Hindu text bookगीता गंगा
होम > दैनिक कल्याण सूत्र > जून

जून

१ जून—तुम जितना जानते हो उसका शतांश भी अपने जीवनमें उतार लो तो तुम्हें और कुछ जाननेकी आवश्यकता ही न रहे। तुमने अबतक जिसको सर्वश्रेष्ठ जाना है उसको अपने जीवनमें ले आओ। तुम्हारे ज्ञानका अजीर्ण कहीं तुम्हारे जीवनको विशृंखल और उद्विग्न न कर दे।

२ जून—तुम जिस विषयपर विचार करो, अपने जीवनकी दृष्टिसे करो। एक क्षणमें ही तुम्हें पता चल जायगा कि वह तुम्हारे जीवनको ऊपर उठाता है या नीचे गिराता है। तर्क और युक्तियोंके जालमें उलझ जाओगे तो तुम्हारा जीवन आश्रयहीन हो जायगा।

३ जून—विचार करो—तुम्हारे चित्तमें जो अशान्ति या असंतोष है, वह किस अभावके कारण है? क्या तुम अनेक प्रकारके अभावोंसे घिरे हुए हो? वह कौन-सी वस्तु है जिसके प्राप्त होनेपर तुम्हारे सारे अभाव पूर्ण हो जायँगे? निश्चय ही ऐसी वस्तु एकमात्र परमात्मा है। जबतक वे नहीं मिलेंगे तबतक इस जीवनके अभावोंसे छुटकारा कहाँ?

४ जून—तुम्हारे चित्तमें जो विषय-प्राप्तिकी इच्छा जाग रही है उसकी पूर्ति जीवनके लिये कितनी आवश्यक है? क्या उसके बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता? कम-से-कम इच्छा करो। हो सके तो उसका नाश कर दो। जब तुम्हारी आवश्यकताओंको तुमसे अधिक जाननेवाला और उनको पूर्ण करनेवाला विद्यमान है तब तुम क्यों इच्छा करते हो? उसपर विश्वास करो। तनिक सोचो तो उसको तुम्हारे हितका कितना ज्ञान और ध्यान है!

५ जून—देखो तुम्हारे पास अनावश्यक वस्तुएँ कितनी हैं। उनके बिना यदि संसारके बहुत-से प्राणी दुखी हैं तो तुम्हें क्या अधिकार है कि तुम उन्हें अपने पास रखकर सड़ाओ? उचित तो यह है कि तुम अपनी आवश्यकताका विचार किये बिना ही दूसरोंकी आवश्यकता पूरी कर दो।

६ जून—क्या आज तुमने किसीकी कुछ सेवा की है? यदि नहीं तो आजका दिन तुमने खो दिया। यदि किसीकी कुछ सेवा की है तो सावधान रहो, मनमें कहीं अहंकार न आ जाय! इस विशाल विश्वमें तुम्हारा कर्तृत्व कितना छोटा है। यदि इससे अधिक सेवा कर पाते तो क्या ही उत्तम होता!

७ जून—उस समय तुम्हारी परीक्षा होती है जब दूसरा कोई तुम्हारे साथ कटु व्यवहार करता है। कम-से-कम वैसा व्यवहार तो तुम्हें किसी औरके साथ नहीं करना चाहिये।

८ जून—क्या ही अच्छा होता कि तुम जैसा बनना चाहते हो वैसा बन जाते! परंतु वैसा न बननेका कारण क्या है? तुम्हारी दुर्बलता। शरीर चाहे वहाँतक न जा सके, मनसे जानेमें तो कोई अड़चन है ही नहीं। तुम जहाँ पहुँचना चाहते हो मनसे वहीं जाकर बैठो! तुम देखोगे कि तुम्हारा शरीर और उसकी परिस्थितियाँ तुम्हारी सहायता कर रही हैं और तुम अपने प्रियतम प्रभुके पास हो।

९ जून—आशा पूर्ण होगी भगवान् से। निराशा पहुँचायेगी भगवान‍्तक। दोनोंके बीचमें लटको मत। दोनों ही मार्ग हैं। किसी एकको पकड़कर चल पड़ो। परमात्माकी ओर चलना, चलते रहना ही शुद्ध जीवन है। प्रेमीको विश्राम कहाँ?

१० जून—यह तो तुम जानते ही हो कि तुम्हारी प्रत्येक क्रिया भेंटके रूपमें स्वीकार की जा सकती है, की जाती है। फिर वैसा करके तुम अपने प्राणोंको तृप्त क्यों नहीं कर लेते? अनुभव करो— जो कुछ तुम कर रहे हो, सब प्रभुके श्रीचरणोंमें भेंट है और वे बड़ी प्रसन्नतासे उसे स्वीकार कर रहे हैं।

११ जून—तुम्हारे अन्त:करणमें जितनी पवित्रता होगी उतना ही अधिक तुम शान्ति और आनन्दका अनुभव कर सकोगे। भगवान‍्की कृपाका आश्रय लेकर सब पाप-ताप धो डालो और परमानन्दका अनुभव करो।

१२ जून—केवल भावका ही तो परिवर्तन करना है। जिसे जड जगत‍्के रूपमें देखते हो उसे भगवद्रूप देखो। यह लीला है— लीला! इसे सत्य मानकर कार्य-कारण-विवेक मत करो। इस चिन्मयी लीलाकी असलियत जान लो, फिर कहीं कभी शोक-मोह तुम्हारा स्पर्श नहीं करेंगे।

१३ जून—तुम्हारे अन्तस्तलमें एक दिव्य ज्योति रात-दिन जगमगाती रहती है। उसे कामनाके परदेसे ढको मत। बल्कि उसे और भी प्रज्वलित करके सब कामनाओंको उसीमें भस्म कर दो। तुम्हारा यह हवन कितना पवित्र होगा!

१४ जून—तुम जो कुछ कर रहे हो, जो कुछ बोल रहे हो और जो कुछ सोच रहे हो सब भगवान‍्के सामने। तब तुम्हें कितना सावधान रहना चाहिये!

१५ जून—यदि इसी समय भगवान् तुम्हारे पास आ जायँ जो कि उनकी दयालुताको देखते हुए बहुत सम्भव है, तो तुम उन्हें कहाँ बैठाओगे? क्या तुमने बाहर या भीतर कहीं भी उनके बैठनेयोग्य स्थान तैयार रखा है? अबसे अपने हृदयका कमरा उनके लिये साफ कर लो।

१६ जून—भगवान् आनन्दमय हैं, जगत् आनन्दमय है, तुम आनन्दमय हो। परंतु यह आनन्द कहाँ छिपा है? यह तुम्हारे अनुभवमें क्यों नहीं आता? इसे ढूँढ़ निकालो और इस सत्यका साक्षात्कार करके आनन्दमय हो जाओ।

१७ जून—कभी तुम्हारे मनमें यह अहंकार तो नहीं आता कि तुम प्रेमी या ज्ञानी हो? यदि ऐसा है तो अभी तुम्हें प्रेम या ज्ञानकी अनुभूति नहीं प्राप्त हुई। प्रतिक्षण बढ़नेवाले प्रेमको कहीं भी पूर्ण मान लेना, उतनेसे ही तृप्त हो रहना प्रेम नहीं प्रेमाभास है। अपने ज्ञानको जानना ही सच्चा ज्ञान है। तुम सच्चे अर्थमें प्रेमी और ज्ञानी हो न?

१८ जून—अपने हृदयमें अनुसंधान करो—मैं जिस समय कर्तव्यका उल्लंघन करता हूँ या उपेक्षा कर देता हूँ, क्या उस समय उस कर्तव्यकी अपेक्षा श्रेष्ठ कर्ममें लगा रहता हूँ? यदि शरीर-सुख अथवा स्वार्थके लिये मैं अपने कर्तव्यकी अवहेलना करता हूँ तो मैं तमोगुणी हो रहा हूँ। सुखी होनेका साधन है—सात्त्विकता, सदाचार और तत्परता। निश्चय करो, अब कभी भी मैं प्रमाद नहीं करूँगा।

१९ जून—जिस समय भगवान् हमारी इच्छाके विपरीत कुछ करते हैं, उस समय उनका वात्सल्य-स्नेह अत्यधिक प्रकाशमें आता है। क्योंकि वे अपनी मनचाही करके हमारी इच्छाओंको अपनी इच्छाके अनुसार रखना चाहते हैं, यह उनकी कितनी कृपा है। इससे उनकी परम आत्मीयताका पता तो चलता ही रहता है।

२० जून—इस विशाल विश्वमें तुम कितने नन्हें-से शिशु हो, इसपर विचार करो। क्या तुम्हारी बुद्धि—छोटी-छोटी चीजोंके लिये मचल पड़नेवाली बुद्धि—तुम्हारे सम्पूर्ण जीवनका हिताहित सोच सकती है? यदि नहीं तो परमात्माके अनन्त ज्ञान, शक्ति और कृपापर क्यों नहीं निर्भर हो जाते?

२१ जून—विश्वास करना ही पड़ता है—अपनी बुद्धिपर करो चाहे परायीपर। क्या तुमसे अधिक बुद्धिमान् और तुम्हारा हितैषी दूसरा कोई नहीं है? फिर तो तुम्हारी रक्षाका कोई उपाय ही नहीं है। महापुरुषोंपर, शास्त्रोंपर विश्वास करो। सबसे उत्तम तो यह है कि भगवान् पर विश्वास करो।

२२ जून—विश्वास करनेके लिये आत्मबलकी आवश्यकता है। दुर्बल हृदय किसीपर विश्वास नहीं कर सकता। चरित्रभ्रष्ट पुरुष जितना जल्दी प्रभावित होता है उतना ही जल्दी अविश्वास भी करता है। क्या तुम किसीपर विश्वास करते हो कि ये गला भी काट दें तो हमारा हित ही करते हैं? परमात्मापर ऐसा ही विश्वास करो।

२३ जून—जिसपर तुम विश्वास करते हो वह तुम्हारा क्या बिगाड़ सकता है? अधिक-से-अधिक सांसारिक सुख-सम्पत्ति। क्या इसके त्यागके लिये तुम प्रस्तुत नहीं हो? यदि इसके बदले तुम्हारे अन्त:करणको अतुलनीय आत्मबल, श्रद्धा, सहिष्णुता अनासक्ति और समता प्राप्त होती है तो तुच्छ वस्तुओंकी हानिमें क्या रखा है? जहाँ तुम सन्देह करते हो, डरते हो, तुम्हारी ही कमजोरी है!

२४ जून—तुम निर्भय रहो; क्योंकि यदि तुम परमात्माके प्रति हृदयसे सच्चे रहे तो तुम्हारी हानि कभी हो ही नहीं सकती। जिसे संसारी लोग हानि समझते हैं वह तो साधकके लिये परम लाभ है। तुम केवल अपने हृदयको शुद्ध रखो। उसमें संदेह और भयको मत आने दो। भगवान् तुम्हारे चारों ओर और हृदयमें रहकर तुम्हारी रक्षा कर रहे हैं।

२५ जून—तुम्हारे मनमें किसीपर क्रोध आता है तो सबसे पहले अपनेपर क्रोध करो; क्योंकि अपने मनमें क्रोधको आश्रय देकर तुमने उस स्थानको भ्रष्ट किया है, जिसमें केवल प्रेमका निवास होना चाहिये।

२६ जून—क्या यह सत्य नहीं है कि तुम अपनी उस अमूल्य निधिकी बहुत कम सँभाल करते हो जिसके लिये यह संसार और जीवन है। जड़को काटकर शाखाको सींचना कहाँकी बुद्धिमानी है? तुम उसीको, केवल परमात्माको सँभालते रहो।

२७ जून—अनुभव करो—तुम्हारे हृदयके सिंहासनपर परमात्मा विराजमान हैं। तुम्हारे प्रत्येक संकल्प और क्रियाको वे देख रहे हैं वे तुमसे खेल रहे हैं। तुम्हारे खेलसे वे प्रसन्न हो रहे हैं। तुम कितने भाग्यवान् हो कि परमात्माके खेलके साधन बनकर उन्हें प्रसन्न कर रहे हो।

२८ जून—निश्चय करो, अब मैं कभी ऐसी चेष्टा या संकल्प नहीं करूँगा जो परमात्माके संकल्पसे होनेवाली किसी भी क्रिया—घटनामें असंतोष प्रकट करता हो। मैं उनके प्रत्येक विधानका हृदयसे स्वागत करूँगा।

२९ जून—विचार करो—मेरे चित्तमें अपने शरीर और उसके सम्बन्धियोंके लिये जो कामनाएँ हैं वही प्रत्येक स्थितिमें समता अथवा भगवत्कृपाका अनुभव नहीं होने देतीं। मैं समस्त कामनाओंका नाश करके उसका अनुभव करूँगा। मेरा चित्त निष्काम और शान्त हो रहा है। मैं समता और कृपाका अनुभव कर रहा हूँ।

३० जून—अनुभव करो, इस भावनामें डूब जाओ कि सर्वत्र भगवान्-ही-भगवान् हैं—जो कुछ मैं देख-सुन या सोच रहा हूँ, सबमें परमानन्दस्वरूप परमात्मा विद्यमान हैं। सबका रूप धारण करके नाना नामोंसे वही लीला कर रहे हैं। मेरा मन इस सत्यको पहचानकर मुग्ध हो रहा है, मस्त हो रहा है। मस्त हो जाओ।

अगला लेख  > जुलाई