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मार्च

१ मार्च—भगवान‍्से कुछ भी न माँगो। यदि माँगो तो यही माँगो कि ‘तुम्हारे चरणोंमें अविचल भक्ति हो और तुम्हारे भक्तोंका संग मिलता रहे।’ भगवान् शंकरकी निम्नलिखित प्रार्थनापर ध्यान दो—

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥

२ मार्च—यदि तुम गृहस्थ हो, बाल-बच्चेवाले हो तो तुम्हें घर छोड़नेकी आवश्यकता नहीं; घरहीमें रहकर भगवान‍्का दृढ़ विश्वासके साथ नियमपूर्वक भजन करते रहो। भगवान‍्को सब जगह सब रूपोंमें देखो और उन्हें सबका हितू जानकर उनसे प्रेम करो। श्रीरामने अपने सखा वानरोंको यही आज्ञा दी थी—

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥

३ मार्च—यदि भगवान‍्के प्यारे बनना चाहते हो तो निन्दा और स्तुतिको समान समझो—निन्दासे रुष्ट मत होओ और स्तुतिसे फूलो मत—और भगवान‍्के चरणोंको अपनी एकमात्र सम्पत्ति जानो। ऐसा करनेसे समस्त गुण अपने-आप तुम्हारे अंदर आ बसेंगे और तुम आनन्दरूप बन जाओगे। भगवान‍्की घोषणा है—

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥

४ मार्च—भगवान‍्की माया अतिशय प्रबल है। वह ब्रह्मा, शिव आदिको भी मोहमें डाल देती है; फिर औरोंकी तो बात ही क्या है; इसलिये मायाके चक्‍करसे छूटना चाहते हो तो मायाके स्वामी भगवान‍्की शरण ग्रहण करो।

सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि मायापति भगवान॥

५ मार्च—भगवान‍्को भक्त सबसे अधिक प्रिय होते हैं। अत: मन, वाणी, शरीरसे उन्हींके चरणोंमें दृढ़ अनुराग करो। भगवान् श्रीरामने भक्तवर काकभुशुण्डिको यही उपदेश दिया—

मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥

६ मार्च—भगवान‍्की भक्तिमें सबका समान अधिकार है। जो कोई भी कपट छोड़कर सर्वभावसे उन्हें भजता है, वही भगवान‍्का प्यारा बन जाता है। अत: तुम सब प्रकारसे भगवान‍्के शरण हो जाओ। भगवान् स्वयं कहते हैं—

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्बभाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥

७ मार्च—जिससे तुम्हारा परम हितसाधन होता हो वह चाहे लोकदृष्टिमें अत्यन्त नीचा ही क्यों न हो, उससे छल छोड़कर प्रेम करो। वेदोंकी यही आज्ञा है, और संतोंका भी यही मत है। स्वयं काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीसे कहा है—

पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥

८ मार्च—याद रखो—सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति क्रमश: पूजा, यज्ञ और योगसे प्राप्त होती है, वही कलियुगमें भगवान‍्के नामसे प्राप्त होती है। अत: इस युगमें नामका आश्रय ही परम कल्याणकारक है।

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥

९ मार्च—विश्वास करो, कलियुगके समान कोई दूसरा युग नहीं है। इसमें केवल भगवान‍्के गुणोंका गान करनेसे ही मनुष्य अनायास भवसागरसे तर जाता है।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

१० मार्च—भगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उनका सेवक हूँ, इस प्रकारके स्वामी-सेवकभाव बिना संसारसागरके पार जाना अत्यन्त कठिन है। अत: भगवान‍्को स्वामी मानकर उनके चरणोंका भजन करो। काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीके प्रति यह सिद्धान्तवाक्य कहा है—

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धान्त बिचारि॥

११ मार्च—यदि भगवान‍्के चरणोंमें प्रेम करना चाहते हो अथवा जन्म-मरणके चक्‍करसे छूटना चाहते हो तो उनके दिव्य चरित्रोंका आदरपूर्वक श्रवण करो। इसीसे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा।

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥

१२ मार्च—भगवान‍्से प्रार्थना करो कि जिस प्रकार कामी पुरुषको कामिनी प्यारी होती है और लोभीको धन प्यारा लगता है, उसी प्रकार वे तुम्हें निरन्तर प्यारे लगें। गुसाईंजी महाराजकी निम्नलिखित प्रार्थनाको याद रखो—

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

१३ मार्च—यदि तुम सदाके लिये कृतकृत्य होना चाहते हो, सब प्रकारके क्लेशोंसे मुक्त होना चाहते हो तो श्रीभगवान‍्के चरणोंमें प्रेम करो और यह उनकी कृपा अथवा उनके भक्तोंकी कृपासे ही सम्भव है। देवी पार्वतीके निम्नलिखित वचनोंको याद रखो—

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस॥

१४ मार्च—उस कुलको महान्, श्रेष्ठ, जगत्पूज्य एवं परम पवित्र समझो, जिसमें भगवान‍्का भक्त उत्पन्न हुआ हो। भगवान् शंकर स्वयं श्रीपार्वतीजीसे कहते हैं—

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥

१५ मार्च—याद रखो—सत्पुरुषोंके संगके समान संसारमें और कोई लाभ नहीं है; तथा ऐसे पुरुषोंका संग भगवान‍्की कृपासे ही प्राप्त होता है और किसी उपायसे नहीं। वेद, पुराण सभी इस बातको एक स्वरसे कहते हैं और स्वयं शंकरजी इसकी साक्षी देते हैं—

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरिकृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥

१६ मार्च—भगवान‍्का नाम आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—तीनों प्रकारके तापोंका नाश करनेके लिये तथा आवागमनरूपी रोगको जड़से मिटानेके लिये एकमात्र अचूक औषध है। यदि संतोंसे कुछ माँगो तो यही माँगो कि ‘जिनके नाममें ऐसी शक्ति है, वे दयालु भगवान् हमपर सदा प्रसन्न रहें।’ काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीको यही आशीर्वाद दिया है—

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल॥

१७ मार्च—भगवान‍्के स्वरूपकी भाँति भगवान‍्के चरित्र भी अनन्त हैं, उनकी कोई थाह लगाना चाहे तो नहीं लगा सकता। इसलिये ऐसा न समझो कि भगवान‍्के जिन चरित्रोंका वर्णन शास्त्रोंमें मिलता है, उतने ही चरित्र उनके हैं। स्वयं काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीसे कहा है—

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ॥

१८ मार्च—चाहे मनुष्य कितना ही दीन-हीन क्यों न हो, जिसे सत्पुरुषोंका संग मिल गया उसे धन्य हो गया समझो; उसे भगवान‍्का विशेष कृपापात्र—उनका निजजन जानो। भगवान् जिसे निजजन मानते हैं, अथवा निजजनके रूपमें स्वीकार करना चाहते हैं, उसीको सत्पुरुषोंका—अपने भक्तोंका संग देते हैं। स्वयं गरुड़जीने काकभुशुण्डिसे अपने सम्बन्धमें ऐसी बात कही है—

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन॥

१९ मार्च—यह संसाररूपी समुद्र दुस्तर है, अपने बलसे इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। इसलिये अनायास ही इससे तरना चाहते हो तो भगवान‍्का भजन करो, उनके चरणरूपी नौकाको दृढ़तापूर्वक पकड़ लो, फिर निश्चय समझो अवश्य ही तुम इसे लाँघ जाओगे; इसमें तनिक भी संदेह न करो। संतशिरोमणि काकभुशुण्डिजीने डंकेकी चोट इस बातकी घोषणा की है—

विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥

२० मार्च—भगवान् सब कुछ कर सकते हैं; वे छोटे-से-छोटे जीवको ब्रह्मा बना सकते हैं, ऊँचे-से-ऊँचा पद दे सकते हैं और महान‍्से भी महान् पुरुषको अत्यन्त छोटा बना सकते हैं। वे ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ समर्थ हैं। इसलिये चाहे तुम कितने ही दीन-हीन क्यों न होओ, अपने उद्धारके विषयमें किसी प्रकारकी शंका न करो और संदेहरहित होकर भगवान‍्का भजन करो।

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥

२१ मार्च—नारीमात्रको साक्षात् भगवान् विष्णुकी माया समझकर प्रणाम करो। उन्हें भोग्या समझनेपर बड़े-बड़े विवेकी एवं त्यागी पुरुष भी उनके रूप-जालमें फँसकर अपना आपा खो बैठते हैं, विवेक-वैराग्यको भूल जाते हैं। स्वयं काकभुशुण्डिजी गरुड़जीसे कहते हैं—

सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥

२२ मार्च—हमारा दूसरोंसे वैर-विरोध तभीतक रहता है जबतक हमारी भगवान‍्के चरणोंमें प्रीति नहीं हो जाती। भगवान‍्के चरणोंमें प्रीति हो जानेपर काम, क्रोध और अभिमान नष्ट हो जाते हैं और वैर-विरोध इन्हीं तीन कारणोंको लेकर होता है। फिर तो सारा संसार हमारे लिये प्रभुमय हो जाता है, वैर करें तो कैसे और किससे? भगवान् शंकर देवी पार्वतीसे कहते हैं—

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥

२३ मार्च—जिस प्रकार वैराग्य तथा गुरुके उपदेश बिना ज्ञान नहीं हो सकता, उसी प्रकार भगवद्भक्तिके बिना सुख नहीं मिल सकता—यह निश्चय समझो। वेद, पुराण सभी एक स्वरसे इस बातको स्वीकार करते हैं।

बिनु गुरु होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरिभगति बिनु॥

२४ मार्च—भगवान‍्की दिव्य लीलाओंमें जो सुख है, उसके सामने ब्रह्मानन्द भी अत्यन्त फीका है। जिन भाग्यवान् जनोंको इस सुखका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, उनकी तो बात ही क्या, जिन्हें एक बार स्वप्नमें भी उस सुखका तनिक भी आस्वाद मिल गया, वे भी ब्रह्मसुखको उस सुखके सामने हेय समझते हैं। स्वयं काकभुशुण्डिजी गरुड़जीसे कहते हैं—

सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥

२५ मार्च—मायाको भगवान‍्की चेरी जानो। यद्यपि ज्ञान हो जानेपर इसकी सत्ता नहीं रह जाती, किंतु भगवान‍्की कृपा हुए बिना इससे छुटकारा पाना भी असम्भव है। काकभुशुण्डि गरुड़जीसे निश्चय-पूर्वक इस बातको कहते हैं—

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न रामकृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥

२६ मार्च—भक्तलोग भगवान‍्के प्रेमको छोड़कर मुक्ति भी नहीं चाहते। वे भगवान‍्से यही माँगते हैं कि ‘चाहे हमें बार-बार जन्म लेना पड़े, किंतु तुम्हारे चरणोंमें प्रेम कभी न घटे।’ तुम भी भगवान‍्से यही माँगो। मुनि वसिष्ठजीके निम्नलिखित शब्दोंको याद रखो—

नाथ एक बर मागउँ रामकृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥

२७ मार्च—धर्म वही है जो हमें भगवान‍्के समीप पहुँचा दे। योग, यज्ञ, व्रत, दान आदि जितने भी साधन हैं, वे सभी भगवान‍्की प्राप्तिके लिये हैं। नीचा-से-नीचा कर्म भी यदि हमें भगवान‍्की प्राप्ति करानेमें सहायक होता है, तो वह हमारे लिये सबसे बड़ा धर्म हो जाता है। मुनि वसिष्ठजी इस विषयमें प्रमाण हैं। उनके सम्बन्धमें गुसाईंजी कहते हैं—

तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥

२८ मार्च—जो भाग्यवान् जन ममता, मद और मोहको त्यागकर श्रीभगवान‍्के नाम-गुणगानमें सदा रत रहते हैं, उनके आनन्दका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे वही जानते हैं, जो उसका अनुभव करते हैं। भगवान् श्रीराम स्वयं अपने श्रीमुखसे इस बातको स्वीकार करते हैं—

मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥

२९ मार्च—यदि भगवान‍्की भक्ति प्राप्त करना चाहते हो तो उनके भक्तोंकी आराधना करो। भक्तोंकी आराधना किये बिना भगवान‍्की भक्ति मिलनी बड़ी कठिन है। भगवान् श्रीराम स्वयं कहते हैं कि शंकरजीके भजन बिना मेरी भक्ति नहीं प्राप्त हो सकती—

औरउ एक गुपुत मत सबहिं कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

३० मार्च—भगवान‍्के चरित्र इतने हृदयहारी और दिव्य हैं कि बड़े-बड़े जीवन्मुक्त ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी समाधि-सुखको त्यागकर उन चरित्रोंको सुननेके लिये लालायित रहते हैं। ऐसे सुमधुर चरित्रोंको सुननेमें जिनकी प्रीति नहीं है, वे लोग वास्तवमें हृदयहीन हैं।

जीवन्मुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरिकथाँ न करहिं रति तिन के हिय पाषान॥

३१ मार्च—गुण और दोष दोनों ही मायाके कार्य हैं। इसलिये दोनोंकी ओरसे दृष्टि हटाकर केवल भगवान‍्को देखो। यही सबसे बड़ा विवेक है। गुणदृष्टि और दोषदृष्टि दोनों ही अविवेकके अन्तर्गत हैं क्योंकि दोनों ही राग-द्वेषमूलक होती हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं—

सुनहु तात मायाकृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥

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