुम उस एक परमात्माका भय नहीं करते। एकसे डरोगे तो सब डर छूट जायँगे। उससे निडर हो जाओगे तो भयकी परम्परा कभी टूट नहीं सकती। तुम केवल उसीसे डरो, उसीके सामने सच्चे रहो। सच्ची बात तो यह है कि तुम परमात्मासे भी डरो मत, प्रेम करो। उनसे बढ़कर प्रेमास्पद और कौन होगा?

१७ जुलाई—एक बार अपनी कामनाओं—इच्छाओंकी निगरानी करो। तुम स्वार्थ और परमार्थ, भोग और मोक्ष एक साथ चाहते हो? सम्भव है ऐसा ही हो। परंतु तुम्हारे चित्तमें जो परमार्थप्राप्तिकी उत्कट इच्छाका अभाव है वह तो तुम्हारी दुर्बलता ही है। उसे निकालनेके लिये तत्पर हो जाओ।

१८ जुलाई—भगवान‍्की कृपा, शक्ति और आश्रयसे कुछ भी असाध्य या असम्भव नहीं है। तुम उनके चिन्तन-स्मरणमें लगे रहो, निश्चय ही तुम्हें वे वस्तुएँ—वे दिव्यताएँ प्राप्त होंगी जिनके सम्बन्धमें अभी तुम कोई कल्पना ही नहीं कर सकते।

१९ जुलाई—जब तुम अपनेको अरक्षित समझते हो तभी तो भयभीत होते हो। क्या तुम्हारा कोई रक्षक नहीं है? क्या तुम्हारे सिरपर किसीका हाथ नहीं है? तब तो तुम वास्तवमें दु:खी हो। आओ, भगवान‍्के करकमलोंकी छत्र-छायामें निर्भय हो जाओ। यहाँ शान्ति और सुखका अक्षय सदावर्त्त चलता रहता है।

२० जुलाई—विश्वास करो, केवल भगवान‍्का विश्वास करो। संसारका विश्वास करोगे तो धोखा खाओगे। भगवान्-सा विश्वासपात्र जब तुम्हें सुलभ है तो क्यों दर-दर मारे-मारे फिर रहे हो?

२१ जुलाई—देखो, तुम्हारे अंदर-बाहर—चारों ओर अमृतकी, शान्तिकी धारा प्रवाहित हो रही है। उसपर आँख जमते ही तुम लोकोत्तर शीतलताका अनुभव करोगे।

२२ जुलाई—पवित्र देखो, पवित्र सुनो और पवित्र बोलो। तुम्हारा कोई भी काम अपवित्र न हो। तुम्हारा हृदय पवित्र हो जायगा। तब तुम देख सकोगे कि परमात्मा कितना पवित्र है और वह कितने पवित्र हृदयमें प्रकट होता है।

२३ जुलाई—तुम्हारी साधनाकी पूर्णता तुम्हारी सचाईमें है। प्रार्थनाके समय तो तुम कह देते हो—मैंने अपना सर्वस्व और अहंकार भी समर्पित कर दिया, परंतु क्या व्यवहारमें तुम इस बातकी स्मृति भी रख पाते हो? तुम भगवान‍्के प्रति सच्चे बनो। सब समय अपना हृदय उनके सामने खुला रहने दो।

२४ जुलाई—तुम अपना हृदय भगवान‍्के सामने रख दो। उनसे कहो—‘भगवन्! यह तुम्हारी वस्तु है। इसमें तुम्हीं रहो। इसमें केवल अपना ही प्रकाश होने दो।’ अनुभव करो—मेरा हृदय भगवान‍्के प्रकाशसे पूर्ण हो रहा है।

२५ जुलाई—भगवान् ही एकमात्र सत्य हैं और सब सत्यताएँ तो उनकी इच्छामात्र हैं—इस विचारसे अपने हृदयको भर दो और सर्वत्र, सब रूपोंमें उसी एक सत्ताका अनुभव करो।

२६ जुलाई—परमात्मा ज्ञानस्वरूप हैं। प्रत्येक वृत्तिका प्रत्येक ज्ञान परमात्माका ज्ञान है। परमात्मा जब जिस ज्ञानका रूप धारण करके आवें तब उसी रूपमें उन्हें पहचान लेना—यह साधनाकी उत्तम स्थिति है। तुम अनुभव करो—मेरे हृद्देशस्थित परमात्मा मेरी प्रत्येक वृत्ति और संकल्पके साथ प्रकट हो रहे हैं। मैं परमात्माका स्पर्श प्राप्त कर रहा हूँ।

२७ जुलाई—यह सम्पूर्ण जगत् आनन्दस्वरूप प्रभुकी लीलामात्र है। इसके प्रत्येक रूपमें उसी आनन्दकी अनन्त धारा प्रवाहित हो रही है। मैं उसी आनन्दके प्रवाहमें स्थित हूँ। मैं इस महान् आनन्दके अतिरिक्त और कुछ नहीं हूँ।

२८ जुलाई—शुद्ध हृदयसे सच्ची प्रार्थना निकलती है। प्रत्येक प्रार्थना सीधे प्रभुतक पहुँचती है। तुम प्रभुसे प्रार्थना करो, वे अवश्य पूर्ण करेंगे। तुम जिस रूपमें चाहोगे उसी रूपमें वे तुम्हारे सामने आवेंगे। प्रार्थना करो, केवल प्रार्थना करो।

२९ जुलाई—तुम भगवान‍्को माता-पिता, पुत्र-मित्र, स्वामी और पति—जिस रूपमें प्राप्त करना चाहते हो उसी रूपमें उनकी भावना करो। वे तुम्हारे सब कुछ हैं। वे तुम्हें सब रूपोंमें मिल सकते हैं।

३० जुलाई—समस्त दुर्बलताओंको त्यागकर पूर्ण उत्साहके साथ भगवान‍्की ओर बढ़ो। वे तुम्हारे मार्गके सब विघ्नोंको दूर करके तुम्हें अपने पास खींच लेंगे। जब वे देखेंगे तुम अब आगे बढ़नेमें असमर्थ हो गये हो तो वे तुम्हारे पास आ जायँगे। तुम सब परिस्थितियोंमें उनकी कृपाको ढूँढ़ निकालो और उसीका अनुभव करते रहो।

३१ जुलाई—भगवान‍्के साथ जागो और उन्हींके साथ सोओ। उन्हींके साथ चलो और उन्हींके साथ बैठो। तुम्हारे जीवनकी प्रत्येक क्रिया, तुम्हारा प्रत्येक संकल्प भगवान‍्के साथ ही हो। इस मधुरतम भावनासे—जो कि परम सत्य है—तुम्हारा जीवन सत्य, ज्ञान और आनन्दका भण्डार बन जायगा। तुम सर्वदाके लिये परमात्माको प्राप्त कर लोगे।

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